Thursday, December 18, 2008

टीम इंडिया के ड्रेसिंग रुम में छिपा है जीत का फलसफा


मैं कुछ देर के लिए अब से 13 साल पहले लौटना चाहता हूं- जमैका के सबीना पार्क की ओर। टेलीविजन के पर्दे से ज़ेहन में ठहर गई तस्वीरों की ओर। कुछ देर के लिए वक्त को अपनी मुठ्ठी में भींच कर खड़ी तस्वीरें। ऑस्ट्रेलिया की वेस्टइंडीज पर जीत के बाद ड्रेसिंग रुम में जश्न में डूबे मार्क टेलर और उनके साथियों के चेहरे पर तैरती एक असीम खुशी 13 साल बाद भी सिर्फ कल ही की बात लगती है। उस वक्त पहली बार मैंने देखा था टेलीविजन के पर्दे पर खिलाड़ियों के ड्रेसिंग रुम को पहुंचते हुए। 22 साल बाद वेस्टइंडीज को उसी के घर में शिकस्त देने के ऐतिहासिक लम्हों की जीवंतता से रुबरु कराते हुए।

13 साल बाद खुशी से सराबोर ऐसे ही लम्हों को चेन्नई के चेन्नास्वामी स्टेडियम पर धोनी और उसके साथी जी रहे थे। फर्क सिर्फ इतना था कि कैमरा इस तरह उन तक नहीं पहुंचा था। लेकिन, सचिन तेंदुलकर से लेकर वीरेन्द्र सहवाग तक, युवराज सिंह से लेकर अमित मिश्रा तक और हरभजन सिंह से लेकर प्रज्ञान ओझा और बद्रीनाथ तक, धोनी की टीम का हर एक सदस्य इंग्लैंड पर मिली ऐतिहासिक जीत के जश्न को विराम नहीं देना चाहता था।

लेकिन, आप सोच रहे होंगे कि मैं इन 13 साल को क्यों एक-दूसरे से जोड़ कर देखना चाह रहा हूं। मैं सबीना पार्क पर ड्रेसिंग रुम तक पहुंचे टेलीविजन कैमरे के जरिए मार्क टेलर और उनके साथियों के चेहरे से बहती खुशी के बीच ऑस्ट्रेलियाई टीम के जीत के सूत्र तलाशने की कोशिश कर रहा था। इधर चेन्नई में भी भारतीय ड्रेसिंग रुम में धोनी के इस विजयी टीम के समीकरण उभार ले रहे थे।

दरअसल, चेन्नई में इंग्लैंड के एक नामुमकिन से लक्ष्य तक पहुंचाने में वीरेन्द्र सहवाग से लेकर सचिन तेंदुलकर और युवराज सिंह तक की बेजोड़ पारियां अहम थीं। मैच के बाद हर कोई इन जैसे व्यक्तिगत प्रदर्शनों के आसपास भारतीय जीत के गुत्थी को सुलझाने की कोशिश में जुटा है। लेकिन, जीत के जश्न की गूंज में वीरेन्द्र सहवाग और सचिन तेंदुलकर का एक अहम बयान कहीं खो गया। इन दोनों का कहना था कि इस वक्त भारतीय ड्रेसिंग रुम का माहौल इस कदर बेहतरीन है, जैसा पहले कभी नहीं रहा।

दरअसल, इन्हीं बयानों में भारतीय टीम की सोच का फलसफा छिपा है। गौर कीजिए- ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ सीरिज जीत के बाद भारतीय कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी का कहना था कि टीम की असली ताकत इसी में है कि टीम का हर सदस्य एक दूसरे की कामयाबी में खुशी ढूंढ ले। ठीक इसी सूत्र को पकड़ धोनी की ये टीम भारतीय क्रिकेट में नयी इबारतें लिखने की ओर बढ़ रही है। राहुल द्रविड़ अपने करियर के सबसे खराब दौर से गुजर रहे हैं। उनके टीम में बने रहने पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। लेकिन, आप सचिन तेंदुलकर के बयान पर गौर कीजिए। वो कहते हैं "राहुल सिर्फ एक अच्‍छा बल्लेबाज नहीं, एक महान बल्लेबाज है।" साफ है कि अपनी निजी और टीम की कामयाबी के बीच हाशिए पर छूट रहे अपने कल के साथी को कोई इस कदर हौंसला दे रहा है। उसे एक बार उसके बेहतर दिनों की ओर लौटा ले जाने के लिए।

दूसरी ओर सिर्फ अपना चौथा टेस्ट खेल रहे अमित मिश्रा के लिए हरभजन सिंह की सोच को देखिए। उनका कहना था, कुंबले जैसे शख्सियत की जगह को भरना आसान नहीं है, लेकिन अमित मिश्रा भी बहुत अच्छा गेंदबाज है, और हम सब उसकी मदद करना चाहते हैं। उसके पास गेंदबाजी का हरसंभव वेरिएशन है। यानी तेंदुलकर से लेकर हरभजन तक, हर खिलाड़ी अपने से पहले अपने साथी के लिए, अपनी टीम के लिए खड़ा दिखाई दे रहा है। यही टीम इंडिया की असली ताकत है, जिसकी पहली झलक ड्रेसिंग रुम में ही दिखाई दे जाती है।

ये इस ड्रेसिंग रुम की ही ताकत है, जो अनिल कुंबले की अचानक विदाई को भारतीय क्रिकेट के एक बेमिसाल लम्हे में तब्दील कर देती है। ये इसी ड्रेसिंग रुम से उभार लेती सोच है, जो भारतीय क्रिकेट इतिहास के सबसे बड़े कप्तान सौरव गांगुली को एक यादगार विदाई देती है। ये भी ड्रेसिंग रुम में एक-दूसरे से जुड़े गहरे तार हैं, जो आरपी सिंह को टीम से बाहर करते ही कप्तान धोनी के कथित तौर पर इस्तीफे की पेशकश की शक्ल में सामने आते हैं।

इसी ड्रेसिंग रुम में कोच गैरी कर्स्टन खड़े हैं। वीरेन्द्र सहवाग की नजर में 'मैन टू मैन' मैनजमेंट में वो जॉन राइट को पीछे छोड़ते हैं। इशांत शर्मा के मुताबिक, जब भी आपका खेल उम्मीदों से नीचे गिरता है तो सबसे पहले आपके करीब खड़े होते हैं कोच कर्स्टन। टीम को एक यूनिट में तब्दील करते दक्षिण अफ्रीका के पूर्व सलामी बल्लेबाज। यहीं आप याद कीजिए ग्रेग चैपल को। भारतीय टीम को वर्ल्ड चैंपियन बनाने की हुंकार के बीच ज़िम्मेदारी संभालने वाले ग्रेग के दौर में भारतीय टीम जितना जीती, उससे ज्यादा दरारें भी सामने आती गईं।

धोनी की इस टीम इंडिया में बेशक सचिन तेंदुलकर, वीरेन्द्र सहवाग, राहुल द्रविड़, वीवीएस लक्ष्मण से लेकर हरभजन सिंह, जहीर खान और युवराज सिंह जैसे सीनियर खिलाड़ी मौजूद हैं, लेकिन धोनी की अगुआई में जब ये मैदान पर कदम रखते हैं तो सब सिर्फ एक खिलाड़ी में तब्दील हो जाते हैं। वो खिलाड़ी, जो जीत के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार हों। इसलिए, धोनी भारतीय क्रिकेट में बाकी कप्तानों से अलग पायदान पर खड़े दिखाई दे रहे हैं। न सिर्फ नतीजों में, बल्कि अपनी सोच के साथ भी। यही टीम इंडिया की जीत का सबसे बड़ा सूत्र भी है।

दिलचस्प है कि 13 साल पहले ही ऑस्ट्रेलिया के शिखर पर पहुंचने की शुरुआत सबीना पार्क पर मिली उस जीत से हुई थी। 13 साल बाद चेन्नई के चेपक पर मिली इस जीत में वैसे ही शिखर की ओर बढ़ते कदमों की आहट सुनाई दे रही है।

Tuesday, December 16, 2008

आखिर क्यों न जीना चाहें इस बेखौफ सहवाग को गावस्कर !

वो सचिन तेंदुलकर के टेस्ट क्रिकेट में बल्लेबाजी के शिखर पर काबिज होने का लम्हा था। इस मौके पर सचिन टेलीविजन चैनल पर सुनील गावस्कर के साथ बैठे थे। एंकर राजदीप सरदेसाई ने इन दोनों लेजेंड की उपलब्धियों से गुजरते हुए बातचीत को कुछ अधूरे छूट गए ख्वाब की ओर मोड़ दिया था। उन्होंने गावस्कर से जानना चाहा कि अगर आज भी आपको मौका मिले तो किसकी तरह बल्लेबाजी करना चाहेंगे। टेस्ट क्रिकेट में करीब करीब हर मुमकिन शिखर तक जा पहुंचे गावस्कर का जवाब था- वीरेन्द्र सहवाग। क्यों ? गावस्कर का जवाब था- ही इज फियरलैस। भय से कोसो दूर खड़े होकर वो बल्लेबाजी करते हैं। गावस्कर की नजर में उनकी ये एप्रोच बेमिसाल है।

वीरेन्द्र सहवाग ने बेखौफ अंदाज में बल्लेबाजी करते हुए ढेरो पारियां खेली हैं, और अपनी शख्सित को भी इस एक शब्द के साथ जोड़ दिया है। लेकिन, गावस्कर के मुंह से निकले इन शब्दों के बाद मैं बराबर इस बेखौफ सहवाग से फिर रुबरु होना चाहता था। चेन्नई के चेपक पर अपने स्ट्रोक्स की गूंज के बीच अपनी शख्सियत को परवान चढ़ाते हमारे सामने थे सहवाग। कुछ इस अंदाज में कि चेपक से मेरे जेहन में जुड़ी दिलीप मेंडिस और सचिन तेंदुलकर की बेजोड़ पारियां भी पृष्ठभूमि में छूट गईं।

रविवार की ढलती दोपहर में सहवाग जब विकेट पर पहुंचे तो इंग्लैंड का जीत के लिए दिया 387 रन का लक्ष्य सामने था। एक ऐसा स्कोर, जो इतिहास के पन्नों के बीच चौथी पारी में रनों का पीछा करने के हौसले को तार-तार कर देता है। भारत में अब तक वेस्टइंडीज ही सबसे ज्यादा 275 रनों तक पहुंच सका है। फिर, इस 387 रनों के पहाड़ के बीच चेपक की टूटती और घूमती विकेट भी मौजूद थी। गेंद के टप्पा खाने के बाद उछलती धूल में आप इसे महसूस कर सकते थे। फिर, ये वो भारतीय टीम थी, जहां सहवाग के पीछे तीसरे नंबर पर राहुल द्रविड़ मौजूद तो थे, लेकिन वो राहुल द्रविड, जो अपने सुनहरे करियर के सबसे बुरे दौर से गुजर रहे हैं। भारत के लिए कितनी ही जीत के धुरी रहे द्रविड़ रनों से ज्यादा अब अपने कहीं बहुत पीछे छूट चुके आत्मविश्वास को तलाशने में जुटे हैं। इन सब सवालों और आशंकाओं से पहले खुद सहवाग भी चौथी पारी में बहुत कामयाब नहीं रहे हैं। वो चौथी पारी में अपनी करियर औसत 52 रन से कहीं बहुत पीछे महज 30 का औसत ही बना पाए हैं। इस दौरान भी वो सिर्फ तीन बार ही पचास रन से आगे जा सके थे।

लेकिन, सहवाग ने पहली ही गेंद से इन सब आशंकाओं और खौफ को हाशिए पर ढकेल दिया। उनकी बेमिसाल टाइमिंग के सामने हार्मिंसन की तेजी से लेकर मोंटी पनेसर की स्पिन तक, कोई भी गेंद असर नहीं छोड़ रही थी। कप्तान पीटरसन की फील्ड प्लैसमेंट खारिज हो रहा थी। थर्ड मैन के ऊपर से वो हार्मिंसन को छक्का जमाने में भी कोई हिचकिचाहट नहीं दिखा रहे थे। सिर्फ पांचवे ओवर में ही गेंदबाजी का मोर्चा संभालने पहुंचे पनेसर की गेंद को फुलटॉस बनाकर सहवाग स्क्वेयर लेग के ऊपर से स्टैंड में भेज रहे थे। मजबूरन ओवर द विकेट गेंदबाजी करते हुए पैड पर लगी गेंद पर जोरदार अपील करते पनेसर में आप इंग्लैंड की हताशा को पढ़ सकते थे।

सीमा रेखा के अंदर इंग्लैंड की टीम हो या सीमा रेखा के बाहर क्रिकेट के जानकर या आम चाहने वाले सभी के लिए ये करिश्माई बल्लेबाजी थी,जिसे सिर्फ सहवाग ही साकार कर सकते हैं। लेकिन, खुद सहवाग का कहना था- मैं तो बिलकुल अपना सहज स्वाभाविक खेल रहा था। इंग्लैंड के गेंदबाज मुझे स्ट्रोक खेलने के लिए जगह दे रहे थे, और मैं अपने स्ट्रोक खेल रहा था।

इस बेखौफ सहवाग की बल्लेबाजी का आलम ये था कि महज पंद्रह गेंदों में ही वो छह चौके जमा चुके थे। क्रिकेट जानकार हैरत में कुछ देर पहले इंग्लैंड के लंच के बाद के 21 ओवरों का हिसाब-किताब जुटा रहे थे। मुकाबले में हावी होने के बावजूद इंग्लैंड के बल्लेबाज इस दौरान सिर्फ 57 रन ही जोड़ पाए थे, और दो बार ही गेंद को सीमा रेखा के बाहर भेज पाने में कामयाब हो पाए थे। दूसरी ओर सहवाग ने गंभीर के साथ इतने ही ओवर में 14 चौकों और चार आसामानी छक्कों के साथ भारतीय पारी को 100 रनों के पार ला खड़ा किया था।

हैरान-परेशान कप्तान पीटरसन ने ऑफ स्पिनर स्वान के लिए मिडविकेट और लांगऑन समेत सीमा रेखा पर तीन फील्डर खड़े किए थे। लेकिन, इस व्यूह रचना से बेपरवाह सहवाग ने ठीक लांग ऑन के ऊपर से छक्का जमाकर करारा जवाब दिया। हालांकि, अगली ही गेंद पर स्वान ने सहवाग को एलबीडल्लू कर अपना हिसाब चुकता कर लिया। ऑफ स्टंप के बाहर से पिच होकर अंदर आती गेंद पर स्कवेयर लेग के ऊपर से उड़ाने के फेर में सहवाग चूक गए। पैवेलियन लौटते सहवाग या तो अपने स्ट्रोक खेलने के फैसले से नाराज थे या अंपायर के फैसले से, कहना मुश्किल है। लेकिन, खुशी में सराबोर इंग्लैंड खेमे के लिए ये हाथ से छिटकते मैच को वापस पकड़ लेने की शुरुआत थी।


आखिर, सहवाग के वापस लौटते हुए विकेट पर गेंद एक बार फिर घूम रही थी। एक बार फिर बल्लेबाज उछाल से परेशान थे। बल्लेबाज के लिए हर रन एक बड़े 22 गज के फैसले में तब्दील हो रहा था। और यही पहलू बेखौफ सहवाग की शख्सियत को चेपक पर एक नया आयाम दे रहा था। मैच के चौथे दिन का खेल खत्म होने पर दोनों पारियों में शतक जमाने मे वाले स्ट्रॉस की उपलब्धियां भी कुछ देर के लिए पीछे छूट गई थीं। कॉलिंगवुड का संघर्षपूर्ण शतक भी फिलहाल याद नहीं आ रहा था। अब सबको इंतजार था चेपक पर पांचवे दिन के रोमांच का। क्या भारत के बल्लेबाज बाकी बचे 256 रन बनाने मे कामयाब हो पाएंगे? क्या पीटरसन सोमवार की सुबह भारत को शुरुआती झटके देते हुए इंग्लैंड को जीत की ओर ले जाएंगे? रविवार की दोपहर तक एकतरफा दिख रहा मुकाबला अब बराबरी के मुकाबले में तब्दील हो गया था। इस नामुमकिन को मुमकिन में बदलने की राह तैयार की वीरेन्द्र सहवाग ने। बेखौफ वीरेन्द्र सहवाग ने। यही वीरेन्द्र सहवाग की शख्सियत का सार है। बल्ले के स्ट्रोक की गूंज से बहकर आते वीरेन्द्र सहवाग। अब आप भी महसूस कर सकते हैं कि आखिर सुनील मनोहर गावस्कर के लिए ये बेखौफ सहवाग एक अधूरे ख्वाब की तरह क्यों है।

Monday, December 15, 2008

सचिन सही कहते हैं "प्लेयिंग फॉर इंडिया, नॉउ मोर दैन एवर"

ये सिर्फ सचिन तेंदुलकर का लम्हा था। तेंदुलकर जैसे इस एक लम्हे का दम साधे इंतजार कर रहे थे। शायद इसलिए,माइकल स्वॉन की गेंद को पैडल स्वीप के जरिए फाइन लैग की ओर मोड़ते ही उनकी मुठ्ठी भिंच चुकी थी। हवा में छलांग लगाते वो एक जोरदार हुंकार भर रहे थे। युवराज सिंह की बांहों में खुशी में डूबे तेंदुलकर मानो बीस साल से नहीं, पहली बार टेस्ट क्रिकेट की स्टेज पर किसी लम्हे से एकाकार हो रहे थे। तेंदुलकर इस लम्हे को पूरी तरह जी लेना चाहते थे। बीते दो दशक के दौरान हर घड़ी एक नए मुकाम की ओर बढ़ते तेंदुलकर के लिए इस एक स्ट्रोक ने मीलों का फासला तय कर डाला। इस एक स्ट्रोक से तेंदुलकर ने आंकडों में टेस्ट क्रिकेट में 41 बार तीन अंकों को छुआ। लेकिन,सचिन का ये शतक उनके बाकी 40 शतकों से अलहदा था। तेंदुलकर के इस एक स्ट्रोक और शतक के साथ भारत इंग्लैंड पर यादगार जीत दर्ज कर रहा था। वो भी मैच की चौथी पारी में 387 रन के पहाड़ जैसे लक्ष्य को हासिल करते हुए। इसलिए, इस मंज़िल तक पहुंचते ही तेंदुलकर को ये कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं थी-“ये मेरे शतकों की फेहरिस्त में सबसे ऊपर है।” तेंदुलकर के मुताबिक-“मैं हमेशा कहता रहा हूं मेरे शतक की अहमियत तभी है जब टीम जीते।” आज तेंदुलकर के शतक के साथ भारतीय टीम सिर्फ एक जीत नहीं,एक नए इतिहास को रच रही थी।

भारत ने चौथी पारी में 387 रन के लक्ष्य को हासिल करते हुए भारतीय उपमहाद्वीप में एक नया इतिहास रचा था। चेन्नई के असमान उछाल वाले इस विकेट पर इस यादगार जीत को जानकार 1971 में ओवल में दर्ज की गई ऐतिहासिक जीत से लेकर साल की शुरुआत में पर्थ में मिली फतेह के करीब खड़ा करने में जुटे थे। लेकिन, तेंदुलकर के लिए ये चेन्नई में आठ साल पहले हाथ से छिटके लम्हे को वापस अपनी मुठ्ठी में लाने का मौका था।

आखिर,चेन्नई में पाकिस्तान के खिलाफ तेंदुलकर अकेले दम अपनी टीम को जीत की दहलीज पर लाकर अचानक ठिठक गए थे। सिर्फ 271 रनों का पीछा करते तेंदुलकर सातवें बल्लेबाज के तौर पर पैवेलियन लौटे तो स्कोरबोर्ड पर भारत के 254 रन टंग चुके थे। लेकिन,जीत के लिए जरुरी 17 रन बनाने की कोशिश में बाकी तीन बल्लेबाज पांच रनों के भीतर ही पैवेलियन लौट गए। भारत सिर्फ 12 रन से ये मुकाबला हार गया था।

और इस शिकस्त से तेंदुलकर के साथ जुड़ गया कि वो बड़ी पारियां खेलने के बावजूद अपनी टीम को जीत तक पहुंचाने में अक्सर चूक जाते हैं। चौथी पारी में तेंदुलकर का बल्लेबाजी औसत इस आलोचना का एक आधार बनकर सामने आने लगा। चेन्नई से पहले 55 टेस्ट की 45 पारियों में चौथी बार खेलते हुए तेंदुलकर महज 33.61 के औसत से सिर्फ 1109 रन ही जोड़ पाए थे। ये उनके करियर औसत 54.30 से कहीं बहुत पीछे है। क्रिकेट की दुनिया में सबसे ज्यादा टेस्ट मैच खेलने वाले इस लेंजेंड के लिए अपनी उपलब्धियों के बीच यह पहलू भी बार बार एक कचोट की तरह उभार ले रहा होगा।

इसलिए,सोमवार की सुबह तीसरे ओवर में ही द्रविड़ के पैवेलियन लौटने के बाद तेंदुलकर ने एक छोर संभाला तो जीत के बाद ही वहां से ड्रेसिंग रुम की ओर कदम बढ़ाए। बेशक, वीरेन्द्र सहवाग की तूफानी पारी ने भारत के लिए इस नामुमकिन सी लगनी वाली जीत को हकीकत में तब्दील करने की राह खोली,लेकिन यह तेंदुलकर के दो दशक के अऩुभव को समेटे बेजोड़ पारी ही थी,जिसने भारत को जीत की मंजिल पर पहुंचा कर ही दम लिया।

आखिरी दिन,हर गुजरते ओवर के बीच मुकाबला पूरी तरह से तेंदुलकर के नियंत्रण में दिखा। उन्हें अपने स्ट्रोक खेलने में न कोई हड़बड़ाहट थी, न ही दूसरे छोर पर उनका साथ छोड़ते गंभीर और लक्ष्मण उनकी इरादों पर चोट पहुंचा रहे थे, और न ही युवराज की आक्रामक बल्लेबाजी उन पर किसी तरह का दबाव बना रही थी। युवराज के साथ उन्होंने पांचवे विकेट के लिए 163 रन की बेहतरीन नाबाद साझेदारी पूरी की। लेकिन, वो एक छोर पर अपनी टीम को लक्ष्य तक पहुंचाने में जुटे दिखे।

इससे भी आगे,तेंदुलकर की बल्लेबाजी के बीच चेन्नई के विकेट को लेकर छाया भय कहीं बहुत पीछे छूटता दिखायी दिया। ये साबित करते हुए कि विकेट के खौफ से ज्यादा किसी भी बल्लेबाज के लिए पॉजिटिव सोच जरुरी है। तेंदुलकर के इस बयान पर गौर कीजिए-विकेट में उछाल असमान था,लेकिन इन्हीं उछालों में रन बनाने के मौके थे। मैं सिर्फ इन मौकों को इंतजार कर रहा था। ये तेंदुलकर की पॉजिटिव एप्रोच की कहानी को खुद बयां करता है।

सवा पांच घंटे की अपनी बल्लेबाजी के दौरान 132 खाली गेंदों और 45 सिंगल्स में आप तेंदुलकर की विकेट पर टिके रहने की सोच को पढ़ सकते थे। एंडरसन से लेकर फ्लिंटॉफ की गेंद पर आखिरी क्षणों तक इंतजार के बाद उसे थर्डमैन से प्वाइंट की ओर दिशा देते तेंदुलकर में आप उनके पूरे अनुभव को महसूस कर सकते थे। इतना ही नहीं, जरुरत के मुताबिक रनों की रफ्तार को अपने मुताबिक ढालते तेंदुलकर में आप उनके जीनियस की झलक देख सकते थे। तेंदुलकर ने अपनी पारी में नौ बेहतरीन चौके भी जमाए। दूसरे छोर पर खड़े युवराज सिंह को सही वक्त पर सही स्ट्रोक्स खेलने की नसीहत के बीच आप भारतीय क्रिकेट के इस ‘स्टैट्समैन’ की भूमिका को आप परख सकते थे।

फिर,तेंदुलकर ने इस दौरान एक कैलेंडर ईयर में पांचवी बार 1000 रन छूने का कारनामा भी कर दिखाया। इस दौरान तेंदुलकर ने 52 रन की औसत से चार शतक के सहारे ये रन जोड़े हैं। 19 साल तक लगातार क्रिकेट खेलने के बाद रनों की ये बेताबी इस लेजेंड की शख्सियत को एक नया आयाम देती है। ये टेलीविजन के स्क्रीन पर मुंबई हादसों के बाद उभरते उनके विज्ञापन की पंच लाइन को ही पुख्ता करती दिखायी देती है। तेंदुलकर इस विज्ञापन में कहते हैं-आई एम प्लेयिंग फॉर इंडिया,नॉउ मोर दैन एवर(मैं भारत के लिए क्रिकेट खेल रहा है। अब,पहले से भी ज्यादा शिद्दत से)। सचमुच, तेंदुलकर 16 साल की उम्र में पाकिस्तान में अपने अंतरराष्ट्रीय करियर का आगाज करने वाले किशोर से भी ज्यादा शिद्दत से क्रिकेट की स्टेज पर नए रंग भरने में जुटे हैं। इसलिए, कल भी सिर्फ एक सचिन तेंदुलकर थे,और आज भी सिर्फ एक सचिन तेंदुलकर हैं।

Wednesday, December 10, 2008

क्रिकेट की खूबसूरती के बीच आतंक को मात देने की कोशिश

एक न्यूज़फोटोग्राफर की चुनौती बेहद दिलचस्प होती है। रिपोर्टर को अपनी बात कहने के लिए सैकड़ों शब्दों की छूट मिल सकती है, लेकिन फोटोग्राफर एक ठहरे हुए फ्रेम में पूरी कहानी को समेटे आपसे रुबरु होता है। कभी न थमने वाले वक्त को भी कुछ पलों के लिए वह अपने कैमरे में कैद करता है। कहानी के बीते कल, आज और आने वाले कल के तीनों छोर को पकड़ने की कोशिश करता है। चेन्नई में गुरुवार से शुरु हो रहे पहले टेस्ट मैच से जुड़े हर दूसरे फोटोग्राफ को देखिए। आप इस पहलू से बखूबी रुबरु होंगे।

मैदान में अभ्यास के दौरान कप्तान पीटरसन और गेंदबाजी कोच एशले जाइल्स से बतियाते फ्लिंटाफ की पृष्ठभूमि में आपको खाकी वर्दी में मुस्तैद पुलिसकर्मी मिलेंगे। अभ्यास से ड्रेसिंग रुम की तरफ लौटते कप्तान पीटरसन के फ्रेम में संगीनधारी पुलिसकर्मी और कमांडो दिखायी देंगे। चेपक की छत पर चहलकदमी करता कमांडो एक पूरी कहानी को समेटे खड़ा है।


इन तस्वीरों पर निगाह डालते ही मौजूदा घटनाक्रम से अंजान शख्स भी महसूस कर सकता है कि ये सिर्फ क्रिकेट नहीं है। यहां क्रिकेट से सुरक्षा के तार कहीं बहुत गहरे जुड़े हैं। यही भारत और इंग्लैंड के बीच खेली जा रही सीरिज का सबसे बड़ा सच भी है। यहां सिर्फ दो टीमों के बीच ही टेस्ट नहीं खेला जा रहा। यहां क्रिकेट जरिया बना है, आम आदमी और आतंक के बीच जारी जंग से पार पाने का। उसके व्यवस्था में खोए भरोसे को लौटा लाने का। यहां इन दोनों टीमों की हार और जीत से पहले ज़रुरी है, इस सीरिज का सलामती से अंजाम तक पहुंचना। यही इस सीरीज का अनकहा मकसद है। इसी मकसद में टीमों की हार-जीत से पहले क्रिकेट की जीत छिपी है।

मैं भी इसी भरोसे के साथ इस सीरिज की ओर निगाह डाल रहा हूं। मेरा ये भरोसा है, और इसकी ठोस वजह है। बीते कल से जुड़ी एक मिसाल है, जो बार-बार इस भरोसे को मजबूती देती है। ये सिर्फ संयोग ही है कि ये मिसाल भी इन दोनों टीमों से ही जुड़ी है।

अब से ठीक सात साल पहले अहमदाबाद में ये दोनों टीमें एक दूसरे के सामने मैदान पर थीं। ये भी एक संयोग है कि वो मुकाबला भी 11 दिसंबर को ही शुरु हुआ था। मोहाली में पहले टेस्ट में शिकस्त के बावजूद नासिर हुसैन की टीम ने पहले दो दिन बेहद मजबूती से भारतीय गेंदबाजी का जवाब देते हुए 400 रनों का स्कोर खड़ा किया था। भारत की शुरुआत लड़खड़ाहट भरी रही। भारत चार विकेट गंवा चुका था। तीसरे दिन लंच के आसपास सचिन तेंदुलकर और वीवीएस लक्ष्मण विकेट पर मौजूद थे। उसी वक्त भारतीय संसद पर आतंकवादियों ने हमला कर दिया। ये महज एक आतंकी कार्रवाई नहीं थी। ये भारतीय लोकतंत्र के सबसे बड़े प्रतीक पर सबसे बड़ा हमला था। अब एक तरफ टेस्ट मैच का सीधा प्रसारण था, दूसरी ओर न्यूज़ चैनलों पर इस आतंकी हमले की सीधी तस्वीरें हर भारतीय को अंदर तक झकझोर रही थी। एकबारगी लगा कि न सिर्फ ये टेस्ट मैच ही बीच में रोक दिया जाएगा,ये दौरा भी यहीं खत्म कर इंग्लैंड टीम वापस लौट जाएगी। इस हमले की गूंज इतनी दूर तक प‍हूंची कि इसे अंजाम देने वाले लश्‍करे-तयब्‍बा को बैन कर दिया गया। भारत और पाकिस्‍तान की सीमाओं पर फौजों की सरगर्मियां बढ़ गईं। दोनों देशों के बीच युद्ध के से हालात पैदा हो गए थे।

लेकिन, न तो टेस्ट रुका और न ही इंग्लैंड की टीम बीच दौरे से वापस लौटी। नासिर हुसैन की टीम ने इस हमले से बेपरवाह सीरिज को आगे बढ़ाया। ये सीरिज भारत और इंग्लैंड के बीच एक सबसे यादगार दौरे की तरह दर्ज हो गई। इस सीरिज में नासिर हुसैन की कप्तानी ने आलोचकों को अपना मुरीद बना दिया। शायद, इसी सीरिज की कप्तानी थी, जिसके चलते तेंदुलकर ने नासिर हुसैन को दुनिया के सर्वश्रेष्ठ कप्तानों में एक ठहराया है। इस सीरिज में हमने देखा सचिन तेंदुलकर और एशले जायल्स के बीच एक दिलचस्प संघर्ष। हमने देखा वानखेड़े वनडे में भारत को जीत की दहलीज से वापस लौटाते फ्लिंटाफ को। इस सीरिज के आखिरी दिन हमने देखा अपनी टीम 3-3 की बराबरी पर लाते जीत के जुनून में डूबे फ्लिंटाफ को। वानखेड़े में नंगे बदन अपनी शर्ट लहराते फ्लिंटाफ। एक ऐसी तस्वीर, जिसका जवाब नेटवेस्ट ट्रॉफी जीतते हुए लॉर्ड्स की बालकनी से सौरव गांगुली ने दिया।

इंग्लैंड ने तो 2005 में एशेज के दौरान ही लंदन के ट्यूब धमाकों को झेला है। उस वक्त वो ठीक भारत की स्थिति में खड़ा था। आज जिस जगह इंग्लैंड खड़ा है, उस वक्त वहां आस्ट्रेलिया खड़ा था। आस्ट्रेलिया ने भी सीरिज को जारी रखते हुए क्रिकेट के जरिए आतंकवादियों के नापाक इरादों का मुंहतोड़ जवाब दिया था। अब यही काम भारत और इंग्लैंड की टीमों को करना है। अहमदाबाद और लंदन के वाकयों की तरह ये सीरिज भी क्रिकेट के जरिए आतंक को हाशिए पर ढकेलने की बड़ी कोशिश की तरह सामने है।

अब, गुरुवार की सुबह ये दोनों टीमें जब मैदान में उतरेंगी, तो सुरक्षा बंदोबस्त में जुटे 3000 पुलिसकर्मियों की छवि पीछे छूट जाएगी। होटल से ड्रेसिंग रुम तक मौजूद कमांडो के साए से खिलाड़ी उबर जाएंगे। मैदान में होगा क्रिकेट का वो मूल नियम, जहां हर गेंद के साथ एक नयी जंग परवान चढ़ती है। यहां हार्मिंसन की उछाल लेती गेंदों से लेकर एंडरसन की आउटस्विंगर और फ्लिंटाफ की तेजी के साथ साथ पनेसर की घुमाव लेती गेंदें भारतीय बल्लेबाजों से पार पाने की कोशिश में जुट जाएंगी। वीरेन्द्र सहवाग से लेकर गौतम गंभीर और सचिन से लेकर लक्ष्मण तक टेस्ट क्रिकेट में अपने सुनहरे सफर को आगे ले जाएंगे। महेन्द्र सिंह धोनी पहली बार एक पूरी सीरिज में भारतीय टेस्ट टीम की कप्तानी संभालेंगे। भारतीय टीम अनिल कुंबले और सौरव गांगुली के बाद बदलाव के नए दौर से रुबरु होगी।

कुल मिलाकर, बात पूरी तरह से क्रिकेट के इर्द-गिर्द घूमेगी, तो एक बहस भी उभार लेगी। पीटरसन की ये टीम बिना किसी वार्मअप गेम के सीधे टेस्ट मैच में उतर रही है। चार महीने पहले उन्होंने अपना आखिरी टेस्ट खेला था। लेकिन, जैसा एलियस्टर कुक का कहना है कि क्रिकेट तकनीक से ज्यादा दिमागी खेल है, और आप कैसे खुद को इसके अनुरुप ढालते हैं, यही मायने रखता है। सिर्फ एक दिन में आप अपनी तकनीक अचानक गंवा नहीं देते। इसलिए, बेशक पीटरसन की टीम वनडे सीरिज में बुरी तरह परास्त हुई हो, लेकिन टेस्ट में आप उनकी वापसी की उम्मीद को नकार नहीं सकते। हो सकता है कि मैदान के बाहर के मौजूदा हालात के बीच एक-दूसरे को हौसला देते हुए वो एक बेहतरीन यूनिट की शक्ल ले रहे हों। उम्मीद की जानी चाहिए कि ऐसा ही इंग्लैंड खेमे में हो रहा होगा। अगर इंग्लैंड एक बेहतरीन यूनिट की तरह धोनी की शिखर की ओर बढ़ती टीम को जवाब देता है, तो ये एक यादगार सीरिज होगी। अब, हम सभी को इंतजार है एक ऐसी ठहरी तस्वीर का, जिसमें क्रिकेट अपनी खूबसूरती के बीच भय के इस माहौल को पीछे छोड़कर आगे जा निकले।

Monday, December 8, 2008

मौत के सन्नाटे के बीच ज़िंदगी की राह तलाशते जीव

लाल जैकेट में जेटी कप हाथ में उठाए जीव मिल्खा सिंह की ये तस्वीर अमूमन हर खिताबी जीत के बाद यूं ही दिखायी देती है। यहां भी उनके होंठों पर तैरती मुस्कान मंजिल तक पहुंचने की कहानी बयां करती है। लेकिन,टोक्यो में रविवार की शाम यह तस्वीर हार और जीत के दायरे से बहुत दूर ले जाती है। ये खेल में ज़िंदगी के मायनों को तलाशती तस्वीर है। कैमरे की चौंधियाती रोशनी के बीच होंठो पर मजबूरन तैरती मुस्कुराहट के पीछे एक अंतहीन दर्द को समेटे तस्वीर हमसे रुबरु होती है।

जीव मिल्खा सिंह की इस तस्वीर को मैं हमेशा सहेज कर रखना चाहता हूं। समझना चाहता हूं कि मृत्यु के आखिरी शोक से पार जाकर आप कैसे ज़िंदगी जीने के हौसले को ढूंढ निकालते हैं। जीव ने टोक्यो में निप्पॉन सीरिज जेटी कप तक पहुंचते हुए सिर्फ गोल्फ का एक और खिताब हासिल नहीं किया। जीव ने इस खिताब तक पहुंचते हुए खेल के मैदान पर रची इंसानी हदों को पार कर डाला।

इस टूर्नामेंट से ठीक पहले जीव और उनकी पत्नी कुदरत का ख्वाब तार तार हो गया था। अपने आंगन में एक किलकारी की आहट संजोए दोनों ने तिनका तिनका एक ख्वाब को पिरोया था। लेकिन, किलकारी की गूंज इन दोनों के कानों में पहुंचने से बहुत पहले ही शांत हो चुकी थी। कुदरत के आंचल में किलकारी लेता बच्चा नहीं, एक मृत बच्चा था। किस्मत के इस क्रूर मजाक के सामने ये दोनों बेबस थे।

लेकिन,इस बेबसी और तार तार हुए ख्वाबों के बीच भी कुदरत ने जीव को टूटने नहीं दिया। जीव इस टूर्नामेंट में उतरने को तैयार नहीं थे। टूर्नामेंट से ठीक एक दिन पहले खेले जाने वाले जरुरी प्रो एम में भी उन्होंने हिस्सा नहीं लिया। लेकिन,जीव से जुड़ने के बाद हर वक्त उनके साथ मौजूद रहने वाली कुदरत ने जीव को उनके चहेते गोल्फ कोर्स से अलग हटने नहीं दिया। टूर्नामेंट आयोजकों से विशेष अनुमति के साथ जीव कोर्स पर उतरे। चार दिन तक मौत के इस कड़वे सच के बीच गोल्फ कोर्स पर ज़िंदगी के मायने तलाशने में जुटे रहे जीव।

कहने में ये आसान लगता है। लेकिन, मैं बार बार ये समझने की कोशिश कर रहा हूं कि कैसे हर एक स्ट्रोक पर जीव के हाथों में कंपकंपी पैदा नहीं हुई होगी। क्या स्ट्रोक लेते जीव के सामने लक्ष्य की शक्ल में सिर्फ ‘होल’ ही सामने नहीं होगा। कभी कुदरत का मुरझाया चेहरा उभार लेता होगा तो कभी उस बच्चे का चेहरा,जिसकी किलकारी कभी न खत्म होने वाले इंतजार में तब्दील हो गई।

इस सबके बीच से गुजरते हुए जीव ने बाकी दुनिया के लिए खिताब की राह तलाशी। लेकिन, अपने लिए ज़िंदगी की नयी राह। इसलिए, जीत के बाद जीव का यह कहना था-इस जीत से लगता है कि ईश्वर हमारे प्रति दयालु है। मुझे भरोसा है कि भविष्य में कुछ बेहतर छिपा है। उन्होंने यह जीत अपनी पत्नी कुदरत को समर्पित करते हुए कहा-उसके कहने पर मैं गोल्फ कोर्स में उतरने का हौसला बटोर पाया,इसलिए ये जीत मैं उसी को समर्पित करता हूं।

इस साल जीव ने चार खिताबी जीत हासिल की हैं। जीव को अभी कई मंजिलें तय करनी हैं। वर्ल्ड रैंकिंग में 44वें पायदान पर जा पहुंचे जीव के लिए आने वाला साल कामयाबियों के नये रास्ते खोलेगा। इन सबके बीच अपने करियर में नए शिखर की ओर बढ़ते जीव जब भी गोल्फ कोर्स को विदा कहेंगे, उनकी ये जीत बाकी सभी उपबल्धियों पर हावी हो जाएगी। आखिर, भावनात्मक झंझावत शारीरिक चोटों से पेश आने वाली परेशानियों से कहीं ज्यादा दुखद और बड़ी चुनौती सामने रखता है। चोट से जूझते हुए पिछली जुलाई में यहीं जापान में जीव ने सेगा सेमीकप हासिल किया था। यहां लगातार वो अपनी दांहिनी एडी के दर्द से जूझते हुए फिजियोथेरेपिस्ट की मदद से खिताब तक पहुंचे थे। लेकिन,ये शारीरिक चुनौतियां खिलाड़ी की ज़िंदगी का एक आम हिस्सा हैं। टाइगर वुड्स खराब घुटने के बावजूद यूएसओपन जीतते हैं,हेरिंग्टन कलाई में चोट के बावजूद ब्रिटिश ओपन के खिताब तक पहुंचते हैं। गोल्फ के कोर्स के बाहर हमनें सियोल ओलंपिक में सिर में टांके लगे होने के बावजूद ग्रेग लुआनिस को गोल्ड मेडल तक पहुंचते देखा है। हम वेस्टइंडीज में टूटे जबड़े के साथ अपनी गेंदों से ब्रायन लारा के विकेट तक पहुंचते अनिल कुंबले की कामयाबी से रुबरु हुए हैं।

लेकिन,इन चुनौतियों से खिलाड़ी अपने जीवट और इरादों से पार पा लेता है। इस मोड़ पर मुझे ब्रिस्टल मे केन्या के खिलाफ सेंचुरी जमाकर आसमान की ओर निहारते सचिन तेंदुलकर का चेहरा बरबस याद आ जाता है। 1999 के वर्ल्ड कप के ठीक बीच सचिन ने अपने पिता को खो दिया था। वो अपने पिता को आखिरी विदाई देकर एक बार फिर मैदान में थे। सेंचुरी जमाकर सचिन ने बाकी दुनिया को जीत का तोहफा पेश किया था। यहीं विराट कोहली भी याद आते हैं। रणजी मुकाबले के बीच पिता के निधन के बावजूद वो मैदान पहुंचते हैं। अपनी टीम दिल्ली को मुश्किल से निकाल किनारे तक ले जाते हैं। अपनी पारी खत्म कर पिता के अंतिम संस्कार में शरीक होते हैं।

सचिन और विराट की तरह जीव के लिए भी ये जीत से आगे की दुनिया है। मौत के सन्नाटे के बीच से ज़िंदगी के मायने तलाशती हुई। खेल को ज़िंदगी के सबसे करीब जोड़ते हुए।

Sunday, November 30, 2008

ये जीत की एकलौती सोच है

गावस्कर बॉर्डर ट्रॉफी को हाथ में लिए जश्न में डूबी भारतीय क्रिकेट टीम की तस्वीर को बार बार देखिए। जीत के जुनून में डूबे इन चेहरों के बीच एक चेहरा ढूंढना होगा। भारतीय कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी का चेहरा। जीत के इस सैलाब की अगुआई करने के बावजूद धोनी भारतीय क्रिकेट की इस ठहरी तस्वीर में पृष्ठभूमि में हैं। लेकिन,धोनी का मंजिल पाने के बाद खुद को पीछे खींच लेने का ये अकेला वाक्या नहीं है। ट्वेंटी-20 वर्ल्ड कप का खिताब जीतने से लेकर आस्ट्रेलिया पर ट्राइंगुलर सीरिज में ऐतिहासिक जीत तक धोनी टीम को मंजिल तक पहुंचाने के बाद अपने साथियों को इस विजयी लम्हे को जी लेने के लिए छोड़ देते हैं। जीत की नयी इबारतों के बीच यही खूबसूरती टीम इंडिया के इस नए चेहरे को एक अलहदा रंग से सराबोर कर रही है।

"'टीम में अगर आप एक दूसरे की कामयाबियों को इंजॉय करने लगें तो ये सबसे बड़ी बात है। अपनी हाफ सेंचुरी पर मेरा खुश होना स्वाभाविक है। लेकिन,मेरी इस उपलब्धि पर मेरे साथी भी आनंद में डूब जाएं,ये ज्यादा जरुरी है।"इंदौर में इंग्लैंड पर दो मैचों में दो बेहद इकतरफा जीत के बाद धोनी का यही कहना था। लेकिन,पहली नज़र में यह एक कप्तान की अपनी टीम को एकजुट करने के लिए बेहद सहज सोच कही जा सकती है। गहराई से मंथन करें तो ये टीम इंडिया को एक बेहतरीन यूनिट में तब्दील करने का पहला और आखिरी सूत्र है। धोनी की यही सोच भारत के पूर्व कप्तान, कोच और चयनसमिति के पूर्व अध्यक्ष चंदू बोर्डे को उनका कायल बना देती है।
"धोनी गांगुली की तरह 'इंस्टिक्ट' से कप्तानी नहीं करते। सौरव मैदान में अचानक कोई फैसला लेकर सबको हैरत में डाल देते थे। लेकिन,कामयाबी मिलते ही सबको सौरव के फैसले की दाद देनी पड़ती थी। लेकिन,धोनी बेहद शांत स्वभाव से अपने काम को अंजाम देते हैं। बेहद परिपक्वता और सहजता से।"

दरअसल,धोनी टीम इंडिया को आस्ट्रेलिया मॉडल की ओर ले जाते दिखते हैं। यहां टीम में हर खिलाड़ी की हिस्सेदारी है। टेस्ट से लेकर वनडे तक अलग अलग मोर्चों पर जीत का सिलसिला बरकरार रखना जरुरी है। लिहाजा धोनी भारतीय टीम को आस्ट्रेलिया से भी एक कदम आगे ले जाने की कोशिश कर रहे हैं। ट्वेंटी-20 की बादशाहत,वनडे में वर्ल्ड चैंपियन पर फतेह और अब गावस्कर बार्डर ट्रॉफी में टेस्ट की अधिकारिक चैंपियन को शिकस्त। भारतीय टीम इस वक्त शिखर की ओर बढ़ रही है। बोर्डे का कहना है "आस्ट्रेलिया पर जीत से हमारा कॉन्फिडेंस बहुत बढ़ गया है। इंग्लैंड पर डोमिनेंस इसी का रिफ्लेक्शन है। भारतीय खिलाड़ी एक जिद के साथ खेलते हुए दिखायी दे रहे हैं।" पूर्व क्रिकेटर और कमेंन्टेटर अशोक मल्होत्रा इसी पहलू को और आगे ले जाते हैं। "इस टीम को कोई भय नहीं है। यहां कोई एक्स्ट्रा बैगेज नहीं हैं। सिर्फ और सिर्फ परफोरमेंस है।"


ये जीत की एकलौती सोच है। यही सूत्र पकड़कर दो दशक पहले आस्ट्रेलिया ने शिखर की ओर कदम बढ़ाया। 1987 की वर्ल्ड कप फतेह के बाद आस्ट्रेलिया में वेस्टइंडीज की बादशाहत को तोड़ने का भरोसा जागा था। इसे सच में तब्दील करने के लिए ग्रेग चैपल और बॉबी सिम्पसन जैसे कप्तानों ने एक ब्लू प्रिंट तैयार किया। इस ब्लू प्रिंट पर चलने की शुरुआत एलन बॉर्डर ने की। आठ साल बाद मार्क टेलर ने वेस्टइंडीज में इसे आखिरी फतेह में तब्दील किया। स्टीव वॉ ने इसे जीत के ऩए इतिहास में बदल डाला। और पोंटिंग ने जीत को एक सिलसिले और आदत में।

लेकिन,आज शिखर से बेदखल होती दिख रही आस्ट्रेलिया से भी चूक हुई। क्रिकेट की बाकी दुनिया के सामने मिसाल बना आस्ट्रेलिया अपने 'सेंटर ऑफ एक्सीलेंस' में खिलाड़ियों की फौज तो तैयार करता रहा लेकिन टेलेंटेड खिलाड़ियों को सही वक्त पर आस्ट्रेलियाई ड्रेसिंग रुम तक पहुंचाने मे उसकी रफ्तार लगातार धीमी होती गई। शुरुआत में जरुर बॉर्डर की जगह मार्क टेलर,स्लेटर की जगह लेंगर,इयान हिली की जगह गिलक्रिस्ट ने ली तो टीम की जीत का सिलसिला परवान चढ़ता रहा। गुजरते वक्त के साथ यह रफ्तार मद्धिम हुई। इस कदर कि टीम में सालों साल एक नए खिलाड़ी को जगह बनाना मुश्किल हो गया। माइकल क्लार्क और शेन टॉट को अपवाद मान लें तो माइकल हसी फर्स्ट क्लास में दस हजार रन बनाकर तीस साल की ढलती उम्र में आस्ट्रेलियाई टीम में पहुंचे। इसी का नतीजा था कि खिलाड़ियों की एसेंबली लाइन ही गायब होने लगी। इसीलिए ग्लैन मैक्ग्रा,शेन वार्न,गिलक्रिस्ट,डेमियन मार्टिन,जस्टिन लैंगर और स्टुअर्ट मैक्गिल की विदाई के साथ ही आस्ट्रेलियाई क्रिकेट मे शून्य गहराता जा रहा है।


इसीलिए,भारतीय क्रिकेट के सामने इस आस्ट्रेलियाई मॉडल पर चलने के साथ साथ इससे सीख लेने की भी जरुरत है। "नंबर एक की जगह को हथियाने के लिए हमें निरंतरता जाहिए। अपने प्रदर्शन को एक नियमित प्रकिया में तब्दील करना होगा।" भारतीय टीम के पूर्व कोच लालचंद राजपूत का कहना है "हर वक्त सामने आ रहे एक मुकाबले,एक सीरिज को ध्यान में रखकर आगे बढ़ना होगा।" भारत को यह काम सिर्फ टेस्ट में ही नहीं,वनडे और ट्वेंटी ट्वेंटी के तिहरे मोर्चे पर करना है। हर फॉर्मेट की खास जरुरतें हैं। इसी के मद्देनजर खिलाड़ियों के एक बड़े पूल से छांट छांटकर मुकाबलों में उतारना होगा।बोर्डे के मुताबिक "हमारे यंगस्टर्स बेहतर खेल रहे हैं। युवराज बेहतरीन फॉर्म में लौट रहे हैं। रोहित शर्मा मौजूद हैं। बद्रीनाथ को भी टीम में जगह मिलनी चाहिए। इन युवा खिलाड़ियों को जल्द से जल्द मौका देना होगा तभी इनका आत्मविश्वास बढ़ेगा।"

लेकिन,ये पेचीदा काम है। इसे कौन करेगा और यह कैसे होगा। बोर्डे कहते हैं
"यही काम सिलेक्शन कमेटी और कप्तान का है। "इसी बात को राजपूत आगे बढ़ाते हैं "इंडेक्शन सिलेक्टर्स के लिए चुनौती है। कब खिलाड़ी को टीम में जगह मिलनी चाहिए,ये एक बेहद चुनौतीपूर्ण काम है।"

इस आस्ट्रेलियाई जीत में ही भारत के लिए ज़हीर और ईशांत सबसे बड़े स्ट्राइक जोड़ी के रुप में उभरे। लेकिन,सवाल ये है कि कैसे लगातार आप इन दोनों को लंबे समय तक टीम की जरुरतों के मद्देनजर उतार सकते हैं। अशोक मल्होत्रा के मुताबिक "जहीर अपनी ऊर्जा को बचाकर उसे कायम रखना सीख गए हैं। कई बार छोटे रन अप से गेंदबाजी करते हैं। वो अपने करियर के सबसे बेहतरीन दौर मे चल रहे हैं। लेकिन, ईशांत को बचाकर चलना होगा। उनके करियर को सही पेस देना होगा। टेस्ट में खिलाया तो वनडे में एक दो मैचों में ब्रेक देना जरुरी है।" उनका मानना है कि हमारे पास तेज गेंदबाजों का एक भरपूर टेलेंट है। लेकिन, सभी का समझदारी से इस्तेमाल होना चाहिए। "

लेकिन,स्पिन गेंदबाजी में अनिल कुंबले के खालीपन को भरना आसान नहीं होगा। मल्होत्रा कहते हैं
"कुंबले को बनने में 16 साल लग गए। अमित मिश्रा को अभी लंबा रास्ता तय करना है। हरभजन को यह भार उठाना होगा तभी हम कुंबले के खालीपन को भर सकते हैं।" बोर्डे का मानना है कि कुंबले की सटीकता बेमिसाल थी लेकिन हमें अमित मिश्रा का हौसला बढ़ाना होगा। ये जानते हुए इस गेंदबाज के पास लेग स्पिन,गुगली,स्ट्रेटर वन सब कुछ है। राजपूत का कहना है कि भारत के पास अमित मिश्रा ही नहीं, पीयूष चावला भी इस जगह के लिए दूसरे विकल्प हैं। हमारे पास क्वालिटी बेंच स्ट्रैंथ है।

ऐसे में,जीत की इस राह के बीच टीम इंडिया के सामने चुनौतियों की लंबी फेहरिस्त है। शिखर पर काबिज होने के लिए जीत और सिर्फ जीत ही चाहिए,एक सिलसिले की तरह। कप्तान धोनी भी इसे बखूबी समझते हैं। उनका कहना है कि एक हार के बाद भी सवाल उठने शुरु हो सकते हैं। हमें जीत की निरंतरता बनाये रखनी होगी। वैसे, यही बात बोर्डे बेहद खूबसूरत अंदाज में कहते हैं-"इस सिलसिले को बनाए रखना होगा। दो जीत से ताजमहल नहीं बन सकता।"

[This article was first published in outlook (hindi)]

Wednesday, November 12, 2008

सौरव के आइने में सौरव चंडीदास गांगुली

ये 1996 के मई महीने की बात है। न्यूज चैनल 'आजतक' एक न्यूज कैप्सूल की शक्ल में दूरदर्शन पर प्रसारित होता था। इसी के लिए कवरेज करने के इरादे से मैं दिल्ली के ताजमहल होटल पहुंचा। यहां मोहम्मद अजहरुद्दीन की अगुआई में इंग्लैंड दौरे पर जा रही भारतीय टीम को इकट्ठा होना था। वहां पहुंचने पर पता चला कि अब तक सिर्फ एक खिलाड़ी को छोड़ कोई नहीं पहुंचा है। वो अकेले खिलाड़ी थे-सौरव गांगुली। भारतीय टीम में पांच साल बाद (इससे पहले 1990-91 के दौरे में आस्ट्रेलियाई दौरे के लिए सौरव को टीम में जगह दी गई थी।) वापसी करते सौरव।

लेकिन, उनसे बातचीत की जाए या नहीं, मैं सोच में डूबा था। क्या बीस मिनट के बुलेटिन में इस इंटरव्यू को जगह मिल भी पाएगी या नहीं, इसी उधेड़बुन में था। फिर सोचा, खाली हाथ लौटने से बेहतर है कि सौरव से ही बात कर लें। यही सोचकर सौरव से संपर्क साधा। सौरव ने मुझे कमरे में बुलाया। मेरे कैमरामैन ने बेहद तसल्ली से उन्हें शूट करना शुरु किया। उस वक्त तक किसी क्रिकेटर से इतनी आरामतलबी से शूट करना मुश्किल होने लगा था। खासतौर से वर्ल्ड कप के कामयाब आयोजन के बाद से टेलीविजन की ताकत को क्रिकेटर भी बखूबी महसूस करने लगे थे।


लेकिन, ये सौरव गांगुली थे। माना जा रहा था कि बंगाल का होने के नाते जगमोहन डालमिया की पैरवी पर उन्हें टीम मे जगह दी गई है। वर्ल्ड कप के कामयाब आयोजन के बाद डालमिया का सिक्का क्रिकेट की दुनिया में चलना शुरु हो चुका था। मैंने भी अपनी बातचीत इसी सवाल के इर्दगिर्द बुननी शुरु की। "कहा जाता है कि आपको कोटा सिस्टम के चलते टीम में जगह मिली है। क्या ये तकलीफदेह नहीं लगता।" सौरव का दो टूक जवाब था-"आप क्यों ये सवाल करते हैं। मेरी परफोरमेंस देखिए। मौका मिला तो मैं साबित कर दूंगा।"

सौरव ने जो कहा, वो कर दिखाया। इस धमाकेदार अंदाज में, जिसकी गूंज आज भी क्रिकेटप्रेमियों के जेहन में कमजोर नहीं पड़ी है। पहले लॉर्ड्स और फिर नॉटिघंम में लगातार दो टेस्ट में दो शतक जमाते हुए। आलोचक और प्रशंसक दोनों की हालत एक सी थी। एक आलोचना के शब्द तलाशने मे जुटा था। प्रशंसक को सराहना के शब्द कम पड़ रहे थे। टीम की रवानगी पर जो शख्स हाशिए पर था, टीम की वापसी पर भारतीय क्रिकेट के सबसे चमकदार सितारे में तब्दील हो चुका था। दिल्ली के इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर अगर किसी एक खिलाड़ी के सबसे करीब लोग पहुंचना चाहते थे तो वो थे सिर्फ और सिर्फ सौरव चंडीदास गांगुली।

लॉर्डस के पहले शतक से लेकर नागपुर में भारतीय क्रिकेट के सबसे यादगार शून्य के बीच सौरव क्रिकेट की हर छटा को समेटे खड़े हैं। कोटा क्रिकेटर के दर्द से मुक्त होते सौरव। 1999 के वर्ल्ड कप में कपिल की ऐतिहासिक 175 रनों की पारी से आगे निकलते सौरव। मैच फिक्सिंग के दंश को झेल रही भारतीय क्रिकेट को उबारते सौरव। टीम में जीत की नयी सोच को लाते सौरव। ब्रिसब्रेन में बेजोड़ शतक के सहारे स्टीव वॉ को उनके घर में ललकारते सौरव। लॉर्डस की बालकनी में जीत के जुनून में नंगे बदन शर्ट लहराते सौरव। वर्ल्ड कप हासिल करने की दहलीज तक ले जाते सौरव। पाकिस्तान को उसी के घर में सीरिज में शिकस्त देकर नया इतिहास रचते सौरव। ग्रेग चैपल के अहम से टकरा अपनी राह भटकते सौरव। अकेले दम ईडन गार्डन की भरी दोपहरी में पसीना बहाते एक फिनिक्स की मानिंद टीम में वापसी करने की कोशिशों में जुटे सौरव। 99 टेस्ट खेलने के बाद दोहरा शतक जमाने का जीवट दिखाते सौरव। अपनी आखिरी सीरिज में बेजोड़ पारियां खेल अपने आलोचकों को ठेंगा दिखाते सौरव।

सौरव के इंद्रधनुषी करियर में ऐसे कई अलहदा रंग हैं। इसमें सबसे गहरा है-भारतीय टीम की अगुआई करते सौरव गांगुली। मौजूदा भारतीय टीम की सोच की पहली इबारत इसी सौरव गांगुली की अगुआई मे लिखी गई। सौरव गांगुली से पहले भारतीय क्रिकेट ने कई कप्तान देखे। लेकिन, किसी कप्तान ने अपने खिलाड़ियों में जीत का ऐसा जज्बा नहीं भरा कि हार की दहलीज से भी जीत को खींचकर ले आए। बल्ला न चले तो गेंद से और गेंद न चले तो फील्डिंग से। सौरव ने अपने साथियों को जंग के मोर्चे पर लड़ रहे सैनिकों में तब्दील कर दिया। अकेले दम अपनी टीम को मंजिल तक पहुंचाने के जुनून में डूबे सैनिकों में।

आखिर, दक्षिण अफ्रीका में हुए वर्ल्ड कप को कौन भुला सकता है। शुरुआती मुकाबलों में मिली हार के बाद पूरे देश में सौरव की इसी टीम को लेकर एक आक्रोश हर शहर, हर मुहल्ले, हर गली से होता हुआ चौराहों तक दिखने लगा था। इस मौके पर सौरव की टीम अपने चहेतों के बीच अकेली छूट गई थी। लेकिन, सौरव ने अपने साथियों में ही अपनी दुनिया खोज डाली। एक दूसरे के कंधे पर हाथ डालकर जीत का आगाज करती खिलाड़ियों की जिस गोलबंदी(हडल) को आप धोनी की अगुआई में देखते हैं, इसकी शुरुआत इसी वर्ल्ड कप में सौरव ने की थी। उस वक्त जब वर्ल्ड कप में उसकी टीम को पूरे देश ने अकेला छोड़ दिया था। यही वो वर्ल्ड कप था, जहां भारतीय टीम कपिल की कामयाबी को दोहराने की दहलीज पर जा पहुंची थी।

क्या सौरव को ऐसी जुझारु टीम तैयार करते हुए खयाल आया होगा कि इसी टीम इंडिया की तैयारी में वो अपनी विदाई की इबारत लिख रहे हैं। धोनी की मौजूदा टीम इंडिया एक अनकहा कानून गढ़ चुकी है। ये कानून कहता है कि सर्वश्रेष्ठ से कम कुछ भी मंजूर नहीं। ये कानून खिलाड़ी को न थकने की छूट देता है, न शतक से चूकने की, न एक कैच छोड़ने की। यहां उम्र का भी लिहाजा नहीं किया जा सकता। इसी कानून ने सौरव से कहा कि ये उनकी विदाई का वक्त है। आपको ये स्टेज छोड़नी होगी। ये एक ट्रेजेडी ही है कि ये स्टेज खुद सौरव ने तैयार की। अपनी आखिरी पारी खेल विदर्भ क्रिकेट एसोसिएशन के मैदान की सुनसान सीढियों से ड्रेसिंग रुम की ओर बढ़ते सौरव किसी से नहीं हारे। सौरव अपराजेय रहे। लेकिन, खिलाड़ी सौरव से कप्तान सौरव जीत गया। जिस कप्तान ने जीत की इबारत लिखी थी, उसी ने खिलाड़ी सौरव को स्टेज से बेदखल होने के लिए मजबूर कर दिया।

इसलिए ये एक ऐसी यादगार विदाई थी, जिससे न सुनील गावस्कर रुबरु हो पाए न कपिल देव। गावस्कर ने बेंगलोर में पाकिस्तान के खिलाफ 96 रन की आखिरी बेजोड़ पारी जरुर खेली। लेकिन, क्रिकेट से अलग होने के सच को वो अपने चाहने वालों के बीच नहीं बांट सके। उनकी विदाई भी एक खिलाड़ी या बल्लेबाज की विदाई रही। सौरव की तरह एक रणनीतिकार की नहीं। कहा जाता है कि विश्व एकादश की ओर से लॉर्ड्स में खेलने के चलते वो इस विदाई की घोषणा नहीं कर सके। अगर गावस्कर संन्यास की घोषणा कर देते तो उन्हें विश्व एकादश की ओर से खेलने का मौका नहीं मिलता। कपिल देव ने भी क्रिकेट को अलविदा कहा, लेकिन अपनी चहेती स्टेज के बीच से नहीं, दिल्ली के एक पांच सितारा होटल के एक अंजान से कमरे से। ये एक लेजेंड की कचोट में तब्दील होती विदाई थी।


फिर,ये सौरव की शख्सियत ही है, जो उन्हें खेल के जुनून में डूबे कोलकाता में एक खिलाड़ी, एक क्रिकेटर और एक कप्तान के दायरे से भी बाहर ले जाती है। कभी रविन्द्र नाथ टेगौर, कभी सुभाष चंद बोस और कभी सत्यजीत रे में अपने समाज और अपनी सोच को तलाशने वाला कोलकाता आज सौरव में भी अपनी पहचान ढूंढता है। इसीलिए ये वो सौरव गांगुली है, जिसकी शख्सियत आंकडों के तमाशाई खेल से बहुत आगे जाती है। ये दंतकथाओं में तब्दील हो चुकी सौरव चंडीदास गांगुली की शख्सियत है।
[This article was first published in Dainik Bhaskar on november 12, 2008]

Monday, November 10, 2008

टीम इंडिया को कमज़ोर समझ जीत की राह से भटकी पोंटिंग की टीम

अमित मिश्रा और जॉंटी रोड्स। इन दोनों के बीच आप कोई सिरा पकड़ नहीं सकते। एक फील्डर के नाते तो कतई नहीं। जॉंटी रोड़्स क्रिकेट की ज़मी पर फील्डिंग का दूसरा नाम। अमित मिश्रा ! उनकी फील्डिंग की बात शुरु की जाए तो मैदान पर उनकी छवि रोड्स की मुस्तैदी और चपलता से कोसो दूर ले जाती है।
लेकिन,यही अमित मिश्रा सोमवार को जॉंटी रोड्स का लम्हा जी रहे थे। नागपुर के विदर्भ क्रिकेट एसोसिएशन मैदान पर आस्ट्रेलियाई कप्तान रिकी पोंटिंग ने ज़हीर खान की गेंद को मिडऑफ की ओर पुश किया और तेजी से रन लेने के लिए दौड़ पड़े। मिड ऑफ पर तैनात मिश्रा ने एक ही एक्शन में गेंद पर कब्जा किया और उसी पल जमीन के समानान्तर हवा में अपने शरीर को फैलाते हुए दांहिने हाथ से गेंद को थ्रो किया और गिल्लियां बिखेर दीं। ये लम्हा 1992 के वर्ल्ड कप में इंजमाम उल हक को आउट करते जॉंटी रोड्स की एक ठहरी तस्वीर को लौटाता सा दिखा। पोंटिंग आखिरी कदम के फासले से रन पूरा करने से चूक गए थे।
लेकिन, शायद पोंटिंग अमित मिश्रा से ऐसे थ्रो की उम्मीद नहीं कर रहे थे। सोमवार की सुबह लॉंग ऑफ पर फील्डिंग करते हुए मिश्रा से हुई एक दो चूक के चलते वे उनकी इस फुर्ती को नज़रअंदाज कर बैठे। पोंटिंग की इस चूक के बाद आस्ट्रेलिया सिर्फ अगले 45 ओवर के दौरान यह टेस्ट ही नहीं हारा,उसने भारत और आस्ट्रेलिया के बीच प्रतिष्ठा की प्रतीक गावस्कर बॉर्डर ट्रॉफी भी गंवा दी।
बेशक,इस शिकस्त के बाद पोंटिंग यह कहें कि भारत ने उन्हें खेल के हर पहलू में हाशिए पर धकेल दिया लेकिन घर वापस लौटते पोंटिंग इस सच से भी मुंह नहीं मोड़ पाएंगे कि उन्होंने अमित मिश्रा की थ्रो की तरह भारतीय टीम की ताकत को भी नज़रअंदाज करने की कोशिश की। यह वो भारतीय टीम है,जिसने पिछले 10 साल में आस्ट्रेलियाई टीम को दो सीरिज में शिकस्त दी है। उस आस्ट्रेलियाई टीम को ,जिसने पिछले एक दशक के दौरान 31 टेस्ट सीरिज में कुल जमा तीन शिकस्त झेली हैं।साथ ही, 2005 में एशेज गंवाने के बाद लगातार 16 टेस्ट जीतने के सिलसिले को भी अगर तोड़ा था,तो भारत ने। वो भी आस्ट्रेलिया के सबसे पसंदीदा मैदान पर्थ पर।
इसके बावजूद पोंटिंग भारत पहुंचने के बाद से इसकी ताकत से आंख चुरा रहे थे। ठीक इसी तरह जैसे अमित मिश्रा के इस सटीक थ्रो से। एक दिन पहले भी जरुरत से ज्यादा आत्मविश्वास के चलते गिरफ्त में आता मुकाबला उनके हाथों से छिटक गया था। धोनी और हरभजन के बीच सातवें विकेट के लिए 108 रनो की साझेदारी ने आस्ट्रेलिया के हाथ में आती जीत को छीन लिया था। लेकिन, अब ये आस्ट्रेलिया में एक बडी बहस में तब्दील हो गया है कि पोंटिंग ने अपने करियर की एक बड़ी चूक करते हुए इन दोनों बल्लेबाजों को हावी होने का मौका दिया। पोंटिंग ने ओवरों की रफ्तार को बरकरार रखने के लिए स्ट्राइक गेंदबाजों के बजाय हसी,क्लार्क और व्हाइट को मोर्चे पर उतार दिया। वो इस मौके पर कप्तान पर लगने वाले संभावित निलंबन के भय में ये चूक कर बैठे।
चूक! आस्ट्रेलिया क्रिकेट की जीत की सोच में यह शब्द नहीं है। आस्ट्रेलियाई सोच है मैदान पर हर हाल में बेहतर रहने की । मुश्किल से मुश्किल मोड़ पर मुकाबले को अपनी ओर मोड़ने की। स्टीव वॉ से लेकर मार्क टेलर तक,शेन वार्न से लेकर मैक्ग्रा तक- आस्ट्रेलिया का मानना रहा है कि आप अपनी मानसिक सोच को जितना बेहतर करोगे,आपका स्किल उतना ही निखार लेगा। आस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों को ये कहा जाता है कि नाजुक मौकों पर खिलाड़ी जो फैसला करते हैं,वो ही आखिरी मौकों पर हार और जीत को तय करता है। पोंटिंग की ये चूक या ये फैसले भी भारत और आस्ट्रेलिया को जीत और हार के दो छोर पर खड़ा कर रहे हैं।
फिर,सोमवार की सुबह 90 ओवर में 369 रन के लक्ष्य तक पहुंचने के लिए जुनून चाहिए था,न कि बेताबी। शुरुआत में अपने विकेट बचाकर ही आप इस मुश्किल लक्ष्य की ओर पहुंचने की आखिरी कोशिश कर सकते थे। लेकिन,आस्ट्रेलियाई बल्लेबाज पहली गेंद से ही मुकाबले को दो सेशन में पूरा करने का इरादा जता रहे थे। धोनी का भी कहना था कि आस्ट्रेलियाई खिलाड़ी पांच रन की रफ्तार से रन बना रहे थे लेकिन हम जानते थे कि आप लगातार ऐसा नहीं कर सकते। कम से कम मौजूदा क्रिकेट में एक बेजोड़ तेज गेंदबाज जोड़ी के रुप मे उभार लेते ईशांत और ज़हीर खान के खिलाफ तो कतई नहीं। फिर,पोंटिंग शायद इस पहलू पर भी नज़र नहीं डाल सके कि भारत में रनों का पीछा करते हुए चौथी पारी में अब तक सबसे बड़ी जीत दर्ज की है वेस्टइंडीज ने। लेकिन, 1987-88 में खेले गए दिल्ली टेस्ट में उनके सामने लक्ष्य था सिर्फ 276 रन का।
ऐसे में, शेन वार्न और मैक्ग्रा के संन्यास के बाद से ही शिखर से उतरती दिख रही पोंटिंग की इस टीम को जरुरत थी बल्लेबाजी के सहारे जीत तक पहुंचने की। लेकिन,अनुभवहीन गेंदबाजी की भरपाई के लिए इस पूरी सीरिज में 2004 के स्टार माइकल क्लार्क से लेकर 2001 सीरिज के सबसे कामयाब बल्लेबाज मैथ्यू हैडन और खुद कप्तान पोंटिंग तक कोई भी बल्लेबाज 40 की औसत तक नहीं पहुंच सका। सिर्फ माइकल हसी की औसत ही 50 के पार जा सकी। इस मोड़ पर एयान चैपल के इस बयान पर गौर करना चाहिए कि बेशक आस्ट्रेलिया ने पिछले दस साल तक क्रिकेट की दुनिया पर राज किया है लेकिन जब भी उसे एक बेहतर और संतुलित आक्रमण से जूझना पड़ा है तो उसकी बल्लेबाजे चूक गए हैं। उनके मुताबिक,2005 के एशेज सीरिज में इंग्लैंड ने चार मीडियम पेसर के सटीक आक्रमण के सहारे सीरिज पर कब्जा किया था। यहां भारत की ओर से ईशांत शर्मा,जहीर खान के साथ साथ हरभजन और अमित मिश्रा के बेहद संतुलित प्रहार ने उन्हें संभलने का मौका नहीं दिया।
इनसे उलट आस्ट्रेलिया का कोई गेंदबाज भारत के बीस विकेट लेता नहीं दिखायी दिया। नागपुर में क्रेजा अकेले दम 12 विकेट तक पहुंचे तो इसने आस्ट्रेलियाई थिंक टैंक के लिए इस सीरिज में टीम कॉम्बिनेशन पर ही सवाल खड़ा कर दिया। आखिर,क्रेजा कैसे पहले तीन टेस्ट में टीम में जगह नहीं बना पाए। ये भी आस्ट्रेलिया के लिए बहस का एक और मुद्दा है। ऐसे में ये चूक या ये फैसले पोंटिंग की टीम को उस आस्ट्रेलियाई सोच से दूर ले जा रहे हैं,जो जीतना ही नहीं,जीत के शिखर पर बने रहना भी सिखाती है। फिलहाल,पोंटिंग की यह आस्ट्रेलियाई टीम शिखर की इस राह से भटक गई है।

Sunday, November 9, 2008

सीरिज के आखिरी दिन पोंटिंग के सामने कप्तान धोनी से पार पाने की चुनौती

आस्ट्रेलियाई कप्तान रिकी पोंटिंग के 13 साल के यादगार टेस्ट करियर में कितने ही सोमवार आकर चले गए। लेकिन,नागपुर के विदर्भ क्रिकेट एसोसिएशन के मैदान पर इंतजार करता सोमवार उनका सबसे कड़ा इम्तिहान लेने जा रहा है। सीरिज के आखिरी दिन गावस्कर बॉर्डर ट्रॉफी पर कब्जा बरकरार रखने के लिए उन्हें 369 रनों की चढ़ाई करनी है। सिर्फ यही एक सूरत है कि अपनी कप्तानी में आस्ट्रेलिया को लगातार 16 और कुल जमा 33 जीत दिला चुके पोंटिंग सम्मान के साथ घर लौट सकें। जीत की पहचान को लेकर बनी आस्ट्रेलियाई इमेज को एक नए सिरे से गढ़ सकें। लेकिन,वो अगर इस लक्ष्य से आखिरी कदम के फासले से भी चूक गए तो उनके जेहन में इस शिकस्त के लिए सिर्फ और सिर्फ एक ही नाम उभार लेगा-भारतीय कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी।

आखिर, अब से 50 दिन पहले पोंटिंग ने अपने साथियों के साथ भारत की उड़ान भरी थी तो उनके सामने चुनौतियों की एक लंबी फेहरिस्त थी। वीरेन्द्र सहवाग से शुरु होकर वीवीएस लक्ष्मण, हरभजन सिंह से होते हुए ईशांत शर्मा तक। फ्रेम दर फ्रेम ये चेहरे पोंटिंग और उनके साथियों के बीच एक बहस में तब्दील होते रहे होंगे। भारत आस्ट्रेलिया सीरिज को एशेज से कई पायदान ऊपर ठहरा रहे आलोचक भी पोंटिंग-ईशांत शर्मा, पोंटिंग-हरभजन,हेडन-जहीर,ब्रेटली-सचिन के संघर्ष के बीच सीरिज के संभावित रोमांच को महसूस कर रहे थे। लेकिन,इनमें कहीं महेन्द्र सिंह धोनी का नाम नहीं था। इसके बावजूद कि इसी साल की शुरुआत में धोनी ने पोंटिंग की इस आस्ट्रेलियाई टीम को उसी के घर में अपनी बेजोड़ कप्तानी मे ट्राइंगुलर सीरिज में शिकस्त दी थी।

दरअसल,इस सीरिज में कुंबले नहीं धोनी की कप्तानी ही कसौटी पर थी। ट्वेंटी 20 के वर्ल्ड चैंपियन और वनडे के नए बादशाह धोनी को अभी टेस्ट में कप्तानी के लिए तैयार नहीं माना जा रहा था। लेकिन,धोनी की कप्तानी ही भारत और आस्ट्रेलिया के बीच हार और जीत का सबसे बड़ा फासला बनकर उभार ले रही है। सचिन तेंदुलकर से लेकर सौरव गांगुली,गौतम गंभीर से लेकर वीरेन्द्र सहवाग या लक्ष्मण तक या गेंदबाजी मे जहीर से लेकर ईशांत शर्मा या हरभजन से लेकर अमित मिश्रा तक-सबने इस सीरिज में अपनी छाप छोड़ी है। लेकिन, इन सबके बीच भी सबसे बड़े चेहरे के तौर पर धोनी ही उभार ले रहे हैं।

आखिर,रविवार को जीत की ओर बढ़ रही भारतीय पारी लंच और चयकाल के बीच अचानक चरमरा गई। वीरेन्द्र सहवाग और मुरली विजय की ठोस शुरुआत के बावजूद भारतीय पारी देखते ही देखते बिना विकेट पर 116 रन से छह विकेट पर 166 रन पर आकर लड़खड़ाने लगी। शेन वाटसन और जैसन क्रेजा के सामने महज 50 रन के दरम्यान भारत के पहले छह बल्लेबाज ड्रेसिंग रुम लौट गए। इस मोड़ पर भारत के पास केवल 252 रन की बढ़त थी। भारत की पारी के आखिरी चार विकेट हासिल करते हुए आस्ट्रेलिया मुकाबले में अपनी गिरफ्त मजबूत कर लेने की कगार पर था। आलोचकों की निगाह अब धोनी की कप्तानी पर थी। धोनी कैसे इस नाजुक मोड़ से भारतीय पारी को किनारे तक ले जाते हैं। धोनी किस अंदाज मे इस चुनौती से पार पाते हैं।

लेकिन,धोनी इस कसौटी पर खरे उतरे। अपनी आक्रामक छवि से हटकर धोनी ने जरुरत के मुताबिक अपनी टीम के लिए रन बटोरे। साथ ही, अपने साथी हरभजन सिंह को सीरिज में एक और अहम पारी खेलने के लिए प्रेरित किया। इसी का नतीजा था कि इन दोनों ने इस नाजुक मोड़ पर सांतवे विकेट के लिए 108 रन की साझेदारी की। इसमे भी धोनी की बल्लेबाजी सोच सबकी निगाहों में ठहर गई। वनडे क्रिकेट में अपनी भूमिका में लगातार बदलाव कर रहे धोनी ने यहां टेस्ट में भी एक नए बल्लेबाज धोनी से रुबरु कराया। धोनी ने 81 गेंदों में अपने 55 रनों के दौरान 19 सिंगल्स लेते हुए बराबर स्ट्राइक बदलते हुए आस्ट्रेलियाई गेंदबाजों के लिए विकेट तक की राह को मुश्किल बनाया।

धोनी अपनी इस बल्लेबाजी से क्रिकेट चहेतों को डेढ साल पहले लॉर्ड्स पर खेली अपनी एक और बेजोड़ पारी की ओर लौटा ले गए। इंग्लैंड के खिलाफ चौथी पारी में 380 रनों का पीछा कर रहा भारत एक वक्त 145 रन पर पांच विकेट गंवा चुका था। मुकाबले के इस मोड़ से ड्रॉ तक ले जाने के लिए भारत को अभी 48 ओवर और खेलने थे। धोनी ने अपनी आक्रामक छवि से हटकर 76 रन की बेहद ठोस पारी खेली। करीब साढ़े तीन घंटे तक एक छोर पर मजबूती से थामे रखा। इस हद तक कि वीवीएस लक्ष्मण के वापस लौटने के बावजूद भारत इस तय हार को टालने में कामयाब रहा। मैच के आखिरी बीस ओवर मे धोनी के साथ दूसरे छोर पर कुंबले,जहीर खान,आरपी सिंह और श्रीसंत ही बचे थे। इनमें भी श्रीसंत के साथ तो धोनी ने आखिरी विकेट को बचाए रखने के लिए बेहद परिपक्वता से बल्लेबाजी की। आखिरी पांच ओवर में उन्होंने श्रीसंत को सिर्फ सात गेंदों के लिए इंग्लैंड गेंदबाजों के सामने आने दिया। लॉर्ड्स में ड्रॉ रहा ये टेस्ट ही था,जिसके बाद भारत ने सीरिज पर ही कब्जा जमा लिया।

इस सीरिज में भी कप्तान धोनी ने मोहाली में अपने बल्ले से ऐसी छाप छोड़ी कि पोंटिंग के लिए ट्रॉफी को बरकरार रखना मुश्किल दर मुश्किल होता चला गया। मोहाली में आठवें नंबर पर बल्लेबाजी करने आए धोनी ने 92 रन की एक बड़ी पारी खेली। इस पारी में जरुरत के मुताबिक आक्रमण का भरपूर समावेश था। आठ चौके और चार छक्कों से सजी इस पारी के दौरान धोनी ने गांगुली के साथ सातवें विकेट के लिए सिर्फ बीस ओवर में 109 रन जोड़ डाले। इतना ही नहीं,मैच के चौथे दिन आस्ट्रेलिया को दबाव में लाने के लिए एक बार फिर तेज रनों की दरकार थी,तो धोनी तीसरे नंबर पर बल्लेबाजी करने पहुंचे। पहली पारी में भी सौरव गांगुली के साथ अहम मौके पर महत्‍वपूर्ण साझेदारी करने वाले धोनी ने इस बार 84 गेंदों में 55 रनों की ठोस पारी के दौरान 19 सिंगल्‍स लेकर आस्ट्रेलिया को सीरिज में शिकस्त की ओर धकेलने की शुरुआत की।


इस सीरिज में यह सिर्फ धोनी के बल्ले की ही बात नहीं है। धोनी की कप्तानी भी कसौटी दर कसौटी खरी साबित हो रही है। मोहाली में ही जीत तक पहुंचने की राह में कुंबले की जगह अपना पहला टेस्ट खेल रहे अमित मिश्रा से लेकर अनुभवी हरभजन सिंह तक का बेहतरीन इस्तेमाल धोनी ने किया। खासतौर से चौथे दिन शाम आठवें ओवर मे ही हरभजन सिंह की ओर गेंद उछालते हुए मुकाबले का सबसे बड़ा दांव खेला। हरभजन ने सिर्फ दस गेंदों के बीच ही हेडन, कैटिच और हसी के विकेट लेते हुए मुकाबले पर भारत की मुहर लगा दी थी। नागपुर टेस्ट में ही धोनी ने अपनी सूझबूझ भरी कप्तानी से कैटिच और हसी की साझेदारी से एडवांटेज की ओर बढ़ रही आस्ट्रेलियाई पारी को बैकफुट पर ला खड़ा किया। तमाम आलोचनाओं के बावजूद ऑफ साइड की मजबूत घेराबंदी के बीच ऑफ स्टंप की दिशा पकड़कर गेंदबाजी की हिदायत देते हुए। रनों के प्रवाह को रोकते हुए धोनी ने पहले उनकी बल्लेबाजी लय को तोड़ा और फिर आस्ट्रेलियाई पारी को।

अब इस सीरिज के आखिरी दिन पोंटिंग को इसी कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी से जूझना है। किस तरह पोंटिंग धोनी की बिछायी बिसात से अपनी मंजिल तलाशते हैं,इस पर सबकी निगाह रहेगी। नतीजा कुछ भी हो,लेकिन इतना तय है कि घर लौटते पोंटिंग भारतीय चुनौतियों की फेहरिस्त एक नए सिरे से तैयार करेंगे। इसमें सबसे पहला नाम होगा-महेन्द्र सिंह धोनी का। अपने आखिरी पढ़ाव पर पहुंची गावस्कर बार्डर ट्रॉफी से यही सबसे बड़ा पहलू उभरकर सामने आ रहा है।

Saturday, November 8, 2008

विजय,मिश्रा,गांगुली की कामयाबी सिलेक्टर्स के भरोसे की जीत है

महज एक सेंकेंड। लेकिन,मुरली विजय को अपनी मौजूदगी दर्ज कराने के लिए सिर्फ यह एक सेंकेंड ही बहुत था। सिली प्‍वाइंट पर तैनात विजय ने माइकल हसी के बल्ले से निकले स्ट्रोक को बीच रास्ते में ही दांहिने हाथ से रोका। हसी जब तक अपने स्ट्रोक के फॉलो थ्रू से वापस लौटते हुए क्रीज में बल्ला पहुंचाने की कोशिश भी करते,विजय के थ्रो पर विकेटकीपर महेन्द्र सिंह धोनी स्टंप बिखेर चुके थे।

सिर्फ एक सेंकेंड में विजय ने माइकल हसी की लगातार मजबूती लेती पारी को शतक से दस रन पहले थाम दिया। यह सिर्फ हसी की पारी का ही अंत नहीं था, ये गावस्कर बॉर्डर ट्रॉफी में बराबरी पर आने के लिए जीतोड़ कोशिशों में लगी आस्ट्रेलिया की उम्मीदों का बिखरना भी था। इस मुकाबले में विजय के लिए यह पहला मौका नहीं था। दूसरे दिन ऐसे ही एक सेंकेड में उनके सटीक थ्रो ने आस्ट्रेलियाई बल्लेबाजी की अगुवाई कर रहे अनुभवी मैथ्यू हेडन को भी ड्रेसिंग रुम की ओर मोड़ दिया था। ये दोनों बल्लेबाज "फोटो फ्रेम फिनिश" में अपना विकेट बचा नहीं पाए।

एक टेस्ट में दो-दो रन आउट। वो भी बल्लेबाज की चूक से नहीं,फील्डर की चीते सी चपलता से। टेस्ट क्रिकेट में यह किसी गेंदबाज के विकेट तक पहुंचने से कतई कम नहीं है। मुरली विजय ने एक-एक सेंकेंड के इन दो लम्हों में नागपुर के विदर्भ क्रिकेट एसोसिएशन मैदान में अपनी फील्डिंग से ऐसी छाप छोड़ दी है कि इस मुकाबले और सीरिज के आखिरी नतीजे में वो एक बहस का मुद्दा बनेगी।

आखिर,शनिवार की सुबह भारत ने एक नहीं दो बार साइमन कैटिच को जीवनदान दिया। पहले राहुल द्रविड़ और फिर वीवीएस ने स्लिप में अपने हाथ में पहुंची गेंद को कैच में तब्दील नहीं कर पाए। लेकिन,ठीक इसी मोड़ पर विजय ने मुकाबले में फील्डिंग की अहमियत को भी जता दिया। आखिर,इस मुकाबले से ठीक पहले विजय को जब टीम में जगह मिली तो कितने ही लोगों के जेहन में यह सवाल कुलबुलाने लगा कि विजय-कौन विजय?

कहीं कहीं 1997 के आसपास भारतीय टीम में अचानक जगह बनाने वाले ऑफ स्पिनर नोएल डेविड की तरह उनका नाम भी सुनायी पड़ने लगा। क्रिकेट आलोचकों ने सवाल खड़ा किया कि आखिर आकाश चोपड़ा,वसीम जाफ़र के रहते एम विजय को टीम में जगह कैसे मिल सकती है। लेकिन,विजय ने अपने इन दो लम्हो के साथ साथ भारतीय पारी को एक मजबूत आधार भी दिया।

उन्होंने बेशक सिर्फ 33 रन ही अपनी पारी में जोड़े लेकिन वीरेन्द्र सहवाग के साथ पहले विकेट के लिए बनाए 98 रन ही थे,जिसने भारत को इस मुकाबले में कई बार लड़खड़ाने के बावजूद एक विजयी लक्ष्य की ओर मोड़ दिया। लेकिन,विजय की इस पहचान दर्ज कराते आगाज के लिए हमें चयनसमिति के भरोसे को सलाम करना होगा।

चयनसमिति को यह मालूम था कि इस फैसले से उन्हें सवालों के घेरे में लिया जाएगा,उन्होंने विजय में अपने भरोसे को बनाए रखा। खबरों के मुताबिक,सौरव गांगुली ने चयनसमिति के अध्यक्ष कृष्णामाचारी श्रीकांत को कहा कि अगर आप इस पोजिशन के लिए किसी को देख रहे हैं तो वो शख्स विजय हो सकता है। गांगुली टीम में अपनी वापसी की तैयारियों के तहत न्यूजीलैंड ए के खिलाफ खेलते हुए भारत ए के इस ओपनर की बल्लेबाजी से रुबरु हुए थे।

ये इस सीरिज में अकेला वाक्या नहीं है,जहां अपनी नयी पारी खेल रहे सिलेक्टर्स का अपनी सोच में एक ठोस भरोसा दिखायी दिया है। उन्होंने पीयूष चावला पर तरजीह देते हुए टीम में हरियाणा के लेग स्पिनर अमित मिश्रा को टीम में जगह दी। इतना ही नहीं,मोहाली टेस्ट से ठीक पहले तत्कालीन कप्तान अनिल कुंबले को चोट की वजह से बाहर बैठना पड़ा तो मिश्रा को उतारने में कतई देरी नहीं की गई।

चयनकर्ताओं का यह तीर भी बिलकुल ठीक निशाने पर लगा। इस मैच की पहली पारी में पांच और दूसरी पारी में दो विकेट लेकर मिश्रा ने सीरिज में भारत के लिए पहली जीत की राह तैयार की। उनका प्रदर्शन इस कदर सबकी निगाहों में चढ़ गया कि सीरिज के ठीक बीच कप्तान कुंबले के संन्यास के झटके को भी भारतीय टीम झेलने के लिए तैयार दिखी। फिर,चयनसमिति के सौरव गांगुली में जाहिर किए गए भरोसे को भारतीय क्रिकेट में कभी भुलाया नहीं जा सकेगा।

तमाम आलोचनाओं और सौरव के फॉर्म पर उठते सवालों के बावजूद श्रीकांत एंड कंपनी ने भारत के पूर्व कप्तान को सीरिज में खेलने का मौका दिया। अपनी विदाई सीरिज में इस मौके को हाथों हाथ लेते हुए सौरव ने चार टेस्ट की पांच पारियों में 324 रन बनाते हुए इसे यादगार बना दिया है। इस सीरिज में सौरव का योगदान सिर्फ रनों के आइने में ही नहीं देखा जा सकता।

बेंगुलुरु की 47 रनों की छोटी पारी से लेकर मोहाली और नागपुर में कप्तान धोनी और तेंदुलकर के साथ निभायी साझेदारियां भारत के आस्ट्रेलिया पर हावी होने की नींव बनी। इन सबसे आगे सौरव के प्रदर्शन ने भारतीय क्रिकेट में अपने महानायकों को अलविदा कहने के लिए एक नयी राह खोल दी है। पूरे सम्मान के साथ अपने चहेतों के बीच अपनी स्टेज से अलविदा कहने का मंत्र। एक ऐसा सूत्र,जिसे थामने में सुनील गावस्कर से लेकर कपिल देव तक नाकाम रहे।

लेकिन, सौरव नागपुर में पूरे सम्मान के साथ आखिरी बार ड्रेसिंग रुम की ओर मुखातिब होंगे तो उनका हर कदम,उनका हर हाव भाव,उनके चाहने वालों के दिलो-दिमाग में हमेशा हमेशा के लिए ठहर जाएगा। महानायक को लेकर गढ़ा उनका मिथक कभी नहीं दरक पाएगा। सिर्फ एक सवाल जेहन में होगा-आखिर क्यों सौरव इस स्टेज से इस वक्त अलग हो रहे हैं?

किसी भी खिलाड़ी के लिए इससे बेहतर अलविदा हो नहीं सकती। लेकिन,इस अलविदा के लिए इतनी खूबसूरत ज़मी तैयार करने के लिए श्रीकांत एंड कंपनी को बार बार सलाम। इस सीरिज में सौरव गांगुली से लेकर अमित मित्रा और एम विजय की कामयाबियां अरसे तक लोगों की यादों में बसी रहेंगी। निश्चित तौर पर ये चयनसमिति के भरोसे की जीत है।

Sunday, November 2, 2008

अनिल कुंबले की विदाई के साथ 22 गज की स्टेज पर छूटा एक खालीपन

अनिल कुंबले ने अंपायर से गेंद अपने हाथ में ली। लेकिन, इस बार गेंदबाजी रनअप के लिए कदम बढ़ाने के लिए गेंद नहीं थामी। कुंबले ने ये गेंद ली हमेशा-हमेशा के लिए सहेज कर रखने के लिए। एक बेशकीमती धरोहर की तरह कुंबले उसे थाम ड्रेसिंग रुम लौट रहे थे। कुछ ही लम्हों पहले तक अपनी जिंदगी का हिस्सा बन चुकी 22 गज की स्टेज को पीछे छोड़ते हुए। दुनिया के हर हिस्से में ज़मीं के ऐसे टुकडों पर सिर्फ और सिर्फ बल्लेबाज के विकेट तक पहुंचने का एकमात्र लक्ष्य लेकर कुंबले ने अपने रनअप की ओर कदम बढ़ाए। एक बार नहीं, सौ बार नहीं बल्कि 40,852 बार। 18 साल तक लगातार एक सिलसिले की तरह। जीवट, धैर्य और खेल में डूबकर उसे जीने का तरीका बनाते हुए।

यही कुंबले रविवार की ढलती शाम में अपने सफर पर पूर्ण विराम लगा रहे थे। सचिन तेंदुलकर के साथ इस लम्हे को साझा करते हुए उनके चेहरे पर हमेशा की तरह एक मुस्कुराहट तैर रही थी। लेकिन, कुंबले की पहचान बनी इस मुस्कुराहट के पीछे अपनी ज़िंदगी के एक हिस्से को अलग करने के दर्द को आप महसूस कर सकते थे। टेलीविजन स्क्रीन पर उनके चेहरे पर टिके कैमरे मुझे भावुकता में बहाए लिए जा रहे थे। ऐसे में, इस लम्हे में ज़िंदगी में अचानक घर कर गए इस खालीपन के साथ आगे बढ़ते कुंबले की मन:स्थिति को सिर्फ और सिर्फ महसूस ही किया जा सकता है।

कुंबले अपनी जिंदगी में इस खालीपन के लिए बेशक मानसिक तौर पर खुद को तैयार कर रहे थे। आज जैसा उन्होंने कहा भी- "मैं इसे अपनी आखिरी सीरीज मानकर आगे बढ़ रहा था।" लेकिन, ये उनका आखिरी मैच होगा, ये कोई नहीं जानता था। शनिवार शाम तक कुंबले भी नहीं। महज एक शाम के डूबने और दूसरी सुबह के उगने के बीच उन्होंने ये फैसला लिया। "मैंने कल रात ही ये तय किया कि मुझे अब क्रिकेट से अलग हो जाना चाहिए।" बेहद साफगोई से, ईमानदारी से भारतीय क्रिकेट के इस बेमिसाल नायक ने अपने फैसले पर पहुंचने के मोड़ से सबको रुबरु करा दिया। "मेरी उंगली में लगे 11 टांके और चोट मुझे अपना सौ फीसदी खेल नहीं खेलने देगी। अपने प्रदर्शन से मैं अपनी टीम को नुकसान नहीं पहुंचा सकता।" ये बेशक अचानक उठी आलोचनाओं और सवालों का जवाब था। लेकिन, इतनी कड़वी सचाई को इतनी सहजता से सिर्फ कुंबले और कुबंले ही कह सकते हैं। सिर्फ कुंबले ही इसे स्वीकार करने की हिम्मत रखते हैं।

आखिर, कुंबले बेमिसाल हैं। इसलिए नहीं कि टेस्ट क्रिकेट में 619 विकेट के खड़े किए शिखर तक पहुंचना किसी भी भारतीय का पहुंचना फिलहाल मुश्किल लगता है। इसलिए भी नहीं कि कुंबले की रची जीत की कहानियों को दोहराना अब नामुमकिन हो जाएगा। कुंबले का पूरा सफर अकेले दम सवालों, आलोचनाओं के बीच एक संन्यासी की तरह तपस्या में जुटे रहने की कहानी है।

आप कुंबले को भारतीय क्रिकेट का सबसे बड़ा तपस्वी कह सकते हैं। आखिर एक गेंदबाज मैच दर मैच अपनी गेंदों से टीम के लिए जीत की राह तैयार करता है। लेकिन, आलोचक उसकी कामयाबियों को नवाजने के बजाय उन पर सवाल खड़ा करते हैं। बेदी, प्रसन्ना और चंद्रा के सुनहरे दौरे के बीच ये उन्हें एक मीडियम पेसर दिखायी देता है। इसकी गेंदें घूमती ही नहीं। अगर बल्लेबाज एक बार इन्हें समझ जाए तो वो बेफिक्र होकर खेल सकता है।

इन आलोचनाओं के बीच भी कोई बल्लेबाज कुंबले को बेफिक्र होकर खेल नहीं पाया। 1992 में पहले दक्षिण अफ्रीका और फिर अपने घर में इंग्लैंड के बल्लेबाजों के पांव कुंबले के सामने कांपने लगे। इन आलोचनाओं का ज्‍वार कुछ कम हुआ, लेकिन खत्म नहीं। अब कहा जाने लगा- "कुंबले की गेंदों में टर्न है। सिर्फ उतना ही, जितना विकेट के लिए जरुरी है।" लेकिन, साथ में सवाल भी जोड़ दिए गए। इस लेग स्पिनर की तरकश में गुगली नहीं है। लेग स्पिन नहीं है।

लेकिन, कुंबले इस बेपरवाह होकर लगातार अपनी गेंदों में नए आयाम जोड़ते चले गए। लेग स्पिन की हर विधा को उन्होंने अपनी गेंदबाजी में शामिल कर लिया। आखिर, आप इसे क्या कहेंगे कि भारतीय स्पिन के सुनहरे दौर के सबसे बड़े नायक बिशन सिंह बेदी के हासिल किए गए 266 विकेट के मुकाबले कुंबले ढाई गुना आगे जाकर 619 विकेट के नए शिखर के साथ करियर को अलविदा कह रहे हैं।

ये सिर्फ कुंबले के हाथों से छूटी गुजरते वक्त के साथ तेज होती धार ही नहीं है, ये अपनी सीमाओं में एक परिपूर्णता की तलाश करता एक गेंदबाज ही नहीं है, ये स्किल और टेलेंट से आगे जाकर जीवट की ढेरों कहानियों को समेटे एक बेजोड़ नायक है। टूटे जबड़े के बावजूद एंटिगा के सेंटजोंस मैदान पर उतरे कुंबले को कौन भूल सकता है। दर्द से बेपरवाह 14 ओवर के स्पैल में ब्रायन लारा के विकेट तक पहुंचे कुंबले की कहानी भारतीय क्रिकेट में किंवदंती की शक्ल ले चुकी है। ये अगर छह साल पहले की बात थी, तो एक दिन पहले ही उंगली में लगे 11 टांकों के बावजूद अपने से जुड़े सवालों का जवाब तलाशते कुंबले को आप सिर्फ सलाम ही कर सकते हैं।

फिर, जब इन सवालों का जवाब जब उनकी गेंदें नहीं दे पायी। तो इस बार बेहद ईमानदारी से उन्होंने खुद से जवाब मांगा। ये सवाल पिछले एक साल से लगातार उन पर हावी हो रहा था। ये कबूलने मे भी उन्होंने कोई हिचकिचाहट नही दिखायी। ढलती उम्र में शरीर लगातार जवाब दे रहा था। लेकिन,उनके भीतर का खिलाड़ी अभी हार मानने को तैयार नहीं था। कुंबले का कहना है "बेशक मैं दर्द निवारक दवाइयों के साथ खेल में खुद को झोंक रहा था। खेलना मुश्किल हो रहा था। लेकिन, मुझे लगता था कि मैं अभी कुछ और खेल सकता हूं। लेकिन, उंगली में लगी चोट के बाद मुझे लगा कि अब इस सफर को थामना होगा। ये चोट काफी गंभीर थी। अब शायद बस।"

कुंबले ने इस 'बस' के साथ क्रिकेट सफर को पूर्णविराम लगा दिया। अब एक खालीपन सिर्फ उनकी जिंदगी में ही नहीं है। हम सब भी उसी खालीपन के साथ जीने को मजबूर हैं। हम सब की जिंदगी में भी मैदान के 22 गज की इस जमी पर कुंबले की छवि फिर उभार नहीं लेगी। लेकिन, हौसलों से भरे उनके डग, हाथ से छूटती गेंद, बल्लेबाज के विकेट तक पहुंचने के बाद एक असीम खुशी में डूबते कुंबले हमारी यादों में कभी धुंधले नहीं पड़ेंगे। पाकिस्तान के खिलाफ एक पारी में हासिल दसों विकेट से लेकर वेस्टइंडीज के खिलाफ उसी की ज़मी पर इतिहास दोहराती जीत तक। आस्ट्रेलिया में साइमंड्स-भज्जी विवाद के मद्देनजर मैदान से बाहर भारतीय गौरव की अगुआई करते कुंबले से लेकर, पर्थ में यादगार जीत तक पहुंचाती इस नायक की उपलब्धियों में हम बार-बार डूबते उतरते रहेंगे।

रविवार को कोटला पर आखिरी बार अपनी स्टेज को पीछे छोड़ अपनी बेटी का हाथ थामे कुंबले वापस लौट रहे थे। उनकी बेटी बेहद मासूमियत से अपने पिता की ओर देख रही थी। छह फीट लंबे कुंबले को देखने के लिए वो बराबर अपना सिर उठा नज़रों को ऊंचा कर रही थी। इस बच्ची को आज अपने पिता के असली कद का अंदाज तो नहीं हुआ होगा। आने वाले कल में जब वो इस एक तारीख की ओर रुख करेगी तो जरुर एक रोमांच और गर्व से भर जाएगी कि कितने बड़े लम्हे के बीच से वो गुजरकर आयी थी। कितनी बड़ी शख्सियत की उंगली थाम उसने कदमों के साथ कदम मिलाए थे। ऐसे कदम, जिनके निशां भारतीय क्रिकेट में इतने गहरे छप गए हैं कि कभी मिटाए नहीं जा सकेंगे। ये भारतीय क्रिकेट के महानायक अनिल कुंबले के कदमों के निशां हैं। इस पर आने वाला हर एक गेंदबाज चलना चाहेगा। यही अनिल कुंबले होने का मतलब है।

Saturday, November 1, 2008

चौतरफा दबाव के बीच खुद से जूझते अनिल कुंबले

वीरेन्द्र सहवाग- 40-9-104-5 । अनिल कुंबले- 43.3-9-112-3 । ये सिर्फ दो गेंदबाजी विश्लेषण नहीं हैं। ये एक पारी में एक गेंदबाज की कामयाबी और दूसरे की नाकामी का चेहरा भी नहीं हैं। अगर आप फिरोजशाह कोटला पर भारत और आस्ट्रेलिया के बीच खेले जा रहे तीसरे टेस्ट मैच को लगातार देख रहे हैं तो इस विश्लेषण से कहीं आगे ये दो खिलाड़ी दो अलग ज़मी पर खड़े दिखेंगे। दबाव से बेफ्रिक्र होकर कैसे आप लगातार नयी कामयाबियों की ओर मुखातिब होते हैं। दबाव किस तरह आपकी राह मुश्किल दर मुश्किल बना डालता है। सहवाग और कुंबले दोनो इस मुकाबले में इन दो छोर पर खड़े दिखायी दे रहे हैं।

वीरेन्द्र सहवाग ! जरुर उन्हें हरभजन की गैरमौजूदगी में गेंदबाजी की ज़िम्मेदारी सौपी गईं। मुकाबले के बीच कुंबले को लगी चोट के बाद ये जिम्मेदारी दोहरी हो गई। लेकिन, मूल रुप से सहवाग की पहचान न तो एक गेंदबाज के तौर पर गढ़ी गई है, न ही उनकी गेंदों से बल्ले की तरह भारत ने जीत की राह का ख्वाब संजोया है। उनकी भूमिका या तो एक बड़ी साझेदारी को तोड़ने की शक्ल में देखी गई या फिर एक छोर पर बदलाव के लिए उनके हाथ में गेंद थमायी गई। बहुत ज्यादा हुआ तो एक छोर पर रनों के प्रवाह को रोकने के इरादे से कप्तान ने सहवाग का इस्तेमाल किया।

सहवाग दबाव से मुक्त होकर अपनी इस जिम्मेदारी को निभाते रहे हैं। इस मुकाबले में भी बल्ले से नाकाम होने के बावजूद सहवाग पर विकेट लेने का दबाव तो नहीं रहा होगा। गेंदबाजी में कुछ भी दांव पर न होने के चलते उनकी गेंदों में पारी के आगे बढ़ने के साथ साथ धार भी दिखायी देने लगी। एक भरोसे के साथ सहवाग अपनी गेंदों को टॉस कराया। साथ ही, ऑफ स्टंप की दिशा को थामते हुए लगातार आस्ट्रेलियाई बल्लेबाजों को भी परेशान करते रहे। तीसरे दिन शतक के करीब खड़े कप्तान पोंटिंग उनकी एक सहज ऑफ स्पिन पर ड्राइव करने की कोशिश में पूरी तरह परास्त हुए। आस्ट्रेलियाई बल्लेबाजी का सबसे ठोस किला कहे जाने वाले माइकल हसी हताश हुए। शनिवार की सुबह बेहद सहजता से खेल रहे शेन वाटसन सहवाग की अंदर आती गेंद से पार पाने का सूत्र तलाशते हुए अपना लेग स्टंप गंवा बैठे। सहवाग आस्ट्रेलियाई पारी में पांच विकेट अपने नाम किए। भारतीय गेंदबाजी में एक नये स्ट्राइक गेंदबाज की शक्ल लेते हुए।

दूसरे छोर पर अनिल कुंबले थे। पूरी तरह दबाव के बीच। बाएं हाथ की उंगली में लगे 12 टांकों का दबाव शायद इस अनुभवी स्ट्राइक गेंदबाज पर नहीं रहा होगा,जितना कि आस्ट्रेलियाई विकेट तक पहुंचने का। इस सीरिज में अपने पहले विकेट का इंतजार करते कुंबले लगातार इस चुनौती से जूझते दिखायी दिए। पिछली 17 पारियों से कुंबले एक पारी में पांच विकेट लेने का कारनामा नहीं दोहरा पाए हैं। ये वो कुंबले हैं, जिन्होंने 35 बार पांच विकेट और आठ बार एक मैच में दस विकेट हासिल किए हैं। अपने करियर में करीब 29 रन की औसत से 617 विकेट लेने वाले कुंबले पिछली 16 पारियों के दौरान 52 के औसत से विकेट तक पहुंच पाए हैं। भारतीय क्रिकेट के सबसे बड़े मैच विनर कुंबले ने अपने करियर में करीब हर 66वीं गेंद पर विकेट लिया है,लेकिन पिछले एक साल के दौरान इन 16 पारियों मे उन्हें औसतन 98 गेंद तक इंतजार करना पड़ा है।आस्ट्रेलिया,श्रीलंका और अपने घर में पिछले एक साल से लगातार विकेट के लिए तरसकर रह गए हैं कुंबले। ये कुंबले के करियर का दूसरा सबसे बड़ा दौर है,जब उन्हें विकेट के लिए इस कदर जूझना पड़ा है। इससे पहले, 2006 में भी 19 पारियों में भी वो एक पारी में पांच विकेट के लिए तरसते रहे थे।

लेकिन,इस बार कुंबले पर अकेला यही दबाव नहीं था। कुंबले की नाकामी के पिछले दौर में उनका विकल्प खोजने की बात नहीं हो रही थी। लेकिन,यहां न सिर्फ गेंदबाज बल्कि कप्तान के तौर पर भी वो अपनी जगह बरकरार रखने के लिए जूझते दिखायी दे रहे हैं। ये भी एक अजब संयोग है कि दोनों विकल्प ठीक उनके साथ मैदान में तलाशे जा रहे हैं। मोहाली में बेहतरीन गेंदबाजी कर चुके लेग स्पिनर अमित मिश्रा बेशक कोटला पर कारगर साबित नहीं हो पाए लेकिन कुंबले के बाद उनका नाम तो लिया ही जाने लगा है। महेन्द्र सिंह धोनी ट्वेंटी-20 और वनडे के बाद अब टेस्ट में भी मौका मिलने पर अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहे हैं।

इस चौतरफा दबाव के बीच कुंबले की मनस्थिति को महसूस करना आसान नहीं है। यहां मुझे टॉनी फ्रांसेस की 'जेन ऑफ क्रिकेट' में कही एक बात याद आ रही है। उनके मुताबिक, पेशेवर क्रिकेट में नब्बे फीसदी आप अपने दिमाग से खेलते हैं,और दस फीसदी अपनी क्षमताओं से। यहां कुंबले उस नब्बे फीसदी से खुद को उबारने में लगे हैं। कहा जाता है कि आप दबाव में हैं, तो अपने गुजरे कल के सबसे बेहतरीन लम्हे को याद कर उससे उबरने की कोशिश करें। लेकिन, शायद कुंबले की ये नियति ही कही जाएगी कि उसी कोटला पर वो अपनी इन चुनौतियों से जूझ रहे हैं,जिसने उन्हें करियर के सबसे यादगार पल दिए। इस हद तक कि कोटला और कुंबले एक दूसरे से हमेशा के लिए जुड़ गए। यही एक अकेला टेस्ट होगा,जहां कुंबले और कोटला के बीच एक अदृश्य सी लकीर खींच गई है। फिर,ये लकीर इस मुकाबले के आगे बढ़ते बढ़ते लगातार गहराती जा रही है। क्रिकेट आलोचकों का मानना है कि इस विकेट पर चालीस ओवर में तो कुंबले पूरी पारी को ही साफ कर देते थे,लेकिन अब कुंबले के कंधों में पहले जैसी ताकत दिखायी नहीं दे रही। ऐसी ताकत,जो उन्हें विकेट से टर्न से ज्यादा एक उछाल देती थी। आज आलोचकों की निगाहों में कुंबले की गेंदों की पहेली सुलझा ली गई है। कुंबले को अब बल्लेबाज बैकफुट पर भी आसानी से खेलने लगे हैं।


इन सबके बीच कुंबले अपने हर विकेट के साथ इन्हीं सवालों का जवाब देते दिखते हैं। हैडिन का विकेट लेने के बाद मुट्ठी भींचते और चेहरे पर एक जवाबी मुस्कुराहट लाते कुंबले को देख आप इसे महसूस कर सकते हैं। लेकिन,साथ ही ये संदेश भी आप तक पहुंच जाता है कि कुंबले की गेंदों के लिए अब विकेट तक की राह मुश्किल और मुश्किल होती जा रही है। उन पर गहराता ये दबाव उनके रास्ते को और दुरुह बना रहा है। उम्र के इस पढ़ाव पर कुंबले अपने इस चहेते खेल से अलविदा कहने का मन तो बना चुके होंगे लेकिन इंतजार में हैं सही वक्त के। ये भी अजीब संयोग है कि उनकी स्थिति शायद आज के शेयर बाजार में निवेश कर चुके हजारों निवेशकों सरीखी है, जो सेंसेक्स का शिखर देख चुके हैं,लेकिन मंदी के इस दौर में अब बाजार से निकलने का सही वक्त खोज रहे हैं। उन्हें अपने वक्त का इंतजार है, तो कुंबले को भी।

Thursday, October 30, 2008

बार-बार खुद को साबित करने को मजबूर लक्ष्‍मण

उनके किट बैग में सिर्फ बल्‍ला या बा‍की साजोसामान ही मौजूद नहीं रहते, उनके किटबैग में निराशा, हताशा और कुछ बिखरे ख्‍वाब भी मौजूद रहते हैं। लेकिन, एक बार विकेट पर उन्‍होंने मोर्चा संभाल लिया तो बाकी सब पीछे छूट जाता है। आपके सामने होती है तो किक्रेट की सबसे आसान विधा के रूप में बल्‍लेबाजी। उनकी बे‍हद सहज बल्‍लेबाजी एक कला की शक्‍ल में उभार लेती है। वीवीएस लक्ष्‍मण के बल्‍ले ने गुरुवार को इसी पहचान के साथ दिल्‍ली के फिरोजशाह कोटला पर समां बांध दिया। अपने अर्द्धशतक को पहले शतक, और फिर दोहरे नाबाद शतक में तब्‍दील करते हुए।

आखिर इस टेस्‍ट से ठीक पहले लक्ष्‍मण अपने बिखरे ख्‍वाबों से ही तो जूझ रहे थे। इन्‍हीं के बीच से उन्‍हें फिर अपना रास्‍ता तलाशना था। अपने पर उठते सवालों का एक बार फिर जवाब देना था। इस टेस्‍ट से ठीक पहले पांचवें गेंदबाज को शामिल करने के एवज में किसी बल्‍लेबाज को बिठाने की अटकलें गरम हो रही थीं तो उसमें सबसे पहला नाम लक्ष्‍मण का था। बेहतर होगा, अगर कहा जाए कि मोहाली की विजयी टीम से किसी को बाहर बिठाने की सूरत में एक ही नाम दिख रहा था, वीवीएस लक्ष्‍मण।

लेकिन, लक्ष्‍मण ने कोटला पर 470 मिनट विकेट पर मौजूद रहकर ऐसी पारी खेली कि इन सब अटकलों को छेड़ने वालों के पास आज कोई जवाब नहीं होगा। हैदराबाद की बल्‍लेबाजी नफासत को समेटे लक्ष्‍मण पोंटिंग की व्‍यूह रचना के बीच से अपनी पारी को आगे बढ़ाते रहे। पोंटिंग लक्ष्‍मण के स्‍ट्रोक प्‍ले को रोकने के लिए जितनी कोशिश कर रहे थे, लक्ष्‍मण उतनी ही सहजता से उससे पार पा रहे थे। इस हद तक कि दूसरे छोर पर खड़े गौतम गंभीर, अनिल कुंबले और जहीर खान तक सबकी राह आसान होती चली गई। इसी सहजता का नतीजा था कि उन्‍होंने गंभीर के साथ चौथे विकेट के लिए 278 रन की रिकॉर्ड साझेदारी पूरी की, गंभीर के लिए अपने टेस्‍ट करियर के पहले दोहरे शतक को छूने की राह भी आसान की।

फिर इस पारी के बीच लक्ष्‍मण ऑस्‍ट्रेलिया के खिलाफ छठी बार शतक के पार जा खड़े हुए। दुनिया की सबसे बेहतरीन टीम के सामने उन्‍होंने 2000 रन पूरे करने का गौरव हासिल किया। सचिन तेंदुलकर के बाद इस पड़ाव तक पहुंचने वाले दूसरे बल्‍लेबाज बने। इन आंकड़ों से आगे उन्‍होंने भारतीय टीम के लिए वो आधार तैयार कर दिया, जहां से जीत की ओर बढ़ा जा सकता है। ये कोलकाता और सिडनी में भारतीय जीत के बड़े नायक की कोटला पर खेली गई एक और बेजोड़ पारी थी।

लेकिन, ये भारतीय क्रिकेट की विडंबना ही है कि ऐसे बल्‍लेबाज को बार-बार एक नए सिरे से अपनी पहचान दर्ज करानी पड़ती हैं। सौवें टेस्‍ट की दहलीज पर जा पहुंचे लक्ष्‍मण को बार-बार एक नई अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ता है। कभी टीम में वापसी करने के लिए, तो कभी टीम में अपनी जगह को सही साबित करने के लिए। कभी 10 प्रथम श्रेणी मुकाबलों में 10 शतक जमाकर वे टेस्‍ट टीम में वापसी करते हैं, तो कभी मौका मिलने पर अपनी पसंदीदा नंबर तीन पर खेलने के लिए कप्‍तान की मेहरबानी का इंतजार करते हैं।

लक्ष्‍मण की कचोट सिर्फ यहीं तक नहीं सिमटी है। भारतीय क्रिकेट के इस बेहतरीन स्‍ट्रोक प्‍लेयर के हिस्‍से में अब तक 100 वनडे भी नहीं आए हैं। विजडन द्वारा संकलित सर्वश्रेष्‍ठ पारियों में छठी सबसे बेहतरीन पारी खेलने वाला ये बल्‍लेबाज वर्ल्‍डकप की दहलीज नहीं छू पाया है। 2003 के वर्ल्‍डकेप से ठीक पहले वेस्‍टइंडीज के खिलाफ वनडे सरीज में 52 की औसत से सबसे ज्‍यादा 312 रन बटोरने के बावजूद उन्‍हें इसके लाया नहीं माना गया। लक्ष्‍मण के वर्ल्‍डकप के ख्‍वाब को तार-तार करने का आधार बना न्‍यूजीलैंड में सिर्फ तीन मैचों की नाकामी। ये लक्ष्‍मण का ऐसा बिखरा ख्‍वाब है, जिसे वो अब ताउम्र समेट नहीं सकते।

ये उस लक्ष्‍मण की कहानी का हिस्‍सा है, जो दुनिया के सबसे बड़े स्पिनर शेन वार्न के खिलाफ ऑन ड्राइव करने की हिम्‍मत रखता है। ये वो लक्ष्‍मण है, जो ब्रेट ली के बाउंसर को फ्रंटफुट पर हिट करने में नहीं हिचकिचाता। एक ऐसा बल्‍लेबाज, जिसमें इयान चैपल को मार्क वॉ की झलक दिखाई देती है तो जिमि अमरनाथ को माहेला जयवर्द्धने की। लेकिन इन सबसे बढ़कर वो लक्ष्‍मण है, जिसकी टीम में मौजूदगी के चलते भारत ने औसतन हर तीसरे मैच में जीत दर्ज की। इस दौरान इन विजयी मुकाबलों में 50 से ज्‍यादा का औसत टीम में उसकी अहमियत को जाहिर करता है।

कुछ आलोचक कह सकते हैं कि लक्ष्‍मण की कामयाबियों की फेहरिश्‍त ऑस्‍ट्रेलिया, पाकिस्‍तान और वेटइंडीज से आगे नहीं जाती। हो सकता है कि वो इंग्‍लेंड और द अफ्रीका के खिलाफ लक्ष्‍मण के एक भी शतक तक नहीं पहुंच पाने को गिना सकते हैं। लेकिन, जिन उतार-चढ़ाव के बीच लक्ष्‍मण ने करियर को परवान चढ़ाया, वहां ये हिस्‍से पीछे छूट जाते हैं।

लक्ष्‍मण का मानना है कि अगर आपका जेहन उलझनों से ना भरा हो तो आप अपना स्‍वाभ्‍भाविक खेल दिखा सकते हैं। बललेबाजी एक सहज कला है, लेकिन मस्तिष्‍क इसे जटिल बना देता है। लक्ष्‍मण भी जटिलताओं के बीच अपने सफर को आगे बढ़ा रहे हैं। भारतीय क्रिकेट में वो गोल्‍डन फैब फोर कर हिस्‍सा हैं, लेकिन उनकी छवि अपने बाकी तीन साथी बल्‍लेबाजों से इतर अपने कप्‍तान अनिल कुंबले के ज्‍यादा करीब दिखती है। अपनी उपलब्धियों के बीच लक्ष्‍मण, कुंबले की तरह भारतीय क्रिकेट में ‘अनसंग हीरो’ हैं। एक ऐसा नायक, जिसे हर बार एक नए सिरे से अपनी पहचान गढ़नी पड़ती है।

Wednesday, October 29, 2008

जीत की ऑस्‍ट्रेलियाई सोच के उलट दिखी पोंटिंग की रणनीति

साइमन कैटिच! नाम जुबां पर आते ही बायें हाथ के ठोस बल्‍लेबाज की छवि उभार लेती है। अपनी टीम के जरूरतों के मद्देनजर बल्‍ले से अपनी टीम को किनारे तक ले जाने की कोशिशों में जुटा एक भरोसेमंद बल्‍लेबाज। लेकिन, दिल्‍ली के फिरोजशाह कोटला मैदान पर उनके हाथ में बल्‍ला नहीं था। इसके बावजूद वे सुखिर्यों में थे। उनके आसपास बहस रची-बुनी जा रही थी।

पहली बार गौतम गंभीर से उनकी कहा-सुनी कैमरे की गिरफ्त में थी। नॉन-स्‍ट्राइकर एंड पर गंभीर से उलझते कैटिच को रोकने के लिए अंपायर बिली बॉडन को बीच-बचाव करना पड़ा। दूसरी बार चाइनामैन गेंदबाज की भूमिका में उतरे कैटिच की वीवीएस लक्ष्‍मण को परास्‍त करती गेंद सबकी निगाहों में ठहर गई थी।

पहली बहस को पेशेवर क्रिकेट के दबाव में आवेश के मद्देनजर महज एक संयोग कहा जा सकता है। इसे नजरंदाज कर आगे बढ़ा जा सकता था। ऐसा हुआ भी। मैच अपनी रफ्तार से आगे बढ़ा। लेकिन, दूसरी बहस अभी जारी है। पहले दिन का खेल खत्‍म होने के बाद ज्‍यादा और ज्‍यादा। टेलीविजन कमेंटेटर और पूर्व ऑस्‍ट्रेलियाई कप्‍तान इयान चैपल के शब्‍दों में कैटिच की ये घूमती गेंद पोंटिंग के लिए एक बड़े खतरे का संदेश है।

इयान चैपल के मुताबिक, अगर एक धीमे विकेट पर पहले दिन कैटिच जैसे एक कामचलाऊ गेंदबाज अपनी गेंदों में घूमाव लाने में कामयाब है, तो भारतीय कप्‍तान अनिल कुंबले यहां क्‍या कर सकते हैं, इस पर सबकी निगाहें टिक जानी चाहिए। ये तो पोंटिंग की खुशकिस्‍मती कही जाएगी कि हरभजन सिंह चोट की वजह से इस मैच से बाहर हैं। सचमुच! अगर ये विकेट पहले दिन कैटिच की इस गेंद की तरह व्‍यवहार करने लगा तो कुंबले और उनके साथ अमित मिश्रा से निबटना बेहद मुश्किल होगा। वह भी उस कोटला पर, जहां कुंबले ने प्रति टेस्‍ट करीब-करीब नौ विकेट हासिल किए हैं। इतना ही नहीं, कुंबले ने यहां जो छह टेस्‍ट मैच खेले हैं, उसमें सभी में भारत ने जीत हासिल की है।

फिर कुंबले और मिश्रा की गेंदों के संभावित टर्न के साथ जुड़ा होगा रनों का एक विशाल पहाड़। रनों के इस पहाड़ के बीच मनोवैज्ञानिक दबाव बना कुंबले और मिश्रा, पोंटिंग एंड कंपनी के धैर्य, हौसले और कौशल का कड़ा इम्‍तहान लेंगे। और ये दबाव ऑस्‍ट्रेलिया की जीत की सहज सोच के ठीक उलट है।

लेकिन, इसके लिए जिम्‍मेदार कौन है, फिलहाल ये बहस का एक बड़ा मुद्दा है। इसका जवाब सीधे-सीधे पोंटिंग की रक्षात्‍मक कप्‍तानी पर जाकर ठहर रहा है। भारतीय बल्‍लेबाजों के बल्‍ले से बहते स्‍ट्रोक को थाम वे अपने जीत की राह तलाशने में पूरे दिन जुटे रहे। 2004 की सीरीज में मिली कामयाबी या बेंगलुरु टेस्‍ट के कुछ हिस्‍से में भारतीय बल्‍लेबाजों पर बनाई पकड़ के फार्मूले को ही पोंटिंग कोटला पर आगे बढ़ाते दिखे। बेंगलुरु में हालांकि सचिन तेंदुलकर से लेकर राहुल द्रविड़ के विकेट तक पहुंचने में उन्‍होंने कामयाबी पाई, लेकिन आक्रामक ऑस्‍ट्रलियाई सोच से हटकर अपनाए इस फार्मूले के नाकाम होने के बाद दूसरी योजना पोंटिंग के पास नहीं दिखी।

खासतौर से कोटला पर बुधवार को तेंदुलकर के खिलाफ सात-दो की व्‍यूह रचना के साथ वे उनके स्‍ट्रोक को थामने की कोशिश में थे। लेकिन, सीरीज में हर गुजरती पारी के साथ चौड़े होते तेंदुलकर के बल्‍ले को आप रक्षात्‍मक रणनीति से रोक नहीं सकते। इसी का नतीजा था कि ऑफ स्‍टंप के आसपास आती गेंदों को आखिरी वक्‍त पर वे ऑन साइड में मोड़ने में वे कोई मौका नहीं चूक रहे थे। स्‍टुअर्ट क्‍लार्क की तेज गेंदों के सामने विकेटकीपर हैडिन को ऊपर बुला कर पोंटिंग ने सचिन के इन आक्रामक तेवरों पर कुछ प‍कड़ जमाई, लेकिन गंभीर की सोच और इरादों के सामने पोंटिंग की ये योजना भी असफल हो गई।वाटसन की गेंद को क्रीज छोड़कर एक स्पिनर के समान लॉन्‍ग ऑन के ऊपर से छक्‍का लगाकर शतक पूरा करके गंभीर बराबर अपने इरादों को पुख्‍ता कर रहे थे।

पोंटिंग की इस रक्षात्‍मक सोच के बीच भारत पहले दिन ही करीब साढ़े तीन रन की औसत से तीन सौ के पास जा पहुंचा है। अगर भारत दूसरे दिन चायकाल तक बल्‍लेबाजी जारी रखने में कामयाब हो गया, तो पोंटिंग के लिए इस टेस्‍ट में वापसी या बचाव की राह गेंद दर गेंद मुश्किल होती जाएगी। अगर किसी तरह वे इसे ड्रॉ तक खींच कर ले भी गए, तो सीरीज में बराबरी के लिए नागपुर में आखिरी टेस्‍ट में हर हाल में जीत दर्ज करनी होगी। यानी हर हाल में जीत के दबाव में वे मैदान पर पहुंचेंगे।

कहा जा सकता है कि ये वर्ल्‍ड चैंपियन ऑस्‍ट्रेलिया की सहज सोच नहीं है। आप जब भी अपनी सहजता से हटते हैं तो आप एकाध बार मंजिल तक पहुंच सकते हैं, हर बार नहीं। सहजता से हटते हुए आपको हर बार उसके खतरों से सचेत रहना होता है। पोंटिंग, फिलहाल जीत की सहज ऑस्‍ट्रेलियाई सोच से हटने की वजह से सामने आए उसी उल्‍टे नतीजे से जूझ रहे हैं। इसलिए साइमन कैटिच की घूमती गेंद भारत को नहीं, ऑस्‍ट्रेलिया को आने वाली आने वाली चुनौतियों की आहट दे रही है।

Tuesday, October 28, 2008

बीते कल को पीछे छोड़ कुंबले-पोंटिंग को आज में ही झोंकनी होगी जान

योजओरटेगा-स्पेन के इस दार्शनिक का रिकी पोंटिग और अनिल कुंबले से कोई सीधा तार नहीं जुड़ता। ये तो ठीक वैसा ही है, जैसे फुटबॉल और बुल फाइटिंग के दीवाने स्पेन का क्रिकेट के जुनून में डूबे भारत से सीधा कोई तार पकडने की कोशिश करना। लेकिन, बुधवार को दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में दाखिल होते हुए इन दोनों कप्तानों का योजाओरटेगा का एक कथन जरुर जिंदगी के फलसफे को नए सिरे से गढ़ने के लिए प्रेरित कर सकता है।
योजओरटेगा का कहना है- "जिंदगी आने वाले कल से लगातार एक मुठभेड़ की प्रक्रिया है। आने वाला इससे तय नहीं होता कि हमने अब तक क्या हासिल किया। हमारे पास क्या था, ये तय होता कि आप कितनी शिद्दत से उस आने वाले कल को हासिल करने की कोशिश करते हैं। उसके लिए जुटते हैं।" जिंदगी को लेकर योजओरटेगा के इस दर्शन में अकेले कप्तान रिकी पोंटिंग अपनी वर्ल्ड चैंपियन टीम और उसकी मौजूदा सोच को नए सिरे से टटोल सकते हैं। भारतीय कप्तान अनिल कुंबले इसमें अपने करियर की संध्या में झांक सकते हैं।
मोहाली से ठीक पहले रिकी की टीम टेस्ट के वर्ल्ड चैंपियन के पायदान पर खड़ी थी। जीत को एक सिलसिले की शक्ल देते हुए। जीत का आस्ट्रेलिया सोच का चेहरा बनकर सबके सामने आते हुए। इस हद तक कि बीते आठ साल में पहली बार भारत के दौरे पर आयी सबसे अनुभवहीन टीम ठहराने के बावजूद इसे खारिज नहीं किया जा रहा था। इसके सुनहरे कल के चलते आने वाले कल में भरोसा डिगा नहीं था। लेकिन, मोहाली में महेन्द्र सिंह धोनी की अगुवाई में उभरी नयी टीम इंडिया ने इस आस्ट्रेलिया टीम के सुनहरे कल के मिथक को तार तार कर डाला।
आस्ट्रेलिया इससे पहले भी हारा था। इंग्लैंड से एशेज के दौरान और पिछली ही सीरिज में भारत से अपने पसंदीदा पर्थ पर। लेकिन,इस शिकस्त के दौरान बराबर दिखा कि पोंटिंग की यह टीम आज से दूर बीते कल के सहारे मैदान पर मंजिल तलाशने की कोशिश में उतरी थी। इसी का नतीजा था कि वो मंजिल के करीब आने के बजाय लगातार दूर और दूर होती चली गई। भारत की जीत ने क्रिकेट की बाकी दुनिया को दो टूक ये संदेश पहुंचा दिया कि बीता कल, आज या आने वाले कल को तय नहीं कर सकता। हर पल में खुद को पूरी शिद्दत से झोंकते हुए ही कल के सिलसिले को बरकरार रखा जा सकता है।
पोंटिंग इसे जरुर महसूस कर सकते हैं। शायद इसलिए वो बेहिचक अपने सीनियर खिलाड़ियों को एक मिसाल बनकर सबके सामने आने का मंत्र सुझा रहे हैं। लेकिन अपने सुनहरे कल से हटकर आज में जीना इतना आसान भी नहीं है। वरना क्या वजह है कि इस सीरिज में दो टेस्ट की चार पारियों में महज 42 रन जोड़ पाए मैथ्यू हेडन भारतीय तेज गेंदबाजों की आक्रामकता और पैनी धार से जानबूझकर मुंह मोड़ रहे हैं।
ज़हीर के खिलाफ चार में से तीन बार अपना विकेट गंवा चुके हेडन का दावा कितना खोखला लगता है,जब वो कहते हैं कि जहीर पर वो काबू पा चुके हैं। इस सीरिज से पहले ही वो गिलक्रिस्ट के साथ जहीर पर जोरदार जवाबी हमलों की याद दिलाने की कोशिश करते हैं। लेकिन इस सीरिज में जहीर की गेंदों को नयी धार देती रिवर्स स्विंग का क्या तोड़ उनके पास है, इसका कोई ठोस जवाब हेडन तो क्या पूरे आस्ट्रेलियाई खेमे के पास नहीं है।
यहां जरुरी है पूरी शिद्दत के साथ जहीर की गेंदों के सच को कुबूलकर अपना रास्ता तलाशना, न कि बीते कल के सहारे खुद को भ्रम में रखना। आखिर ये भ्रम ही आने वाले कल को एक अंजानी मुठभेड़ में बदल सकता है।
रफ्तार के सौदागर ब्रेट ली के साथ भी पोंटिंग एंड कंपनी बीते कल से ही आज को संवारने में जुटी है। इस सीरिज में सबसे बड़े स्ट्राइक गेंदबाज के तौर पर भारत पहुंचे ब्रेटली अब तक महज चार विकेट ही हासिल कर पाए हैं। लेकिन, 350 से ज्यादा विकेट हासिल कर चुके गेंदबाज की भारतीय विकेटों पर कुंद पड़ती धार की वजह गेंदों में कम होती रफ्तार में देखने की कोशिश की जा रही है। माना जा रहा है कि वो अगर अपनी रफ्तार लौटा लाएं तो वर्ल्ड चैंपियन टीम को किनारे तक ले जाएंगे। लेकिन, ये सिर्फ ढलती रफ्तार का मसला नहीं हो सकता।
आस्ट्रेलियन अखबार में पैट्रिक क्वीक की इस बात पर गौर करना चाहिए कि टेस्ट में 57,863 गेंद फेंकने के बाद आप किसी गेंदबाज को रफ्तार वापस लाने का मंत्र नहीं थमा सकते। अपनी निजी जिंदगी में परेशानी से जूझ रहा ये गेंदबाज अपनी लय तलाश रहा है, न कि रफ्तार। रफ्तार उसकी लय में है। लय जो उसके आज से जुड़ी है न कि बीते कल से। इस आज में वो अगर शिद्दत से अपने डग भरता है तो गेंद विकेट तक का रास्ता तय कर ही लेगी।
भारतीय कप्तान अऩिल कुंबले भी इसी मोड़ पर खड़े है। लेकिन,ये विडंबना ही है कि अपना 132 वां टेस्ट खेले रहे कुंबले को न सिर्फ एक गेंदबाज के तौर पर टीम में अपनी जगह को सही साबित करना है बल्कि कप्तान के नाते अपनी ढलती पहचान को फिर गढ़ने की चुनौती भी उनके सामने है। फिलहाल इन दोनों ही मोर्चों पर सुनहरे कल और वहां हासिल कामयाबियां उनके कल वाले कल के लिए भरोसा जगा रही हैं।
गेंदबाज कुंबले के लिए टेस्ट में 616 विकेट के साथ साथ कोटला और कुंबले का बेजोड तालमेल मौजूद है। कप्तान कुंबले के लिए इसी सीरिज से पहले भारत को दिए कई सुखद लम्हे भी दस्तक दे रहे हैं। लेकिन,एक कड़वा सच ये भी है कि इस बीते कल से कहीं बहुत हटकर मौजूदा आज ही आने वाले कल को तय करेगा।
ये पहलू कुंबले ही नहीं पूरी भारतयी टीम पर लागू होगा। मोहाली की सनसनी खेज जीत को पीछे छोड़कर ही आप सीरिज में आगे बढ़ सकते हैं। भारत को मोहाली की जीत को महज एक जीत नहीं,एक सिलसिले की शक्ल देनी होगी। इसी सूरत में भारत शिखर से बेदलख होते आस्ट्रेलिया की जगह पर अपना दावा पेश कर सकता है। यहां पूर्व आस्ट्रेलियाई कप्तान स्टीव वॉ के भारत को लेकर दिए एक बयान पर भी गौर करना चाहिए । उन्होंने कहा है-मोहाली के बाद दबाव भारत पर ज्यादा है।
लेकिन, सिर्फ दबाव से उबरने के लिए स्टीव के ही आस्ट्रेलिया टीम को दिए सूत्र को थामना होगा। स्टीव का कहना है कि आस्ट्रेलिया को नतीजे से बेखबर होकर खेलना होगा। नतीजा आपको परेशान कर सकता है।
साफ है कि क्रिकेट के मूल मंत्र की ओर वो इशारा कर रहे हैं। क्रिकेट के उस मूल मंत्र की ओर, जहां हर एक गेंद के साथ कहानी का एक हिस्सा खत्म होता है। एक नयी गेदं के साथ दूसरे हिस्से की शुरुआत होती है। हाथ से छूटी गेंद बीता हुआ कल है तो अगली गेद आने वाला कल। आस्ट्रेलियाई कप्तान इसी सोच को आधार बनाकर मैदान में उतरने की रणनीति बना रहे हैं। उनका कहना है कि पहली ही गेंद से खुद को झोंकना होगा। हर गेंद से पूरी शिदद्त से निपटना होगा।
इन सबके बीच गावस्कर बार्डर ट्रॉफी एक बेहद नाजुक मोड़ पर खड़ी है। भारत को यहां मिलने वाली एक जीत उसे सीरिज में ही जीत नहीं दिलाएगी, ये पिछले चार टेस्ट में आस्ट्रेलिया के ऊपर तीसरी जीत होगी। यानी आस्ट्रेलिया को बादशाहत को तार तार करती हुई जीत। लेकिन यहीं पोंटिंग की जीत किसी भी मोड़ से वापसी करने की आस्ट्रेलियाई सोच को फिर गढ़ सकती है। लेकिन,इन दोनों के लिए जरुरी है तो आज न कि बीता हुआ कल। यानी चुनौती आज की है, कल की नहीं।

Tuesday, October 21, 2008

कई ऐतिहासिक लम्हों को पीछे छोड़ती टीम इंडिया की यह जीत

सचिन तेंदुलकर के चेहरे से बरसती इस खुशी को बयां करना आसान नहीं है। माइकल क्लार्क के बल्ले से हवा में उछाल लेती इस गेंद का वीरेन्द्र सहवाग के हाथ में ठहरना था कि तेंदुलकर एक असीम खुशी में डूब गए। लगा ही नहीं कि इस शख्स ने 19 साल से खुद को अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में झोंक रखा है। 12 हजार रनों के शिखर पर खड़ा है। टेस्ट और वनडे में शतकों का शिखर इस अकेले शख्स के नाम है।

ये सचिन तेंदुलकर तो सहवाग की बांहों में एक किशोर की तरह खुशी में डूब-उतर रहे थे। ये तस्वीर तेंदुलकर और उनके जुनून की बानगी थी। पिछले दो दशक में भारत को कामयाबियों के कई शिखर की ओर मोड़ने वाला यह महानायक भी इस मौके को पूरी तरह जी लेना चाहता था। अगर तेंदुलकर उस पल को आत्मसात कर लेना चाहते थे, तो टीम के बाकी खिलाड़ियों और भारतीय क्रिकेट के चाहनेवालों के लिए इस जीत के मायने आप समझ सकते हैं। आखिर, यह सिर्फ एक जीत भर नहीं थी। ये जीत, टेस्ट की वर्ल्ड चैंपियन के खिलाफ थी। ये जीत उस टीम की सोच का जवाब थी, जिसके सहारे पिछले एक दशक से वो क्रिकेट की बाकी दुनिया पर राज कर रही थी। ये अकेले सचिन तेंदुलकर की जीत नहीं थी। ये सौरव गांगुली की जीत नहीं थी। ये महेन्द्र सिंह धोनी की जीत नहीं थी। ये एक नयी टीम इंडिया की जीत थी।

दरअसल, मोहाली में भारतीय टीम ने मैच की पहली गेंद से ही पोंटिंग की इस आस्ट्रेलियाई टीम को हाशिए पर डालना शुरु कर दिया था। खुद पोंटिंग का भी कहना था, ‘हम पहले ही दिन से मुकाबले से बाहर और बाहर होते चले गए।’ दोनों पारियों में गंभीर और सहवाग की जोरदार शुरुआत, मिडिल ऑर्डर में तेंदुलकर और गांगुली की यादगार साझेदारी, कप्तान धोनी की सही मौके पर बड़ी पारियां, ईशांत शर्मा के शुरुआती झटके, अमित मिश्रा के करियर का बेहतरीन आगाज़, अहम मौकों पर हरभजन और ज़हीर की विकेट तक पहुंचती यादगार गेंदें। इस जीत में एक नहीं. पूरी की पूरी टीम की हिस्सेदारी है।

इसलिए,ये जीत इन आंकड़ों से भी कहीं आगे भारतीय टीम को एक नयी सोच, एक नयी ताकत, एक नया हौसला देती जीत है। इस जीत ने भारतीय टीम के विनिंग कॉम्बिनेशन को बेहद मजबूती से दर्ज कराया। लेकिन, इस शिकस्त से कहीं बहुत पहले ही दूसरे खेमे में दरार भी दिखने लगी। कप्तान रिकी पोंटिंग और ब्रेट ली के टकराव की गूंज मोहाली की सरहद से बहुत दूर आस्ट्रेलिया में भी सुर्खियों में छा गई। मैच के चौथे दिन पूरी तरह से आक्रमण पर उतर चुके भारतीय बल्लेबाजों पर काबू पाने के इरादे से ब्रेट ली गेंदबाजी का मोर्चा संभालना चाहते थे, लेकिन पोंटिंग ने उनके हाथ में गेंद न थमाते हुए एक मुद्दे को हवा दे दी। पोंटिंग की बेशक यह दलील हो सकती है कि ब्रेट ली की उंगलियों में टांके लगे थे। लेकिन, अपने निजी मोर्चों से उबरने की कोशिश में जुटे ब्रेट ली को पोंटिंग भरोसे में नहीं ले पाए। सबसे कामयाब टीम का कप्तान चूक गया था।

दरअसल, मोहाली की शिकस्त आस्ट्रेलियाई टीम के दबाव में बिखरते और बिखरते चले जाने की कहानी भी है। भारत बेशक इस मनोवैज्ञानिक दबाव से बेखबर सिर्फ जीत और जीत की कोशिश में ही मैदान में जुटा नजर आया। लेकिन, इस कड़ी में कप्तान रिकी पोंटिंग और माइकल हसी को परास्त करते ईशांत शर्मा की गेंदें अब सीरिज में एक खौफ की तरह आस्ट्रेलिया के हौसलों का इम्तिहान लेती रहेंगी। ज़हीर खान की रिवर्स स्विंग पहले से भी ज्यादा बल्लेबाज के जेहन में संशय पैदा करेगी। अपनी लय पा चुके हरभजन से पार पाना आस्ट्रेलियाई बल्लेबाजों के लिए अब और मुश्किल होगा। अगर, दिल्ली में मोहाली के हीरो अमित मिश्रा को कप्तान अनिल कुंबले की वापसी के लिए जगह छोड़नी भी पड़ी तो खुद को साबित करने की आखिरी कोशिशों में कुंबले बेहद घातक साबित हो सकते हैं। उस कोटला पर, जहां वो अकेले पूरी पाकिस्तानी पारी को समेटने का इतिहास रच चुके हैं।

तो आस्ट्रेलिया को अब इस सीरिज में जंग मैदान पर अपने खेल से ही नहीं लड़नी होगी, उसकी सबसे बड़ी जंग खुद से होगी। मनोवैज्ञानिक तौर पर इस शिकस्त से उबरने की। खुद पोंटिंग भी इसे महसूस कर रहे हैं। उनका भी कहना है कि अगले हफ्ते के दौरान हमें स्किल पर उतना काम नहीं करना, जितना हमे जेहनी तौर पर इस शिकस्त से उबरने पर करना है। ये बात उस टीम का कप्तान कह रहा है, जो पहली बार शिकस्त से रुबरु नहीं हुआ है। उसे तो आस्ट्रेलिया में प्रतिष्ठा की सबसे बड़ी लड़ाई माने जाने वाले 'एशेज' में भी शिकस्त झेलनी पड़ी थी। लेकिन, यहां उसे भरोसा था कि वो ऐसी वापसी करेगा कि इस हार की टीस भी नहीं रहेगी। पहले ‘रेस्ट ऑफ वर्ल्ड’ और फिर अपने घर में इसी इंग्लैंड को 5-0 से रौंदते हुए पोंटिंग ने यह कर भी दिखाया था। लेकिन, यही पोंटिंग मोहाली की इस शिकस्त के बाद ऐसा कोई भरोसा नहीं जता पा रहे हैं।

इन सबके बीच धोनी की टीम की यह जीत भारतीय क्रिकेट इतिहास की सबसे बड़ी जीत के रूप में हमारे सामने है। एक ऐसी जीत, जिसके बीच सचिन तेंदुलकर का टेस्ट में सबसे ज्यादा रनों का शिखर भी पीछे छूट गया है। सौरव गांगुली की विदाई सीरिज की गूंज भी खो रही है। पहले ही मैच में शानदार शुरुआत करने वाले लेग स्पिनर अमित मिश्रा की कामयाबी भी इस जीत पर हावी नहीं हुई है। ये सबसे बड़ी जीत अब एक सीरिज जीत की उम्मीद जगा रही है। वो भी वर्ल्ड चैंपियन आस्ट्रेलिया के खिलाफ।

Monday, October 20, 2008

सहवाग-गंभीर : भारतीय क्रिकेट में जीत का सलामी चेहरा

वीरेन्द्र सहवाग और गौतम गंभीर। एक दाएं हाथ का बल्लेबाज और दूसरा बाएं हाथ का। इन दोनों में सिर्फ इतना ही फ़र्क था। हो सकता है मेरी बात अतिश्योक्ति लगे। लेकिन, मोहाली में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ दूसरे टेस्ट मैच के चौथे दिन इन दोनों के बल्लों से बहते स्ट्रोक से ऐसा ही लगा। लगातार गेंदबाज पर जवाबी हमले करने की सोच के बीच अपनी टीम को जल्द से जल्द एक विजयी लक्ष्य की ओर ले जाने की जिद के साथ ये दोनों बल्लेबाज एक दूसरे से होड़ भी करते दिखे।

इन दोनों बल्लेबाजों के इस रुख से भारत ने आस्ट्रेलिया को उसी के आक्रामक अंदाज में मुकाबले में हाशिए पर डाल दिया। भारतीय क्रिकेट के लिए इन दोनों की जुगलबंदी एक नयी शुरुआत है। भारतीय क्रिकेट में सलामी बल्लेबाजों की एक बनी बनायी छवि को तोड़ते हुए। सहवाग ने एक छोर पर बड़ी तूफानी पारियां पारी खेलते हुए भारतीय क्रिकेट में इस आक्रामकता की नींव रखी है। लेकिन, अब दूसरे छोर पर भी ऐसे ही तेवरों के साथ गंभीर की मौजूदगी भारतीय क्रिकेट के लिए नया अनुभव है। इन दोनों की विकेट पर मौजूदगी न केवल विपक्षी खेमे में खौफ पैदा करती है बल्कि ये जीत की राह भी तैयार करती दिखती है। ये एक विजयी कंबिनेशन है। गौतम गंभीर और वीरेन्द्र सहवाग।

आखिर, इससे पहले भारतीय क्रिकेट में सलामी बल्लेबाजी की परिभाषा सुनील गावस्कर से शुरु होकर सुनील गावस्कर पर ही खत्म होती रही है। भारतीय क्रिकेट के इस महानायक की उपलब्धियों के बीच हम लगातार सलामी बल्लेबाज की भूमिका को एक ठोस शुरुआत की उम्मीद की शक्ल में ही देखने के आदी रहे हैं। गावस्कर की चट्टानी दीवार के साथ दूसरे छोर पर अमूमन बल्लेबाज एक साथी की भूमिका में ही दिखायी दिए। गावस्कर के लेजेंड की छाया से निकलना उसके लिए मुमकिन भी नहीं था। अंशुमन गायकवाड़ से लेकर दिलीप वेंगसरकर या रामनाथ पारकर से लेकर रवि शास्त्री तक। फिर भी,इनमें गावस्कर के साथ जो नाम जुड़ कर रह गया,वो था चेतन चौहान का। 70 के दशक में आस्ट्रेलिया के उछाल लेते विकेट से लेकर इंग्लैंड के सीमिंग ट्रैक और पाकिस्तान के तूफानी आक्रमण के बीच चौहान के साथ गावस्कर ने पहले विकेट के लिए सबसे ज्यादा रन जोड़े। 53.53 के औसत से 3010 रन।

गावस्कर के साथ दूसरे छोर पर अगर सहवाग के आसपास कोई छवि ठहरती है तो वो है मौजूदा चयनसमिति के अध्यक्ष कृष्णामाचारी श्रीकांत की। लेकिन,श्रीकांत की भी टेस्ट में नवजोत सिद्धू के साथ सलामी जोड़ी ज्यादा परवान चढ़ी। यहां भी टेस्ट में एक छोर पर खड़े नवजोत का बल्ला गेंद को रोकने में ज्यादा यकीं करता था बजाय उस पर रन बटोरने के।

एक ही स्टेट टीम के लिए खेलने वाले सहवाग-गंभीर की सलामी जोडी का हर तरह की क्रिकेट में एक साथ विकेट पर पहुंचना दोनों के बीच एक शानदार तालमेल बनाता है। इससे पार पाना हर विपक्षी टीम के लिए चुनौती बन जाता है। सहवाग और गंभीर की मौजूदगी दोनों छोर से गेंदबाज पर जवाबी हमला करने में यकीं रखती है। इन दोनों बल्लेबाज के जेहन में गेंदबाज संशय पैदा नहीं करता, ये दोनों अपने स्ट्रोक्स से गेंदबाज को पसोपेश में डालते दिखायी देते हैं। मोहाली टेस्ट के चौथे दिन भी पोंटिंग और उनके साथी इन्हीं पहलुओं से जूझते दिखायी दिए। गंभीर और सहवाग ने पहले विकेट के लिए केवल 39.1 ओवरों में साढ़े चार की ज्‍यादा औसत से 182 रन जोड़ डाले। सहवाग की बल्लेबाजी में न सिर्फ ताकत और टाइमिंग का समावेश था,जरुरत पड़ने पर नफासत भरे स्ट्रोक्स भी मौजूद थे।शायद यही वजह थी कि रवि शास्त्री बेहिचक उनकी तुलना गॉर्डन ग्रीनीज से करने लगे हैं। मजबूत डिफेंस के साथ तेज आक्रमण करने वाले गॉर्डन ग्रीनीज से।

लेकिन,अगर सहवाग ग्रीनीज की यादों को ताजा करते हैं तो गौतम गंभीर को भी आप रॉय फेड्रिक्स की तरह खेलते देख सकते हैं। वो रॉय फेड्रिक्स, जो मैच की पहली गेंद पर छक्का लगाने का जोखिम उठा सकते थे। कमजोर गेंद को ऐसी नसीहत देने में गंभीर भी कोई चूक नहीं दिखाते। फिर, सोमवार को तो वो टेस्ट में दो तिहरे शतक बना चुके अपने वरिष्ठ साथी सहवाग के साथ हर स्ट्रोक के साथ स्ट्रोक मिलाने में जुटे थे। इस हद तक कि सहवाग पोंटिंग के सीमा रेखा पर तैनात फील्डर से पार पाने में कई बार मशक्कत कर रहे थे, लेकिन गंभीर अपने स्ट्रोक्स के प्लेसमेंट में अपने साथी से बीस साबित हो रहे थे। सीडल की गेंद को स्लिप के रास्ते थर्डमैन की ओर भेजना हो या फिर जॉनसन के खिलाफ आगे बढ़ते हुए गेंद को मिडविकेट सीमा के बाहर। गंभीर अपनी छाप लगातार छोड़ रहे थे। इसी के चलते गंभीर ने इस बार अपनी हाफ सेंचुरी को अपने दूसरे टेस्ट शतक में तब्दील करने में कोई चूक नहीं की।

अगर ग्रीनीज और फेड्रिक्स से हटकर भारतीय संदर्भ में देखें तो इन दोनों की आक्रामक सोच इतिहास में हमें विजय मर्चेंट और मुश्ताक अली की सलामी जोड़ी की याद दिलाती है। इन दोनों ने चार टेस्ट मैच की सात पारी में 83.42 के औसत से 584 रन जोड़े थे। इन बिन्दु पर सहवाग और गंभीर मोहाली टेस्ट समेत अब तक 17 टेस्ट मैच की 29 पारियों में 63.25 के औसत से 1771 रन जोड़ चुके हैं। इसमें भी चार बार उन्होंने शतकीय साझेदारी पूरी की है,जबकि 11 बार पचास से ज्यादा का स्कोर करते हुए टीम को एक बेहतर शुरुआत भी दी है। इससे भी ज्यादा दिलचस्प पहलू यह है कि इन 17 टेस्ट मैच में अब तक भारत 9 बार जीत तक पहुंचा है,जबकि मोहाली टेस्ट मे भी ठीक इसके मुहाने पर खड़ा है।
इन सबके बीच ये जोड़ी भारतीय क्रिकेट को एक नयी राह पर मोड़ रही है। ड्रा की पुरानी पड़ चुकी सोच से पहले जीत में यकीं करने वाली मौजूदा भारतीय टीम में सचिन तेंदुलकर से लेकर राहुल द्रविड़,सौरव गांगुली, हरभजन सिंह, अनिल कुंबले और महेन्द्र सिंह धोनी जैसे मैच विनर मौजूद हैं। लेकिन,इनके बीच ये जोड़ी भी एक नए विनिंग कंबिनेशन के तौर पर स्थापित हो चुकी है। इनसे मिलती शुरुआत से कप्तान अपनी जीत की व्यूह रचना रच सकता है। ये भारतीय क्रिकेट में जीत का सलामी चेहरा है।

Sunday, October 19, 2008

भारतीय गेंदबाजी की चौतरफा मार से आस्ट्रेलियाई बल्लेबाजी परास्त

माइकल हसी के बल्ले का किनारा लेती वह गेंद स्लिप में खड़े राहुल द्रविड़ को परास्त करती हुई थर्ड मैन सीमा रेखा के बाहर पहुंच गई। गेंदबाज ईशांत शर्मा के चेहरे पर हताशा उभर आई। भारतीय टीम के चाहने वालों के लिए भी यह झकझोरने वाला पल था। एक बारगी लगा कि हाथ में आए इस मौके के बाद माइकल हसी नहीं चूकेंगे। बेंगलुरु की तरह एक बार फिर मोहाली में भी वो एक मजबूत पारी के सहारे आस्ट्रेलिया को किनारे तक ले जाएंगे।

इससे पहले कि हम सभी इसी सोच विचार में डूबते उतरते, हसी पैवेलियन लौट रहे थे। ईशांत की ऑफ स्टंप पर पड़कर बाहर जाती गेंद पर हसी अपना बल्ला अलग नहीं कर पाए थे। कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी के दस्ताने में जाती गेंद के साथ ही हसी की मजबूती लेती पारी ढह गई। भारत को आस्ट्रेलिया का सबसे कीमती विकेट मिल चुका था। मुकाबला अब भारत की तरफ मुड़ रहा था।

ये ईशांत शर्मा का सिर्फ एक विकेट नहीं था। इस विकेट तक पहुंचते हुए ईशांत की गेंदबाजी सोच से हम रुबरु हो रहे थे। तेजी और उछाल के साथ अपने ऑफ स्टंप की सटीक दिशा के सहारे वो बल्लेबाज के जेहन में संदेह का एक जाल बुन रहे थे। इस हद तक कि एक गेंद से पार पाने के बावजूद बल्लेबाज उससे मुक्त नहीं हो पा रहा था। ईशांत एक सिलसिले की तरह लगातार आस्ट्रेलियाई बल्लेबाजों को एक मनोवैज्ञानिक दबाव में ला रहे थे।

फिर,यह अकेले ईशांत शर्मा ही नहीं थे। ज़हीर खान से लेकर अऩुभवी हरभजन सिंह और अपना पहला टेस्ट खेल रहे अमित मिश्रा तक भारत के चारों गेंदबाज आस्ट्रेलियाई बल्लेबाजों पर चौतरफा मार कर रहे थे। वो भी मोहाली के इस सपाट विकेट पर। ऐसा विकेट, जहां टेस्ट क्रिकेट में 292 विकेट ले चुके ब्रेटली का अनुभव और तेजी भी अपना असर नहीं छोड़ पायी। लगातार 140 की रफ्तार से गेंद फेंकने वाले जॉनसन बेंगलुरु की तरह भारतीय बल्लेबाजों के विकेटों तक नहीं पहुंच पाए। ऐसे में भारत की इस चौकड़ी का रिकी पोंटिंग की टीम को फॉलोऑन के कगार तक खींच लाना उनके इरादों और सोच की मिसाल है। करीब साढे चार रन की रफ्तार से टेस्ट में वनडे का रोमांच पैदा करने वाले आस्ट्रेलियाई बल्लेबाजों को करीब ढाई रन की औसत पर रोक देना काबिल ए तारीफ है।

इन चारों गेंदबाजों ने हेडन से लेकर पोंटिंग तक और हसी से लेकर हैडिन तक अपने हर विकेट के लिए एक जाल बुना। अगर इयान चैपल के शब्दों में कहें तो आस्ट्रेलियाई बल्लेबाजों को उनकी क्रीज में ही रोकते हुए उनके कदमों को थाम लिया। आस्ट्रेलियाई बल्लेबाजों ने अपने विकेट नहीं गंवाए, भारतीय गेंदबाजों ने उन्हें परास्त कर उनकी सोच से आगे जाते हुए ये विकेट हासिल किए। आस्ट्रेलियाई पारी में बड़ी साझेदारियां शक्ल ले पाती, उससे पहले ही गेंदबाजों ने उन्हें तोड़ दिया। यहां तक कि वाटसन और ब्रेटली के बीच आठवें विकेट के लिए 78 रन की साझेदारी में भी कभी लगा नहीं कि भारतीय गेंदबाज अपनी मंजिल तक नहीं पहुंच पाएंगे।

फिर इस मंजिल की शुरुआत पारी की तीसरी गेंद पर ही जहीर खान ने लगातार तीसरी बार हेडन को पैवेलियन भेजते हुए की थी। बेंगलुरु टेस्ट के मैन ऑफ द मैच रहे जहीर ने मोहाली में भी अपनी लय को बरकरार रखा। विकेट के मिजाज को भांपते हुए उन्होंने गेंदों की लंबाई को बेहद सटीकता से बनाए रखा । इस हद तक कि चाहे गेंद नयी थी या पुरानी-बल्लेबाजों को आखिरी वक्त तक उसके मूवमेंट से जूझना पड़ा। बीच बीच में वो कुछ शॉर्ट गेंदें फेंककर बल्लेबाज के धैर्य और एकाग्रता को परख रहे थे। हां, इतना जरुर रहा कि जहीर बेहतरीन गेंदबाजी करने के बावजूद हेडन के विकेट की शुरुआत को सिलसिले में तब्दील नहीं कर सके।

लेकिन,ठीक इसी बिन्दु पर कप्तान अऩिल कुंबले की जगह पहला टेस्ट खेलने उतरे अमित मिश्रा ने कोई चूक नहीं की। टेस्ट के पहले दिन टॉस के दौरान ही कप्तान धोनी ने मिश्रा को लेकर बेहद सटीक कमेंट किया था। इस नौजवान गेंदबाज की कुंबले से तुलना करते हुए धोनी का कहना था- "मिश्रा कुंबले से बेहद अलग हैं। वो गेंदों को ज्यादा फ्लाइट और टॉस कराते हैं।" अमित मिश्रा ने अपनी गेंदबाजी में अपने कप्तान की इस सोच को ज़रा भी डिगने नहीं दिया। अमित मिश्रा गेंद को हवा देते हुए न सिर्फ लेग स्पिन या गुगली का इस्तेमाल कर रहे थे बल्कि वो एक ही लूप,लाइन और दिशा से अपनी गेंदों में विविधता ला रहे थे। बॉलिंग क्रीज में एक ही जगह से वो अलग अलग गेंदें फेंकने में अपनी पहचान दर्ज करा रहे थे। इसी का नतीजा था कि बल्लेबाज अपनी क्रीज मे ही ठहर कर रह गए।

कैमरोन व्हाइट उनकी गुगली को पढ़ने में पूरी तरह नाकाम रहे। गेंद उनके बल्ले और पैड के रक्षण को चीरते हुए उनका विकेट ले उड़ी। वाटसन लेग स्टंप से कुछ ही बाहर पड़कर अंदर आई गेंद पर जब तक बैकफुट पर जाकर अपना बल्ला अड़ाते वो विकेट के ठीक सामने मौजूद थे। इसी के चलते दूसरे दिन साइमन कैटिच और माइकल क्लार्क का बेशकीमती विकेट लेने वाले अमित मिश्रा पहली ही पारी में पांच विकेट की मंजिल तक जा पहुंचे।

अमित मिश्रा के मुकाबले अनुभवी हरभजन सिंह ने महज दो आस्ट्रेलियाई विकेट ही निकाले। लेकिन अपनी गेंदों को लगातार पहले से ज्यादा हवा देते हुए वो बेहद आक्रामक दिख रहे थे। एक फ्लाईडेट गेंद पर फ्रंटफुट पर ड्राइव करने निकले हैडिन की हवा में लहराती गिल्लियों में आप हरभजन की इस धार को महसूस कर सकते थे। फॉरवर्ड डिफेंस पर गए ब्रेटली के बल्ले का किनारा लेकर स्लिप में राहुल द्रविड़ के हाथ में ठहरी गेंद में आप इसे पढ़ सकते है।

बहरहाल,मोहाली में आस्ट्रेलियाई टीम टेस्ट बचाने को जूझ रही है। भारत को अगर जीत तक पहुंचना है तो इस चौकड़ी को इस अधूरे काम को पूरा करना होगा। मैच की चौथी पारी में आस्ट्रेलिया के बाकी दस विकेट लेते हुए। ये मुश्किल और चुनौती भरा है,लेकिन पहली पारी में इस चौकड़ी के बेहतरीन प्रदर्शन के बाद यह नामुमकिन नहीं लगता। खासतौर से ये देखते हुए कि इस चौकड़ी में एक नहीं चारों स्ट्राइक गेंदबाज की भूमिका में हैं।