वीरेन्द्र सहवाग- 40-9-104-5 । अनिल कुंबले- 43.3-9-112-3 । ये सिर्फ दो गेंदबाजी विश्लेषण नहीं हैं। ये एक पारी में एक गेंदबाज की कामयाबी और दूसरे की नाकामी का चेहरा भी नहीं हैं। अगर आप फिरोजशाह कोटला पर भारत और आस्ट्रेलिया के बीच खेले जा रहे तीसरे टेस्ट मैच को लगातार देख रहे हैं तो इस विश्लेषण से कहीं आगे ये दो खिलाड़ी दो अलग ज़मी पर खड़े दिखेंगे। दबाव से बेफ्रिक्र होकर कैसे आप लगातार नयी कामयाबियों की ओर मुखातिब होते हैं। दबाव किस तरह आपकी राह मुश्किल दर मुश्किल बना डालता है। सहवाग और कुंबले दोनो इस मुकाबले में इन दो छोर पर खड़े दिखायी दे रहे हैं।
वीरेन्द्र सहवाग ! जरुर उन्हें हरभजन की गैरमौजूदगी में गेंदबाजी की ज़िम्मेदारी सौपी गईं। मुकाबले के बीच कुंबले को लगी चोट के बाद ये जिम्मेदारी दोहरी हो गई। लेकिन, मूल रुप से सहवाग की पहचान न तो एक गेंदबाज के तौर पर गढ़ी गई है, न ही उनकी गेंदों से बल्ले की तरह भारत ने जीत की राह का ख्वाब संजोया है। उनकी भूमिका या तो एक बड़ी साझेदारी को तोड़ने की शक्ल में देखी गई या फिर एक छोर पर बदलाव के लिए उनके हाथ में गेंद थमायी गई। बहुत ज्यादा हुआ तो एक छोर पर रनों के प्रवाह को रोकने के इरादे से कप्तान ने सहवाग का इस्तेमाल किया।
सहवाग दबाव से मुक्त होकर अपनी इस जिम्मेदारी को निभाते रहे हैं। इस मुकाबले में भी बल्ले से नाकाम होने के बावजूद सहवाग पर विकेट लेने का दबाव तो नहीं रहा होगा। गेंदबाजी में कुछ भी दांव पर न होने के चलते उनकी गेंदों में पारी के आगे बढ़ने के साथ साथ धार भी दिखायी देने लगी। एक भरोसे के साथ सहवाग अपनी गेंदों को टॉस कराया। साथ ही, ऑफ स्टंप की दिशा को थामते हुए लगातार आस्ट्रेलियाई बल्लेबाजों को भी परेशान करते रहे। तीसरे दिन शतक के करीब खड़े कप्तान पोंटिंग उनकी एक सहज ऑफ स्पिन पर ड्राइव करने की कोशिश में पूरी तरह परास्त हुए। आस्ट्रेलियाई बल्लेबाजी का सबसे ठोस किला कहे जाने वाले माइकल हसी हताश हुए। शनिवार की सुबह बेहद सहजता से खेल रहे शेन वाटसन सहवाग की अंदर आती गेंद से पार पाने का सूत्र तलाशते हुए अपना लेग स्टंप गंवा बैठे। सहवाग आस्ट्रेलियाई पारी में पांच विकेट अपने नाम किए। भारतीय गेंदबाजी में एक नये स्ट्राइक गेंदबाज की शक्ल लेते हुए।
दूसरे छोर पर अनिल कुंबले थे। पूरी तरह दबाव के बीच। बाएं हाथ की उंगली में लगे 12 टांकों का दबाव शायद इस अनुभवी स्ट्राइक गेंदबाज पर नहीं रहा होगा,जितना कि आस्ट्रेलियाई विकेट तक पहुंचने का। इस सीरिज में अपने पहले विकेट का इंतजार करते कुंबले लगातार इस चुनौती से जूझते दिखायी दिए। पिछली 17 पारियों से कुंबले एक पारी में पांच विकेट लेने का कारनामा नहीं दोहरा पाए हैं। ये वो कुंबले हैं, जिन्होंने 35 बार पांच विकेट और आठ बार एक मैच में दस विकेट हासिल किए हैं। अपने करियर में करीब 29 रन की औसत से 617 विकेट लेने वाले कुंबले पिछली 16 पारियों के दौरान 52 के औसत से विकेट तक पहुंच पाए हैं। भारतीय क्रिकेट के सबसे बड़े मैच विनर कुंबले ने अपने करियर में करीब हर 66वीं गेंद पर विकेट लिया है,लेकिन पिछले एक साल के दौरान इन 16 पारियों मे उन्हें औसतन 98 गेंद तक इंतजार करना पड़ा है।आस्ट्रेलिया,श्रीलंका और अपने घर में पिछले एक साल से लगातार विकेट के लिए तरसकर रह गए हैं कुंबले। ये कुंबले के करियर का दूसरा सबसे बड़ा दौर है,जब उन्हें विकेट के लिए इस कदर जूझना पड़ा है। इससे पहले, 2006 में भी 19 पारियों में भी वो एक पारी में पांच विकेट के लिए तरसते रहे थे।
लेकिन,इस बार कुंबले पर अकेला यही दबाव नहीं था। कुंबले की नाकामी के पिछले दौर में उनका विकल्प खोजने की बात नहीं हो रही थी। लेकिन,यहां न सिर्फ गेंदबाज बल्कि कप्तान के तौर पर भी वो अपनी जगह बरकरार रखने के लिए जूझते दिखायी दे रहे हैं। ये भी एक अजब संयोग है कि दोनों विकल्प ठीक उनके साथ मैदान में तलाशे जा रहे हैं। मोहाली में बेहतरीन गेंदबाजी कर चुके लेग स्पिनर अमित मिश्रा बेशक कोटला पर कारगर साबित नहीं हो पाए लेकिन कुंबले के बाद उनका नाम तो लिया ही जाने लगा है। महेन्द्र सिंह धोनी ट्वेंटी-20 और वनडे के बाद अब टेस्ट में भी मौका मिलने पर अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहे हैं।
इस चौतरफा दबाव के बीच कुंबले की मनस्थिति को महसूस करना आसान नहीं है। यहां मुझे टॉनी फ्रांसेस की 'जेन ऑफ क्रिकेट' में कही एक बात याद आ रही है। उनके मुताबिक, पेशेवर क्रिकेट में नब्बे फीसदी आप अपने दिमाग से खेलते हैं,और दस फीसदी अपनी क्षमताओं से। यहां कुंबले उस नब्बे फीसदी से खुद को उबारने में लगे हैं। कहा जाता है कि आप दबाव में हैं, तो अपने गुजरे कल के सबसे बेहतरीन लम्हे को याद कर उससे उबरने की कोशिश करें। लेकिन, शायद कुंबले की ये नियति ही कही जाएगी कि उसी कोटला पर वो अपनी इन चुनौतियों से जूझ रहे हैं,जिसने उन्हें करियर के सबसे यादगार पल दिए। इस हद तक कि कोटला और कुंबले एक दूसरे से हमेशा के लिए जुड़ गए। यही एक अकेला टेस्ट होगा,जहां कुंबले और कोटला के बीच एक अदृश्य सी लकीर खींच गई है। फिर,ये लकीर इस मुकाबले के आगे बढ़ते बढ़ते लगातार गहराती जा रही है। क्रिकेट आलोचकों का मानना है कि इस विकेट पर चालीस ओवर में तो कुंबले पूरी पारी को ही साफ कर देते थे,लेकिन अब कुंबले के कंधों में पहले जैसी ताकत दिखायी नहीं दे रही। ऐसी ताकत,जो उन्हें विकेट से टर्न से ज्यादा एक उछाल देती थी। आज आलोचकों की निगाहों में कुंबले की गेंदों की पहेली सुलझा ली गई है। कुंबले को अब बल्लेबाज बैकफुट पर भी आसानी से खेलने लगे हैं।
इन सबके बीच कुंबले अपने हर विकेट के साथ इन्हीं सवालों का जवाब देते दिखते हैं। हैडिन का विकेट लेने के बाद मुट्ठी भींचते और चेहरे पर एक जवाबी मुस्कुराहट लाते कुंबले को देख आप इसे महसूस कर सकते हैं। लेकिन,साथ ही ये संदेश भी आप तक पहुंच जाता है कि कुंबले की गेंदों के लिए अब विकेट तक की राह मुश्किल और मुश्किल होती जा रही है। उन पर गहराता ये दबाव उनके रास्ते को और दुरुह बना रहा है। उम्र के इस पढ़ाव पर कुंबले अपने इस चहेते खेल से अलविदा कहने का मन तो बना चुके होंगे लेकिन इंतजार में हैं सही वक्त के। ये भी अजीब संयोग है कि उनकी स्थिति शायद आज के शेयर बाजार में निवेश कर चुके हजारों निवेशकों सरीखी है, जो सेंसेक्स का शिखर देख चुके हैं,लेकिन मंदी के इस दौर में अब बाजार से निकलने का सही वक्त खोज रहे हैं। उन्हें अपने वक्त का इंतजार है, तो कुंबले को भी।
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