Wednesday, November 12, 2008

सौरव के आइने में सौरव चंडीदास गांगुली

ये 1996 के मई महीने की बात है। न्यूज चैनल 'आजतक' एक न्यूज कैप्सूल की शक्ल में दूरदर्शन पर प्रसारित होता था। इसी के लिए कवरेज करने के इरादे से मैं दिल्ली के ताजमहल होटल पहुंचा। यहां मोहम्मद अजहरुद्दीन की अगुआई में इंग्लैंड दौरे पर जा रही भारतीय टीम को इकट्ठा होना था। वहां पहुंचने पर पता चला कि अब तक सिर्फ एक खिलाड़ी को छोड़ कोई नहीं पहुंचा है। वो अकेले खिलाड़ी थे-सौरव गांगुली। भारतीय टीम में पांच साल बाद (इससे पहले 1990-91 के दौरे में आस्ट्रेलियाई दौरे के लिए सौरव को टीम में जगह दी गई थी।) वापसी करते सौरव।

लेकिन, उनसे बातचीत की जाए या नहीं, मैं सोच में डूबा था। क्या बीस मिनट के बुलेटिन में इस इंटरव्यू को जगह मिल भी पाएगी या नहीं, इसी उधेड़बुन में था। फिर सोचा, खाली हाथ लौटने से बेहतर है कि सौरव से ही बात कर लें। यही सोचकर सौरव से संपर्क साधा। सौरव ने मुझे कमरे में बुलाया। मेरे कैमरामैन ने बेहद तसल्ली से उन्हें शूट करना शुरु किया। उस वक्त तक किसी क्रिकेटर से इतनी आरामतलबी से शूट करना मुश्किल होने लगा था। खासतौर से वर्ल्ड कप के कामयाब आयोजन के बाद से टेलीविजन की ताकत को क्रिकेटर भी बखूबी महसूस करने लगे थे।


लेकिन, ये सौरव गांगुली थे। माना जा रहा था कि बंगाल का होने के नाते जगमोहन डालमिया की पैरवी पर उन्हें टीम मे जगह दी गई है। वर्ल्ड कप के कामयाब आयोजन के बाद डालमिया का सिक्का क्रिकेट की दुनिया में चलना शुरु हो चुका था। मैंने भी अपनी बातचीत इसी सवाल के इर्दगिर्द बुननी शुरु की। "कहा जाता है कि आपको कोटा सिस्टम के चलते टीम में जगह मिली है। क्या ये तकलीफदेह नहीं लगता।" सौरव का दो टूक जवाब था-"आप क्यों ये सवाल करते हैं। मेरी परफोरमेंस देखिए। मौका मिला तो मैं साबित कर दूंगा।"

सौरव ने जो कहा, वो कर दिखाया। इस धमाकेदार अंदाज में, जिसकी गूंज आज भी क्रिकेटप्रेमियों के जेहन में कमजोर नहीं पड़ी है। पहले लॉर्ड्स और फिर नॉटिघंम में लगातार दो टेस्ट में दो शतक जमाते हुए। आलोचक और प्रशंसक दोनों की हालत एक सी थी। एक आलोचना के शब्द तलाशने मे जुटा था। प्रशंसक को सराहना के शब्द कम पड़ रहे थे। टीम की रवानगी पर जो शख्स हाशिए पर था, टीम की वापसी पर भारतीय क्रिकेट के सबसे चमकदार सितारे में तब्दील हो चुका था। दिल्ली के इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर अगर किसी एक खिलाड़ी के सबसे करीब लोग पहुंचना चाहते थे तो वो थे सिर्फ और सिर्फ सौरव चंडीदास गांगुली।

लॉर्डस के पहले शतक से लेकर नागपुर में भारतीय क्रिकेट के सबसे यादगार शून्य के बीच सौरव क्रिकेट की हर छटा को समेटे खड़े हैं। कोटा क्रिकेटर के दर्द से मुक्त होते सौरव। 1999 के वर्ल्ड कप में कपिल की ऐतिहासिक 175 रनों की पारी से आगे निकलते सौरव। मैच फिक्सिंग के दंश को झेल रही भारतीय क्रिकेट को उबारते सौरव। टीम में जीत की नयी सोच को लाते सौरव। ब्रिसब्रेन में बेजोड़ शतक के सहारे स्टीव वॉ को उनके घर में ललकारते सौरव। लॉर्डस की बालकनी में जीत के जुनून में नंगे बदन शर्ट लहराते सौरव। वर्ल्ड कप हासिल करने की दहलीज तक ले जाते सौरव। पाकिस्तान को उसी के घर में सीरिज में शिकस्त देकर नया इतिहास रचते सौरव। ग्रेग चैपल के अहम से टकरा अपनी राह भटकते सौरव। अकेले दम ईडन गार्डन की भरी दोपहरी में पसीना बहाते एक फिनिक्स की मानिंद टीम में वापसी करने की कोशिशों में जुटे सौरव। 99 टेस्ट खेलने के बाद दोहरा शतक जमाने का जीवट दिखाते सौरव। अपनी आखिरी सीरिज में बेजोड़ पारियां खेल अपने आलोचकों को ठेंगा दिखाते सौरव।

सौरव के इंद्रधनुषी करियर में ऐसे कई अलहदा रंग हैं। इसमें सबसे गहरा है-भारतीय टीम की अगुआई करते सौरव गांगुली। मौजूदा भारतीय टीम की सोच की पहली इबारत इसी सौरव गांगुली की अगुआई मे लिखी गई। सौरव गांगुली से पहले भारतीय क्रिकेट ने कई कप्तान देखे। लेकिन, किसी कप्तान ने अपने खिलाड़ियों में जीत का ऐसा जज्बा नहीं भरा कि हार की दहलीज से भी जीत को खींचकर ले आए। बल्ला न चले तो गेंद से और गेंद न चले तो फील्डिंग से। सौरव ने अपने साथियों को जंग के मोर्चे पर लड़ रहे सैनिकों में तब्दील कर दिया। अकेले दम अपनी टीम को मंजिल तक पहुंचाने के जुनून में डूबे सैनिकों में।

आखिर, दक्षिण अफ्रीका में हुए वर्ल्ड कप को कौन भुला सकता है। शुरुआती मुकाबलों में मिली हार के बाद पूरे देश में सौरव की इसी टीम को लेकर एक आक्रोश हर शहर, हर मुहल्ले, हर गली से होता हुआ चौराहों तक दिखने लगा था। इस मौके पर सौरव की टीम अपने चहेतों के बीच अकेली छूट गई थी। लेकिन, सौरव ने अपने साथियों में ही अपनी दुनिया खोज डाली। एक दूसरे के कंधे पर हाथ डालकर जीत का आगाज करती खिलाड़ियों की जिस गोलबंदी(हडल) को आप धोनी की अगुआई में देखते हैं, इसकी शुरुआत इसी वर्ल्ड कप में सौरव ने की थी। उस वक्त जब वर्ल्ड कप में उसकी टीम को पूरे देश ने अकेला छोड़ दिया था। यही वो वर्ल्ड कप था, जहां भारतीय टीम कपिल की कामयाबी को दोहराने की दहलीज पर जा पहुंची थी।

क्या सौरव को ऐसी जुझारु टीम तैयार करते हुए खयाल आया होगा कि इसी टीम इंडिया की तैयारी में वो अपनी विदाई की इबारत लिख रहे हैं। धोनी की मौजूदा टीम इंडिया एक अनकहा कानून गढ़ चुकी है। ये कानून कहता है कि सर्वश्रेष्ठ से कम कुछ भी मंजूर नहीं। ये कानून खिलाड़ी को न थकने की छूट देता है, न शतक से चूकने की, न एक कैच छोड़ने की। यहां उम्र का भी लिहाजा नहीं किया जा सकता। इसी कानून ने सौरव से कहा कि ये उनकी विदाई का वक्त है। आपको ये स्टेज छोड़नी होगी। ये एक ट्रेजेडी ही है कि ये स्टेज खुद सौरव ने तैयार की। अपनी आखिरी पारी खेल विदर्भ क्रिकेट एसोसिएशन के मैदान की सुनसान सीढियों से ड्रेसिंग रुम की ओर बढ़ते सौरव किसी से नहीं हारे। सौरव अपराजेय रहे। लेकिन, खिलाड़ी सौरव से कप्तान सौरव जीत गया। जिस कप्तान ने जीत की इबारत लिखी थी, उसी ने खिलाड़ी सौरव को स्टेज से बेदखल होने के लिए मजबूर कर दिया।

इसलिए ये एक ऐसी यादगार विदाई थी, जिससे न सुनील गावस्कर रुबरु हो पाए न कपिल देव। गावस्कर ने बेंगलोर में पाकिस्तान के खिलाफ 96 रन की आखिरी बेजोड़ पारी जरुर खेली। लेकिन, क्रिकेट से अलग होने के सच को वो अपने चाहने वालों के बीच नहीं बांट सके। उनकी विदाई भी एक खिलाड़ी या बल्लेबाज की विदाई रही। सौरव की तरह एक रणनीतिकार की नहीं। कहा जाता है कि विश्व एकादश की ओर से लॉर्ड्स में खेलने के चलते वो इस विदाई की घोषणा नहीं कर सके। अगर गावस्कर संन्यास की घोषणा कर देते तो उन्हें विश्व एकादश की ओर से खेलने का मौका नहीं मिलता। कपिल देव ने भी क्रिकेट को अलविदा कहा, लेकिन अपनी चहेती स्टेज के बीच से नहीं, दिल्ली के एक पांच सितारा होटल के एक अंजान से कमरे से। ये एक लेजेंड की कचोट में तब्दील होती विदाई थी।


फिर,ये सौरव की शख्सियत ही है, जो उन्हें खेल के जुनून में डूबे कोलकाता में एक खिलाड़ी, एक क्रिकेटर और एक कप्तान के दायरे से भी बाहर ले जाती है। कभी रविन्द्र नाथ टेगौर, कभी सुभाष चंद बोस और कभी सत्यजीत रे में अपने समाज और अपनी सोच को तलाशने वाला कोलकाता आज सौरव में भी अपनी पहचान ढूंढता है। इसीलिए ये वो सौरव गांगुली है, जिसकी शख्सियत आंकडों के तमाशाई खेल से बहुत आगे जाती है। ये दंतकथाओं में तब्दील हो चुकी सौरव चंडीदास गांगुली की शख्सियत है।
[This article was first published in Dainik Bhaskar on november 12, 2008]

2 comments:

VIMAL VERMA said...

बहुत अच्छा विश्लेषण सौरभ के बारे लिखा है आपने,सौरभ में गज़ब की जीवटता दिखती है,जल्दी हार नहीं मानने वाला चरित्र है..आपने बहुत अच्छा लिखा बहुत बहुत शुक्रिया..

महुवा said...

इतने दिन से सोच रही थी कि आप कहां गए हैं...फाइनली पता चला....पता नहीं आपने पहचाना या नहीं...अपने डिप्रेशन पीरियड में मैनें आपसे बात की थी....फिल्हाल मैंनें सहारा छोड़ दिया है...उम्मीद है अब पहचान लिया होगा..
और हां सौरव के लिए बहुत अच्छा लिखा...