Monday, December 24, 2012

सचिन का संन्यास और उनका मिथक

एकदिवसीय क्रिकेट से संन्यास लेते हुए सचिन रमेश तेंडुलकर ने 23 साल तक जारी रही अपनी एक बेमिसाल यात्रा पूरी कर ली. लेकिन शायद यहीं वे अपनी जिंदगी की सबसे मुश्किल और दुरूह  यात्रा की ओर भी बढ़ निकले हैं. टेस्ट क्रिकेट के रास्ते एक ऐसे क्षण की तलाश में, जहां सचिन होने के मायने नये सिरे से गढ़े जा सकें. वह क्षण जो जेंटलमेन खेल की इस 22 गज की स्टेज के इस बेजोड़ कलाकार के बल्ले से निकले 100 शतकों और 35,000 रनों से आगे जाकर एक नये सचिन तेंडुलकर से रू-ब-रू करा सके. उस मिथक को बरकरार रख सके, जहां सचिन तेंडुलकर का जीनियस रनों, आंकड़ों और उम्र की सीमाओं के पार जाकर एक शाश्वत बहते समय में तब्दील हो गया.  
बीते एक साल से सचिन को लेकर सोच में रच बस गया यह मिथक धीरे-धीरे दरकने लगा है. सचिन पर भी उम्र हावी हो सकती है, सचिन भी एक सामान्य बल्लेबाज की तरह अपने विकेट को बचाने के लिए संघर्ष करने को मजबूर हो सकते हैं. टीम में उनकी मौजूदगी एक बोझ की तरह दिख सकती है. एक साल पहले तक भारतीय क्रिकेट में सचिन को लेकर कभी ऐसे सवालों से जूझने की कल्पना भी नहीं की गयी थी. कल तक सचिन के बल्ले से बहते स्ट्रोक क्रिकेट के कैनवास पर उभार लेती तसवीरों में नया रंग भरते थे. लेकिन आज  सचिन के विकेट तक आसानी से पहुंचती गेंद ऐसा आभास कराती हैं, जैसे इस कलाकार के हाथ से उसका ब्रश ही छीन लिया गया हो. सचिन ने जिस स्टेज पर दो दशक तक परिकथा की मानिंद कामयाबियों की नयी से नयी इबारतें लिखी, वहीं वे आज भारी कदमों से असहाय-सा खड़ा दिखते  हैं. इस सचिन से रू-ब-रू होना  बेहद तकलीफदेह है. 
लेकिन सवाल है कि आखिर सचिन कहां चूक गये हैं? सचिन उस क्षण को पकड़ने में चूक गये हैं, जहां से अलविदा कहते हुए उनको लेकर रचा गया मिथक हमेशा एक मिथक बन कर रह जाता.  वे आज उठ रहे सवालों से पहले अपने चहेते खेल को अलविदा कह पाते. दरअसल, महानायक को लेकर बुने मिथक को लेकर कड़वा सच यह है कि बेशक उसकी कामयाबियों का एक नया आभामंडल रचते हुए इस मिथक को उसके चाहने वाले बुनते हों, लेकिन मिथक को बरकरार रखने की जिम्मेदारी सिर्फ और सिर्फ  महानायक पर होती है. उसे उस क्षण को पकड़ना होता है, जहां उसकी अलविदा के साथ यह सवाल उभार लेता है कि अभी क्यों?  न कि यह सवाल कि अभी क्यों नहीं?     

    दरअसल, प्रकृति के नियम की तरह  शिखर से नीचे उतरना तय है. लेकिन महानायक को अपने चाहने वालों को ढलान के ऐसे किसी भी आभास से दूर रखना होता है.  अगर  महानायक उस एक क्षण को पकड़ लेता है, तो उसको लेकर बना मिथक हमेशा के लिए एक मिथक में तब्दील हो जाता है. भारतीय क्रिकेट में सुनील गावस्कर,  तो पाकिस्तानी क्रिकेट में इमरान और आॅस्ट्रेलिया में गिलक्रिस्ट की विदाई में आप इसे बखूबी पड़ सकते हैं. 1987 में बेंगलुरू में इमरान खान की पाकिस्तानी टीम के खिलाफ अपने आखिरी टेस्ट में गावस्कर 96 रन की बेमिसाल पारी खेलते हैं. इमरान वर्ल्ड कप जीत के साथ क्रिकेट को अलविदा कहते हैं. गिलक्रिस्ट 2008 के एडिलेड टेस्ट में विकेट के पीछे लक्ष्मण का एक कैच छूटने के साथ ही अपने संन्यास की घोषणा कर डालते हैं . तीनों क्रिकेट से अलग होते हैं, तो इस एक सवाल के साथ कि अभी क्यों ? अभी तो बहुत क्रिकेट बाकी है. इस बाकी में ही उनके महानायक्तव को लेकर बुने मिथक को मजबूती मिलती है.
 भारत के पिछले वर्ल्डकप जीतने के साथ ही इमरान खान ने कहा था कि सचिन के लिए अपने खेल को अलविदा कहने का इससे बेहतर क्षण कोई और नहीं हो सकता. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उन्होंने 99 शतक बनाये या 100 शतक . सचिन को अब कुछ साबित नहीं करना है. लेकिन सचिन अपने 100 वें शतक की कोशिश में इतना उलझे कि इंग्लैंड से आॅस्ट्रेलिया को नापने के बाद किसी तरह बंग्लादेश के खिलाफ इस आंकड़े को छू पाये. इस आंकड़े ने उन्हें क्रिकेट इतिहास की नयी दहलीज पर जरूर ला खड़ा किया, लेकिन वर्ल्डकप से 100 वें शतक के बीच यह सचिन के शिखर की  ढलान थी. यहां से वापस उस शिखर को लौटने की, वे जितनी कोशिश करते रहे, उतना ही वह और मुश्किल होती गयी है.
 वनडे  क्रिकेट से अलग होने का फैसला करते हुए भी  शायद सचिन के जेहन में फिर उसी क्षण को पकड़ने की बेताबी है. वह किसी भी तरह से टेस्ट क्रिकेट के रास्ते उस एक पल को काबू में करना चाहते हैं, जहां सवाल नयी शक्ल ले, अभी क्यों? न कि, अभी तक क्यों नहीं? अगर अब टेस्ट क्रिकेट में सचिन उस क्षण को अपनी मुट्ठी में कर लेते हैं, तो महानायक सचिन का दरकता यह मिथक नयी शक्ल लेगा. पहले से कहीं ज्यादा मजबूती के साथ. अगर, ऐसा मुमकिन हुआ तो, सचिन अपने चाहने वालों की सोच में एक ऐसे प्रवाहमान समय में तब्दील हो जायेंगे, जिनका न कोई आदि है न अंत. एक असीम सुकून में डूबा अनुभव है, जिसे हम जब चाहें जी सकें.
                                                                                     (प्रभात खबर के  24 दिसम्बर,2012 के अंक में प्रकाशित ) 

Friday, May 8, 2009

बुकानन के ब्लू प्रिंट से आगे की सोच की दरकार

यह धीरे धीरे नियति से समझौता करते कप्तान मैकुलम थे। उन्हें अब गेंद से परास्त होते फील्डर से झुंझलाहट नहीं हो रही थी। हाथ से फिसलते आसान कैच पर हताशा उभार नहीं ले रही थी। अगरकर की गेंद पर दिलशान के बल्ले का किनारा लेती गेंद पर फील्डर काबू नहीं कर पाया तो मैकुलम के चहरे पर नाराजगी नहीं थी। उनके होठों पर एक हलकी सी मुस्कराहट तैर रही थी। मुकाबले के आखिरी क्षणों में इशांत शर्मा की गेंद पर हेनरिक्स ने गौतम गंभीर का आसान सा कैच टपका दिया तो मैकुलम शून्य में ताक रहे थे। वो आत्मचिंतन की मुद्रा में थे। यह अपनी नियति को स्वीकारते मैकुलम थे। हार के न टूटते सिलसिले को अपनी किस्मत मानते हुए।



ये अपने कोच जॉन बुकानन की सोच से ठीक उलट खड़े मैकुलम थे। खेल में नियति को अस्वीकार कर सिर्फ और सिर्फ जीत तक पहुँचने की सोच रखने वाले बुकानन। मल्टीपल कप्तान की थ्योरी के बीच जीत के बेहतरीन कॉम्बिनेशन को इजाद करने की धुन में जुटे बुकानन। ये भूलते हुए कि खेल में आप नतीजों की भविष्यवाणी का जोखिम नहीं उठा सकते। जिस दिन आप नतीजों की भविष्यवाणी करने लग जाएंगे, उस दिन आप खेल से इसके सबसे खूबसूरत पहलू ‘चमत्कार’ को गायब कर देंगे।

आखिर क्रिकेट के मुकाबले में कोई बॉलिंग मशीन नहीं खेलती। मशीन, जो आपको गेंद की सही लम्बाई, ऊँचाई और उछाल को पहले से बता सके। यहाँ फील्डर कैच का पहले से पूर्वानुमान या आकलन नहीं कर सकता। यहाँ बल्लेबाज के लिये हर अगली गेंद एक नयी चुनौती होती है। गेंदबाज रन उप पर उठते कदमों के बीच विकेट से आगे जाकर बल्लेबाज की सोच पर जीत दर्ज करना चाह्ता है। अंपायर का एक फैसला पूरे मुकाबले का रुख मोड़ सकता है। दरअसल, हर एक नयी गेंद के क्रम में एक नयी शुरुआत होती है। गेंदबाज, बल्लेब्बाज, फील्डर और अंपायर के बीच से गुजरती एक नयी कहानी से हम रुबरु होते हैं। ऐसी कहानी, जिसमें आप पहले से कोई भविष्यवाणी नहीं कर सकते। फिर इन सबसे आगे यहाँ हाड मांस के खिलाडी खेलते हैं
। भावनाओं में लिपटे हुए अपनी अपनी भूमिकाओं को अंजाम देते हुए। जीत के लम्हों में लिपटी असीम ख़ुशी होती है तो हार के बीच छिपा दर्द होता है। अपने तमाम टेलेंट और अनुभव के बीच वो अगली गेंद के नतीजे से अनजान दर्द और ख़ुशी के बीच से गुजरते हैं। इन दो छोरों के बीच, जो जितना सहज रह पता है, कामयाबी उसी के हाथ लगाती है।

इसीलिये एक दिन युवराज सिंह हैट्रिक लेते हैं। चार खूबसूरत छक्कों से सजी हाफ सेंचुरी बनाते हैं। लेकिन इसके बावजूद उनकी टीम हार जाती है। एक दिन वॉर्न की राजस्थान रॉयल्स महज 58 रन पर सिमट जाती है। लेकिन एक दिन प्रतियोगिता का सबसे बड़ा स्कोर 212 रन बना देती है। बंगलोर रॉयल्स लगतार तीन मुकाबले हारती है। लेकिन अगले ही दिन वो मुंबई इंडियंस को 9 विकेट से हराती है। यह हार और जीत के दो छोरों को पकड़ती टीम हैं। यहाँ जीत जितना बड़ा सच है, हार उससे भी बड़ा। लेकिन हार और जीत के बीच पूरी सहजता ! यही सहजता इन्हें मुकाबलों के दबाव से उबारती हुई हार से वापस जीत की ओर मुड़ने का हौसला देती है।

लेकिन सिर्फ जीत के आस पास घूमती बुकानन की सोच उन्हें इस सहजता से दूर कर रही है। 17 खिलाडियों की टीम के लिये 16 लोगों का कोचिंग स्टाफ भी जीत का मंत्र नहीं सूझा पा रहा। हर गेंद के साथ बदलता मुकाबला और शुरू होती नयी कहानी के बीच पहले से तैयार फार्मूला अचानक खारिज हो जाता है। मंगलवार को ही ब्रेड हॉज के आउट होने पर 6 ओवर बाकी रहते सौरव को विकेट पर न भेजना अपनी बनी बनायी रणनीति से आगे जाकर न सोचने की कहानी कहता है। वन डे में 22 शतक और 11,000 रन बना चुके सौरव की जगह हेनरिक्स को भेजा जाता है। वो लेग स्पिनर अमित मिश्रा के ओवर को मेडन निकाल देते हैं। भारतीय क्रिकेट में स्पिन्नर के खिलाफ सबसे बड़े स्ट्रोक खेलने वाले सौरव डगआउट में पैड पहने ये सब देखते रह जाते हैं।

इतना ही नहीं, बुकानन की सोच को मैदान पर साकार करने में जुटे कप्तान मैकुलम सौरव की गेंदों में कोई भरोसा नहीं दिखा पाते। शायद बुकानन के दिये ब्लू प्रिंट से मैकुलम आगे जाना नहीं चाहते। बेशक मुकाबले में हर पल आते नए मोड़ कुछ नयी मांग कर रहे हों। यह बुकानन के ब्लू प्रिंट को साकार करने की चुनौती है या हर गुजरते दिन के साथ सामने आती हार का खौफ, मैकुलम दबाव में हैं। उनके साथी भी दबाव में हैं। यही वजह है कि इंटरनेशनल स्टेज पर 300 से ज्यादा कैच ले चुके कप्तान मैकुलम गौतम गंभीर को उस मौके पर आसान सा जीवन दान दे डालते हैं, जहाँ से मुकाबले को अपनी और मोड़ा जा सकता है। पास आती हर गेंद पर अनुभवी हॉज और गांगुली का हौसला लड़खड़ाता दिखता है। और हर दूसरे दिन ऐसे ही लडखडाती कोलकाता से हम रुबरु हो रहे हैं। सिर्फ जीत की सोचते सोचते जो जीतना ही भूल गयी है।

उम्मीद करनी कहिये कि नियति में भरोसा दिखाते मैकुलम हार और जीत को सहजता से स्वीकार करना शुरू करेंगे। सहजता लौटेगी तो कोलकाता की भी वापसी होगी। भले अब काफी देर हो चुकी है, लेकिन हम सभी को उसके लौटने का इंतज़ार है।

Thursday, May 7, 2009

वॉर्न की शख्सियत के जादू से पार पाने की चुनौती

शेन वॉर्न को देख अमेरिकी बास्केटबाल के महानतम कोच पेट रिले का कथन याद आता है। अमेरिकी बास्केटबाल लीग की पांच विजेता टीमों के कोच रहे रिले का मानना है कि आपको महान खिलाडी को शिकस्त देने के लिये उसके खेल से ज्यादा उसके प्रभामंडल, उसके जादू से पार पाना होता है। यानि आपके सामने जीत के लिए दोहरी चुनौती होती है। वॉर्न के खिलाफ भी आप एक महान खिलाडी से जूझते हैं। एक महान गेंदबाज और एक बेहतरीन कप्तान से पार पाने की कोशिश करते हैं। लेकिन इन सबसे ज्यादा आपके सामने इस महानायक की शख्सियत के आस पास रचे जादू से भी पार पाने की चुनौती होती है।

लेकिन गुरूवार को सेंचुरियन में वॉर्न रिले की सोच से भी आगे जा रहे थे। बंगलोर रॉयल चैलेंजर्स की पारी का आखिरी ओवर था। उसके आठ विकेट गिर चुके थे। उनके रन भी बमुश्किल 100 तक पहुंचे थे। कोई दूसरा कप्तान होता तो किसी अनुभवी गेंदबाज को गेंद थमा कुछ राहत की सांस ले सकता था। लेकिन वॉर्न अपने विपक्षी को हल्की सी भी राहत नहीं देना चाहते थे। उन्होंने अपना दूसरा मुकाबला खेल रहे अमित सिंह को गेंद थमाई। साथ ही हर गेंद पर उन्हें सलाह देने के लिए वो मिड ऑफ पर मौजूद थे। माहौल पर हावी होते वॉर्न के जादू के बीच बंगलोर मुकाबला खत्म होने से बहुत पहले ही हार कबूल रहा था। वॉर्न की दी हिदायतों के बीच इस धीमे विकेट पर अपनी पेस में बदलाव करते हुए अमित सिंह ने बंगलोर को आखिरी छह गेंदों पर सिर्फ तीन रन ही बनाने का मौका दिया। साथ ही उनके बाकी बचे दोनों विकेट हासिल कर प्रतियोगिता का अपना सबसे बेहतर प्रदर्शन किया।


फिर यह वॉर्न की शख्सियत का जादू विपक्षी ही नहीं, उनके अपने साथियों को भी अपने साथ बहा ले जाता है। आखिर इस प्रतियोगिता से पहले गुजरात की ओर से रणजी ट्राफी में खेलने वाले अमित सिंह को फर्स्ट क्लास क्रिकेट में पांच साल हो गए थे। लेकिन वो महज १५ मुकाबलों में ही मैदान में उतर पाए। इसके लिये उनकी गेंदबाजी एक्शन पर बोर्ड की तकनीकी समिति की ऊँगलियाँ उठाना भी एक वजह कही जा सकती है। लेकिन वॉर्न ने इन सब को नज़रंदाज कर अमित सिंह पर भरोसा जताया। नतीजा सामने था। वॉर्न के दिखाए भरोसे के बीच अमित ने पहले मुकाबले में संगकारा समेत तीन विकेट लिये। दूसरे मैच में वो अपने प्रदर्शन को चार विकेट तक खींच ले गए।

ठीक इसी आइने में आप नमन ओझा की पंजाब के खिलाफ खेली विस्फोटक पारी को पढ़ सकते हैं। आप कोलकाता के खिलाफ आखिरी ओवर डालते कामरान खान के भरोसे को छू सकते हैं। किसी भी स्तर के राष्ट्रीय क्रिकेट में न उतरने वाले कामरान आखिरी ओवर में सौरव का विकेट लेते हैं। सुपर ओवर फेंकने का भरोसा हासिल करते हैं। जब इस लाजवाब प्रदर्शन के बाद कामरान से प्रतिक्रिया ली जाती है, तो वो सिर्फ एक बात कहते है- मैं कप्तान के भरोसे पर खरा उतरा। फिर, यही सोच टीम के सीनियर सदस्यों में भी झलकती है। युसूफ पठान अपनी कामयाबियों को वॉर्न के दिये हौसलों से जोड़ देते है। मोर्केल उनमे बेहतरीन कप्तान को देखते हैं।


दरअसल, वॉर्न और उनके साथियों के बीच भरोसे के इस तार का सिरा वॉर्न की शख्सियत के जादू से जुड़ा है। कोई वॉर्न के सामने नाकाम नहीं होना चाहता। यही टीम को सबसे बड़ी ताकत देता है। फिर वॉर्न बड़े नामों से हटकर अपनी टीम में ऐसे युवा टेलेंट को जगह देने में यकीन करते हैं जो उनकी सोच के मुताबिक ढल जाये। मज़ाक में वो ये भी कहते हैं कि इन युवा खिलाड़ियों की वजह से वो भी खुद को युवा महसूस करते हैं।


लेकिन, बात मज़ाक से आगे की है। शेन वॉर्न टीम में अंग्रेजी न जानने वाले ज्यादातर युवाओं के होने के बावजूद शिद्दत से संवाद करते हैं। वो उनकी बात तसल्ली से सुनते हैं तो अपनी बात विस्तार से समझाने के लिए द्विभाषिये की मदद लेते हैं। वार्न मैदान में कैच छूटने से लेकर ओवर थ्रो जैसी गलतियों पर नाराज नहीं होते। वो नाजुक मौकों पर गलतियां करते अपने साथियों का हौसला बढ़ाते हैं। एक कप्तान की भूमिका से आगे की कोशिशें ही युवा खिलाड़ियों को उनके पीछे चलने पर मजबूर कर देती हैं। युवा टेलेंट को तरजीह देने के चलते ही पिछली बार के तीन स्टार खिलाडियों की गैरमौजूदगी का टीम पर कोई असर नहीं है। इस बार शेन वॉट्सन, सोहेल तनवीर और कामरान अकमल टीम के साथ नहीं है।

लेकिन इसके बावजूद राजस्थान रॉयल्स अपने खिताब को बचाने की ओर बहुत मजबूती से बढ़ रही है। कल तक वो कोलकाता के खिलाफ सुपर ओवर में जीत दर्ज कर रही थी, तो आज वो पंजाब किंग्स इलेवन और बंगलोर पर एकतरफा जीत दर्ज करते हुए ट्वेंटी ट्वेंटी के रोमांच को खारिज कर रही है। प्रतियोगिता की बाकी टीमों को आगाह करती हुई-आप किसी टीम के खिलाफ नहीं खेल रहे। आप वॉर्न नाम के इस महानायक से जूझ रहे हैं। आपको राजस्थान पर जीत दर्ज करने से पहले वॉर्न के जादू से पार पाना होगा। इसमें फिलहाल सभी बहे चले जा रहे हैं। विपक्षी टीम भी और खुद वॉर्न की राजस्थान रॉयल्स भी।

Thursday, April 30, 2009

पीटरसन की जीत छोड़ गई बुकानन के लिए कुछ सवाल

मार्क बाउचर के लिए आखिरी ओवर में टीम को मंजिल तक पहुँचाना कोई नयी बात नहीं थी। बीते 12 सालों में इंटरनेशनल स्टेज पर दक्षिण अफ्रीका को वो कितनी ही बार जीत तक ले गए हैं। बुधवार को डरबन में एक बार फिर उन पर ऐसी ही जिम्मेदारी थी। बस, टीम बदल चुकी थी। इस बार उन्हें बंगलोर रॉयल चैलेंजर्स को जीत तक पहुँचाना था। मैच के आखिरी ओवर की पांचवी गेंद पर बाउचर ने विजयी चौका जमाया तो वो एक असीम ख़ुशी में डूब गए। क्रिस गेल की लेग स्टम्प पर आती फुलटॉस पर बाउचर ने जोरदार प्रहार करने के साथ ही अपनी मुट्ठी तानी और हवा में लहरा दी। इशारा करते हुए कि उनके और बंगलोर के लिये इस जीत के मायने क्या हैं।

चार लगातार शिकस्त के बाद ये बंगलोर की पहली जीत जीत थी। कुल मिलकर दूसरी। बंगलोर के डगआउट से लेकर स्टेडियम में मौजूद हर समर्थक बाउचर की दी ख़ुशी में भीग रहा था। लेकिन कप्तान पीटरसन से ज्यादा खुश शायद कोई नहीं था। मार्क बाउचर और उनके साथी मनीष पांडेय को बाँहों में भर लेने के लिए पीटरसन सबसे पहले डगआउट से बाहर निकले तो उनके पैड बंधे हुए थे। इशारा करते हुए कि कितनी बेताबी से वो इस एक जीत का इंतज़ार कर रहे थे। 16वें ओवर में एक और नाकाम पारी खेलने के बाद से वो डगआउट में पैड बांधे बैठे थे। बस, इस एक जीत के इंतज़ार में।

आखिर इस प्रतियोगिता में यह उनका आखिरी मैच था। इसके बाद वो इंग्लैंड लौट रहे हैं। वेस्टइंडीज के खिलाफ टेस्ट सीरीज़ में शिरकत करने। जिस तरह इस प्रतियोगिता के पहले मुकाबले में उन्होंने डिफेंडिंग चैम्पियन राजस्थान रॉयल्स को शिकस्त देकर जोरदार आगाज किया था, उसी तरह वो जीत के साथ यहाँ से विदा लेने की ठान कर आये थे। बेशक, वो बल्ले से खुद लगातार नाकाम रहे थे। लेकिन, क्रिकेट की स्टेज पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराने, उस पर हावी हो जाने की उनकी सोच में कोई कमी नहीं थी।

फिर, अपनी पहचान को दर्ज कराने की उनकी फितरत भी है। इसलिए बुधवार को मुकाबले की पहली ही गेंद से वो नाइट राइडर्स पर हावी हो गए। गेंद उनके हाथ में थी। अपने विरोधी कप्तान मैकुलम को वो प्वाइंट पर विराट कोहली के हाथों कैच करा रहे थे। यह सिर्फ संयोग भी कहा जा सकता है। लेकिन पीटरसन डरबन के धीमे और स्ट्रोक प्ले के लिये मुश्किल विकेट पर एक बेहद सोची समझी रणनीति के साथ उतरे थे। धीमे गेंदबाजों के सहारे अपनी ही तरह हताश कोलकाता पर जीत की सोच के साथ। प्रवीण कुमार और पंकज सिंह जैसे गेंदबाजों की मौजूदगी के बावजूद अपने साथ दूसरे छोर से भी रौलेफ़ वन को लेफ्ट आर्म स्पिन की जिमादारी सौपने का जोखिम उठाया। लेकिन अपनी रणनीति को लेकर उनकी सोच साफ़ थी। इसे आप पीटरसन के धीमे गेंदबाजों से कराये 15 ओवर में महसूस कर सकते हैं। इसी का नतीजा था कि पॉवर प्ले में ही दो विकेट गंवाने के साथ कोलकाता आखिर तक कोई बड़ी चुनौती पेश नहीं कर पाया। उसके बल्लेबाज़ कोई बड़ा प्रहार करने में नाकाम रहे।

इतना ही नहीं, द्रविड़ की गैरमौजूदगी और नाकाम उथप्पा की भरपाई करने के लिये नौजवान बल्लेबाजों में भरोसा दिखाया। श्रीवत्स गोस्वामी से पारी की शुरुआत कराई। आखिरी ओवर में मनीष पाण्डेय को भेजने का जोखिम उठाया। और दोनों ने ही अपने कप्तान के भरोसे को टूटने नहीं दिया। गोस्वामी ने बेहद सीधे बल्ले से रन भी जोड़े और अनुभवी कालिस के साथ पहले 11 ओवर तक विकेट बचा कर रखा। यह इस प्रतियोगिता में बंगलोर की सबसे बेहतर शुरुआत थी। मनीष पांडे ने आखिरी ओवर की पहली गेंद पर एक जरुरी सिंगल लेते हुए सीनियर बल्लेबाज मार्क बाउचर को जरुरी स्ट्राइक थमाई।

दरअसल, यही सोच बंगलोर को इस बेहद नजदीकी मुकाबले में जीत तक ले गयी। वरना कोलकाता की तरह बंगलोर भी लगातार शिकस्त से जूझ रही थी। लेकिन पीटरसन की टीम ने न केवल खेल के बेसिक पर पकड़ जमाई। जीत के लिये अपने साथियों में सबसे जरुरी भरोसा भी दिखाया। दरअसल, बिना भरोसे के आप जोखिम नहीं उठा सकते। लेकिन कोलकत्ता की टीम की तरह ही बुकानन की अगुवाई में लम्बा चौडा कोचिंग स्टाफ टीम में जीत की नयी सोच , नया भरोसा नहीं भर सका . मैकुलम के नाकाम होने के बावजूद ओपनिंग में कोई नया प्रयोग नहीं दिख रहा . फील्डिंग में छोटी छोटी चूक किसी कमजोरी से ज्यादा अपने भरोसे में कमी को ज़ाहिर करती है . एक दिन पहले बुकानन को वार्न ने शिकस्त दी थी। अपनी निजी नाकामी के बीच भी वापस लौटे पीटरसन जाते जाते उन्हे कुछ सबक सिखा गए हैं। यह पीटरसन की टीम की जीत है। बुकानन को अभी टीम की तलाश है।

Tuesday, April 28, 2009

22 गज की बिसात पर नए मोहरे बनते स्पिनर

टी- ट्वेंटी के रोमांच के बीच मुझे अचानक आज बॉबी फिशर याद आ गए। शतरंज की दुनिया में अकेले दम सोवियत किले को ध्वस्त करने वाले बेजोड़ फिशर। फिशर का कहना था, “शतरंज की बिसात पर हार जीत के लिये मैं मनोविज्ञान पर भरोसा नहीं करता। मैं सिर्फ और सिर्फ सही मूव पर भरोसा करता हूं।” ट्वेंटी ट्वेंटी का रोमांच भी सिर्फ उसकी रफ़्तार में नहीं, हर पल आते उतार चदाव में भी छिपा है। और ये उतार चढ़ाव छिपा है कप्तान की चली जा रही चालों में। उसके हर मूव से मुकाबला नया मोड़ लेता है। नए रोमांच से रुबरु कराता है। और इस मूव में अब उसका सबसे बड़ा मोहरा है स्पिनर।

खास बात ये कि इस मोहरे को लेकर चली जा रही हर चाल बेहद दिलचस्प है। ये ट्वेंटी ट्वेंटी के खेल में बनी बनाईं धारणाओं को तोड़ रही है। सोच को हर पल नया विस्तार दे रही है। इस प्रतियोगिता के शुरू होते ही अनिल कुंबले, हरभजन सिंह, शेन वार्न और मुरलीधरन ने अपने अनुभव और चतुराई भरी गेंदों से एलान कर दिया था कि ट्वेंटी ट्वेंटी की इस रफ़्तार के बीच स्पिन गेंदबाजी को खारिज नहीं किया जा सकता। प्रज्ञान ओझा, अमित मिश्र, युसूफ पठान, और अपन्ना ट्वेंटी ट्वेंटी पर मजबूत होती स्पिन की पकड़ को और आगे ले गये। इस हद तक की कप्तान पॉवर प्ले के पहले 6 ओवर में ही उन्हें आक्रमण पर लगाने का दांव खेलने लगे। लेकिन अब कप्तान खालिस स्पिनर पर ही निर्भर नहीं है। वो मुकाबले में हाथ से छिटकती बाज़ी को अपनी और मोड़ने के लिये किसी भी काम चलाऊ स्पिनर की और गेंद उछाल सकते हैं।

सोमवार को डेक्कन चार्जर्स के कप्तान गिलक्रिस्ट और चेन्नई सुपर किंग्स के कप्तान धोनी दोनों ने ये चाल चली। ये हताशा में लिये फैसले नहीं थे। सीधे सीधे एक बेहतरीन मूव था। चेन्नई के मैथ्यू हेडन और सुरेश रैना के आक्रामक तेवेरों के सामने इस प्रतियोगिता में सबसे बेहतर दिख रही आरपी सिंह और फिडल एडवर्ड्स की जोड़ी कोई असर नहीं छोड़ पा रही थी। महज पांच ओवर में ये दोनों बल्लेबाज 55 रन जोड़ चुके थे। ऐसे मौके पर गिलक्रिस्ट ने दोनों ओर से स्पिन गेंदबाजों को आक्रमण पर लगाया। लेकिन अपने सबसे बेहतर स्पिनर प्रज्ञान ओझा को इस मुहिम से दूर रखा। एक छोर पर वेणुगोपाल राव थे। दूसरे छोर पर रोहित शर्मा। लेकिन गिलक्रिस्ट का यह मूव रंग लाया। रोहित ने अपनी पांचवी गेंद पर ही रैना को खूबसूरती से लपकते हुय इस खतरनाक बनती साझेदारी को रोक दिया।

इसी तरह गिलक्रिस्ट और हर्शल गिब्स धोनी के दोनों तेज गेंदबाजों बालाजी और गोनी के खिलाफ जमकर स्ट्रोक खेल रहे थे। ऐसा लग रहा था की 166 रन का लक्ष्य वो महज १५ ओवर में पूरा कर लेंगे। इस मौके पर धोनी ने एक एंड से मुरलीधरन को लगाया तो दूसरे एंड से गेंद सुरेश रैना को गेंद सौंप दी। दांहिने हाथ से ऑफ स्पिन फ़ेंक रहे रैना ने पहले कुछ धीमी और वाइड गेंद पर गिलक्रिस्ट को जल्दी स्ट्रोक खेलने को मजबूर किया। थर्डमैन पर मौजूद मुरली ने उन्हे लपकने में कोई चूक नहीं की। अगले ही ओवर में लक्ष्मण को ठीक इसी तरह ओरम के हाथों कैच कराया। इन दो विकेट के गिरने के साथ ही अभी तक एकतरफा दिख रहा मुकाबला बराबरी में बदलने लगा। सिर्फ तीन गेंद पहले ही चेन्नई जीत तक पहुंच पाया। लेकिन मैं हार और जीत के पार जाकर कप्तानों की सोच को पकड़ने की कोशिश कर रहा हूं।

इस मुकाबले में दोनों कप्तानो के ये फैसले ज़ाहिर कर रहे थे हर गुजरती गेंद के साथ धीमी गेंदबाजी में बढ़ते उनके भरोसे को। इस भरोसे के सहारे नए नए मूव रचती उनकी सोच को। दरअसल, इन दोनों कप्तानों ने इन गेंदबाजों को विकेट लेने के बावजूद आक्रमण से हटाया नहीं। गिलक्रिस्ट ने राव से लगातार तीन ओवर फिंकवाये तो धोनी ने रैना से पूरे चार ओवर का स्पेल डलवाया। इन चार ओवर में रैना ने डेक्कन के बल्लेबाजी पर नकेल कस ली। दरअसल, तेज गेंदबाजी के खिलाफ बल्लेबाज गेंद की रफ़्तार के साथ अपने स्ट्रोक को पूरा कर सकता है। लेकिन धीमी गेंदबाजी के सामने उसे अपने स्ट्रोक को बनाना पड़ता है। गेंद की रफ़्तार, उसके घुमाव और दिशा को आखिरी मौके तक पढ़ते हुए। स्पिनर की सोच से आगे जाते हुए। फिर दक्षिण अफ्रीकी विकेटों पर मिलती मदद के बीच धीमे गेंदबाज ज्यादा कारगर होते जा रहे हैं। इसी का नतीज़ा है कि इस प्रतियोगिता में अभी तक सबसे ज्यादा किफायती 15 गेंदबाजों में 12 स्पिनर हैं। फिर यह 12 स्पिनर अपने एक ओवर ने 4.5 से 6.5 रन तक ही खर्च कर रहे। बल्लेबाजों के ट्वेंटी ट्वेंटी की रफ़्तार में यह आंकडा बहुत मायने रखता है। यही वजह हे की कप्तान इनके इर्द गिर्द अपनी रणनीति को नया विस्तार दे रहे हैं। अपना हर दूसरा मूव बना रहे हैं। अभी तो यह प्रतियोगिता अपने पहले हफ्ते में है। आने वाले दिनों में सिर्फ 20 ओवर में सिमटे इस खेल में हम धीमी गेंदबाजी को लेकर प्रयोगों में नया विस्तार देख सकते हैं। शतरंज की बिसात की तरह सजी इस ट्वेंटी ट्वेंटी की स्टेज पर कुछ नए मूव। शायद इसीलिये आज मुझे फिशर याद आ रहे थे।

Wednesday, April 22, 2009

सिर्फ़ 24 गेंदों में ख़ुद को साबित करते सौरव

ये कप्तान ब्रैंडन मैकुलम का हताशा में लिया गया फैसला भी कहा जा सकता है। इरफान पठान के आक्रामक स्ट्रोक प्ले का कोई जवाब न तो इशांत शर्मा की रफ़्तार भरी गेंदों के पास था, न ही नौजवान अशोक डिंडा के हौसलों में। बादलों से घिरे माहौल में अगर मैकुलम के गेंदबाज बल्लेबाजों को थाम नहीं पाते तो टॉस जीतकर किंग इलेवन पंजाब को पहले बल्लेबाजी के लिये उतारने का दांव बेकार चला जाता। सिर्फ 6 ओवर में ही इरफान इंग्लैंड के रवि बोपारा के साथ 47 रन स्कोर बोर्ड पर टांग चुके थे। यानी अगर यहाँ से मुकाबला इस रफ़्तार से आगे बढ़ निकालता तो पहले से ही विवादों में घिरी कोलकाता के लिये आगे का सफ़र बेहद मुश्किल हो जाता।

इरफान के इस आक्रामक मूड के दौरान कैमरा या तो कभी तनाव में सिगरेट के कश भरते शाहरुख खान तक पहुंचता। या ख़ुशी में झूमती प्रीति जिंटा को कैद करता। लेकिन फाइन लेग पर तन्हा तन्हा अपने से बतियाते सौरव तक कैमरा कम ही पहुंच रहा था। कल तक कोलकाता नाइट राइडर्स के कप्तान और आइकन सौरव इस मुकाबले में अभी तक हशिए पर थे। इन्हीं, सौरव गांगुली की ओर मैकुलम ने अपने आखिरी दांव की तरह गेंद उछाली।


सौरव के लिये जैसे ये अपने लम्हे को लपक लेना था। अब ये सौरव नहीं, उनके भीतर बैठा कभी हार ना मानने वाला सौरव गांगुली था। वो सौरव जो टीम में वापसी के लिये अपने चेहेते एडेन गार्डन में अकेला पसीना बहाते बहाते कभी थकता नहीं था। यही सौरव था, जिसने भारतीय क्रिकेट में ऐसी यादगार विदाई ली, जिसे कभी गावस्कर और कपिल जैसे लेजेंड्स भी हासिल नहीं कर पाये। ठीक खेल की स्टेज के बीच से। ऐसा सौरव आईपीएल की स्टेज पर ,वो भी अपने कोलकाता के लिये खेलते हुए यूं ही खारिज नहीं हों सकता। आज गेंद हाथ में लेकर रनअप पर उठे उनके कदम में आप इस बात को महसूस कर सकते थे। सौरव की दूसरी ही गेंद पर इरफान पठान के पुल स्ट्रोक को मुरली कार्तिक ने ठीक डीप मिड विकेट सीमा रेखा पर थाम लिया। सिर्फ दो गेंद बाद ही कट करने के फेर में रवि बोपारा के बल्ले का किनारा लेती गेंद जब विकेट के पीछे मैकुलम के दस्तानों में गयी तो डरबन पर पुराना सौरव लौट चुका था। अपने दायें हाथ को हवा में लहरा असीम ख़ुशी में डूब दौड़ लगाते सौरव से हम रुबरु थे। कुछ इस तरह कि विवादों के बीच से खुद को बाहर निकाल अपने होने और अभी न चुके होने का अहसास करा रहे हों।

यह सौरव अब इस धीमे विकेट पर अपनी लाइन और लेंग्थ में बदलाव कर रहे थे। रफ़्तार से भरमा रहे थे। मुझे बारह साल पहले टोरंटो में फेंके सौरव के स्पेल याद आ रहे थे। सौरव ने पांच मुकाबलों की सीरीज़ में 15 विकेट लिये थे। वो भी सईद अनवर,रमीज राजा,सलीम मलिक और मोइन खान, अफरीदी जैसे बेजोड़ बल्लेबाजी क्रम के खिलाफ। एक मुकाबले में तो उन्होने सिर्फ १5 रन देकर पांच विकेट अपने नाम किये थे।

बेशक आज बारिश से प्रभावित इस मुकाबले में क्रिस गेल की 44 रन की पारी ने कोलकाता को जीत थमा दी। लेकिन इस जीत की जमीं सौरव के फेंके 4 ओवर में ही तैयार हुई। वरना इरफान के आक्रामक तेवर के चलते डकवर्थ लुइस नियम भी कोलकाता के काम नहीं आ पाता। इस ढलती उम्र में सौरव का प्रदर्शन उन्हे इस आईपीएल में सीनियर खिलाडियों की कतार में शामिल कर रहा है, जिन्हे टी-20 की अंतरराष्ट्रीय स्टेज पर खारिज मान लिया गया है। द्रविड़ , सचिन, वार्न,कुंबले,हेडन और अब सौरव यही साबित कर रहे हैं। दिलचस्प है कि ट्वेंटी ट्वेंटी तो दूर द्रविड़ को एक दिवसीय मुकाबलों के लायक भी नहीं समझा जाता। कुंबले,हेडेन,वार्न,और सौरव आज इंटरनेशनल स्टेज से अलविदा ले चुके हैं.लेकिन ये सभी अपने बीते कल की छाप बराबर छोड़ रहे हैं। जैसा सचिन का कहना है की हमें या द्रविड़ को अब कुछ साबित नहीं करना है। हम तो सिर्फ अपने खेल का भरपूर आनंद ले रहे हैं। सचमुच ये सभी आनंद के बीच अपने क्रिकेट को परवान चढ़ा रहे हैं।

लेकिन सौरव अपने बीते कल की तरह आज भी एक लडाई लड़ रहे हैं- क्रिकेट प्रेमियों के जेहन में दर्ज सौरव गांगुली की शख्सियत को बने रखने की लडाई। भारत के महानतम खिलाड़ियों में शुमार सौरव को विवाद की छाया में समेटकर रखने की कोशिश होती है, और हर बार साबित करने की चुनौती सौरव को दी जाती है। ग्रेग चैपल विवाद से वनडे और टेस्ट टीम से बाहर करने और अब कोलकाता नाइट राइडर्स की कप्तानी छीनने तक हर बार सौरव को खुद को साबित करना पड़ा। शायद इसलिए निराश सौरव भावुकता में कह भी पड़ते हैं - हर बार मेरे साथ ही न जाने क्यूं ऐसा होता है।

लेकिन, वो सौरव जो कभी हार नहीं मानता। वो यहाँ भी हार नहीं मानेगे। सौरव यहाँ भी पीछे नहीं हटेंगे । यह उनके हाथ से छूटती 24 गेंदों ने बखूबी साबित किया है। फिर यही तो सौरव गांगुली होने का मतलब है।

Sunday, April 19, 2009

बुकानन की सोच से आगे के सवाल

डेक्कन चार्जर्स की एक तरफा जीत मे कोरबो, लोडबो, जीतबो की गूँज कहीं खो गयी थी। हार मे लिपटे कोलकत्ता के स्टार खिलाडियों के चेहर स्क्रीन पर उभार ले रहे थे। नए कप्तान ब्रैडम मैकुलम थे। पूर्व कप्तान सौरव गांगुली थे। वेस्टइंडीज के कप्तान क्रिस गेल थे। लेकिन निगाह सिर्फ और सिर्फ कोच जॉन बुकानन को ढूंढ रही थी .उस बुकानन को जो आंकड़ों और विज्ञान के सहारे नियति से जुडे क्रिकेट के खेल से हार को ख़त्म करना चाहते हैं। जिनके लिये ट्वेंटी ट्वेंटी क्रिकेट दो टीमों के बीच मुकाबला नहीं ज़ंग का मैदान है। वो ट्वेंटी ट्वेंटी को चीन के मिलिटरी जीनिउस सून झू की हजारों साल पहले लिखी किताब आर्ट ऑफ़ वार के आइने में देखते हैं। इस सोच के साथ कि ट्वेंटी ट्वेंटी मे हर पल बदलती परिस्थितियों के लिये तेज और आक्रमक होना होगा।

लेकिन यहीं बुकानन और क्रिकेट के बीच विरोधाभास उभार लेता है। अगर ट्वेंटी ट्वेंटी ज़ंग का मैदान है तो आप सिर्फ और सिर्फ जीत के लिये खेलेंगे। अगर सिर्फ जीत के लिये खेलते हैं तो आप एक दबाव के साथ मैदान में पहुंचते हैं। अगर आप पर दबाव है तो आप अपना सहज खेल नहीं खेल सकते। सहज खेल के बिना आप अपना बेहतरीन खेल नहीं पा सकते। और अगर आप अपना बेहतरीन नहीं दे सकते तो जीत की सोच बेमानी है। फिर, बुकानन भारतीय कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी से भी क्रिकेट के इस सूत्र को सीख सकते हैं।

मौजूदा क्रिकेट के सबसे कामयाब कप्तान धोनी के लिये क्रिकेट मुकाबला कभी जिन्दगी और मौत नहीं बनता। वो हार और जीत से आगे जाकर सिर्फ और सिर्फ खेल के हर हिस्से को भरपूर जीते हैं। अपने साथी खिलाडियों में भी यही सोच भरते हैं। उनका मानना है कि आपकी कामयाबी के सही मायने तभी हैं, जब आपका साथी उस में अपनी ख़ुशी तलाशे। यह इस टीम गेम का वो सूत्र है, जो आज इंडियन ड्रेसिंग रुम को बेजोड़ बनाता है। सचिन से लेकर सहवाग तक सभी का मानना है कि मौजूदा भारतीय ड्रेसिंग रुम अब तक का सर्वश्रेष्ठ है। यही इस भारतीय टीम की जीत का सबसे बड़ा आधार है।लेकिन बुकानन की जीत और जीत के इर्द गिर्द बनती सोच में ये सब पहलू हाशिए पर हैं।

बुकानन जब मल्टीपल कैप्टन की थ्योरी सामने लाते हुए हुए सौरव को किनारे करते हैं तो वो अकेले सौरव के हौसले को नहीं तोड़ते। वो सौरव में अपना नायक तलाशने वाली टीम के हर नौजवान खिलाड़ी के भरोसे पर चोट करते हैं। यहीं टीम में जीत की साझा कोशिश करने की सोच पीछे छूट जाती है। आप एक विनिंग कॉम्बिनेशन मैदान पर नहीं उतारते। आप 11 खिलाड़ियों को मैदान में उतारते हैं। रविवार को कोलकाता की टीम के खिलाड़ी मैदान पर बल्लेबाजी करते हुए भी अकेले थे। फील्डिंग करते हुए भी। बल्लेबाजी में कोई एक नहीं था,जो इस उछाल और मूवमेंट के विकेट पर सचिन और द्रविड़ की तरह एक एंड को संभाले रखता। ब्रैड हॉग को छोड़ कोई भी बल्लेबाज 20 गेंदें भी नहीं खेल पाया। इस पहलू पर टीम में कोई बड़ी रणनीति की दरकार नहीं थी। एक सहज क्रिकेट सोच की जरुरत थी। द्रविड और वार्न के शब्दों में कहें तो इस विकेट पर जीत के लिए जरुरी था सही स्ट्रोक्स सिलेक्शन। लेकिन,कोलकाता के ज्यादातर बल्लेबाजों को जितनी देर डगआउट से विकेट तक पहुंचने में नहीं लगी, उससे कम समय वो विकेट पर टिक सके। यानी दो वर्ल्ड कप और 25 टेस्ट सीरिज जिताने वाले बुकानन की रणनीति यहां खारिज हो गई। इतना ही नहीं, मल्टीप्ल कप्तान का विचार भी तार तार होता दिख रहा था। कप्तान के साथ सीनियर खिलाड़ियों की बातचीत का कोई सिरा आप फील्डिंग के दौरान पकड़ नहीं सकते थे।

वैसे, ये सिर्फ एक मुकाबल है, इससे बहुत नतीजे निकलना सही नहीं है। क्रिकेट के इस ताबड़ तोड़ फॉर्मेट मे हर दूसरे दिन नतीजा बदलता है। पिछले आईपीएल में ही कोलकाता ने बेहतरीन शुरुआत की थी ,लेकिन वो सेमीफाइनल के आस पास नहीं पहुँच सकी। दूसरी और राजस्थान रॉयल्स पहले मुकाबले में दिल्ली से बुरी तरह हारी , लेकिन खिताब तक जा पहुंची। यानी कोलकत्ता और बुकानन के पास आगे की राह तलाशने के लिये प्रेरणा की कमी नहीं है। हां, इतना जरुर है कि यह सीख उन्हे वार्न से मिल रही है, जिन्होंने उनके कामयाब सफ़र में लगातार निशाने पर रखा। लेकिन उस वक़्त भी वार्न का कहना था कि खेल जितना सहज रहे उतना ही बेहतर होता है। आज भी वार्न यही कहते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि मंच बदल गया है। नहीं बदला है तो क्रिकेट।

बुकानन ने बेशक अपनी सोच से ८ साल तक कामयाबियों की दास्ताँ लिखी हो, लेकिन यह भी एक सच है. इससे मुंह नहीं मोड़ सकते। वरना ऐसा ना हो कि जीत और जीत की कोशिश में उनकी कामयाबी की तस्वीर बदरंग हो जाये। २००५ मे एशेज में मिली हार के बाद एयान चैपल ने दो टूक शब्दों में कहा था -अगर आप बुकानन को कोच कहते हैं तो अपने समय की बर्बादी कर रहे हैं। वो क्रिकेट नहीं सिखा सकते। मेरे ख्याल से बुकानन ऐसी प्रतिक्रिया तो नहीं चाहेंगे।