Sunday, November 30, 2008

ये जीत की एकलौती सोच है

गावस्कर बॉर्डर ट्रॉफी को हाथ में लिए जश्न में डूबी भारतीय क्रिकेट टीम की तस्वीर को बार बार देखिए। जीत के जुनून में डूबे इन चेहरों के बीच एक चेहरा ढूंढना होगा। भारतीय कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी का चेहरा। जीत के इस सैलाब की अगुआई करने के बावजूद धोनी भारतीय क्रिकेट की इस ठहरी तस्वीर में पृष्ठभूमि में हैं। लेकिन,धोनी का मंजिल पाने के बाद खुद को पीछे खींच लेने का ये अकेला वाक्या नहीं है। ट्वेंटी-20 वर्ल्ड कप का खिताब जीतने से लेकर आस्ट्रेलिया पर ट्राइंगुलर सीरिज में ऐतिहासिक जीत तक धोनी टीम को मंजिल तक पहुंचाने के बाद अपने साथियों को इस विजयी लम्हे को जी लेने के लिए छोड़ देते हैं। जीत की नयी इबारतों के बीच यही खूबसूरती टीम इंडिया के इस नए चेहरे को एक अलहदा रंग से सराबोर कर रही है।

"'टीम में अगर आप एक दूसरे की कामयाबियों को इंजॉय करने लगें तो ये सबसे बड़ी बात है। अपनी हाफ सेंचुरी पर मेरा खुश होना स्वाभाविक है। लेकिन,मेरी इस उपलब्धि पर मेरे साथी भी आनंद में डूब जाएं,ये ज्यादा जरुरी है।"इंदौर में इंग्लैंड पर दो मैचों में दो बेहद इकतरफा जीत के बाद धोनी का यही कहना था। लेकिन,पहली नज़र में यह एक कप्तान की अपनी टीम को एकजुट करने के लिए बेहद सहज सोच कही जा सकती है। गहराई से मंथन करें तो ये टीम इंडिया को एक बेहतरीन यूनिट में तब्दील करने का पहला और आखिरी सूत्र है। धोनी की यही सोच भारत के पूर्व कप्तान, कोच और चयनसमिति के पूर्व अध्यक्ष चंदू बोर्डे को उनका कायल बना देती है।
"धोनी गांगुली की तरह 'इंस्टिक्ट' से कप्तानी नहीं करते। सौरव मैदान में अचानक कोई फैसला लेकर सबको हैरत में डाल देते थे। लेकिन,कामयाबी मिलते ही सबको सौरव के फैसले की दाद देनी पड़ती थी। लेकिन,धोनी बेहद शांत स्वभाव से अपने काम को अंजाम देते हैं। बेहद परिपक्वता और सहजता से।"

दरअसल,धोनी टीम इंडिया को आस्ट्रेलिया मॉडल की ओर ले जाते दिखते हैं। यहां टीम में हर खिलाड़ी की हिस्सेदारी है। टेस्ट से लेकर वनडे तक अलग अलग मोर्चों पर जीत का सिलसिला बरकरार रखना जरुरी है। लिहाजा धोनी भारतीय टीम को आस्ट्रेलिया से भी एक कदम आगे ले जाने की कोशिश कर रहे हैं। ट्वेंटी-20 की बादशाहत,वनडे में वर्ल्ड चैंपियन पर फतेह और अब गावस्कर बार्डर ट्रॉफी में टेस्ट की अधिकारिक चैंपियन को शिकस्त। भारतीय टीम इस वक्त शिखर की ओर बढ़ रही है। बोर्डे का कहना है "आस्ट्रेलिया पर जीत से हमारा कॉन्फिडेंस बहुत बढ़ गया है। इंग्लैंड पर डोमिनेंस इसी का रिफ्लेक्शन है। भारतीय खिलाड़ी एक जिद के साथ खेलते हुए दिखायी दे रहे हैं।" पूर्व क्रिकेटर और कमेंन्टेटर अशोक मल्होत्रा इसी पहलू को और आगे ले जाते हैं। "इस टीम को कोई भय नहीं है। यहां कोई एक्स्ट्रा बैगेज नहीं हैं। सिर्फ और सिर्फ परफोरमेंस है।"


ये जीत की एकलौती सोच है। यही सूत्र पकड़कर दो दशक पहले आस्ट्रेलिया ने शिखर की ओर कदम बढ़ाया। 1987 की वर्ल्ड कप फतेह के बाद आस्ट्रेलिया में वेस्टइंडीज की बादशाहत को तोड़ने का भरोसा जागा था। इसे सच में तब्दील करने के लिए ग्रेग चैपल और बॉबी सिम्पसन जैसे कप्तानों ने एक ब्लू प्रिंट तैयार किया। इस ब्लू प्रिंट पर चलने की शुरुआत एलन बॉर्डर ने की। आठ साल बाद मार्क टेलर ने वेस्टइंडीज में इसे आखिरी फतेह में तब्दील किया। स्टीव वॉ ने इसे जीत के ऩए इतिहास में बदल डाला। और पोंटिंग ने जीत को एक सिलसिले और आदत में।

लेकिन,आज शिखर से बेदखल होती दिख रही आस्ट्रेलिया से भी चूक हुई। क्रिकेट की बाकी दुनिया के सामने मिसाल बना आस्ट्रेलिया अपने 'सेंटर ऑफ एक्सीलेंस' में खिलाड़ियों की फौज तो तैयार करता रहा लेकिन टेलेंटेड खिलाड़ियों को सही वक्त पर आस्ट्रेलियाई ड्रेसिंग रुम तक पहुंचाने मे उसकी रफ्तार लगातार धीमी होती गई। शुरुआत में जरुर बॉर्डर की जगह मार्क टेलर,स्लेटर की जगह लेंगर,इयान हिली की जगह गिलक्रिस्ट ने ली तो टीम की जीत का सिलसिला परवान चढ़ता रहा। गुजरते वक्त के साथ यह रफ्तार मद्धिम हुई। इस कदर कि टीम में सालों साल एक नए खिलाड़ी को जगह बनाना मुश्किल हो गया। माइकल क्लार्क और शेन टॉट को अपवाद मान लें तो माइकल हसी फर्स्ट क्लास में दस हजार रन बनाकर तीस साल की ढलती उम्र में आस्ट्रेलियाई टीम में पहुंचे। इसी का नतीजा था कि खिलाड़ियों की एसेंबली लाइन ही गायब होने लगी। इसीलिए ग्लैन मैक्ग्रा,शेन वार्न,गिलक्रिस्ट,डेमियन मार्टिन,जस्टिन लैंगर और स्टुअर्ट मैक्गिल की विदाई के साथ ही आस्ट्रेलियाई क्रिकेट मे शून्य गहराता जा रहा है।


इसीलिए,भारतीय क्रिकेट के सामने इस आस्ट्रेलियाई मॉडल पर चलने के साथ साथ इससे सीख लेने की भी जरुरत है। "नंबर एक की जगह को हथियाने के लिए हमें निरंतरता जाहिए। अपने प्रदर्शन को एक नियमित प्रकिया में तब्दील करना होगा।" भारतीय टीम के पूर्व कोच लालचंद राजपूत का कहना है "हर वक्त सामने आ रहे एक मुकाबले,एक सीरिज को ध्यान में रखकर आगे बढ़ना होगा।" भारत को यह काम सिर्फ टेस्ट में ही नहीं,वनडे और ट्वेंटी ट्वेंटी के तिहरे मोर्चे पर करना है। हर फॉर्मेट की खास जरुरतें हैं। इसी के मद्देनजर खिलाड़ियों के एक बड़े पूल से छांट छांटकर मुकाबलों में उतारना होगा।बोर्डे के मुताबिक "हमारे यंगस्टर्स बेहतर खेल रहे हैं। युवराज बेहतरीन फॉर्म में लौट रहे हैं। रोहित शर्मा मौजूद हैं। बद्रीनाथ को भी टीम में जगह मिलनी चाहिए। इन युवा खिलाड़ियों को जल्द से जल्द मौका देना होगा तभी इनका आत्मविश्वास बढ़ेगा।"

लेकिन,ये पेचीदा काम है। इसे कौन करेगा और यह कैसे होगा। बोर्डे कहते हैं
"यही काम सिलेक्शन कमेटी और कप्तान का है। "इसी बात को राजपूत आगे बढ़ाते हैं "इंडेक्शन सिलेक्टर्स के लिए चुनौती है। कब खिलाड़ी को टीम में जगह मिलनी चाहिए,ये एक बेहद चुनौतीपूर्ण काम है।"

इस आस्ट्रेलियाई जीत में ही भारत के लिए ज़हीर और ईशांत सबसे बड़े स्ट्राइक जोड़ी के रुप में उभरे। लेकिन,सवाल ये है कि कैसे लगातार आप इन दोनों को लंबे समय तक टीम की जरुरतों के मद्देनजर उतार सकते हैं। अशोक मल्होत्रा के मुताबिक "जहीर अपनी ऊर्जा को बचाकर उसे कायम रखना सीख गए हैं। कई बार छोटे रन अप से गेंदबाजी करते हैं। वो अपने करियर के सबसे बेहतरीन दौर मे चल रहे हैं। लेकिन, ईशांत को बचाकर चलना होगा। उनके करियर को सही पेस देना होगा। टेस्ट में खिलाया तो वनडे में एक दो मैचों में ब्रेक देना जरुरी है।" उनका मानना है कि हमारे पास तेज गेंदबाजों का एक भरपूर टेलेंट है। लेकिन, सभी का समझदारी से इस्तेमाल होना चाहिए। "

लेकिन,स्पिन गेंदबाजी में अनिल कुंबले के खालीपन को भरना आसान नहीं होगा। मल्होत्रा कहते हैं
"कुंबले को बनने में 16 साल लग गए। अमित मिश्रा को अभी लंबा रास्ता तय करना है। हरभजन को यह भार उठाना होगा तभी हम कुंबले के खालीपन को भर सकते हैं।" बोर्डे का मानना है कि कुंबले की सटीकता बेमिसाल थी लेकिन हमें अमित मिश्रा का हौसला बढ़ाना होगा। ये जानते हुए इस गेंदबाज के पास लेग स्पिन,गुगली,स्ट्रेटर वन सब कुछ है। राजपूत का कहना है कि भारत के पास अमित मिश्रा ही नहीं, पीयूष चावला भी इस जगह के लिए दूसरे विकल्प हैं। हमारे पास क्वालिटी बेंच स्ट्रैंथ है।

ऐसे में,जीत की इस राह के बीच टीम इंडिया के सामने चुनौतियों की लंबी फेहरिस्त है। शिखर पर काबिज होने के लिए जीत और सिर्फ जीत ही चाहिए,एक सिलसिले की तरह। कप्तान धोनी भी इसे बखूबी समझते हैं। उनका कहना है कि एक हार के बाद भी सवाल उठने शुरु हो सकते हैं। हमें जीत की निरंतरता बनाये रखनी होगी। वैसे, यही बात बोर्डे बेहद खूबसूरत अंदाज में कहते हैं-"इस सिलसिले को बनाए रखना होगा। दो जीत से ताजमहल नहीं बन सकता।"

[This article was first published in outlook (hindi)]

Wednesday, November 12, 2008

सौरव के आइने में सौरव चंडीदास गांगुली

ये 1996 के मई महीने की बात है। न्यूज चैनल 'आजतक' एक न्यूज कैप्सूल की शक्ल में दूरदर्शन पर प्रसारित होता था। इसी के लिए कवरेज करने के इरादे से मैं दिल्ली के ताजमहल होटल पहुंचा। यहां मोहम्मद अजहरुद्दीन की अगुआई में इंग्लैंड दौरे पर जा रही भारतीय टीम को इकट्ठा होना था। वहां पहुंचने पर पता चला कि अब तक सिर्फ एक खिलाड़ी को छोड़ कोई नहीं पहुंचा है। वो अकेले खिलाड़ी थे-सौरव गांगुली। भारतीय टीम में पांच साल बाद (इससे पहले 1990-91 के दौरे में आस्ट्रेलियाई दौरे के लिए सौरव को टीम में जगह दी गई थी।) वापसी करते सौरव।

लेकिन, उनसे बातचीत की जाए या नहीं, मैं सोच में डूबा था। क्या बीस मिनट के बुलेटिन में इस इंटरव्यू को जगह मिल भी पाएगी या नहीं, इसी उधेड़बुन में था। फिर सोचा, खाली हाथ लौटने से बेहतर है कि सौरव से ही बात कर लें। यही सोचकर सौरव से संपर्क साधा। सौरव ने मुझे कमरे में बुलाया। मेरे कैमरामैन ने बेहद तसल्ली से उन्हें शूट करना शुरु किया। उस वक्त तक किसी क्रिकेटर से इतनी आरामतलबी से शूट करना मुश्किल होने लगा था। खासतौर से वर्ल्ड कप के कामयाब आयोजन के बाद से टेलीविजन की ताकत को क्रिकेटर भी बखूबी महसूस करने लगे थे।


लेकिन, ये सौरव गांगुली थे। माना जा रहा था कि बंगाल का होने के नाते जगमोहन डालमिया की पैरवी पर उन्हें टीम मे जगह दी गई है। वर्ल्ड कप के कामयाब आयोजन के बाद डालमिया का सिक्का क्रिकेट की दुनिया में चलना शुरु हो चुका था। मैंने भी अपनी बातचीत इसी सवाल के इर्दगिर्द बुननी शुरु की। "कहा जाता है कि आपको कोटा सिस्टम के चलते टीम में जगह मिली है। क्या ये तकलीफदेह नहीं लगता।" सौरव का दो टूक जवाब था-"आप क्यों ये सवाल करते हैं। मेरी परफोरमेंस देखिए। मौका मिला तो मैं साबित कर दूंगा।"

सौरव ने जो कहा, वो कर दिखाया। इस धमाकेदार अंदाज में, जिसकी गूंज आज भी क्रिकेटप्रेमियों के जेहन में कमजोर नहीं पड़ी है। पहले लॉर्ड्स और फिर नॉटिघंम में लगातार दो टेस्ट में दो शतक जमाते हुए। आलोचक और प्रशंसक दोनों की हालत एक सी थी। एक आलोचना के शब्द तलाशने मे जुटा था। प्रशंसक को सराहना के शब्द कम पड़ रहे थे। टीम की रवानगी पर जो शख्स हाशिए पर था, टीम की वापसी पर भारतीय क्रिकेट के सबसे चमकदार सितारे में तब्दील हो चुका था। दिल्ली के इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर अगर किसी एक खिलाड़ी के सबसे करीब लोग पहुंचना चाहते थे तो वो थे सिर्फ और सिर्फ सौरव चंडीदास गांगुली।

लॉर्डस के पहले शतक से लेकर नागपुर में भारतीय क्रिकेट के सबसे यादगार शून्य के बीच सौरव क्रिकेट की हर छटा को समेटे खड़े हैं। कोटा क्रिकेटर के दर्द से मुक्त होते सौरव। 1999 के वर्ल्ड कप में कपिल की ऐतिहासिक 175 रनों की पारी से आगे निकलते सौरव। मैच फिक्सिंग के दंश को झेल रही भारतीय क्रिकेट को उबारते सौरव। टीम में जीत की नयी सोच को लाते सौरव। ब्रिसब्रेन में बेजोड़ शतक के सहारे स्टीव वॉ को उनके घर में ललकारते सौरव। लॉर्डस की बालकनी में जीत के जुनून में नंगे बदन शर्ट लहराते सौरव। वर्ल्ड कप हासिल करने की दहलीज तक ले जाते सौरव। पाकिस्तान को उसी के घर में सीरिज में शिकस्त देकर नया इतिहास रचते सौरव। ग्रेग चैपल के अहम से टकरा अपनी राह भटकते सौरव। अकेले दम ईडन गार्डन की भरी दोपहरी में पसीना बहाते एक फिनिक्स की मानिंद टीम में वापसी करने की कोशिशों में जुटे सौरव। 99 टेस्ट खेलने के बाद दोहरा शतक जमाने का जीवट दिखाते सौरव। अपनी आखिरी सीरिज में बेजोड़ पारियां खेल अपने आलोचकों को ठेंगा दिखाते सौरव।

सौरव के इंद्रधनुषी करियर में ऐसे कई अलहदा रंग हैं। इसमें सबसे गहरा है-भारतीय टीम की अगुआई करते सौरव गांगुली। मौजूदा भारतीय टीम की सोच की पहली इबारत इसी सौरव गांगुली की अगुआई मे लिखी गई। सौरव गांगुली से पहले भारतीय क्रिकेट ने कई कप्तान देखे। लेकिन, किसी कप्तान ने अपने खिलाड़ियों में जीत का ऐसा जज्बा नहीं भरा कि हार की दहलीज से भी जीत को खींचकर ले आए। बल्ला न चले तो गेंद से और गेंद न चले तो फील्डिंग से। सौरव ने अपने साथियों को जंग के मोर्चे पर लड़ रहे सैनिकों में तब्दील कर दिया। अकेले दम अपनी टीम को मंजिल तक पहुंचाने के जुनून में डूबे सैनिकों में।

आखिर, दक्षिण अफ्रीका में हुए वर्ल्ड कप को कौन भुला सकता है। शुरुआती मुकाबलों में मिली हार के बाद पूरे देश में सौरव की इसी टीम को लेकर एक आक्रोश हर शहर, हर मुहल्ले, हर गली से होता हुआ चौराहों तक दिखने लगा था। इस मौके पर सौरव की टीम अपने चहेतों के बीच अकेली छूट गई थी। लेकिन, सौरव ने अपने साथियों में ही अपनी दुनिया खोज डाली। एक दूसरे के कंधे पर हाथ डालकर जीत का आगाज करती खिलाड़ियों की जिस गोलबंदी(हडल) को आप धोनी की अगुआई में देखते हैं, इसकी शुरुआत इसी वर्ल्ड कप में सौरव ने की थी। उस वक्त जब वर्ल्ड कप में उसकी टीम को पूरे देश ने अकेला छोड़ दिया था। यही वो वर्ल्ड कप था, जहां भारतीय टीम कपिल की कामयाबी को दोहराने की दहलीज पर जा पहुंची थी।

क्या सौरव को ऐसी जुझारु टीम तैयार करते हुए खयाल आया होगा कि इसी टीम इंडिया की तैयारी में वो अपनी विदाई की इबारत लिख रहे हैं। धोनी की मौजूदा टीम इंडिया एक अनकहा कानून गढ़ चुकी है। ये कानून कहता है कि सर्वश्रेष्ठ से कम कुछ भी मंजूर नहीं। ये कानून खिलाड़ी को न थकने की छूट देता है, न शतक से चूकने की, न एक कैच छोड़ने की। यहां उम्र का भी लिहाजा नहीं किया जा सकता। इसी कानून ने सौरव से कहा कि ये उनकी विदाई का वक्त है। आपको ये स्टेज छोड़नी होगी। ये एक ट्रेजेडी ही है कि ये स्टेज खुद सौरव ने तैयार की। अपनी आखिरी पारी खेल विदर्भ क्रिकेट एसोसिएशन के मैदान की सुनसान सीढियों से ड्रेसिंग रुम की ओर बढ़ते सौरव किसी से नहीं हारे। सौरव अपराजेय रहे। लेकिन, खिलाड़ी सौरव से कप्तान सौरव जीत गया। जिस कप्तान ने जीत की इबारत लिखी थी, उसी ने खिलाड़ी सौरव को स्टेज से बेदखल होने के लिए मजबूर कर दिया।

इसलिए ये एक ऐसी यादगार विदाई थी, जिससे न सुनील गावस्कर रुबरु हो पाए न कपिल देव। गावस्कर ने बेंगलोर में पाकिस्तान के खिलाफ 96 रन की आखिरी बेजोड़ पारी जरुर खेली। लेकिन, क्रिकेट से अलग होने के सच को वो अपने चाहने वालों के बीच नहीं बांट सके। उनकी विदाई भी एक खिलाड़ी या बल्लेबाज की विदाई रही। सौरव की तरह एक रणनीतिकार की नहीं। कहा जाता है कि विश्व एकादश की ओर से लॉर्ड्स में खेलने के चलते वो इस विदाई की घोषणा नहीं कर सके। अगर गावस्कर संन्यास की घोषणा कर देते तो उन्हें विश्व एकादश की ओर से खेलने का मौका नहीं मिलता। कपिल देव ने भी क्रिकेट को अलविदा कहा, लेकिन अपनी चहेती स्टेज के बीच से नहीं, दिल्ली के एक पांच सितारा होटल के एक अंजान से कमरे से। ये एक लेजेंड की कचोट में तब्दील होती विदाई थी।


फिर,ये सौरव की शख्सियत ही है, जो उन्हें खेल के जुनून में डूबे कोलकाता में एक खिलाड़ी, एक क्रिकेटर और एक कप्तान के दायरे से भी बाहर ले जाती है। कभी रविन्द्र नाथ टेगौर, कभी सुभाष चंद बोस और कभी सत्यजीत रे में अपने समाज और अपनी सोच को तलाशने वाला कोलकाता आज सौरव में भी अपनी पहचान ढूंढता है। इसीलिए ये वो सौरव गांगुली है, जिसकी शख्सियत आंकडों के तमाशाई खेल से बहुत आगे जाती है। ये दंतकथाओं में तब्दील हो चुकी सौरव चंडीदास गांगुली की शख्सियत है।
[This article was first published in Dainik Bhaskar on november 12, 2008]

Monday, November 10, 2008

टीम इंडिया को कमज़ोर समझ जीत की राह से भटकी पोंटिंग की टीम

अमित मिश्रा और जॉंटी रोड्स। इन दोनों के बीच आप कोई सिरा पकड़ नहीं सकते। एक फील्डर के नाते तो कतई नहीं। जॉंटी रोड़्स क्रिकेट की ज़मी पर फील्डिंग का दूसरा नाम। अमित मिश्रा ! उनकी फील्डिंग की बात शुरु की जाए तो मैदान पर उनकी छवि रोड्स की मुस्तैदी और चपलता से कोसो दूर ले जाती है।
लेकिन,यही अमित मिश्रा सोमवार को जॉंटी रोड्स का लम्हा जी रहे थे। नागपुर के विदर्भ क्रिकेट एसोसिएशन मैदान पर आस्ट्रेलियाई कप्तान रिकी पोंटिंग ने ज़हीर खान की गेंद को मिडऑफ की ओर पुश किया और तेजी से रन लेने के लिए दौड़ पड़े। मिड ऑफ पर तैनात मिश्रा ने एक ही एक्शन में गेंद पर कब्जा किया और उसी पल जमीन के समानान्तर हवा में अपने शरीर को फैलाते हुए दांहिने हाथ से गेंद को थ्रो किया और गिल्लियां बिखेर दीं। ये लम्हा 1992 के वर्ल्ड कप में इंजमाम उल हक को आउट करते जॉंटी रोड्स की एक ठहरी तस्वीर को लौटाता सा दिखा। पोंटिंग आखिरी कदम के फासले से रन पूरा करने से चूक गए थे।
लेकिन, शायद पोंटिंग अमित मिश्रा से ऐसे थ्रो की उम्मीद नहीं कर रहे थे। सोमवार की सुबह लॉंग ऑफ पर फील्डिंग करते हुए मिश्रा से हुई एक दो चूक के चलते वे उनकी इस फुर्ती को नज़रअंदाज कर बैठे। पोंटिंग की इस चूक के बाद आस्ट्रेलिया सिर्फ अगले 45 ओवर के दौरान यह टेस्ट ही नहीं हारा,उसने भारत और आस्ट्रेलिया के बीच प्रतिष्ठा की प्रतीक गावस्कर बॉर्डर ट्रॉफी भी गंवा दी।
बेशक,इस शिकस्त के बाद पोंटिंग यह कहें कि भारत ने उन्हें खेल के हर पहलू में हाशिए पर धकेल दिया लेकिन घर वापस लौटते पोंटिंग इस सच से भी मुंह नहीं मोड़ पाएंगे कि उन्होंने अमित मिश्रा की थ्रो की तरह भारतीय टीम की ताकत को भी नज़रअंदाज करने की कोशिश की। यह वो भारतीय टीम है,जिसने पिछले 10 साल में आस्ट्रेलियाई टीम को दो सीरिज में शिकस्त दी है। उस आस्ट्रेलियाई टीम को ,जिसने पिछले एक दशक के दौरान 31 टेस्ट सीरिज में कुल जमा तीन शिकस्त झेली हैं।साथ ही, 2005 में एशेज गंवाने के बाद लगातार 16 टेस्ट जीतने के सिलसिले को भी अगर तोड़ा था,तो भारत ने। वो भी आस्ट्रेलिया के सबसे पसंदीदा मैदान पर्थ पर।
इसके बावजूद पोंटिंग भारत पहुंचने के बाद से इसकी ताकत से आंख चुरा रहे थे। ठीक इसी तरह जैसे अमित मिश्रा के इस सटीक थ्रो से। एक दिन पहले भी जरुरत से ज्यादा आत्मविश्वास के चलते गिरफ्त में आता मुकाबला उनके हाथों से छिटक गया था। धोनी और हरभजन के बीच सातवें विकेट के लिए 108 रनो की साझेदारी ने आस्ट्रेलिया के हाथ में आती जीत को छीन लिया था। लेकिन, अब ये आस्ट्रेलिया में एक बडी बहस में तब्दील हो गया है कि पोंटिंग ने अपने करियर की एक बड़ी चूक करते हुए इन दोनों बल्लेबाजों को हावी होने का मौका दिया। पोंटिंग ने ओवरों की रफ्तार को बरकरार रखने के लिए स्ट्राइक गेंदबाजों के बजाय हसी,क्लार्क और व्हाइट को मोर्चे पर उतार दिया। वो इस मौके पर कप्तान पर लगने वाले संभावित निलंबन के भय में ये चूक कर बैठे।
चूक! आस्ट्रेलिया क्रिकेट की जीत की सोच में यह शब्द नहीं है। आस्ट्रेलियाई सोच है मैदान पर हर हाल में बेहतर रहने की । मुश्किल से मुश्किल मोड़ पर मुकाबले को अपनी ओर मोड़ने की। स्टीव वॉ से लेकर मार्क टेलर तक,शेन वार्न से लेकर मैक्ग्रा तक- आस्ट्रेलिया का मानना रहा है कि आप अपनी मानसिक सोच को जितना बेहतर करोगे,आपका स्किल उतना ही निखार लेगा। आस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों को ये कहा जाता है कि नाजुक मौकों पर खिलाड़ी जो फैसला करते हैं,वो ही आखिरी मौकों पर हार और जीत को तय करता है। पोंटिंग की ये चूक या ये फैसले भी भारत और आस्ट्रेलिया को जीत और हार के दो छोर पर खड़ा कर रहे हैं।
फिर,सोमवार की सुबह 90 ओवर में 369 रन के लक्ष्य तक पहुंचने के लिए जुनून चाहिए था,न कि बेताबी। शुरुआत में अपने विकेट बचाकर ही आप इस मुश्किल लक्ष्य की ओर पहुंचने की आखिरी कोशिश कर सकते थे। लेकिन,आस्ट्रेलियाई बल्लेबाज पहली गेंद से ही मुकाबले को दो सेशन में पूरा करने का इरादा जता रहे थे। धोनी का भी कहना था कि आस्ट्रेलियाई खिलाड़ी पांच रन की रफ्तार से रन बना रहे थे लेकिन हम जानते थे कि आप लगातार ऐसा नहीं कर सकते। कम से कम मौजूदा क्रिकेट में एक बेजोड़ तेज गेंदबाज जोड़ी के रुप मे उभार लेते ईशांत और ज़हीर खान के खिलाफ तो कतई नहीं। फिर,पोंटिंग शायद इस पहलू पर भी नज़र नहीं डाल सके कि भारत में रनों का पीछा करते हुए चौथी पारी में अब तक सबसे बड़ी जीत दर्ज की है वेस्टइंडीज ने। लेकिन, 1987-88 में खेले गए दिल्ली टेस्ट में उनके सामने लक्ष्य था सिर्फ 276 रन का।
ऐसे में, शेन वार्न और मैक्ग्रा के संन्यास के बाद से ही शिखर से उतरती दिख रही पोंटिंग की इस टीम को जरुरत थी बल्लेबाजी के सहारे जीत तक पहुंचने की। लेकिन,अनुभवहीन गेंदबाजी की भरपाई के लिए इस पूरी सीरिज में 2004 के स्टार माइकल क्लार्क से लेकर 2001 सीरिज के सबसे कामयाब बल्लेबाज मैथ्यू हैडन और खुद कप्तान पोंटिंग तक कोई भी बल्लेबाज 40 की औसत तक नहीं पहुंच सका। सिर्फ माइकल हसी की औसत ही 50 के पार जा सकी। इस मोड़ पर एयान चैपल के इस बयान पर गौर करना चाहिए कि बेशक आस्ट्रेलिया ने पिछले दस साल तक क्रिकेट की दुनिया पर राज किया है लेकिन जब भी उसे एक बेहतर और संतुलित आक्रमण से जूझना पड़ा है तो उसकी बल्लेबाजे चूक गए हैं। उनके मुताबिक,2005 के एशेज सीरिज में इंग्लैंड ने चार मीडियम पेसर के सटीक आक्रमण के सहारे सीरिज पर कब्जा किया था। यहां भारत की ओर से ईशांत शर्मा,जहीर खान के साथ साथ हरभजन और अमित मिश्रा के बेहद संतुलित प्रहार ने उन्हें संभलने का मौका नहीं दिया।
इनसे उलट आस्ट्रेलिया का कोई गेंदबाज भारत के बीस विकेट लेता नहीं दिखायी दिया। नागपुर में क्रेजा अकेले दम 12 विकेट तक पहुंचे तो इसने आस्ट्रेलियाई थिंक टैंक के लिए इस सीरिज में टीम कॉम्बिनेशन पर ही सवाल खड़ा कर दिया। आखिर,क्रेजा कैसे पहले तीन टेस्ट में टीम में जगह नहीं बना पाए। ये भी आस्ट्रेलिया के लिए बहस का एक और मुद्दा है। ऐसे में ये चूक या ये फैसले पोंटिंग की टीम को उस आस्ट्रेलियाई सोच से दूर ले जा रहे हैं,जो जीतना ही नहीं,जीत के शिखर पर बने रहना भी सिखाती है। फिलहाल,पोंटिंग की यह आस्ट्रेलियाई टीम शिखर की इस राह से भटक गई है।

Sunday, November 9, 2008

सीरिज के आखिरी दिन पोंटिंग के सामने कप्तान धोनी से पार पाने की चुनौती

आस्ट्रेलियाई कप्तान रिकी पोंटिंग के 13 साल के यादगार टेस्ट करियर में कितने ही सोमवार आकर चले गए। लेकिन,नागपुर के विदर्भ क्रिकेट एसोसिएशन के मैदान पर इंतजार करता सोमवार उनका सबसे कड़ा इम्तिहान लेने जा रहा है। सीरिज के आखिरी दिन गावस्कर बॉर्डर ट्रॉफी पर कब्जा बरकरार रखने के लिए उन्हें 369 रनों की चढ़ाई करनी है। सिर्फ यही एक सूरत है कि अपनी कप्तानी में आस्ट्रेलिया को लगातार 16 और कुल जमा 33 जीत दिला चुके पोंटिंग सम्मान के साथ घर लौट सकें। जीत की पहचान को लेकर बनी आस्ट्रेलियाई इमेज को एक नए सिरे से गढ़ सकें। लेकिन,वो अगर इस लक्ष्य से आखिरी कदम के फासले से भी चूक गए तो उनके जेहन में इस शिकस्त के लिए सिर्फ और सिर्फ एक ही नाम उभार लेगा-भारतीय कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी।

आखिर, अब से 50 दिन पहले पोंटिंग ने अपने साथियों के साथ भारत की उड़ान भरी थी तो उनके सामने चुनौतियों की एक लंबी फेहरिस्त थी। वीरेन्द्र सहवाग से शुरु होकर वीवीएस लक्ष्मण, हरभजन सिंह से होते हुए ईशांत शर्मा तक। फ्रेम दर फ्रेम ये चेहरे पोंटिंग और उनके साथियों के बीच एक बहस में तब्दील होते रहे होंगे। भारत आस्ट्रेलिया सीरिज को एशेज से कई पायदान ऊपर ठहरा रहे आलोचक भी पोंटिंग-ईशांत शर्मा, पोंटिंग-हरभजन,हेडन-जहीर,ब्रेटली-सचिन के संघर्ष के बीच सीरिज के संभावित रोमांच को महसूस कर रहे थे। लेकिन,इनमें कहीं महेन्द्र सिंह धोनी का नाम नहीं था। इसके बावजूद कि इसी साल की शुरुआत में धोनी ने पोंटिंग की इस आस्ट्रेलियाई टीम को उसी के घर में अपनी बेजोड़ कप्तानी मे ट्राइंगुलर सीरिज में शिकस्त दी थी।

दरअसल,इस सीरिज में कुंबले नहीं धोनी की कप्तानी ही कसौटी पर थी। ट्वेंटी 20 के वर्ल्ड चैंपियन और वनडे के नए बादशाह धोनी को अभी टेस्ट में कप्तानी के लिए तैयार नहीं माना जा रहा था। लेकिन,धोनी की कप्तानी ही भारत और आस्ट्रेलिया के बीच हार और जीत का सबसे बड़ा फासला बनकर उभार ले रही है। सचिन तेंदुलकर से लेकर सौरव गांगुली,गौतम गंभीर से लेकर वीरेन्द्र सहवाग या लक्ष्मण तक या गेंदबाजी मे जहीर से लेकर ईशांत शर्मा या हरभजन से लेकर अमित मिश्रा तक-सबने इस सीरिज में अपनी छाप छोड़ी है। लेकिन, इन सबके बीच भी सबसे बड़े चेहरे के तौर पर धोनी ही उभार ले रहे हैं।

आखिर,रविवार को जीत की ओर बढ़ रही भारतीय पारी लंच और चयकाल के बीच अचानक चरमरा गई। वीरेन्द्र सहवाग और मुरली विजय की ठोस शुरुआत के बावजूद भारतीय पारी देखते ही देखते बिना विकेट पर 116 रन से छह विकेट पर 166 रन पर आकर लड़खड़ाने लगी। शेन वाटसन और जैसन क्रेजा के सामने महज 50 रन के दरम्यान भारत के पहले छह बल्लेबाज ड्रेसिंग रुम लौट गए। इस मोड़ पर भारत के पास केवल 252 रन की बढ़त थी। भारत की पारी के आखिरी चार विकेट हासिल करते हुए आस्ट्रेलिया मुकाबले में अपनी गिरफ्त मजबूत कर लेने की कगार पर था। आलोचकों की निगाह अब धोनी की कप्तानी पर थी। धोनी कैसे इस नाजुक मोड़ से भारतीय पारी को किनारे तक ले जाते हैं। धोनी किस अंदाज मे इस चुनौती से पार पाते हैं।

लेकिन,धोनी इस कसौटी पर खरे उतरे। अपनी आक्रामक छवि से हटकर धोनी ने जरुरत के मुताबिक अपनी टीम के लिए रन बटोरे। साथ ही, अपने साथी हरभजन सिंह को सीरिज में एक और अहम पारी खेलने के लिए प्रेरित किया। इसी का नतीजा था कि इन दोनों ने इस नाजुक मोड़ पर सांतवे विकेट के लिए 108 रन की साझेदारी की। इसमे भी धोनी की बल्लेबाजी सोच सबकी निगाहों में ठहर गई। वनडे क्रिकेट में अपनी भूमिका में लगातार बदलाव कर रहे धोनी ने यहां टेस्ट में भी एक नए बल्लेबाज धोनी से रुबरु कराया। धोनी ने 81 गेंदों में अपने 55 रनों के दौरान 19 सिंगल्स लेते हुए बराबर स्ट्राइक बदलते हुए आस्ट्रेलियाई गेंदबाजों के लिए विकेट तक की राह को मुश्किल बनाया।

धोनी अपनी इस बल्लेबाजी से क्रिकेट चहेतों को डेढ साल पहले लॉर्ड्स पर खेली अपनी एक और बेजोड़ पारी की ओर लौटा ले गए। इंग्लैंड के खिलाफ चौथी पारी में 380 रनों का पीछा कर रहा भारत एक वक्त 145 रन पर पांच विकेट गंवा चुका था। मुकाबले के इस मोड़ से ड्रॉ तक ले जाने के लिए भारत को अभी 48 ओवर और खेलने थे। धोनी ने अपनी आक्रामक छवि से हटकर 76 रन की बेहद ठोस पारी खेली। करीब साढ़े तीन घंटे तक एक छोर पर मजबूती से थामे रखा। इस हद तक कि वीवीएस लक्ष्मण के वापस लौटने के बावजूद भारत इस तय हार को टालने में कामयाब रहा। मैच के आखिरी बीस ओवर मे धोनी के साथ दूसरे छोर पर कुंबले,जहीर खान,आरपी सिंह और श्रीसंत ही बचे थे। इनमें भी श्रीसंत के साथ तो धोनी ने आखिरी विकेट को बचाए रखने के लिए बेहद परिपक्वता से बल्लेबाजी की। आखिरी पांच ओवर में उन्होंने श्रीसंत को सिर्फ सात गेंदों के लिए इंग्लैंड गेंदबाजों के सामने आने दिया। लॉर्ड्स में ड्रॉ रहा ये टेस्ट ही था,जिसके बाद भारत ने सीरिज पर ही कब्जा जमा लिया।

इस सीरिज में भी कप्तान धोनी ने मोहाली में अपने बल्ले से ऐसी छाप छोड़ी कि पोंटिंग के लिए ट्रॉफी को बरकरार रखना मुश्किल दर मुश्किल होता चला गया। मोहाली में आठवें नंबर पर बल्लेबाजी करने आए धोनी ने 92 रन की एक बड़ी पारी खेली। इस पारी में जरुरत के मुताबिक आक्रमण का भरपूर समावेश था। आठ चौके और चार छक्कों से सजी इस पारी के दौरान धोनी ने गांगुली के साथ सातवें विकेट के लिए सिर्फ बीस ओवर में 109 रन जोड़ डाले। इतना ही नहीं,मैच के चौथे दिन आस्ट्रेलिया को दबाव में लाने के लिए एक बार फिर तेज रनों की दरकार थी,तो धोनी तीसरे नंबर पर बल्लेबाजी करने पहुंचे। पहली पारी में भी सौरव गांगुली के साथ अहम मौके पर महत्‍वपूर्ण साझेदारी करने वाले धोनी ने इस बार 84 गेंदों में 55 रनों की ठोस पारी के दौरान 19 सिंगल्‍स लेकर आस्ट्रेलिया को सीरिज में शिकस्त की ओर धकेलने की शुरुआत की।


इस सीरिज में यह सिर्फ धोनी के बल्ले की ही बात नहीं है। धोनी की कप्तानी भी कसौटी दर कसौटी खरी साबित हो रही है। मोहाली में ही जीत तक पहुंचने की राह में कुंबले की जगह अपना पहला टेस्ट खेल रहे अमित मिश्रा से लेकर अनुभवी हरभजन सिंह तक का बेहतरीन इस्तेमाल धोनी ने किया। खासतौर से चौथे दिन शाम आठवें ओवर मे ही हरभजन सिंह की ओर गेंद उछालते हुए मुकाबले का सबसे बड़ा दांव खेला। हरभजन ने सिर्फ दस गेंदों के बीच ही हेडन, कैटिच और हसी के विकेट लेते हुए मुकाबले पर भारत की मुहर लगा दी थी। नागपुर टेस्ट में ही धोनी ने अपनी सूझबूझ भरी कप्तानी से कैटिच और हसी की साझेदारी से एडवांटेज की ओर बढ़ रही आस्ट्रेलियाई पारी को बैकफुट पर ला खड़ा किया। तमाम आलोचनाओं के बावजूद ऑफ साइड की मजबूत घेराबंदी के बीच ऑफ स्टंप की दिशा पकड़कर गेंदबाजी की हिदायत देते हुए। रनों के प्रवाह को रोकते हुए धोनी ने पहले उनकी बल्लेबाजी लय को तोड़ा और फिर आस्ट्रेलियाई पारी को।

अब इस सीरिज के आखिरी दिन पोंटिंग को इसी कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी से जूझना है। किस तरह पोंटिंग धोनी की बिछायी बिसात से अपनी मंजिल तलाशते हैं,इस पर सबकी निगाह रहेगी। नतीजा कुछ भी हो,लेकिन इतना तय है कि घर लौटते पोंटिंग भारतीय चुनौतियों की फेहरिस्त एक नए सिरे से तैयार करेंगे। इसमें सबसे पहला नाम होगा-महेन्द्र सिंह धोनी का। अपने आखिरी पढ़ाव पर पहुंची गावस्कर बार्डर ट्रॉफी से यही सबसे बड़ा पहलू उभरकर सामने आ रहा है।

Saturday, November 8, 2008

विजय,मिश्रा,गांगुली की कामयाबी सिलेक्टर्स के भरोसे की जीत है

महज एक सेंकेंड। लेकिन,मुरली विजय को अपनी मौजूदगी दर्ज कराने के लिए सिर्फ यह एक सेंकेंड ही बहुत था। सिली प्‍वाइंट पर तैनात विजय ने माइकल हसी के बल्ले से निकले स्ट्रोक को बीच रास्ते में ही दांहिने हाथ से रोका। हसी जब तक अपने स्ट्रोक के फॉलो थ्रू से वापस लौटते हुए क्रीज में बल्ला पहुंचाने की कोशिश भी करते,विजय के थ्रो पर विकेटकीपर महेन्द्र सिंह धोनी स्टंप बिखेर चुके थे।

सिर्फ एक सेंकेंड में विजय ने माइकल हसी की लगातार मजबूती लेती पारी को शतक से दस रन पहले थाम दिया। यह सिर्फ हसी की पारी का ही अंत नहीं था, ये गावस्कर बॉर्डर ट्रॉफी में बराबरी पर आने के लिए जीतोड़ कोशिशों में लगी आस्ट्रेलिया की उम्मीदों का बिखरना भी था। इस मुकाबले में विजय के लिए यह पहला मौका नहीं था। दूसरे दिन ऐसे ही एक सेंकेड में उनके सटीक थ्रो ने आस्ट्रेलियाई बल्लेबाजी की अगुवाई कर रहे अनुभवी मैथ्यू हेडन को भी ड्रेसिंग रुम की ओर मोड़ दिया था। ये दोनों बल्लेबाज "फोटो फ्रेम फिनिश" में अपना विकेट बचा नहीं पाए।

एक टेस्ट में दो-दो रन आउट। वो भी बल्लेबाज की चूक से नहीं,फील्डर की चीते सी चपलता से। टेस्ट क्रिकेट में यह किसी गेंदबाज के विकेट तक पहुंचने से कतई कम नहीं है। मुरली विजय ने एक-एक सेंकेंड के इन दो लम्हों में नागपुर के विदर्भ क्रिकेट एसोसिएशन मैदान में अपनी फील्डिंग से ऐसी छाप छोड़ दी है कि इस मुकाबले और सीरिज के आखिरी नतीजे में वो एक बहस का मुद्दा बनेगी।

आखिर,शनिवार की सुबह भारत ने एक नहीं दो बार साइमन कैटिच को जीवनदान दिया। पहले राहुल द्रविड़ और फिर वीवीएस ने स्लिप में अपने हाथ में पहुंची गेंद को कैच में तब्दील नहीं कर पाए। लेकिन,ठीक इसी मोड़ पर विजय ने मुकाबले में फील्डिंग की अहमियत को भी जता दिया। आखिर,इस मुकाबले से ठीक पहले विजय को जब टीम में जगह मिली तो कितने ही लोगों के जेहन में यह सवाल कुलबुलाने लगा कि विजय-कौन विजय?

कहीं कहीं 1997 के आसपास भारतीय टीम में अचानक जगह बनाने वाले ऑफ स्पिनर नोएल डेविड की तरह उनका नाम भी सुनायी पड़ने लगा। क्रिकेट आलोचकों ने सवाल खड़ा किया कि आखिर आकाश चोपड़ा,वसीम जाफ़र के रहते एम विजय को टीम में जगह कैसे मिल सकती है। लेकिन,विजय ने अपने इन दो लम्हो के साथ साथ भारतीय पारी को एक मजबूत आधार भी दिया।

उन्होंने बेशक सिर्फ 33 रन ही अपनी पारी में जोड़े लेकिन वीरेन्द्र सहवाग के साथ पहले विकेट के लिए बनाए 98 रन ही थे,जिसने भारत को इस मुकाबले में कई बार लड़खड़ाने के बावजूद एक विजयी लक्ष्य की ओर मोड़ दिया। लेकिन,विजय की इस पहचान दर्ज कराते आगाज के लिए हमें चयनसमिति के भरोसे को सलाम करना होगा।

चयनसमिति को यह मालूम था कि इस फैसले से उन्हें सवालों के घेरे में लिया जाएगा,उन्होंने विजय में अपने भरोसे को बनाए रखा। खबरों के मुताबिक,सौरव गांगुली ने चयनसमिति के अध्यक्ष कृष्णामाचारी श्रीकांत को कहा कि अगर आप इस पोजिशन के लिए किसी को देख रहे हैं तो वो शख्स विजय हो सकता है। गांगुली टीम में अपनी वापसी की तैयारियों के तहत न्यूजीलैंड ए के खिलाफ खेलते हुए भारत ए के इस ओपनर की बल्लेबाजी से रुबरु हुए थे।

ये इस सीरिज में अकेला वाक्या नहीं है,जहां अपनी नयी पारी खेल रहे सिलेक्टर्स का अपनी सोच में एक ठोस भरोसा दिखायी दिया है। उन्होंने पीयूष चावला पर तरजीह देते हुए टीम में हरियाणा के लेग स्पिनर अमित मिश्रा को टीम में जगह दी। इतना ही नहीं,मोहाली टेस्ट से ठीक पहले तत्कालीन कप्तान अनिल कुंबले को चोट की वजह से बाहर बैठना पड़ा तो मिश्रा को उतारने में कतई देरी नहीं की गई।

चयनकर्ताओं का यह तीर भी बिलकुल ठीक निशाने पर लगा। इस मैच की पहली पारी में पांच और दूसरी पारी में दो विकेट लेकर मिश्रा ने सीरिज में भारत के लिए पहली जीत की राह तैयार की। उनका प्रदर्शन इस कदर सबकी निगाहों में चढ़ गया कि सीरिज के ठीक बीच कप्तान कुंबले के संन्यास के झटके को भी भारतीय टीम झेलने के लिए तैयार दिखी। फिर,चयनसमिति के सौरव गांगुली में जाहिर किए गए भरोसे को भारतीय क्रिकेट में कभी भुलाया नहीं जा सकेगा।

तमाम आलोचनाओं और सौरव के फॉर्म पर उठते सवालों के बावजूद श्रीकांत एंड कंपनी ने भारत के पूर्व कप्तान को सीरिज में खेलने का मौका दिया। अपनी विदाई सीरिज में इस मौके को हाथों हाथ लेते हुए सौरव ने चार टेस्ट की पांच पारियों में 324 रन बनाते हुए इसे यादगार बना दिया है। इस सीरिज में सौरव का योगदान सिर्फ रनों के आइने में ही नहीं देखा जा सकता।

बेंगुलुरु की 47 रनों की छोटी पारी से लेकर मोहाली और नागपुर में कप्तान धोनी और तेंदुलकर के साथ निभायी साझेदारियां भारत के आस्ट्रेलिया पर हावी होने की नींव बनी। इन सबसे आगे सौरव के प्रदर्शन ने भारतीय क्रिकेट में अपने महानायकों को अलविदा कहने के लिए एक नयी राह खोल दी है। पूरे सम्मान के साथ अपने चहेतों के बीच अपनी स्टेज से अलविदा कहने का मंत्र। एक ऐसा सूत्र,जिसे थामने में सुनील गावस्कर से लेकर कपिल देव तक नाकाम रहे।

लेकिन, सौरव नागपुर में पूरे सम्मान के साथ आखिरी बार ड्रेसिंग रुम की ओर मुखातिब होंगे तो उनका हर कदम,उनका हर हाव भाव,उनके चाहने वालों के दिलो-दिमाग में हमेशा हमेशा के लिए ठहर जाएगा। महानायक को लेकर गढ़ा उनका मिथक कभी नहीं दरक पाएगा। सिर्फ एक सवाल जेहन में होगा-आखिर क्यों सौरव इस स्टेज से इस वक्त अलग हो रहे हैं?

किसी भी खिलाड़ी के लिए इससे बेहतर अलविदा हो नहीं सकती। लेकिन,इस अलविदा के लिए इतनी खूबसूरत ज़मी तैयार करने के लिए श्रीकांत एंड कंपनी को बार बार सलाम। इस सीरिज में सौरव गांगुली से लेकर अमित मित्रा और एम विजय की कामयाबियां अरसे तक लोगों की यादों में बसी रहेंगी। निश्चित तौर पर ये चयनसमिति के भरोसे की जीत है।

Sunday, November 2, 2008

अनिल कुंबले की विदाई के साथ 22 गज की स्टेज पर छूटा एक खालीपन

अनिल कुंबले ने अंपायर से गेंद अपने हाथ में ली। लेकिन, इस बार गेंदबाजी रनअप के लिए कदम बढ़ाने के लिए गेंद नहीं थामी। कुंबले ने ये गेंद ली हमेशा-हमेशा के लिए सहेज कर रखने के लिए। एक बेशकीमती धरोहर की तरह कुंबले उसे थाम ड्रेसिंग रुम लौट रहे थे। कुछ ही लम्हों पहले तक अपनी जिंदगी का हिस्सा बन चुकी 22 गज की स्टेज को पीछे छोड़ते हुए। दुनिया के हर हिस्से में ज़मीं के ऐसे टुकडों पर सिर्फ और सिर्फ बल्लेबाज के विकेट तक पहुंचने का एकमात्र लक्ष्य लेकर कुंबले ने अपने रनअप की ओर कदम बढ़ाए। एक बार नहीं, सौ बार नहीं बल्कि 40,852 बार। 18 साल तक लगातार एक सिलसिले की तरह। जीवट, धैर्य और खेल में डूबकर उसे जीने का तरीका बनाते हुए।

यही कुंबले रविवार की ढलती शाम में अपने सफर पर पूर्ण विराम लगा रहे थे। सचिन तेंदुलकर के साथ इस लम्हे को साझा करते हुए उनके चेहरे पर हमेशा की तरह एक मुस्कुराहट तैर रही थी। लेकिन, कुंबले की पहचान बनी इस मुस्कुराहट के पीछे अपनी ज़िंदगी के एक हिस्से को अलग करने के दर्द को आप महसूस कर सकते थे। टेलीविजन स्क्रीन पर उनके चेहरे पर टिके कैमरे मुझे भावुकता में बहाए लिए जा रहे थे। ऐसे में, इस लम्हे में ज़िंदगी में अचानक घर कर गए इस खालीपन के साथ आगे बढ़ते कुंबले की मन:स्थिति को सिर्फ और सिर्फ महसूस ही किया जा सकता है।

कुंबले अपनी जिंदगी में इस खालीपन के लिए बेशक मानसिक तौर पर खुद को तैयार कर रहे थे। आज जैसा उन्होंने कहा भी- "मैं इसे अपनी आखिरी सीरीज मानकर आगे बढ़ रहा था।" लेकिन, ये उनका आखिरी मैच होगा, ये कोई नहीं जानता था। शनिवार शाम तक कुंबले भी नहीं। महज एक शाम के डूबने और दूसरी सुबह के उगने के बीच उन्होंने ये फैसला लिया। "मैंने कल रात ही ये तय किया कि मुझे अब क्रिकेट से अलग हो जाना चाहिए।" बेहद साफगोई से, ईमानदारी से भारतीय क्रिकेट के इस बेमिसाल नायक ने अपने फैसले पर पहुंचने के मोड़ से सबको रुबरु करा दिया। "मेरी उंगली में लगे 11 टांके और चोट मुझे अपना सौ फीसदी खेल नहीं खेलने देगी। अपने प्रदर्शन से मैं अपनी टीम को नुकसान नहीं पहुंचा सकता।" ये बेशक अचानक उठी आलोचनाओं और सवालों का जवाब था। लेकिन, इतनी कड़वी सचाई को इतनी सहजता से सिर्फ कुंबले और कुबंले ही कह सकते हैं। सिर्फ कुंबले ही इसे स्वीकार करने की हिम्मत रखते हैं।

आखिर, कुंबले बेमिसाल हैं। इसलिए नहीं कि टेस्ट क्रिकेट में 619 विकेट के खड़े किए शिखर तक पहुंचना किसी भी भारतीय का पहुंचना फिलहाल मुश्किल लगता है। इसलिए भी नहीं कि कुंबले की रची जीत की कहानियों को दोहराना अब नामुमकिन हो जाएगा। कुंबले का पूरा सफर अकेले दम सवालों, आलोचनाओं के बीच एक संन्यासी की तरह तपस्या में जुटे रहने की कहानी है।

आप कुंबले को भारतीय क्रिकेट का सबसे बड़ा तपस्वी कह सकते हैं। आखिर एक गेंदबाज मैच दर मैच अपनी गेंदों से टीम के लिए जीत की राह तैयार करता है। लेकिन, आलोचक उसकी कामयाबियों को नवाजने के बजाय उन पर सवाल खड़ा करते हैं। बेदी, प्रसन्ना और चंद्रा के सुनहरे दौरे के बीच ये उन्हें एक मीडियम पेसर दिखायी देता है। इसकी गेंदें घूमती ही नहीं। अगर बल्लेबाज एक बार इन्हें समझ जाए तो वो बेफिक्र होकर खेल सकता है।

इन आलोचनाओं के बीच भी कोई बल्लेबाज कुंबले को बेफिक्र होकर खेल नहीं पाया। 1992 में पहले दक्षिण अफ्रीका और फिर अपने घर में इंग्लैंड के बल्लेबाजों के पांव कुंबले के सामने कांपने लगे। इन आलोचनाओं का ज्‍वार कुछ कम हुआ, लेकिन खत्म नहीं। अब कहा जाने लगा- "कुंबले की गेंदों में टर्न है। सिर्फ उतना ही, जितना विकेट के लिए जरुरी है।" लेकिन, साथ में सवाल भी जोड़ दिए गए। इस लेग स्पिनर की तरकश में गुगली नहीं है। लेग स्पिन नहीं है।

लेकिन, कुंबले इस बेपरवाह होकर लगातार अपनी गेंदों में नए आयाम जोड़ते चले गए। लेग स्पिन की हर विधा को उन्होंने अपनी गेंदबाजी में शामिल कर लिया। आखिर, आप इसे क्या कहेंगे कि भारतीय स्पिन के सुनहरे दौर के सबसे बड़े नायक बिशन सिंह बेदी के हासिल किए गए 266 विकेट के मुकाबले कुंबले ढाई गुना आगे जाकर 619 विकेट के नए शिखर के साथ करियर को अलविदा कह रहे हैं।

ये सिर्फ कुंबले के हाथों से छूटी गुजरते वक्त के साथ तेज होती धार ही नहीं है, ये अपनी सीमाओं में एक परिपूर्णता की तलाश करता एक गेंदबाज ही नहीं है, ये स्किल और टेलेंट से आगे जाकर जीवट की ढेरों कहानियों को समेटे एक बेजोड़ नायक है। टूटे जबड़े के बावजूद एंटिगा के सेंटजोंस मैदान पर उतरे कुंबले को कौन भूल सकता है। दर्द से बेपरवाह 14 ओवर के स्पैल में ब्रायन लारा के विकेट तक पहुंचे कुंबले की कहानी भारतीय क्रिकेट में किंवदंती की शक्ल ले चुकी है। ये अगर छह साल पहले की बात थी, तो एक दिन पहले ही उंगली में लगे 11 टांकों के बावजूद अपने से जुड़े सवालों का जवाब तलाशते कुंबले को आप सिर्फ सलाम ही कर सकते हैं।

फिर, जब इन सवालों का जवाब जब उनकी गेंदें नहीं दे पायी। तो इस बार बेहद ईमानदारी से उन्होंने खुद से जवाब मांगा। ये सवाल पिछले एक साल से लगातार उन पर हावी हो रहा था। ये कबूलने मे भी उन्होंने कोई हिचकिचाहट नही दिखायी। ढलती उम्र में शरीर लगातार जवाब दे रहा था। लेकिन,उनके भीतर का खिलाड़ी अभी हार मानने को तैयार नहीं था। कुंबले का कहना है "बेशक मैं दर्द निवारक दवाइयों के साथ खेल में खुद को झोंक रहा था। खेलना मुश्किल हो रहा था। लेकिन, मुझे लगता था कि मैं अभी कुछ और खेल सकता हूं। लेकिन, उंगली में लगी चोट के बाद मुझे लगा कि अब इस सफर को थामना होगा। ये चोट काफी गंभीर थी। अब शायद बस।"

कुंबले ने इस 'बस' के साथ क्रिकेट सफर को पूर्णविराम लगा दिया। अब एक खालीपन सिर्फ उनकी जिंदगी में ही नहीं है। हम सब भी उसी खालीपन के साथ जीने को मजबूर हैं। हम सब की जिंदगी में भी मैदान के 22 गज की इस जमी पर कुंबले की छवि फिर उभार नहीं लेगी। लेकिन, हौसलों से भरे उनके डग, हाथ से छूटती गेंद, बल्लेबाज के विकेट तक पहुंचने के बाद एक असीम खुशी में डूबते कुंबले हमारी यादों में कभी धुंधले नहीं पड़ेंगे। पाकिस्तान के खिलाफ एक पारी में हासिल दसों विकेट से लेकर वेस्टइंडीज के खिलाफ उसी की ज़मी पर इतिहास दोहराती जीत तक। आस्ट्रेलिया में साइमंड्स-भज्जी विवाद के मद्देनजर मैदान से बाहर भारतीय गौरव की अगुआई करते कुंबले से लेकर, पर्थ में यादगार जीत तक पहुंचाती इस नायक की उपलब्धियों में हम बार-बार डूबते उतरते रहेंगे।

रविवार को कोटला पर आखिरी बार अपनी स्टेज को पीछे छोड़ अपनी बेटी का हाथ थामे कुंबले वापस लौट रहे थे। उनकी बेटी बेहद मासूमियत से अपने पिता की ओर देख रही थी। छह फीट लंबे कुंबले को देखने के लिए वो बराबर अपना सिर उठा नज़रों को ऊंचा कर रही थी। इस बच्ची को आज अपने पिता के असली कद का अंदाज तो नहीं हुआ होगा। आने वाले कल में जब वो इस एक तारीख की ओर रुख करेगी तो जरुर एक रोमांच और गर्व से भर जाएगी कि कितने बड़े लम्हे के बीच से वो गुजरकर आयी थी। कितनी बड़ी शख्सियत की उंगली थाम उसने कदमों के साथ कदम मिलाए थे। ऐसे कदम, जिनके निशां भारतीय क्रिकेट में इतने गहरे छप गए हैं कि कभी मिटाए नहीं जा सकेंगे। ये भारतीय क्रिकेट के महानायक अनिल कुंबले के कदमों के निशां हैं। इस पर आने वाला हर एक गेंदबाज चलना चाहेगा। यही अनिल कुंबले होने का मतलब है।

Saturday, November 1, 2008

चौतरफा दबाव के बीच खुद से जूझते अनिल कुंबले

वीरेन्द्र सहवाग- 40-9-104-5 । अनिल कुंबले- 43.3-9-112-3 । ये सिर्फ दो गेंदबाजी विश्लेषण नहीं हैं। ये एक पारी में एक गेंदबाज की कामयाबी और दूसरे की नाकामी का चेहरा भी नहीं हैं। अगर आप फिरोजशाह कोटला पर भारत और आस्ट्रेलिया के बीच खेले जा रहे तीसरे टेस्ट मैच को लगातार देख रहे हैं तो इस विश्लेषण से कहीं आगे ये दो खिलाड़ी दो अलग ज़मी पर खड़े दिखेंगे। दबाव से बेफ्रिक्र होकर कैसे आप लगातार नयी कामयाबियों की ओर मुखातिब होते हैं। दबाव किस तरह आपकी राह मुश्किल दर मुश्किल बना डालता है। सहवाग और कुंबले दोनो इस मुकाबले में इन दो छोर पर खड़े दिखायी दे रहे हैं।

वीरेन्द्र सहवाग ! जरुर उन्हें हरभजन की गैरमौजूदगी में गेंदबाजी की ज़िम्मेदारी सौपी गईं। मुकाबले के बीच कुंबले को लगी चोट के बाद ये जिम्मेदारी दोहरी हो गई। लेकिन, मूल रुप से सहवाग की पहचान न तो एक गेंदबाज के तौर पर गढ़ी गई है, न ही उनकी गेंदों से बल्ले की तरह भारत ने जीत की राह का ख्वाब संजोया है। उनकी भूमिका या तो एक बड़ी साझेदारी को तोड़ने की शक्ल में देखी गई या फिर एक छोर पर बदलाव के लिए उनके हाथ में गेंद थमायी गई। बहुत ज्यादा हुआ तो एक छोर पर रनों के प्रवाह को रोकने के इरादे से कप्तान ने सहवाग का इस्तेमाल किया।

सहवाग दबाव से मुक्त होकर अपनी इस जिम्मेदारी को निभाते रहे हैं। इस मुकाबले में भी बल्ले से नाकाम होने के बावजूद सहवाग पर विकेट लेने का दबाव तो नहीं रहा होगा। गेंदबाजी में कुछ भी दांव पर न होने के चलते उनकी गेंदों में पारी के आगे बढ़ने के साथ साथ धार भी दिखायी देने लगी। एक भरोसे के साथ सहवाग अपनी गेंदों को टॉस कराया। साथ ही, ऑफ स्टंप की दिशा को थामते हुए लगातार आस्ट्रेलियाई बल्लेबाजों को भी परेशान करते रहे। तीसरे दिन शतक के करीब खड़े कप्तान पोंटिंग उनकी एक सहज ऑफ स्पिन पर ड्राइव करने की कोशिश में पूरी तरह परास्त हुए। आस्ट्रेलियाई बल्लेबाजी का सबसे ठोस किला कहे जाने वाले माइकल हसी हताश हुए। शनिवार की सुबह बेहद सहजता से खेल रहे शेन वाटसन सहवाग की अंदर आती गेंद से पार पाने का सूत्र तलाशते हुए अपना लेग स्टंप गंवा बैठे। सहवाग आस्ट्रेलियाई पारी में पांच विकेट अपने नाम किए। भारतीय गेंदबाजी में एक नये स्ट्राइक गेंदबाज की शक्ल लेते हुए।

दूसरे छोर पर अनिल कुंबले थे। पूरी तरह दबाव के बीच। बाएं हाथ की उंगली में लगे 12 टांकों का दबाव शायद इस अनुभवी स्ट्राइक गेंदबाज पर नहीं रहा होगा,जितना कि आस्ट्रेलियाई विकेट तक पहुंचने का। इस सीरिज में अपने पहले विकेट का इंतजार करते कुंबले लगातार इस चुनौती से जूझते दिखायी दिए। पिछली 17 पारियों से कुंबले एक पारी में पांच विकेट लेने का कारनामा नहीं दोहरा पाए हैं। ये वो कुंबले हैं, जिन्होंने 35 बार पांच विकेट और आठ बार एक मैच में दस विकेट हासिल किए हैं। अपने करियर में करीब 29 रन की औसत से 617 विकेट लेने वाले कुंबले पिछली 16 पारियों के दौरान 52 के औसत से विकेट तक पहुंच पाए हैं। भारतीय क्रिकेट के सबसे बड़े मैच विनर कुंबले ने अपने करियर में करीब हर 66वीं गेंद पर विकेट लिया है,लेकिन पिछले एक साल के दौरान इन 16 पारियों मे उन्हें औसतन 98 गेंद तक इंतजार करना पड़ा है।आस्ट्रेलिया,श्रीलंका और अपने घर में पिछले एक साल से लगातार विकेट के लिए तरसकर रह गए हैं कुंबले। ये कुंबले के करियर का दूसरा सबसे बड़ा दौर है,जब उन्हें विकेट के लिए इस कदर जूझना पड़ा है। इससे पहले, 2006 में भी 19 पारियों में भी वो एक पारी में पांच विकेट के लिए तरसते रहे थे।

लेकिन,इस बार कुंबले पर अकेला यही दबाव नहीं था। कुंबले की नाकामी के पिछले दौर में उनका विकल्प खोजने की बात नहीं हो रही थी। लेकिन,यहां न सिर्फ गेंदबाज बल्कि कप्तान के तौर पर भी वो अपनी जगह बरकरार रखने के लिए जूझते दिखायी दे रहे हैं। ये भी एक अजब संयोग है कि दोनों विकल्प ठीक उनके साथ मैदान में तलाशे जा रहे हैं। मोहाली में बेहतरीन गेंदबाजी कर चुके लेग स्पिनर अमित मिश्रा बेशक कोटला पर कारगर साबित नहीं हो पाए लेकिन कुंबले के बाद उनका नाम तो लिया ही जाने लगा है। महेन्द्र सिंह धोनी ट्वेंटी-20 और वनडे के बाद अब टेस्ट में भी मौका मिलने पर अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहे हैं।

इस चौतरफा दबाव के बीच कुंबले की मनस्थिति को महसूस करना आसान नहीं है। यहां मुझे टॉनी फ्रांसेस की 'जेन ऑफ क्रिकेट' में कही एक बात याद आ रही है। उनके मुताबिक, पेशेवर क्रिकेट में नब्बे फीसदी आप अपने दिमाग से खेलते हैं,और दस फीसदी अपनी क्षमताओं से। यहां कुंबले उस नब्बे फीसदी से खुद को उबारने में लगे हैं। कहा जाता है कि आप दबाव में हैं, तो अपने गुजरे कल के सबसे बेहतरीन लम्हे को याद कर उससे उबरने की कोशिश करें। लेकिन, शायद कुंबले की ये नियति ही कही जाएगी कि उसी कोटला पर वो अपनी इन चुनौतियों से जूझ रहे हैं,जिसने उन्हें करियर के सबसे यादगार पल दिए। इस हद तक कि कोटला और कुंबले एक दूसरे से हमेशा के लिए जुड़ गए। यही एक अकेला टेस्ट होगा,जहां कुंबले और कोटला के बीच एक अदृश्य सी लकीर खींच गई है। फिर,ये लकीर इस मुकाबले के आगे बढ़ते बढ़ते लगातार गहराती जा रही है। क्रिकेट आलोचकों का मानना है कि इस विकेट पर चालीस ओवर में तो कुंबले पूरी पारी को ही साफ कर देते थे,लेकिन अब कुंबले के कंधों में पहले जैसी ताकत दिखायी नहीं दे रही। ऐसी ताकत,जो उन्हें विकेट से टर्न से ज्यादा एक उछाल देती थी। आज आलोचकों की निगाहों में कुंबले की गेंदों की पहेली सुलझा ली गई है। कुंबले को अब बल्लेबाज बैकफुट पर भी आसानी से खेलने लगे हैं।


इन सबके बीच कुंबले अपने हर विकेट के साथ इन्हीं सवालों का जवाब देते दिखते हैं। हैडिन का विकेट लेने के बाद मुट्ठी भींचते और चेहरे पर एक जवाबी मुस्कुराहट लाते कुंबले को देख आप इसे महसूस कर सकते हैं। लेकिन,साथ ही ये संदेश भी आप तक पहुंच जाता है कि कुंबले की गेंदों के लिए अब विकेट तक की राह मुश्किल और मुश्किल होती जा रही है। उन पर गहराता ये दबाव उनके रास्ते को और दुरुह बना रहा है। उम्र के इस पढ़ाव पर कुंबले अपने इस चहेते खेल से अलविदा कहने का मन तो बना चुके होंगे लेकिन इंतजार में हैं सही वक्त के। ये भी अजीब संयोग है कि उनकी स्थिति शायद आज के शेयर बाजार में निवेश कर चुके हजारों निवेशकों सरीखी है, जो सेंसेक्स का शिखर देख चुके हैं,लेकिन मंदी के इस दौर में अब बाजार से निकलने का सही वक्त खोज रहे हैं। उन्हें अपने वक्त का इंतजार है, तो कुंबले को भी।