Thursday, October 30, 2008

बार-बार खुद को साबित करने को मजबूर लक्ष्‍मण

उनके किट बैग में सिर्फ बल्‍ला या बा‍की साजोसामान ही मौजूद नहीं रहते, उनके किटबैग में निराशा, हताशा और कुछ बिखरे ख्‍वाब भी मौजूद रहते हैं। लेकिन, एक बार विकेट पर उन्‍होंने मोर्चा संभाल लिया तो बाकी सब पीछे छूट जाता है। आपके सामने होती है तो किक्रेट की सबसे आसान विधा के रूप में बल्‍लेबाजी। उनकी बे‍हद सहज बल्‍लेबाजी एक कला की शक्‍ल में उभार लेती है। वीवीएस लक्ष्‍मण के बल्‍ले ने गुरुवार को इसी पहचान के साथ दिल्‍ली के फिरोजशाह कोटला पर समां बांध दिया। अपने अर्द्धशतक को पहले शतक, और फिर दोहरे नाबाद शतक में तब्‍दील करते हुए।

आखिर इस टेस्‍ट से ठीक पहले लक्ष्‍मण अपने बिखरे ख्‍वाबों से ही तो जूझ रहे थे। इन्‍हीं के बीच से उन्‍हें फिर अपना रास्‍ता तलाशना था। अपने पर उठते सवालों का एक बार फिर जवाब देना था। इस टेस्‍ट से ठीक पहले पांचवें गेंदबाज को शामिल करने के एवज में किसी बल्‍लेबाज को बिठाने की अटकलें गरम हो रही थीं तो उसमें सबसे पहला नाम लक्ष्‍मण का था। बेहतर होगा, अगर कहा जाए कि मोहाली की विजयी टीम से किसी को बाहर बिठाने की सूरत में एक ही नाम दिख रहा था, वीवीएस लक्ष्‍मण।

लेकिन, लक्ष्‍मण ने कोटला पर 470 मिनट विकेट पर मौजूद रहकर ऐसी पारी खेली कि इन सब अटकलों को छेड़ने वालों के पास आज कोई जवाब नहीं होगा। हैदराबाद की बल्‍लेबाजी नफासत को समेटे लक्ष्‍मण पोंटिंग की व्‍यूह रचना के बीच से अपनी पारी को आगे बढ़ाते रहे। पोंटिंग लक्ष्‍मण के स्‍ट्रोक प्‍ले को रोकने के लिए जितनी कोशिश कर रहे थे, लक्ष्‍मण उतनी ही सहजता से उससे पार पा रहे थे। इस हद तक कि दूसरे छोर पर खड़े गौतम गंभीर, अनिल कुंबले और जहीर खान तक सबकी राह आसान होती चली गई। इसी सहजता का नतीजा था कि उन्‍होंने गंभीर के साथ चौथे विकेट के लिए 278 रन की रिकॉर्ड साझेदारी पूरी की, गंभीर के लिए अपने टेस्‍ट करियर के पहले दोहरे शतक को छूने की राह भी आसान की।

फिर इस पारी के बीच लक्ष्‍मण ऑस्‍ट्रेलिया के खिलाफ छठी बार शतक के पार जा खड़े हुए। दुनिया की सबसे बेहतरीन टीम के सामने उन्‍होंने 2000 रन पूरे करने का गौरव हासिल किया। सचिन तेंदुलकर के बाद इस पड़ाव तक पहुंचने वाले दूसरे बल्‍लेबाज बने। इन आंकड़ों से आगे उन्‍होंने भारतीय टीम के लिए वो आधार तैयार कर दिया, जहां से जीत की ओर बढ़ा जा सकता है। ये कोलकाता और सिडनी में भारतीय जीत के बड़े नायक की कोटला पर खेली गई एक और बेजोड़ पारी थी।

लेकिन, ये भारतीय क्रिकेट की विडंबना ही है कि ऐसे बल्‍लेबाज को बार-बार एक नए सिरे से अपनी पहचान दर्ज करानी पड़ती हैं। सौवें टेस्‍ट की दहलीज पर जा पहुंचे लक्ष्‍मण को बार-बार एक नई अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ता है। कभी टीम में वापसी करने के लिए, तो कभी टीम में अपनी जगह को सही साबित करने के लिए। कभी 10 प्रथम श्रेणी मुकाबलों में 10 शतक जमाकर वे टेस्‍ट टीम में वापसी करते हैं, तो कभी मौका मिलने पर अपनी पसंदीदा नंबर तीन पर खेलने के लिए कप्‍तान की मेहरबानी का इंतजार करते हैं।

लक्ष्‍मण की कचोट सिर्फ यहीं तक नहीं सिमटी है। भारतीय क्रिकेट के इस बेहतरीन स्‍ट्रोक प्‍लेयर के हिस्‍से में अब तक 100 वनडे भी नहीं आए हैं। विजडन द्वारा संकलित सर्वश्रेष्‍ठ पारियों में छठी सबसे बेहतरीन पारी खेलने वाला ये बल्‍लेबाज वर्ल्‍डकप की दहलीज नहीं छू पाया है। 2003 के वर्ल्‍डकेप से ठीक पहले वेस्‍टइंडीज के खिलाफ वनडे सरीज में 52 की औसत से सबसे ज्‍यादा 312 रन बटोरने के बावजूद उन्‍हें इसके लाया नहीं माना गया। लक्ष्‍मण के वर्ल्‍डकप के ख्‍वाब को तार-तार करने का आधार बना न्‍यूजीलैंड में सिर्फ तीन मैचों की नाकामी। ये लक्ष्‍मण का ऐसा बिखरा ख्‍वाब है, जिसे वो अब ताउम्र समेट नहीं सकते।

ये उस लक्ष्‍मण की कहानी का हिस्‍सा है, जो दुनिया के सबसे बड़े स्पिनर शेन वार्न के खिलाफ ऑन ड्राइव करने की हिम्‍मत रखता है। ये वो लक्ष्‍मण है, जो ब्रेट ली के बाउंसर को फ्रंटफुट पर हिट करने में नहीं हिचकिचाता। एक ऐसा बल्‍लेबाज, जिसमें इयान चैपल को मार्क वॉ की झलक दिखाई देती है तो जिमि अमरनाथ को माहेला जयवर्द्धने की। लेकिन इन सबसे बढ़कर वो लक्ष्‍मण है, जिसकी टीम में मौजूदगी के चलते भारत ने औसतन हर तीसरे मैच में जीत दर्ज की। इस दौरान इन विजयी मुकाबलों में 50 से ज्‍यादा का औसत टीम में उसकी अहमियत को जाहिर करता है।

कुछ आलोचक कह सकते हैं कि लक्ष्‍मण की कामयाबियों की फेहरिश्‍त ऑस्‍ट्रेलिया, पाकिस्‍तान और वेटइंडीज से आगे नहीं जाती। हो सकता है कि वो इंग्‍लेंड और द अफ्रीका के खिलाफ लक्ष्‍मण के एक भी शतक तक नहीं पहुंच पाने को गिना सकते हैं। लेकिन, जिन उतार-चढ़ाव के बीच लक्ष्‍मण ने करियर को परवान चढ़ाया, वहां ये हिस्‍से पीछे छूट जाते हैं।

लक्ष्‍मण का मानना है कि अगर आपका जेहन उलझनों से ना भरा हो तो आप अपना स्‍वाभ्‍भाविक खेल दिखा सकते हैं। बललेबाजी एक सहज कला है, लेकिन मस्तिष्‍क इसे जटिल बना देता है। लक्ष्‍मण भी जटिलताओं के बीच अपने सफर को आगे बढ़ा रहे हैं। भारतीय क्रिकेट में वो गोल्‍डन फैब फोर कर हिस्‍सा हैं, लेकिन उनकी छवि अपने बाकी तीन साथी बल्‍लेबाजों से इतर अपने कप्‍तान अनिल कुंबले के ज्‍यादा करीब दिखती है। अपनी उपलब्धियों के बीच लक्ष्‍मण, कुंबले की तरह भारतीय क्रिकेट में ‘अनसंग हीरो’ हैं। एक ऐसा नायक, जिसे हर बार एक नए सिरे से अपनी पहचान गढ़नी पड़ती है।

Wednesday, October 29, 2008

जीत की ऑस्‍ट्रेलियाई सोच के उलट दिखी पोंटिंग की रणनीति

साइमन कैटिच! नाम जुबां पर आते ही बायें हाथ के ठोस बल्‍लेबाज की छवि उभार लेती है। अपनी टीम के जरूरतों के मद्देनजर बल्‍ले से अपनी टीम को किनारे तक ले जाने की कोशिशों में जुटा एक भरोसेमंद बल्‍लेबाज। लेकिन, दिल्‍ली के फिरोजशाह कोटला मैदान पर उनके हाथ में बल्‍ला नहीं था। इसके बावजूद वे सुखिर्यों में थे। उनके आसपास बहस रची-बुनी जा रही थी।

पहली बार गौतम गंभीर से उनकी कहा-सुनी कैमरे की गिरफ्त में थी। नॉन-स्‍ट्राइकर एंड पर गंभीर से उलझते कैटिच को रोकने के लिए अंपायर बिली बॉडन को बीच-बचाव करना पड़ा। दूसरी बार चाइनामैन गेंदबाज की भूमिका में उतरे कैटिच की वीवीएस लक्ष्‍मण को परास्‍त करती गेंद सबकी निगाहों में ठहर गई थी।

पहली बहस को पेशेवर क्रिकेट के दबाव में आवेश के मद्देनजर महज एक संयोग कहा जा सकता है। इसे नजरंदाज कर आगे बढ़ा जा सकता था। ऐसा हुआ भी। मैच अपनी रफ्तार से आगे बढ़ा। लेकिन, दूसरी बहस अभी जारी है। पहले दिन का खेल खत्‍म होने के बाद ज्‍यादा और ज्‍यादा। टेलीविजन कमेंटेटर और पूर्व ऑस्‍ट्रेलियाई कप्‍तान इयान चैपल के शब्‍दों में कैटिच की ये घूमती गेंद पोंटिंग के लिए एक बड़े खतरे का संदेश है।

इयान चैपल के मुताबिक, अगर एक धीमे विकेट पर पहले दिन कैटिच जैसे एक कामचलाऊ गेंदबाज अपनी गेंदों में घूमाव लाने में कामयाब है, तो भारतीय कप्‍तान अनिल कुंबले यहां क्‍या कर सकते हैं, इस पर सबकी निगाहें टिक जानी चाहिए। ये तो पोंटिंग की खुशकिस्‍मती कही जाएगी कि हरभजन सिंह चोट की वजह से इस मैच से बाहर हैं। सचमुच! अगर ये विकेट पहले दिन कैटिच की इस गेंद की तरह व्‍यवहार करने लगा तो कुंबले और उनके साथ अमित मिश्रा से निबटना बेहद मुश्किल होगा। वह भी उस कोटला पर, जहां कुंबले ने प्रति टेस्‍ट करीब-करीब नौ विकेट हासिल किए हैं। इतना ही नहीं, कुंबले ने यहां जो छह टेस्‍ट मैच खेले हैं, उसमें सभी में भारत ने जीत हासिल की है।

फिर कुंबले और मिश्रा की गेंदों के संभावित टर्न के साथ जुड़ा होगा रनों का एक विशाल पहाड़। रनों के इस पहाड़ के बीच मनोवैज्ञानिक दबाव बना कुंबले और मिश्रा, पोंटिंग एंड कंपनी के धैर्य, हौसले और कौशल का कड़ा इम्‍तहान लेंगे। और ये दबाव ऑस्‍ट्रेलिया की जीत की सहज सोच के ठीक उलट है।

लेकिन, इसके लिए जिम्‍मेदार कौन है, फिलहाल ये बहस का एक बड़ा मुद्दा है। इसका जवाब सीधे-सीधे पोंटिंग की रक्षात्‍मक कप्‍तानी पर जाकर ठहर रहा है। भारतीय बल्‍लेबाजों के बल्‍ले से बहते स्‍ट्रोक को थाम वे अपने जीत की राह तलाशने में पूरे दिन जुटे रहे। 2004 की सीरीज में मिली कामयाबी या बेंगलुरु टेस्‍ट के कुछ हिस्‍से में भारतीय बल्‍लेबाजों पर बनाई पकड़ के फार्मूले को ही पोंटिंग कोटला पर आगे बढ़ाते दिखे। बेंगलुरु में हालांकि सचिन तेंदुलकर से लेकर राहुल द्रविड़ के विकेट तक पहुंचने में उन्‍होंने कामयाबी पाई, लेकिन आक्रामक ऑस्‍ट्रलियाई सोच से हटकर अपनाए इस फार्मूले के नाकाम होने के बाद दूसरी योजना पोंटिंग के पास नहीं दिखी।

खासतौर से कोटला पर बुधवार को तेंदुलकर के खिलाफ सात-दो की व्‍यूह रचना के साथ वे उनके स्‍ट्रोक को थामने की कोशिश में थे। लेकिन, सीरीज में हर गुजरती पारी के साथ चौड़े होते तेंदुलकर के बल्‍ले को आप रक्षात्‍मक रणनीति से रोक नहीं सकते। इसी का नतीजा था कि ऑफ स्‍टंप के आसपास आती गेंदों को आखिरी वक्‍त पर वे ऑन साइड में मोड़ने में वे कोई मौका नहीं चूक रहे थे। स्‍टुअर्ट क्‍लार्क की तेज गेंदों के सामने विकेटकीपर हैडिन को ऊपर बुला कर पोंटिंग ने सचिन के इन आक्रामक तेवरों पर कुछ प‍कड़ जमाई, लेकिन गंभीर की सोच और इरादों के सामने पोंटिंग की ये योजना भी असफल हो गई।वाटसन की गेंद को क्रीज छोड़कर एक स्पिनर के समान लॉन्‍ग ऑन के ऊपर से छक्‍का लगाकर शतक पूरा करके गंभीर बराबर अपने इरादों को पुख्‍ता कर रहे थे।

पोंटिंग की इस रक्षात्‍मक सोच के बीच भारत पहले दिन ही करीब साढ़े तीन रन की औसत से तीन सौ के पास जा पहुंचा है। अगर भारत दूसरे दिन चायकाल तक बल्‍लेबाजी जारी रखने में कामयाब हो गया, तो पोंटिंग के लिए इस टेस्‍ट में वापसी या बचाव की राह गेंद दर गेंद मुश्किल होती जाएगी। अगर किसी तरह वे इसे ड्रॉ तक खींच कर ले भी गए, तो सीरीज में बराबरी के लिए नागपुर में आखिरी टेस्‍ट में हर हाल में जीत दर्ज करनी होगी। यानी हर हाल में जीत के दबाव में वे मैदान पर पहुंचेंगे।

कहा जा सकता है कि ये वर्ल्‍ड चैंपियन ऑस्‍ट्रेलिया की सहज सोच नहीं है। आप जब भी अपनी सहजता से हटते हैं तो आप एकाध बार मंजिल तक पहुंच सकते हैं, हर बार नहीं। सहजता से हटते हुए आपको हर बार उसके खतरों से सचेत रहना होता है। पोंटिंग, फिलहाल जीत की सहज ऑस्‍ट्रेलियाई सोच से हटने की वजह से सामने आए उसी उल्‍टे नतीजे से जूझ रहे हैं। इसलिए साइमन कैटिच की घूमती गेंद भारत को नहीं, ऑस्‍ट्रेलिया को आने वाली आने वाली चुनौतियों की आहट दे रही है।

Tuesday, October 28, 2008

बीते कल को पीछे छोड़ कुंबले-पोंटिंग को आज में ही झोंकनी होगी जान

योजओरटेगा-स्पेन के इस दार्शनिक का रिकी पोंटिग और अनिल कुंबले से कोई सीधा तार नहीं जुड़ता। ये तो ठीक वैसा ही है, जैसे फुटबॉल और बुल फाइटिंग के दीवाने स्पेन का क्रिकेट के जुनून में डूबे भारत से सीधा कोई तार पकडने की कोशिश करना। लेकिन, बुधवार को दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में दाखिल होते हुए इन दोनों कप्तानों का योजाओरटेगा का एक कथन जरुर जिंदगी के फलसफे को नए सिरे से गढ़ने के लिए प्रेरित कर सकता है।
योजओरटेगा का कहना है- "जिंदगी आने वाले कल से लगातार एक मुठभेड़ की प्रक्रिया है। आने वाला इससे तय नहीं होता कि हमने अब तक क्या हासिल किया। हमारे पास क्या था, ये तय होता कि आप कितनी शिद्दत से उस आने वाले कल को हासिल करने की कोशिश करते हैं। उसके लिए जुटते हैं।" जिंदगी को लेकर योजओरटेगा के इस दर्शन में अकेले कप्तान रिकी पोंटिंग अपनी वर्ल्ड चैंपियन टीम और उसकी मौजूदा सोच को नए सिरे से टटोल सकते हैं। भारतीय कप्तान अनिल कुंबले इसमें अपने करियर की संध्या में झांक सकते हैं।
मोहाली से ठीक पहले रिकी की टीम टेस्ट के वर्ल्ड चैंपियन के पायदान पर खड़ी थी। जीत को एक सिलसिले की शक्ल देते हुए। जीत का आस्ट्रेलिया सोच का चेहरा बनकर सबके सामने आते हुए। इस हद तक कि बीते आठ साल में पहली बार भारत के दौरे पर आयी सबसे अनुभवहीन टीम ठहराने के बावजूद इसे खारिज नहीं किया जा रहा था। इसके सुनहरे कल के चलते आने वाले कल में भरोसा डिगा नहीं था। लेकिन, मोहाली में महेन्द्र सिंह धोनी की अगुवाई में उभरी नयी टीम इंडिया ने इस आस्ट्रेलिया टीम के सुनहरे कल के मिथक को तार तार कर डाला।
आस्ट्रेलिया इससे पहले भी हारा था। इंग्लैंड से एशेज के दौरान और पिछली ही सीरिज में भारत से अपने पसंदीदा पर्थ पर। लेकिन,इस शिकस्त के दौरान बराबर दिखा कि पोंटिंग की यह टीम आज से दूर बीते कल के सहारे मैदान पर मंजिल तलाशने की कोशिश में उतरी थी। इसी का नतीजा था कि वो मंजिल के करीब आने के बजाय लगातार दूर और दूर होती चली गई। भारत की जीत ने क्रिकेट की बाकी दुनिया को दो टूक ये संदेश पहुंचा दिया कि बीता कल, आज या आने वाले कल को तय नहीं कर सकता। हर पल में खुद को पूरी शिद्दत से झोंकते हुए ही कल के सिलसिले को बरकरार रखा जा सकता है।
पोंटिंग इसे जरुर महसूस कर सकते हैं। शायद इसलिए वो बेहिचक अपने सीनियर खिलाड़ियों को एक मिसाल बनकर सबके सामने आने का मंत्र सुझा रहे हैं। लेकिन अपने सुनहरे कल से हटकर आज में जीना इतना आसान भी नहीं है। वरना क्या वजह है कि इस सीरिज में दो टेस्ट की चार पारियों में महज 42 रन जोड़ पाए मैथ्यू हेडन भारतीय तेज गेंदबाजों की आक्रामकता और पैनी धार से जानबूझकर मुंह मोड़ रहे हैं।
ज़हीर के खिलाफ चार में से तीन बार अपना विकेट गंवा चुके हेडन का दावा कितना खोखला लगता है,जब वो कहते हैं कि जहीर पर वो काबू पा चुके हैं। इस सीरिज से पहले ही वो गिलक्रिस्ट के साथ जहीर पर जोरदार जवाबी हमलों की याद दिलाने की कोशिश करते हैं। लेकिन इस सीरिज में जहीर की गेंदों को नयी धार देती रिवर्स स्विंग का क्या तोड़ उनके पास है, इसका कोई ठोस जवाब हेडन तो क्या पूरे आस्ट्रेलियाई खेमे के पास नहीं है।
यहां जरुरी है पूरी शिद्दत के साथ जहीर की गेंदों के सच को कुबूलकर अपना रास्ता तलाशना, न कि बीते कल के सहारे खुद को भ्रम में रखना। आखिर ये भ्रम ही आने वाले कल को एक अंजानी मुठभेड़ में बदल सकता है।
रफ्तार के सौदागर ब्रेट ली के साथ भी पोंटिंग एंड कंपनी बीते कल से ही आज को संवारने में जुटी है। इस सीरिज में सबसे बड़े स्ट्राइक गेंदबाज के तौर पर भारत पहुंचे ब्रेटली अब तक महज चार विकेट ही हासिल कर पाए हैं। लेकिन, 350 से ज्यादा विकेट हासिल कर चुके गेंदबाज की भारतीय विकेटों पर कुंद पड़ती धार की वजह गेंदों में कम होती रफ्तार में देखने की कोशिश की जा रही है। माना जा रहा है कि वो अगर अपनी रफ्तार लौटा लाएं तो वर्ल्ड चैंपियन टीम को किनारे तक ले जाएंगे। लेकिन, ये सिर्फ ढलती रफ्तार का मसला नहीं हो सकता।
आस्ट्रेलियन अखबार में पैट्रिक क्वीक की इस बात पर गौर करना चाहिए कि टेस्ट में 57,863 गेंद फेंकने के बाद आप किसी गेंदबाज को रफ्तार वापस लाने का मंत्र नहीं थमा सकते। अपनी निजी जिंदगी में परेशानी से जूझ रहा ये गेंदबाज अपनी लय तलाश रहा है, न कि रफ्तार। रफ्तार उसकी लय में है। लय जो उसके आज से जुड़ी है न कि बीते कल से। इस आज में वो अगर शिद्दत से अपने डग भरता है तो गेंद विकेट तक का रास्ता तय कर ही लेगी।
भारतीय कप्तान अऩिल कुंबले भी इसी मोड़ पर खड़े है। लेकिन,ये विडंबना ही है कि अपना 132 वां टेस्ट खेले रहे कुंबले को न सिर्फ एक गेंदबाज के तौर पर टीम में अपनी जगह को सही साबित करना है बल्कि कप्तान के नाते अपनी ढलती पहचान को फिर गढ़ने की चुनौती भी उनके सामने है। फिलहाल इन दोनों ही मोर्चों पर सुनहरे कल और वहां हासिल कामयाबियां उनके कल वाले कल के लिए भरोसा जगा रही हैं।
गेंदबाज कुंबले के लिए टेस्ट में 616 विकेट के साथ साथ कोटला और कुंबले का बेजोड तालमेल मौजूद है। कप्तान कुंबले के लिए इसी सीरिज से पहले भारत को दिए कई सुखद लम्हे भी दस्तक दे रहे हैं। लेकिन,एक कड़वा सच ये भी है कि इस बीते कल से कहीं बहुत हटकर मौजूदा आज ही आने वाले कल को तय करेगा।
ये पहलू कुंबले ही नहीं पूरी भारतयी टीम पर लागू होगा। मोहाली की सनसनी खेज जीत को पीछे छोड़कर ही आप सीरिज में आगे बढ़ सकते हैं। भारत को मोहाली की जीत को महज एक जीत नहीं,एक सिलसिले की शक्ल देनी होगी। इसी सूरत में भारत शिखर से बेदलख होते आस्ट्रेलिया की जगह पर अपना दावा पेश कर सकता है। यहां पूर्व आस्ट्रेलियाई कप्तान स्टीव वॉ के भारत को लेकर दिए एक बयान पर भी गौर करना चाहिए । उन्होंने कहा है-मोहाली के बाद दबाव भारत पर ज्यादा है।
लेकिन, सिर्फ दबाव से उबरने के लिए स्टीव के ही आस्ट्रेलिया टीम को दिए सूत्र को थामना होगा। स्टीव का कहना है कि आस्ट्रेलिया को नतीजे से बेखबर होकर खेलना होगा। नतीजा आपको परेशान कर सकता है।
साफ है कि क्रिकेट के मूल मंत्र की ओर वो इशारा कर रहे हैं। क्रिकेट के उस मूल मंत्र की ओर, जहां हर एक गेंद के साथ कहानी का एक हिस्सा खत्म होता है। एक नयी गेदं के साथ दूसरे हिस्से की शुरुआत होती है। हाथ से छूटी गेंद बीता हुआ कल है तो अगली गेद आने वाला कल। आस्ट्रेलियाई कप्तान इसी सोच को आधार बनाकर मैदान में उतरने की रणनीति बना रहे हैं। उनका कहना है कि पहली ही गेंद से खुद को झोंकना होगा। हर गेंद से पूरी शिदद्त से निपटना होगा।
इन सबके बीच गावस्कर बार्डर ट्रॉफी एक बेहद नाजुक मोड़ पर खड़ी है। भारत को यहां मिलने वाली एक जीत उसे सीरिज में ही जीत नहीं दिलाएगी, ये पिछले चार टेस्ट में आस्ट्रेलिया के ऊपर तीसरी जीत होगी। यानी आस्ट्रेलिया को बादशाहत को तार तार करती हुई जीत। लेकिन यहीं पोंटिंग की जीत किसी भी मोड़ से वापसी करने की आस्ट्रेलियाई सोच को फिर गढ़ सकती है। लेकिन,इन दोनों के लिए जरुरी है तो आज न कि बीता हुआ कल। यानी चुनौती आज की है, कल की नहीं।

Tuesday, October 21, 2008

कई ऐतिहासिक लम्हों को पीछे छोड़ती टीम इंडिया की यह जीत

सचिन तेंदुलकर के चेहरे से बरसती इस खुशी को बयां करना आसान नहीं है। माइकल क्लार्क के बल्ले से हवा में उछाल लेती इस गेंद का वीरेन्द्र सहवाग के हाथ में ठहरना था कि तेंदुलकर एक असीम खुशी में डूब गए। लगा ही नहीं कि इस शख्स ने 19 साल से खुद को अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में झोंक रखा है। 12 हजार रनों के शिखर पर खड़ा है। टेस्ट और वनडे में शतकों का शिखर इस अकेले शख्स के नाम है।

ये सचिन तेंदुलकर तो सहवाग की बांहों में एक किशोर की तरह खुशी में डूब-उतर रहे थे। ये तस्वीर तेंदुलकर और उनके जुनून की बानगी थी। पिछले दो दशक में भारत को कामयाबियों के कई शिखर की ओर मोड़ने वाला यह महानायक भी इस मौके को पूरी तरह जी लेना चाहता था। अगर तेंदुलकर उस पल को आत्मसात कर लेना चाहते थे, तो टीम के बाकी खिलाड़ियों और भारतीय क्रिकेट के चाहनेवालों के लिए इस जीत के मायने आप समझ सकते हैं। आखिर, यह सिर्फ एक जीत भर नहीं थी। ये जीत, टेस्ट की वर्ल्ड चैंपियन के खिलाफ थी। ये जीत उस टीम की सोच का जवाब थी, जिसके सहारे पिछले एक दशक से वो क्रिकेट की बाकी दुनिया पर राज कर रही थी। ये अकेले सचिन तेंदुलकर की जीत नहीं थी। ये सौरव गांगुली की जीत नहीं थी। ये महेन्द्र सिंह धोनी की जीत नहीं थी। ये एक नयी टीम इंडिया की जीत थी।

दरअसल, मोहाली में भारतीय टीम ने मैच की पहली गेंद से ही पोंटिंग की इस आस्ट्रेलियाई टीम को हाशिए पर डालना शुरु कर दिया था। खुद पोंटिंग का भी कहना था, ‘हम पहले ही दिन से मुकाबले से बाहर और बाहर होते चले गए।’ दोनों पारियों में गंभीर और सहवाग की जोरदार शुरुआत, मिडिल ऑर्डर में तेंदुलकर और गांगुली की यादगार साझेदारी, कप्तान धोनी की सही मौके पर बड़ी पारियां, ईशांत शर्मा के शुरुआती झटके, अमित मिश्रा के करियर का बेहतरीन आगाज़, अहम मौकों पर हरभजन और ज़हीर की विकेट तक पहुंचती यादगार गेंदें। इस जीत में एक नहीं. पूरी की पूरी टीम की हिस्सेदारी है।

इसलिए,ये जीत इन आंकड़ों से भी कहीं आगे भारतीय टीम को एक नयी सोच, एक नयी ताकत, एक नया हौसला देती जीत है। इस जीत ने भारतीय टीम के विनिंग कॉम्बिनेशन को बेहद मजबूती से दर्ज कराया। लेकिन, इस शिकस्त से कहीं बहुत पहले ही दूसरे खेमे में दरार भी दिखने लगी। कप्तान रिकी पोंटिंग और ब्रेट ली के टकराव की गूंज मोहाली की सरहद से बहुत दूर आस्ट्रेलिया में भी सुर्खियों में छा गई। मैच के चौथे दिन पूरी तरह से आक्रमण पर उतर चुके भारतीय बल्लेबाजों पर काबू पाने के इरादे से ब्रेट ली गेंदबाजी का मोर्चा संभालना चाहते थे, लेकिन पोंटिंग ने उनके हाथ में गेंद न थमाते हुए एक मुद्दे को हवा दे दी। पोंटिंग की बेशक यह दलील हो सकती है कि ब्रेट ली की उंगलियों में टांके लगे थे। लेकिन, अपने निजी मोर्चों से उबरने की कोशिश में जुटे ब्रेट ली को पोंटिंग भरोसे में नहीं ले पाए। सबसे कामयाब टीम का कप्तान चूक गया था।

दरअसल, मोहाली की शिकस्त आस्ट्रेलियाई टीम के दबाव में बिखरते और बिखरते चले जाने की कहानी भी है। भारत बेशक इस मनोवैज्ञानिक दबाव से बेखबर सिर्फ जीत और जीत की कोशिश में ही मैदान में जुटा नजर आया। लेकिन, इस कड़ी में कप्तान रिकी पोंटिंग और माइकल हसी को परास्त करते ईशांत शर्मा की गेंदें अब सीरिज में एक खौफ की तरह आस्ट्रेलिया के हौसलों का इम्तिहान लेती रहेंगी। ज़हीर खान की रिवर्स स्विंग पहले से भी ज्यादा बल्लेबाज के जेहन में संशय पैदा करेगी। अपनी लय पा चुके हरभजन से पार पाना आस्ट्रेलियाई बल्लेबाजों के लिए अब और मुश्किल होगा। अगर, दिल्ली में मोहाली के हीरो अमित मिश्रा को कप्तान अनिल कुंबले की वापसी के लिए जगह छोड़नी भी पड़ी तो खुद को साबित करने की आखिरी कोशिशों में कुंबले बेहद घातक साबित हो सकते हैं। उस कोटला पर, जहां वो अकेले पूरी पाकिस्तानी पारी को समेटने का इतिहास रच चुके हैं।

तो आस्ट्रेलिया को अब इस सीरिज में जंग मैदान पर अपने खेल से ही नहीं लड़नी होगी, उसकी सबसे बड़ी जंग खुद से होगी। मनोवैज्ञानिक तौर पर इस शिकस्त से उबरने की। खुद पोंटिंग भी इसे महसूस कर रहे हैं। उनका भी कहना है कि अगले हफ्ते के दौरान हमें स्किल पर उतना काम नहीं करना, जितना हमे जेहनी तौर पर इस शिकस्त से उबरने पर करना है। ये बात उस टीम का कप्तान कह रहा है, जो पहली बार शिकस्त से रुबरु नहीं हुआ है। उसे तो आस्ट्रेलिया में प्रतिष्ठा की सबसे बड़ी लड़ाई माने जाने वाले 'एशेज' में भी शिकस्त झेलनी पड़ी थी। लेकिन, यहां उसे भरोसा था कि वो ऐसी वापसी करेगा कि इस हार की टीस भी नहीं रहेगी। पहले ‘रेस्ट ऑफ वर्ल्ड’ और फिर अपने घर में इसी इंग्लैंड को 5-0 से रौंदते हुए पोंटिंग ने यह कर भी दिखाया था। लेकिन, यही पोंटिंग मोहाली की इस शिकस्त के बाद ऐसा कोई भरोसा नहीं जता पा रहे हैं।

इन सबके बीच धोनी की टीम की यह जीत भारतीय क्रिकेट इतिहास की सबसे बड़ी जीत के रूप में हमारे सामने है। एक ऐसी जीत, जिसके बीच सचिन तेंदुलकर का टेस्ट में सबसे ज्यादा रनों का शिखर भी पीछे छूट गया है। सौरव गांगुली की विदाई सीरिज की गूंज भी खो रही है। पहले ही मैच में शानदार शुरुआत करने वाले लेग स्पिनर अमित मिश्रा की कामयाबी भी इस जीत पर हावी नहीं हुई है। ये सबसे बड़ी जीत अब एक सीरिज जीत की उम्मीद जगा रही है। वो भी वर्ल्ड चैंपियन आस्ट्रेलिया के खिलाफ।

Monday, October 20, 2008

सहवाग-गंभीर : भारतीय क्रिकेट में जीत का सलामी चेहरा

वीरेन्द्र सहवाग और गौतम गंभीर। एक दाएं हाथ का बल्लेबाज और दूसरा बाएं हाथ का। इन दोनों में सिर्फ इतना ही फ़र्क था। हो सकता है मेरी बात अतिश्योक्ति लगे। लेकिन, मोहाली में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ दूसरे टेस्ट मैच के चौथे दिन इन दोनों के बल्लों से बहते स्ट्रोक से ऐसा ही लगा। लगातार गेंदबाज पर जवाबी हमले करने की सोच के बीच अपनी टीम को जल्द से जल्द एक विजयी लक्ष्य की ओर ले जाने की जिद के साथ ये दोनों बल्लेबाज एक दूसरे से होड़ भी करते दिखे।

इन दोनों बल्लेबाजों के इस रुख से भारत ने आस्ट्रेलिया को उसी के आक्रामक अंदाज में मुकाबले में हाशिए पर डाल दिया। भारतीय क्रिकेट के लिए इन दोनों की जुगलबंदी एक नयी शुरुआत है। भारतीय क्रिकेट में सलामी बल्लेबाजों की एक बनी बनायी छवि को तोड़ते हुए। सहवाग ने एक छोर पर बड़ी तूफानी पारियां पारी खेलते हुए भारतीय क्रिकेट में इस आक्रामकता की नींव रखी है। लेकिन, अब दूसरे छोर पर भी ऐसे ही तेवरों के साथ गंभीर की मौजूदगी भारतीय क्रिकेट के लिए नया अनुभव है। इन दोनों की विकेट पर मौजूदगी न केवल विपक्षी खेमे में खौफ पैदा करती है बल्कि ये जीत की राह भी तैयार करती दिखती है। ये एक विजयी कंबिनेशन है। गौतम गंभीर और वीरेन्द्र सहवाग।

आखिर, इससे पहले भारतीय क्रिकेट में सलामी बल्लेबाजी की परिभाषा सुनील गावस्कर से शुरु होकर सुनील गावस्कर पर ही खत्म होती रही है। भारतीय क्रिकेट के इस महानायक की उपलब्धियों के बीच हम लगातार सलामी बल्लेबाज की भूमिका को एक ठोस शुरुआत की उम्मीद की शक्ल में ही देखने के आदी रहे हैं। गावस्कर की चट्टानी दीवार के साथ दूसरे छोर पर अमूमन बल्लेबाज एक साथी की भूमिका में ही दिखायी दिए। गावस्कर के लेजेंड की छाया से निकलना उसके लिए मुमकिन भी नहीं था। अंशुमन गायकवाड़ से लेकर दिलीप वेंगसरकर या रामनाथ पारकर से लेकर रवि शास्त्री तक। फिर भी,इनमें गावस्कर के साथ जो नाम जुड़ कर रह गया,वो था चेतन चौहान का। 70 के दशक में आस्ट्रेलिया के उछाल लेते विकेट से लेकर इंग्लैंड के सीमिंग ट्रैक और पाकिस्तान के तूफानी आक्रमण के बीच चौहान के साथ गावस्कर ने पहले विकेट के लिए सबसे ज्यादा रन जोड़े। 53.53 के औसत से 3010 रन।

गावस्कर के साथ दूसरे छोर पर अगर सहवाग के आसपास कोई छवि ठहरती है तो वो है मौजूदा चयनसमिति के अध्यक्ष कृष्णामाचारी श्रीकांत की। लेकिन,श्रीकांत की भी टेस्ट में नवजोत सिद्धू के साथ सलामी जोड़ी ज्यादा परवान चढ़ी। यहां भी टेस्ट में एक छोर पर खड़े नवजोत का बल्ला गेंद को रोकने में ज्यादा यकीं करता था बजाय उस पर रन बटोरने के।

एक ही स्टेट टीम के लिए खेलने वाले सहवाग-गंभीर की सलामी जोडी का हर तरह की क्रिकेट में एक साथ विकेट पर पहुंचना दोनों के बीच एक शानदार तालमेल बनाता है। इससे पार पाना हर विपक्षी टीम के लिए चुनौती बन जाता है। सहवाग और गंभीर की मौजूदगी दोनों छोर से गेंदबाज पर जवाबी हमला करने में यकीं रखती है। इन दोनों बल्लेबाज के जेहन में गेंदबाज संशय पैदा नहीं करता, ये दोनों अपने स्ट्रोक्स से गेंदबाज को पसोपेश में डालते दिखायी देते हैं। मोहाली टेस्ट के चौथे दिन भी पोंटिंग और उनके साथी इन्हीं पहलुओं से जूझते दिखायी दिए। गंभीर और सहवाग ने पहले विकेट के लिए केवल 39.1 ओवरों में साढ़े चार की ज्‍यादा औसत से 182 रन जोड़ डाले। सहवाग की बल्लेबाजी में न सिर्फ ताकत और टाइमिंग का समावेश था,जरुरत पड़ने पर नफासत भरे स्ट्रोक्स भी मौजूद थे।शायद यही वजह थी कि रवि शास्त्री बेहिचक उनकी तुलना गॉर्डन ग्रीनीज से करने लगे हैं। मजबूत डिफेंस के साथ तेज आक्रमण करने वाले गॉर्डन ग्रीनीज से।

लेकिन,अगर सहवाग ग्रीनीज की यादों को ताजा करते हैं तो गौतम गंभीर को भी आप रॉय फेड्रिक्स की तरह खेलते देख सकते हैं। वो रॉय फेड्रिक्स, जो मैच की पहली गेंद पर छक्का लगाने का जोखिम उठा सकते थे। कमजोर गेंद को ऐसी नसीहत देने में गंभीर भी कोई चूक नहीं दिखाते। फिर, सोमवार को तो वो टेस्ट में दो तिहरे शतक बना चुके अपने वरिष्ठ साथी सहवाग के साथ हर स्ट्रोक के साथ स्ट्रोक मिलाने में जुटे थे। इस हद तक कि सहवाग पोंटिंग के सीमा रेखा पर तैनात फील्डर से पार पाने में कई बार मशक्कत कर रहे थे, लेकिन गंभीर अपने स्ट्रोक्स के प्लेसमेंट में अपने साथी से बीस साबित हो रहे थे। सीडल की गेंद को स्लिप के रास्ते थर्डमैन की ओर भेजना हो या फिर जॉनसन के खिलाफ आगे बढ़ते हुए गेंद को मिडविकेट सीमा के बाहर। गंभीर अपनी छाप लगातार छोड़ रहे थे। इसी के चलते गंभीर ने इस बार अपनी हाफ सेंचुरी को अपने दूसरे टेस्ट शतक में तब्दील करने में कोई चूक नहीं की।

अगर ग्रीनीज और फेड्रिक्स से हटकर भारतीय संदर्भ में देखें तो इन दोनों की आक्रामक सोच इतिहास में हमें विजय मर्चेंट और मुश्ताक अली की सलामी जोड़ी की याद दिलाती है। इन दोनों ने चार टेस्ट मैच की सात पारी में 83.42 के औसत से 584 रन जोड़े थे। इन बिन्दु पर सहवाग और गंभीर मोहाली टेस्ट समेत अब तक 17 टेस्ट मैच की 29 पारियों में 63.25 के औसत से 1771 रन जोड़ चुके हैं। इसमें भी चार बार उन्होंने शतकीय साझेदारी पूरी की है,जबकि 11 बार पचास से ज्यादा का स्कोर करते हुए टीम को एक बेहतर शुरुआत भी दी है। इससे भी ज्यादा दिलचस्प पहलू यह है कि इन 17 टेस्ट मैच में अब तक भारत 9 बार जीत तक पहुंचा है,जबकि मोहाली टेस्ट मे भी ठीक इसके मुहाने पर खड़ा है।
इन सबके बीच ये जोड़ी भारतीय क्रिकेट को एक नयी राह पर मोड़ रही है। ड्रा की पुरानी पड़ चुकी सोच से पहले जीत में यकीं करने वाली मौजूदा भारतीय टीम में सचिन तेंदुलकर से लेकर राहुल द्रविड़,सौरव गांगुली, हरभजन सिंह, अनिल कुंबले और महेन्द्र सिंह धोनी जैसे मैच विनर मौजूद हैं। लेकिन,इनके बीच ये जोड़ी भी एक नए विनिंग कंबिनेशन के तौर पर स्थापित हो चुकी है। इनसे मिलती शुरुआत से कप्तान अपनी जीत की व्यूह रचना रच सकता है। ये भारतीय क्रिकेट में जीत का सलामी चेहरा है।

Sunday, October 19, 2008

भारतीय गेंदबाजी की चौतरफा मार से आस्ट्रेलियाई बल्लेबाजी परास्त

माइकल हसी के बल्ले का किनारा लेती वह गेंद स्लिप में खड़े राहुल द्रविड़ को परास्त करती हुई थर्ड मैन सीमा रेखा के बाहर पहुंच गई। गेंदबाज ईशांत शर्मा के चेहरे पर हताशा उभर आई। भारतीय टीम के चाहने वालों के लिए भी यह झकझोरने वाला पल था। एक बारगी लगा कि हाथ में आए इस मौके के बाद माइकल हसी नहीं चूकेंगे। बेंगलुरु की तरह एक बार फिर मोहाली में भी वो एक मजबूत पारी के सहारे आस्ट्रेलिया को किनारे तक ले जाएंगे।

इससे पहले कि हम सभी इसी सोच विचार में डूबते उतरते, हसी पैवेलियन लौट रहे थे। ईशांत की ऑफ स्टंप पर पड़कर बाहर जाती गेंद पर हसी अपना बल्ला अलग नहीं कर पाए थे। कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी के दस्ताने में जाती गेंद के साथ ही हसी की मजबूती लेती पारी ढह गई। भारत को आस्ट्रेलिया का सबसे कीमती विकेट मिल चुका था। मुकाबला अब भारत की तरफ मुड़ रहा था।

ये ईशांत शर्मा का सिर्फ एक विकेट नहीं था। इस विकेट तक पहुंचते हुए ईशांत की गेंदबाजी सोच से हम रुबरु हो रहे थे। तेजी और उछाल के साथ अपने ऑफ स्टंप की सटीक दिशा के सहारे वो बल्लेबाज के जेहन में संदेह का एक जाल बुन रहे थे। इस हद तक कि एक गेंद से पार पाने के बावजूद बल्लेबाज उससे मुक्त नहीं हो पा रहा था। ईशांत एक सिलसिले की तरह लगातार आस्ट्रेलियाई बल्लेबाजों को एक मनोवैज्ञानिक दबाव में ला रहे थे।

फिर,यह अकेले ईशांत शर्मा ही नहीं थे। ज़हीर खान से लेकर अऩुभवी हरभजन सिंह और अपना पहला टेस्ट खेल रहे अमित मिश्रा तक भारत के चारों गेंदबाज आस्ट्रेलियाई बल्लेबाजों पर चौतरफा मार कर रहे थे। वो भी मोहाली के इस सपाट विकेट पर। ऐसा विकेट, जहां टेस्ट क्रिकेट में 292 विकेट ले चुके ब्रेटली का अनुभव और तेजी भी अपना असर नहीं छोड़ पायी। लगातार 140 की रफ्तार से गेंद फेंकने वाले जॉनसन बेंगलुरु की तरह भारतीय बल्लेबाजों के विकेटों तक नहीं पहुंच पाए। ऐसे में भारत की इस चौकड़ी का रिकी पोंटिंग की टीम को फॉलोऑन के कगार तक खींच लाना उनके इरादों और सोच की मिसाल है। करीब साढे चार रन की रफ्तार से टेस्ट में वनडे का रोमांच पैदा करने वाले आस्ट्रेलियाई बल्लेबाजों को करीब ढाई रन की औसत पर रोक देना काबिल ए तारीफ है।

इन चारों गेंदबाजों ने हेडन से लेकर पोंटिंग तक और हसी से लेकर हैडिन तक अपने हर विकेट के लिए एक जाल बुना। अगर इयान चैपल के शब्दों में कहें तो आस्ट्रेलियाई बल्लेबाजों को उनकी क्रीज में ही रोकते हुए उनके कदमों को थाम लिया। आस्ट्रेलियाई बल्लेबाजों ने अपने विकेट नहीं गंवाए, भारतीय गेंदबाजों ने उन्हें परास्त कर उनकी सोच से आगे जाते हुए ये विकेट हासिल किए। आस्ट्रेलियाई पारी में बड़ी साझेदारियां शक्ल ले पाती, उससे पहले ही गेंदबाजों ने उन्हें तोड़ दिया। यहां तक कि वाटसन और ब्रेटली के बीच आठवें विकेट के लिए 78 रन की साझेदारी में भी कभी लगा नहीं कि भारतीय गेंदबाज अपनी मंजिल तक नहीं पहुंच पाएंगे।

फिर इस मंजिल की शुरुआत पारी की तीसरी गेंद पर ही जहीर खान ने लगातार तीसरी बार हेडन को पैवेलियन भेजते हुए की थी। बेंगलुरु टेस्ट के मैन ऑफ द मैच रहे जहीर ने मोहाली में भी अपनी लय को बरकरार रखा। विकेट के मिजाज को भांपते हुए उन्होंने गेंदों की लंबाई को बेहद सटीकता से बनाए रखा । इस हद तक कि चाहे गेंद नयी थी या पुरानी-बल्लेबाजों को आखिरी वक्त तक उसके मूवमेंट से जूझना पड़ा। बीच बीच में वो कुछ शॉर्ट गेंदें फेंककर बल्लेबाज के धैर्य और एकाग्रता को परख रहे थे। हां, इतना जरुर रहा कि जहीर बेहतरीन गेंदबाजी करने के बावजूद हेडन के विकेट की शुरुआत को सिलसिले में तब्दील नहीं कर सके।

लेकिन,ठीक इसी बिन्दु पर कप्तान अऩिल कुंबले की जगह पहला टेस्ट खेलने उतरे अमित मिश्रा ने कोई चूक नहीं की। टेस्ट के पहले दिन टॉस के दौरान ही कप्तान धोनी ने मिश्रा को लेकर बेहद सटीक कमेंट किया था। इस नौजवान गेंदबाज की कुंबले से तुलना करते हुए धोनी का कहना था- "मिश्रा कुंबले से बेहद अलग हैं। वो गेंदों को ज्यादा फ्लाइट और टॉस कराते हैं।" अमित मिश्रा ने अपनी गेंदबाजी में अपने कप्तान की इस सोच को ज़रा भी डिगने नहीं दिया। अमित मिश्रा गेंद को हवा देते हुए न सिर्फ लेग स्पिन या गुगली का इस्तेमाल कर रहे थे बल्कि वो एक ही लूप,लाइन और दिशा से अपनी गेंदों में विविधता ला रहे थे। बॉलिंग क्रीज में एक ही जगह से वो अलग अलग गेंदें फेंकने में अपनी पहचान दर्ज करा रहे थे। इसी का नतीजा था कि बल्लेबाज अपनी क्रीज मे ही ठहर कर रह गए।

कैमरोन व्हाइट उनकी गुगली को पढ़ने में पूरी तरह नाकाम रहे। गेंद उनके बल्ले और पैड के रक्षण को चीरते हुए उनका विकेट ले उड़ी। वाटसन लेग स्टंप से कुछ ही बाहर पड़कर अंदर आई गेंद पर जब तक बैकफुट पर जाकर अपना बल्ला अड़ाते वो विकेट के ठीक सामने मौजूद थे। इसी के चलते दूसरे दिन साइमन कैटिच और माइकल क्लार्क का बेशकीमती विकेट लेने वाले अमित मिश्रा पहली ही पारी में पांच विकेट की मंजिल तक जा पहुंचे।

अमित मिश्रा के मुकाबले अनुभवी हरभजन सिंह ने महज दो आस्ट्रेलियाई विकेट ही निकाले। लेकिन अपनी गेंदों को लगातार पहले से ज्यादा हवा देते हुए वो बेहद आक्रामक दिख रहे थे। एक फ्लाईडेट गेंद पर फ्रंटफुट पर ड्राइव करने निकले हैडिन की हवा में लहराती गिल्लियों में आप हरभजन की इस धार को महसूस कर सकते थे। फॉरवर्ड डिफेंस पर गए ब्रेटली के बल्ले का किनारा लेकर स्लिप में राहुल द्रविड़ के हाथ में ठहरी गेंद में आप इसे पढ़ सकते है।

बहरहाल,मोहाली में आस्ट्रेलियाई टीम टेस्ट बचाने को जूझ रही है। भारत को अगर जीत तक पहुंचना है तो इस चौकड़ी को इस अधूरे काम को पूरा करना होगा। मैच की चौथी पारी में आस्ट्रेलिया के बाकी दस विकेट लेते हुए। ये मुश्किल और चुनौती भरा है,लेकिन पहली पारी में इस चौकड़ी के बेहतरीन प्रदर्शन के बाद यह नामुमकिन नहीं लगता। खासतौर से ये देखते हुए कि इस चौकड़ी में एक नहीं चारों स्ट्राइक गेंदबाज की भूमिका में हैं।

Saturday, October 18, 2008

"समझौते" की टीस से उबारती सौरव की शतकीय पारी

सौरव गांगुली ने अपनी इस यादगार पारी में दो बार अपने दांहिने हाथ की मुट्ठियों को भींचा। कोहनी को मोड़कर ड्रेसिंग रुम की तरफ लहराया। पहली बार हाफ सेंचुरी के पार जाते हुए। दूसरी बार इसी पारी को शतक में तब्दील करते हुए। पहली बार ड्रेसिंग रुम से ठीक इसी अंदाज मे जवाब देते हुए हरभजन दिखायी दिए। दूसरी बार कैमरा चयनसमिति के अध्यक्ष कृष्णामाचारी श्रीकांत की खुशी को कैद करता दिखा। ये दो अलग मौके थे। दो अलग अलग शख्सों को कैमरे की गिरफ्त में लेते हुए। लेकिन, सौरव का संदेश शायद एक ही था- "मेरे बाजुओं में अब भी है दम।"

सौरव मोहाली में आस्ट्रेलिया के खिलाफ दूसरे टेस्ट में अपनी 16वीं टेस्ट सेंचुरी तक पहुंचते हुए बार बार सिर्फ यही संदेश देना चाहते थे। सौरव के इस संदेश की गूंज मोहाली में खेले जा रहे सीरिज के दूसरे टेस्ट की सरहदों को लांघते हुए उनके हर एक आलोचक और दीवानों तक पहुंच गई होगी। आखिर, आस्ट्रेलिया के खिलाफ अपनी इस विदाई सीरिज में अपने खेल को नयी ऊंचाइयों की ओर ले जाकर अलविदा कहने की इसी इकलौती सोच के साथ ही सौरव विकेट पर जो पहुंच रहे हैं। बेंगलुरु से लेकर मोहाली के बीच विकेट बदल रहे हैं,लेकिन सौरव की सोच और इरादों में कहीं कोई भटकाव नहीं है।

बेंगलुरु के मुकाबले बेशक मोहाली का विकेट बेहद सपाट और बल्लेबाजों के स्ट्रोक के लिए माकूल हो लेकिन इसके बावजूद सौरव का यह शतक उनके पहले 15 शतकों पर भारी पड़ जाता है। सौरव के लिए ये एक सिर्फ टेस्ट शतक नहीं है। इस सीरिज से ठीक पहले हाशिए पर छूट गए सौरव की मौजदूगी को दर्ज कराता शतक है। ये अपने खेल में फीनिक्स की तरह बार बार वापसी की पहचान को और मजबूती से गढ़ती पारी है।

यही वजह है कि इस पारी में उनके बल्ले से निकला हर रन उनके मजबूत इरादों की बानगी बनकर सामने आता रहा। करीब छह घंटे तक विकेट पर बिताए उनके हर एक पल में कोई भी उनकी दृढ़ता और धैर्य को पढ़ सकता था। सौरव की इस शतकीय पारी के मायने इसलिए भी बढ़ जाते हैं क्योंकि सचिन तेंदुलकर के शिखर की गूंज में भी उनकी पारी कहीं खोयी नहीं। ये बल्लेबाज सौरव की उस शख्सियत को भी उभारती है कि मोहाली में सचिन के शिखर के बीच भी उनकी इस पारी की रवानगी कहीं थमी नहीं। सचिन के विकेट पर मौजूद रहते हुए और उनके वापस ड्रेसिंग रुम लौटते हुए पूरी एकाग्रता से सौरव अपनी पारी को गढ़ते चले गए।

इस यादगार पारी के दौरान सौरव की टाइमिंग बेजोड़ थी। टेस्ट के दूसरे दिन शनिवार को ब्रेटली की थोड़ी सी शॉर्टपिच गेंद को स्कॉयर लेग से बाहर भेजता पुल स्ट्रोक हो या मिशेल जॉनसन की ओवर पिच गेंद को बेहद सटीकता से इसी दिशा में मोडऩा, सौरव के कदम, उनकी सोच और उनका बल्ला सब एक ही लय में दिखायी दे रहे थे। इतना ही नहीं,टाइमिंग के साथ ही मौका मिलने पर वो अपनी पहचनान बन चुके ऑफ ड्राइव के शॉट खेलने में भी चूक नहीं कर रहे थे।

लेकिन,सौरव की पारी में ये सिर्फ स्ट्रोक ही नहीं थे, जो याद रह गए। अपनी टीम को मजबूती की ओर ले जाने में सौरव की सोच भी बेजोड़ थी। वो एक छोर को चट्टान की तरह थामे खड़े थे। दूसरे छोर पर पहले तेंदुलकर और फिर धोनी को बराबर स्ट्राइक का मौका देते हुए। इसी कड़ी में पहले तेंदुलकर और फिर कप्तान धोनी के साथ दो शतकीय साझेदारियां भी उन्होंने पूरी कीं। इसी का नतीजा रहा कि भारत पोंटिंग की इस वर्ल्ड चैंपियन टीम के खिलाफ पहली पारी में पहाड़ सा स्कोर खड़ा कर पाया।

सौरव ने अपनी इस पारी से अपने करियर को भी शिखर की ओर मोड़ दिया है। वो इस सीरिज में एक "समझौते" की टीस के साथ टीम से जुड़े थे। भारत के सबसे कामयाब कप्तान और अपनी वापसी को फीनिक्स की कहानियों में तब्दील करने वाले सौरव पर समझौतों की छाया मंडरा रही थी। इस एक छाया से सौरव को उबरना था ताकि अपने लाजवाब क्रिकेट करियर को इतिहास की एक इबारत में तब्दील कर दें। सौरव ने मोहाली में अपनी कामयाबियों पर पड़ती छाया को अपनी इस शतकीय पारी से उबार दिया। इसलिए अब ये शिखर की ओर बढ़ते सौरव हैं, न कि समझौते की टीस के साथ विकेट पर पहुंचते सौरव। अब हम सभी को सौरव की विदाई सीरिज के शिखर का इंतजार रहेगा। एक यादगार विदाई। भारतीय क्रिकेट में नयी इबारत लिखती विदाई। तो चलिए, हम सब इस सीरिज के हर गुजरते लम्हे के साथ उस विदाई की भी अगुवानी करें।

Monday, October 13, 2008

बेंगलुरु में मुरझा गई सचिन की पारी, मोहाली में खिलने के लिए

मशहूर पूर्व कोच दिवंगत बॉब वूल्मर ने अपनी आखिरी किताब ' आर्ट एंड साइंस ऑफ क्रिकेट' में विकेट पर मौजूद बल्लेबाज की मनोस्थिति को बेहद बारीकी से पकड़ने की कोशिश की है। विकेट पर मौजूद बल्लेबाज के साथ दूसरे छोर पर उसका एक साथी मौजूद रहता है। बाब वूल्‍मर कहते हैं, जिस वक्त वो गेंदबाज का सामना करता है,तो वो बिलकुल अकेला होता है। मैदान में मौजूद विपक्षी टीम के 11 खिलाड़ी उसके विकेट तक पहुंचने के लिए पूरी तरह से जुटे रहते हैं। इस पहलू को जानते समझते बल्लेबाज हल्की सी भी चूक करने का जोखिम नहीं उठा सकता। अपने इस संघर्ष में बल्लेबाज को ज़रुरत पड़ती है- स्किल, एकाग्रता, पूर्वानुमान और स्टेमिना।

बेंगलुरु के चेन्नास्वामी स्टेडियम में सोमवार को सचिन तेंदुलकर भी इसी तरह आस्ट्रेलिया के खिलाफ अपनी पारी को शक्ल देने में जुटे थे। लेकिन, उन पर सिर्फ पोंटिंग और उनके साथियों का ही दबाव नहीं था। तेंदुलकर पर भारतीय पारी को किनारे तक ले जाने का भार था। श्रीलंका के निराशाजनक दौरे के बाद उनकी बल्लेबाजी फॉर्म सवालों के घेरे में थी। साथ ही, ब्रायन लारा के खड़े किए गए 11953 रनों के शिखर पर पहुंचने की चुनौती भी दी थी। फिर इसी टेस्‍ट की पहली पारी में भी तेंदुलकर सिर्फ 13 रन बनाकर पेवेलियन लौट गए थे। लेकिन, इस दूसरी पारी में तेंदुलकर अपने अनुभव, टेलेंट, जीनियस की छाप छोड़ते हुए इन दबाव के बीच से राह तलाश रहे थे। ये तेंदुलकर के जीनियस को सामने लाती पारी थी।

लेकिन, कैमरोन व्हाइट की एक थोड़ी सी ओवरपिच गेंद पर तेंदुलकर के स्ट्रोक का टाइमिंग गड़बड़ा गया। बल्ला कुछ पहले आया। गेंद कुछ ठहर कर। तेंदुलकर का ड्राइव जब तक पूरा होता गेंद कवर पर माइकल क्लार्क के हाथों में थी। अपना पहला टेस्ट मैच खेल रहे कैमरोन व्हाइट के लिए तेंदुलकर का विकेट एक बेहद भावुक लम्हा था। अपने साथियों की खुशी के बीच वो इसे महसूस करने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन, इस भीड़ से दूर वापस पैवेलियन वापस लौटते तेंदुलकर के लिए यह लगातार सोच में डूबने-उतरने का दौर था। गर्दन झटकते, अपने से नाराज बल्ले को हवा में लहराते सचिन को देख इसे महसूस किया जा सकता था।

कैमरोन व्हाइट की इस गेंद से पहले सचिन तेंदुलकर तमाम विपरित हालात के बीच बेहद मजबूती से अपनी पारी को गढ़ रहे थे। पारी के नौवें ओवर में द्रविड़ का विकेट गिरने के बाद मोर्चा संभालने पहुंचे तेंदुलकर पिछले 40 ओवर से विकेट पर मौजूद थे। इस असमान उछाल के विकेट पर फ्रंटफुट से लेकर बैकफुट तक उनका संतुलन देखते ही बनता था। तेंदुलकर के स्ट्रोक बल्लेबाजी को बेहद सहज बना रहे थे। इस हद तक कि दूसरे छोर पर पहले गौतम गंभीर और फिर वीवीएस लक्ष्मण के सामने भी आस्ट्रेलियाई गेंदबाजों की धार कमज़ोर पड़ती दिखने लगी।

तो फिर ये सचिन तेंदुलकर कैसे चूक गए? शायद, अपनी इस बेजोड़ पारी में लारा का करीब आता शिखर उन पर हावी हो गया हो। चिन्नास्वामी स्टेडियम पर मौसम करवट ले रहा था। पोंटिंग ने अपने तेज़ गेंदबाजों के बजाय स्पिनर माइकल क्लार्क और कैमरोन व्हाइट को मोर्चे पर लगा दिया था। शायद, एक क्षण के लिए तेंदुलकर को लगा हो कि लारा के इस शिखर से आगे निकलकर खुद को दबाव से मुक्त करने का यही मौका है। शायद कुछ देर के लिए वो इस शिखर पर खुद को काबिज होता देख रहे हों। इसी एक पल में अभी तक पूरी एकाग्रता से खेल रहे तेंदुलकर का ध्यान भटका हो। कैमरोन व्हाइट की उस गेंद पर उनके बल्ले और जेहन में तालमेल हल्का सा गड़बड़ाया हो और इसी वजह से तेंदुलकर की एक शिखर की ओर बढ़ती पारी अचानक ठहर गई।

शिखर के करीब एकाग्रता के चूकने का एक ऐसा ही वाक्या याद आ रहा है। बिलियर्ड्स के पूर्व वर्ल्‍ड चैंपियन गीत सेठी ने अपनी किताब 'सक्‍सेस वर्सेस जॉय' में स्‍नूकर के मशहूर खिलाड़ी थाईलैंड के जेम्स वटाना की एक यादगार कहानी का जिक्र किया है। वटाना एक प्रतियोगिता के दौरान ठीक जीत के मोड़ पर खड़े थे। ऐसी जीत जहां पर पहुंचते ही उन्हें करीब दो लाख पौंड का इनाम मिलना था। वटाना कुछ क्षणों के लिए खुद को विजयी मान ख्वाबों की दुनिया में पहुंच गए थे। उन्हें बैंकॉक के पॉश इलाके में एक बेहतरीन घर और तमाम सुविधाओं की महक आने लगी थी। लेकिन, जब तक वटाना वापस स्नूकर टेबल पर लौटते, मुकाबला उनके हाथ से फिसल गया था।

लेकिन, उन्हीं वटाना को कुछ साल बाद इंग्लैंड में एक टूर्नामेंट खेलते वक्त खबर मिली कि उनके पिता को गोली मार दी गई। मुकाबला शुरु होने में वक्त था। उनसे कहा गया कि तीन घंटे बाद आपको बैंकाक की फ्लाइट मिल सकती है। वटाना ने इस खबर को सुना और जवाब दिया, मैं आपको बताता हूं। लेकिन, वटाना बैंकॉक लौटने के बजाय सीधे स्नूकर के टेबल पर पहुंचे। कहा जाता है कि उन्होंने 147 अंकों का बेहतरीन ब्रेक खेला। गीत सेठी का मानना है कि स्नूकर में यह एक बेमिसाल ब्रेक था। एक कलाकार का ब्रेक। कहने का मतलब ये कि वटाना उस वक्त सिर्फ और सिर्फ अपनी टेबल पर ध्यान लगाए हुए थे। एक हल्के से क्षण के लिए भी वो इससे भटकना नहीं चाहते थे।

दरअसल, बल्लेबाज के लिए यही सबसे बड़ी चुनौती होती है कि कैसे हर पिछली गेंद को भूल वो नयी गेंद के लिए खुद को नए सिरे से तैयार करे। लेकिन, बड़े से बड़ा लेजेंड भी एक हल्के से क्षण में कभी चूक जाता है। उसकी परवान चढ़ती पारी ठहर जाती है। इसी बेंगलुरु में दो दशक पहले सुनील गावस्कर की 96 रन की पारी भी पाकिस्तान के खिलाफ ऐसे ही ठहर गई थी। जीत के बेहद करीब पहुंचा भारत सिर्फ 16 रन से यह टेस्ट ही नहीं, सीरीज भी हार गया था।

पाकिस्तान के पूर्व कप्तान जावेद मियांदाद ने इस पारी के बाद गावस्कर को दुनिया का बेमिसाल बल्लेबाज बताया था। उनके मुताबिक, उस घुमावदार विकेट पर लेफ्ट आर्म स्पिनर इकबाल कासिम को ऑन साइड में ड्राइव करने का जोखिम सिर्फ कोई लेजेंड ही उठा सकता था। ये संयोग ही था कि गावस्कर का विकेट इकबाल कासिम को ही मिला। इस बड़ी पारी के छोटे से हिस्से में गावस्‍कर की एकाग्रता लड़खड़ाई और उनके विकेट के साथ भारत की एक संभावित जीत हार में बदल गई। ये वो गावस्कर थे, जिन्हें तेंदुलकर की तरह एकाग्रता की प्रतिमूर्ति कहा जाता है।

मैंने अपनी बात वूल्मर की किताब से शुरु की है, और वहीं से खत्म करना चाहूंगा।वूल्मर कहते हैं- क्रिकेट ऐसा खेल है,जहां एक क्षण में आपकी उम्मीदें धराशायी होती हैं,और अगले ही क्षण वो फिर उभार लेती हैं। एक बार फिर वो मुरझाती है, दोबारा खिलने के लिए। तेंदुलकर की पारी का ठहरना भी इसी की एक कड़ी कहा जा सकता है। एक उभार लेती पारी, जो बेंगलुरु में मुरझा गई, मोहाली में खिलने के लिए।

Sunday, October 12, 2008

क्रिकेट की खूबसूरत अनिश्चिताओं के बीच तैयार रहिए धड़कनें तेज कर देने वाले रोमांच के लिए

क्रिकेट अनिश्चितताओं का खेल है। खूबसूरत अनिश्चितताओं का खेल। ये एक जुमला है, जो अकसर इस्तेमाल होता है। कहा जा जाए तो इस्तेमाल होते-होते घिस चुका है। लेकिन, बेंगलुरु में भारत और आस्ट्रेलिया के बीच जारी पहले टेस्ट मैच के चौथे दिन के खेल के बाद मुझे भी इसका इस्तेमाल करना पड़ रहा है। मैं क्रिकेट की इन अनिश्चितताओं के बीच सिर्फ एक तय पहलू को स्थापित करने के मकसद से इस जुमले का इस्तेमाल करना चाहता हूं।

क्रिकेट में बल्लेबाज अपना विकेट कभी देना नहीं चाहता। क्रिकेट का यही एक सबसे तय पहलू है। इससे कोई इंकार नहीं कर सकता। क्रिकेट इसी पहलू के इर्द-गिर्द रचा और गढ़ा गया है। चाहे आप मोहल्ले में क्रिकेट खेल रहे हों या फिर टेस्ट मैच में। ये पहलू अपनी जगह बरकरार रहता है। गेंदबाज बल्लेबाज की कमज़ोरियों के आसपास रणनीति रचता हुआ उसके विकेट तक पहुंचने की कोशिश करता है। उसके लिए इस राह को आसान करता है उसका कप्तान। खेल किसी भी मोड़ पर हो, बल्लेबाज का विकेट मुकाबले में आगे की राह तय करता है।

रविवार को बेंगलुरु के चेन्नास्वामी स्टेडियम में भारत के सामने भी ऐसी ही चुनौती थी। 70 रन की बढ़त के साथ अपनी दूसरी पारी का आगाज़ कर रहे आस्ट्रेलिया को काबू में करने के लिए ज़रुरी थे विकेट। चोट की वजह से मैदान से बाहर कप्तान अनिल कुंबले की गैरमौजूदगी में यह जिम्मा उठा रहे थे महेन्द्र सिंह धोनी। यह उस आस्ट्रेलियाई टीम को काबू में करने की चुनौती थी, जिसने टेस्ट क्रिकेट में वनडे की रफ्तार से रन जोड़ते हुए जीत के नए अध्याय लिखे हैं। यहां अगर आस्ट्रेलिया रफ्तार से रन जोड़ लेता तो इस धीमे और असमान उछाल के विकेट पर पांचवे दिन भारत के लिए चौथी पारी खेलना एक नामुमकिन चुनौती में तब्दील हो जाता।

मुकाबला इस नाज़ुक मोड़ पर शतंरज की बिसात की तरह खुला था। यहां धोनी की बढ़ाई हर चाल जानकारों की निगाहों में थी। लेकिन, मौकों को अपनी तरफ मोड़ने में माहिर धोनी यहां कतई नहीं चूके। ज़हीर खान ने जिस खूबसूरती से आस्ट्रेलियाई कप्तान रिकी पोंटिंग को शॉर्ट मिडविकेट पर लक्ष्मण के हाथों कैच कराया, ये ज़हीर की गेंदबाजी की क्लास के साथ-साथ धोनी की क्रिकेट सूझबूझ की झलक थी। कप्तान धोनी ने लक्ष्मण को खासतौर से वहां तैनात किया था। बल्लेबाज पोंटिंग को भी लक्ष्मण की मौजूदगी का अहसास था। लेकिन, सीम के साथ मिडिल-लेग स्टंप पर पिच हुई गेंद पर पोंटिंग अपने स्ट्रोक को लक्ष्मण की पहुंच से बाहर करने में नाकाम रहे। ये ज़ाहिर कर रहा था कि किस हद तक बल्लेबाज के जेहन में गेंदबाज की रणनीति को लेकर उधेड़बुन चल रही थी। बावजूद इसके, वो इस बिछाए जाल से बाहर नहीं आ सके।

ये कुछ हद तक पोंटिंग को ही दिया गया जवाब था। भारत की पहली पारी में सचिन तेंदुलकर का जॉनसन की गेंद पर कैमरोन व्हाइट के हाथों कैच होना पोंटिंग की रणनीतिक सूझबूझ का आइना था। खासतौर से पोंटिंग ने भी कैमरोन व्हाइट को उस जगह पर तैनात किया था। तेंदुलकर भी इससे वाकिफ थे, लेकिन वो भी इससे पार नहीं पा सके।

दरअसल, बल्लेबाज के विकेट तक पहुंचने के लिए आपको उसकी सोच से आगे जाना होता है। तेंदुलकर और पोंटिंग जैसे बल्लेबाज सामने हों तो ये चुनौती दोहरी हो जाती है। लेकिन, यहीं कप्तान की भूमिका शुरु होती है। बल्लेबाज मैदान पर सजाए क्षेत्ररक्षण के बीच अपने तमाम अनुभवों के बावजूद अगर इस सोच में डूब जाए कि गेंदबाज के तरकश से अब कौन सा तीर निकलेगा तो गेंदबाज आधी बाजी जीत चुका होता है। यह एक मनोवैज्ञानिक खेल है, जो मैदान पर आपके टेलेंट और स्किल के साथ जुड़कर आपको मंजिल तक पहुंचाता है।


धोनी ने रविवार को अपनी कुछ घंटे की कप्तानी में भारत को इसी मंजिल की ओर मोड़ने की कोशिश की। बल्लेबाज के मुताबिक आक्रामक क्षेत्ररक्षण जमाते हुए उन्होंने उसके लिए हर एक रन ही मुश्किल नहीं किया, बल्कि विकेट पर बने रहने भी दूभर कर दिया। हेडन जैसे आक्रामक बल्‍लेबाज और साइमन कैटिच एक-एक रन के लिए जूझते दिखे। दूसरी ओर, नए भरोसे के साथ गेंदबाज भी विकेट तक पहुंचने के लिए हर मुमकिन कोशिश में जुटे दिखाई दिए। हरभजन सिंह ने ‘राउंड द विकेट’ गेंदबाजी शुरु करते हुए लगातार आस्ट्रेलियाई बल्लेबाजों को एक छोर से परेशानी में डाले रखा। हरभजन अपने 12 ओवर के पहले स्पेल में लगातार विकेट के करीब और करीब पहुंचते दिखाई दिए।

लेकिन, हरभजन को कामयाबी मिली दूसरे स्‍पेल में। माइकल हसी को हरभजन ने अपने उस दूसरा पर आउट किया, जिसे वो लगातार इस टेस्ट में तलाश रहे थे। ऑफ स्टंप के कुछ बाहर पड़ी गेंद को ऑफ स्पिन समझ हसी ने छोड़ने की कोशिश की, लेकिन यह हरभजन का दूसरा था, जो उनका ऑफ स्टंप ले उड़ा। एकबारगी कुछ देर के लिए 1983 के वर्ल्ड कप में बलविंदर सिंह संधू की गेंद को छोड़ते गॉर्डन ग्रीनीज की याद आ गई। इस विकेट से कुछ देर पहले एक छोर को संभाले खड़े साइमन कैटिच भी हरभजन की अतिरिक्त उछाल लिए गेंद पर चूक गए।


बहरहाल, धोनी की सोच से आस्ट्रेलियाई बल्लेबाजों के विकेट तक पहुंचने के शुरु हुए सिलसिले ने चौथे दिन के बाद मुकाबले को एक बार फिर अनिश्चितता की ओर मोड़ दिया है। वही अनिश्चितता, जिसके जुमले से मैं बचने की कोशिश कर रहा था, लेकिन उसकी खूबसूरती का कायल हूं। अब सोमवार को मुकाबला दोनों टीमों के लिए खुला है। सवाल है कि पोंटिंग किस लक्ष्य को आधार बनाकर भारत के सामने चुनौती पेश करते हैं। अपनी टीम में एक भी स्ट्राइक स्पिनर की गैरमौजूदगी में क्या वो माइकल क्लार्क के सहारे सिडनी टेस्ट की तरह जीत तक पहुंचने की आस संजोते हैं। क्या पोंटिंग पहली पारी तरह दूसरी पारी में भारतीय विकटों तक पहुंचने के लिए शतरंज की बिसात बिछाने का जोखिम उठाते हैं ? क्या भारत चुनौती मिलने पर सहवाग की एक आतिशी पारी के सहारे जीत के लिए आगे बढ़ने की कोशिश करता है ? क्या पिछले एक दशक से भारतीय क्रिकेट की धुरी रहा मिडिल ऑर्डर यहां जीत तक पहुंचाकर अपने को सवालों और बहस से बाहर लाने में कामयाब होता है ? ये तमाम सवाल हैं। अनिश्चितताओं के साये में।

मुकाबले के बीच दिलचस्‍प मुकाबलों का गवाह बनता टेस्‍ट

शेन वाटसन के हाथ से छूटी गेंद सीम के सहारे ऑफ स्टंप के कुछ बाहर पड़ी। हर बार की तरह रक्षण की दीवार की मानिंद राहुल द्रविड़ का बल्ला उस अंदर आती गेंद को रोकने के लिए आगे बढ़ा। लेकिन, गेंद पैड से टकराई। द्रविड़ ने एकबारगी गेंद को खोजने की कोशिश की और फिर तेजी से रन के लिए अपनी क्रीज से बाहर निकले। लेकिन, तीन कदम आगे जाते ही आस्ट्रेलियाई अपील के बीच अंपायर असद रउफ की उंगली हवा में उठ गई। द्रविड़ अपने घरेलू मैदान पर दूसरी हाफ सेंचुरी बनाकर आउट हो चुके थे। उनके विकेट को लेकर एक बहस छिड़ रही थी। शायद, द्रविड़ भी इस फैसले से कुछ दुखी थे। उन्हें भी शायद लगा होगा कि गेंद पैड पर लगने से पहले उनके बल्ले को छूती हुई निकली थी।

बेंगलुरु के चिन्‍नास्‍वामी स्‍टेडियम पर द्रविड़ पैवेलियन लौट रहे थे। टेस्ट मैच अभी जारी था। लेकिन, एक दिलचस्प मुकाबले का अंत हो चुका था। ये सिर्फ द्रविड़ का आउट होना नहीं था। ये मुकाबले के बीच जारी एक मुकाबले का खत्म होना था। आस्ट्रेलियाई टीम और द्रविड़ के बीच जारी मुकाबला।

दरअसल,51 रन की इस पारी के दौरान हर गुजरते लम्हे के साथ यह दिलचस्प जंग मजबूती ले रही थी। पोंटिंग ने कुछ असमान उछाल के इस विकेट पर द्रविड के खिलाफ बेहद सूझबूझ से क्षेत्ररक्षण सजाया। करीब 135-140 किलोमीटर की रफ्तार से गेंदबाजी कर रहे ब्रेटली,शेन वाटसन और स्टुअर्ट क्लार्क के खिलाफ वो सिर्फ एक अकेली स्लिप मैथ्‍यू हेडन के सहारे द्रविड़ के विकेट तक पहुंचने में जुटे थे। अपने गेंदबाजों को इस हिदायत के साथ कि गेंद की दिशा को ऑफ स्टंप पर केंद्रित करें। साथ ही, शॉर्ट मिडऑन,शॉर्ट मिडविकेट और स्कायर लेग पर फील्डर तैनात कर वो द्रविड़ के ऑन साइड के स्ट्रोक्स को रोकने की कोशिश में थे। शुरुआती कुछ लम्हों को छोड़ दें तो द्रविड़ अपनी पहचान के मुताबिक हर गेंद पर उतनी ही एकाग्रता और सूझबूझ से पार पाने में जुटे थे। वो न सिर्फ गेंद को विकेट से दूर धकेलने में कामयाब हो रहे थे। मौका पड़ने पर हर रन की तलाश में भी दिखायी दे रहे थे। उनकी बल्लेबाजी क्रिकेट की किताब के उस पहली मूल पहलू से जुड़ी थी,जहां हर एक गेंद बीते कल में तब्दील होती है।अगली गेंद के लिए आप एक नयी शुरुआत करते हैं। यह चिन्नास्वामी स्टेडियम पर टेस्ट क्रिकेट की खूबसूरती का लम्‍हा था।

दरअसल,शनिवार को आस्ट्रेलिया के कप्तान रिकी पोंटिंग ने भारतीय पारी को कड़ी दर कड़ी निशाना बनाने की शुरुआत की। ये जानते हुए कि अगर जीतना है तो इसी धीमे विकेट पर भारत के 20 विकेट हासिल करने होंगे। इसी के मद्देनज़र हर बल्लेबाज के मुताबिक एक अलग व्यूह रचना के साथ शुरुआत की। मुकाबले के बीच एक नए मुकाबले के त‍हत हर गेंदबाज को खास हिदायत और एक तय लक्ष्य के साथ ज़िम्मेदारी सौंपी गई। इसी का नतीजा था कि ‘राउंड द विकेट’ गेंदबाजी करते हुए ब्रेटली के सामने गौतम गंभीर का बल्ला आखिरी क्षणों में चूक गया। वो एलबीडब्लू की एक बेहद मजबूत अपील से पार नहीं पा सके। सहवाग का विकेट करीब करीब मिशेल जॉनसन ने खरीद लिया। ऑफ स्टंप के बाहर जाती एक गेंद पर एक कैजुअल स्‍ट्रोक खेलते हुए वो पैवेलियन लौट गए।

ठीक इस मोड़ से पोंटिंग के सामने एक नया मुकाबला था। पहले से दबाव में चल रहे भारत के गोल्डन मिडिल ऑर्डर को सिर्फ दबाव और दबाव के बीच तोड़ने की कोशिश। इसी कड़ी में सचिन तेंदुलकर और वीवीएस लक्ष्मण को निशाना बनाया गया। एक गेंद पहले त‍क सचिन तेंदुलकर के बल्ले की बेहतरीन दिख रही टाइमिंग जॉनसन की धीमी गेंद पर चूक गई। पोंटिंग ने जैसे इसी एक चूक के लिए कवर प्‍वाइंट पर खासतौर से कैमरून ह्वाइट को तैनात किया था। लक्ष्मण भी जॉनसन की आखिरी क्षण में बाह‍र जाती एक खूबसूरत गेंद पर अपना विकेट बचा नहीं पाए। लेकिन, इन दिग्‍गजों के लौटने के बावजूद मुकाबलों के बीच मुकाबलों का सिलसिला जारी थी। द्रविड़ और गांगुली पोंटिंग की हर चाल का जीतोड़ जवाब देने में जुटे थे। द्रविड़ पोंटिंग की रणनीति से पार पाते-पाते पेवेलियन लौट गए। लेकिन, जाते-जाते ये बटन रिले रेस की तरह गांगुली को थमा गए। राउंड द विकेट गेंद फेंक रहे शेन वाटसन की शॉर्ट पिच गेंद को हेलमेट के वायजर से दूर धकेलते गांगुली के जीवट को आप महसूस कर सकते थे। 135 किलोमीटर की रफ्तार से आती स्टुअर्ट क्लार्क की गेंद पर फॉरवर्ड डिफेंस के लिए उनके कदम ठीक उसी तरह आगे बढ़ रहे थे,जैसे किसी स्पिनर की टर्न को खत्म करने की कोशिश कर रहे हों।

द्रविड़ से उलट अपने लिए सजाई गई तीन स्लिप के क्षेत्ररक्षण से पार पा रहे थे, साथ ही इसका फायदा उठाते हुए अपने ऑफ ड्राइव के सहारे गेंद को सीमा रेखा के बाहर भेजने में भी कोई कोताही नहीं बरत रहे थे। गांगुली 47 रन की इस जुझारु पारी में खुद को पूरी तरह मकाबले में झोंक चुके थे। टीम की जरुरत के मुताबिक विकेट पर मौजूद रहने की हर मुमकिन कोशिश को अंजाम देते हुए। ठीक ऐसी ही कोशिश ब्रेट ली और स्टुअर्ट क्लार्क के खिलाफ हरभजन सिंह के जवाबी स्‍ट्रोकों में पढ़ी जा सकती थी। हरभजन ने तो अपनी हाफ सेंचुरी ही क्लार्क के खिलाफ शानदार स्ट्रेट ड्राइव लगाकर पूरी की। आस्ट्रेलिया के खिलाफ उनकी पांचवी हाफ सेंचुरी। ये ऐलान करते हुए कि आस्ट्रेलिया के खिलाफ उन्हें हारना पसंद नहीं।

लेकिन, इन्हीं निजी मुकाबलों की कड़ी में लक्ष्मण की तरह महेन्द्र सिंह धोनी भी चूक गए। इस टेस्ट में नाज़ुक मोड़ पर उनसे एक बड़ी पारी की दरकार थी। ठीक उसी तरह जैसे अब से करीब एक साल पहले लॉर्ड्स पर खेली थी। लेकिन,ये विकेट धोनी के स्ट्रोक प्ले के लिए कतई माकूल नहीं था। धोनी इस चुनौती से पार नहीं पा सके। बहरहाल, नतीजा कुछ भी हो, लेकिन मुकाबलों के बीच दिलचस्‍प मुकाबलों का ये सिलसिला टेस्ट क्रिकेट का एक आत्मसात करने वाला अनुभव था। बार बार ये संदेश देते हुए कि ट्वेंटी-20 क्रिकेट की इस रफ्तार में टेस्ट क्रिकेट का ठहराव भी आप पर हावी हो सकता है। आपकी यादों में ठहर सकता है। यही टेस्ट क्रिकेट है। यही इसकी खूबसूरती है। यही इसका रोमांच है। बॉर्डर-गावस्कर ट्रॉफी मे ये इस सिलसिले की शुरुआत है। ऐसे कई लम्हों से हम अभी और रुबरु होंगे। इसके लिए तैयार रहिए।

Saturday, October 11, 2008

हसी की पारी का ऐलान, जीतना है तो लड़ना होगा

उसे देखकर लग रहा था कि इस शख्स की ज़िंदगी 22 गज की स्टेज पर ही सिमटी है। तूफान की रफ्तार से करीब आती गेंद पर आखिरी निगाह डाल बल्ले को उसकी राह से अलग कर वो अपने धैर्य को परख रहा था। पूरी सोच और रणनीति के साथ गेंदबाज के हाथ से छूटी गेंद पर जवाबी स्ट्रोक्स के साथ वो अपने हौसलों को कसौटी पर कस रहा था। छह घंटे से ज्यादा वो लगातार इसी तरह इस स्टेज को एक रंगमंच में तब्दील कर उसमें अपनी कला के रंग भरता चला गया। इस कोशिश में न तो उसे थकान का अहसास हुआ, न ही कोई ऊब। वो बल्ले के जरिए इसमें अपनी ज़िंदगी की परिपूर्णता को तलाशता दिखाई दे रहा था।

ये थे माइकल एडवर्ड किलीन हसी। बेंगलुरु के चेन्नास्वामी स्टेडियम पर उनके बल्ले से उभार लेती शतकीय पारी भारत और आस्ट्रेलिया के बीच शुरु हुई इस सीरिज के पटल पर मजबूती से दर्ज हो गयी है। सीरिज क्या मोड़ लेगी, ये कहना अभी मुमकिन नहीं है, लेकिन हसी की इस पारी की गूंज अब पूरी सीरिज में सुनायी देगी। ये बार बार आस्ट्रेलियाई सोच को सामने लाएगी। ये अहसास कराते हुए कि आस्ट्रेलियाई टीम को खारिज करना मुमकिन नहीं है। वो कभी भी और कहीं से भी मुकाबले में वापस लौट सकती है।

आखिर, शुक्रवार सुबह चौथे ही ओवर में ईशांत शर्मा की गेंद पर शेन वाटसन पैवेलियन लौटे तो आस्ट्रेलिया की आधी पारी सिमट चुकी थी। महज 259 रन के स्कोर पर। मुकाबले के इस मोड़ से भारत अगर पकड़ जमा लेता तो आस्ट्रेलिया के लिए इस टेस्ट मे हालात मुश्किल हो जाते। कप्तान पोंटिंग के करियर का सबसे यादगार शतक और कैटिच की कोशिशें हाशिए पर छूट जातीं। लेकिन, इस नाज़ुक मोड़ पर किसी एक बल्लेबाज को एक छोर संभाल आस्ट्रेलिया को मुकाबले में वापस लाना था। एक यादगार पारी को शक्ल देनी थी।

अगर, विकेट पर माइकल हसी मौजूद हैं, तो इस काम को उनसे बेहतर कोई दूसरा शख्स अंजाम दे ही नहीं सकता। हसी ने भी अपनी टीम को निराश नहीं किया। आखिर उनकी टीम भी उन्हें ड्रेसिंग रुम से बाहर सिर्फ विकेट पर ही देखना चाहती है। और हसी ने अपनी आखिरी कोशिश तक उनकी उम्मीदों को टूटने नहीं दिया। एक रणनीति के तहत हसी ने इस मोड़ पर ईशांत और ज़हीर खान की गेंदों पर कुछ आक्रामक स्ट्रोक खेले। नतीजा सामने था। कुंबले ने फील्डिंग को छितरा दिया।

हसी यही चाहते थे। हसी ने इसके बाद अपने बल्ले से बड़े स्ट्रोक्स खेलने के बजाय सिंगल्स के जरिए लगातार अपनी स्ट्राइक बदलनी शुरु की। नतीजतन, इस बेजान विकेट पर पहले से ही परेशान दिख रहे हरभजन और कुंबले दूसरे दिन अपनी लय ही नहीं पकड़ पाए। कुंबले तेज़ और तेज़ गेंद फेंकते दिखायी दिए। हरभजन अपने दूसरे विकेट के लिए हर कोशिश करते दिखे। कभी 'राउंड द विकेट' तो कभी 'ओवर द विकेट।' लेकिन, श्रीलंकाई दौरे पर भारत के सबसे कामयाब गेंदबाज रहे हरभजन शुक्रवार को विकेट तक पहुंचने में नाकाम रहे। इस कड़ी में हसी ने हैडिन और ब्रेट ली को भी विकेट पर टिकने का हौसला दिया। इसी का नतीजा था कि आखिरी पांच पुछल्ले बल्लेबाजों के साथ उन्होंने 171 रन जोड़ डाले।

दरअसल, अपनी 146 रन की इस बेजोड़ पारी में हसी ने बार बार यह ऐलान किया कि "मैं आपको अपना विकेट नहीं दे सकता। आपको मेरा विकेट लेना होगा।" यह एक ऐसे बल्लेबाज का ऐलान है, जो भारत की ज़मीन पर अपना पहला टेस्ट खेल रहा है। ये ऑस्ट्रेलियाई टीम को लेकर इस दौरे पर बनी अनुभवहीनता के मिथ का जवाब है। ये साबित करता हुआ कि आप आस्ट्रेलिया को यूं ही खारिज नहीं कर सकते। यही वजह है कि पोंटिंग के पैवेलियन लौटने के बावजूद हसी ने हिम्मत नहीं हारी। नयी गेंद के खिलाफ उनका हौसला नहीं डिगा। स्पिनर का सामना करते हुए उनके कदम नहीं डगमगाए।

हसी ने अपनी इस पारी से एक बार फिर उन आंकडों को जेहन में हावी कर दिया, जो हसी को सर डोनाल्ड ब्रैडमैन के करीब ले जाते हैं। सर ब्रैडमैन की 99.94 की औसत के सबसे करीब खड़े हैं माइकल हसी। इस पारी के बाद उनका औसत 70.60 है। अगर इन्हीं आंकडों को और खंगाला जाए तो ठीक हसी की तरह 26 टेस्ट मैच खेलने के बाद सर डोलान्ड ब्रैडमैन ने 89.50 की औसत से 13 शतक समेत 3224 रन बनाए थे। हसी अब तक नौ शतकों के साथ 2471 रन बना चुके हैं। हालांकि, ब्रैडमैन के शिखर से हसी के इन आंकडों को जोड़ना बेमानी हो सकता है। खासतौर से ये जानते हुए कि जिस दौर में सर ब्रैडमैन अपनी बल्लेबाजी को परवान चढ़ाया, तब विकेट कुदरत के हवाले थे। आज की तरह विकेट ढके नहीं जाते थे। इन दो तरह के विकेट पर बल्लेबाजी करना बिलकुल अलग है। लेकिन, ये दिलचस्प आंकडा हसी की टीम में अहमियत को तो उभारता ही है।

बहरहाल, हसी की इस पारी के बाद ये टेस्ट क्या करवट लेता है। ये सीरिज किस ओर मुड़ती है। इसका सबको इंतजार है। लेकिन,हसी की पारी ने पांच साल पहले ब्रिसबेन में खेली सौरव की शतकीय पारी की याद ताज़ा कर दी है। सौरव की उस पारी के बाद भारत स्टीव वॉ की टीम से बेशक सीरिज जीत नहीं पाया, लेकिन सौरव के बल्ले से यह सीधा संदेश दिया गया कि हम यहां हारने नहीं आए हैं। हम आखिरी दम तक लड़कर रहेंगे। ये तो सिडनी के आखिरी टेस्ट में स्टीव वॉ की 80 रन की जुझारु पारी थी, जिसने सीरिज को 1-1 की बराबरी पर थाम दिया। वरना, भारत पहली बार आस्ट्रेलियाई ज़मीन पर सीरिज जीतने में कामयाब हो जाता। माइकल हसी की इस पारी ने भी भारत की ओर एक चुनौती को उछाल दिया है। ऐलान करते हुए कि हमसे अगर जीतना है,तो लड़ना होगा। हसी की ये पारी यही संदेश बार बार दे रही है।

सचिन तेंदुलकर, माइकल हसी और यह सीरीज

क्रिकेट का शिखर। जादुई अंक 99.94। अगर आप क्रिकेट से जुड़े हैं तो आप बता देंगे कि इस अंक के मायने क्‍या हैं। ये सर डोनाल्‍ड ब्रेडमैन की बल्‍लेबाजी औसत है। ये किसी भी बल्‍लेबाज के लिए उसकी सीमाओं और सोच से आगे का शिखर है। ख्‍वाब में भी बल्‍लेबाज शायद इस शिखर को छूने की कल्‍पना नहीं करता। ये इतिहास में ठहर गया शिखर है। लेकिन, इस शिखर के करीब पहुचना हर कोई चाहता है। जो इसके जितना करीब पहुंचता है, क्रिकेट के मंच पर उसका कद उतना ही उभार ले लेता है। इस वक्‍त इसके सबसे करीब खड़े हैं सर डॉन के ही देश के माइकल हसी। 25 टेस्‍ट खेल चुके 34 साल के हसी 68.38 की औसत से करीब ढाई हजार टेस्‍ट बना चुके हैं। ये जरूर है कि टेस्‍ट खेलने के साथ-साथ इस शिखर और उनके बीच फासला बढ़ रहा है। लेकिन, अभी आंकड़ों में मौजूदा क्रिकेट में सर ब्रेडमेन के सबसे करीब हैं माइकल हसी।

लेकिन, सर डोनाल्‍ड ब्रेडमैन की शख्सियत सिर्फ इन आंकड़ों में नहीं सिमटी। वो काल, समय और समाज से आगे निकल चुके सर डोनाल्‍ड ब्रेडमैन हैं। ये संयोग ही है कि इसी मौजूदा क्रिकेट में एक शख्सियत ब्रेडमैन के बराबर आ खड़ी होती है- सचिन रमेश तेंदुलकर। ब्रेडमैन से औसत में कहीं आधे पर ठहरे होने के बावजूद वो मौजूदा क्रिकेट पर ही पूरी तरह हावी नहीं है, वो भी काल और समय से होड़ लेती, लगातार मजबूत और गढ़ती हुई शख्सियत हैं। सिर्फ एक बल्‍लेबाज नहीं, एक अरब उम्‍मीदों का भार ढोते मौजूदा क्रिकेट के सबसे बड़े महानायक सचिन तेंदुलकर।

हसी अपने खेल में परिपूर्णता की तलाश करते दिखाई देते हैं। अपने में ही डूबे हसी आभास कराते हैं जैसे कोई बल्‍लेबाज बेहतर, और बेहतर होने की कोशिश में जुटा है। इस हद तक कि ना तो कभी मुकाबले में थकान उस पर झलकती है, ना ही कभी मुकाबले से पहले की तैयारी में। यह जुनून ही है कि ऑस्‍ट्रेलिया 'ए' टीम में जगह बनाने के बाद वो अपने कोच इयन केविन से छह घंटे के नेट्स का आग्रह करते हैं। इन छह घंटों में खाने और आराम का वक्‍त शुमार नहीं है। नतीजा, केविन थकान से चूर होकर टूट जाते हें, लेकिन हसी नहीं। हसी का अपने पर भरोसा बेमिसाल है। कभी-कभार अपने इस भरोसे पर संशय उभार ले लेता है, लेकिन अगर दिक्‍कत हो तो रास्‍ता तलाशने में हसी की फितरत है। इसीलिए, तेज गेंदबाजी से मनावैज्ञानिक तौर पर पार पाने के लिए स्‍टीव वॉ से सलाह लेने में एक क्षण नहीं लगाते। ये हैं अपने खेल में जुनून की हद तक परिपूर्णता तलाशते माइकल हसी।

सचिन तेंदुलकर परिपूर्णता से आगे निकल चुके हैं। वो खुद अपने शिखर तय करते हैं और फिर उन्‍हें देखते ही देखते हासिल कर डालते हैं। उनके लिए ये सिर्फ एक नई मंजिल तक पहुचना होता है, लेकिन उनके चाहने वालों के लिए ये एक किंवदंती में तब्‍दील हो जाता है। ये उन्‍हें क्रिकेट के दायरे से बाहर ले जाता है। उन्‍हें बास्‍केटबॉल कोर्ट पर छह बार एनबीए चेंपियन रहे माइकल जॉर्डन, फार्मूला वन में सात बार के वर्ल्‍ड चैंपियन माइकल शुमाकर, टेनिस कोर्ट पर 14 ग्रैंड स्‍लैम जीत चुके पीट संप्रास या 237 हफ्तों तक लगातार नंबर एक रहे रोजर फेडरर, पोल वॉल्‍ट में 13 बार अपना ही वर्ल्‍ड रिकॉर्ड तोड़ने वाले सर्गेई बुबका और गोल्‍फ कोर्स पर 14 मेजर टाइटल जीतने वाले टाइगर वुड्स के बराबर ला खड़ा करते हैं। किसी को एकबारगी महसूस हो सकता है कि क्‍या ये लेजेंड रोज दर रोज एक ही कामयाबी दोहराते हुए उब नहीं जाते ? लेकिन माइकल जॉर्डन के शिकागो बुल्‍स में कोच रहे फिल जैक्‍सन की बात पर गौर कीजिए। 'वो उब सकते हैं, अगर एक ही मंजिल को साल दर साल हासिल करें। अपने मोटिवेशन को बनाए रखने के लिए इन्‍हें साल दर साल नए शिखर सामने रखने जरूरी हैं।' यही इन लेजेंड की खूबी है। यही इनकी ताकत है। इसी तरह खुद ही अपने शिखर तय कर रहे हैं और उन तक पहुंच रहे हैं सचिन तेंदुलकर।

हसी अपने सफर में कब मौका मिलेगा, इससे बेपरवाह रहे हैं। लेकिन मौका हाथ में आ गया तो, पीछा मुड़कर नहीं देखा। फर्स्‍ट क्‍लास क्रिकेट में 15000 रन बनाने के बाद 30 साल की उम्र में टेस्‍ट टीम में जगह बनाते हैं। ये उम्र का वह पड़ाव है, जहां पहुंचते-पहुंचते तेंदुलकर एक लेजेंड में तब्‍दील हो चुके थे। लेकिन, ये धैर्य और सोच ही पहचान है माइकल हसी की।

तेंदुलकर भी बेपरवाह हैं आलोचनाओं से, अपने पर उठते सवालों से। हर सवाल का जवाब उनके बल्‍ले से निकलता है। पिछली ऑस्‍ट्रेलियाई दौरे पर उन्‍होंने चोट से उबरने के बाद टीम में वापसी की। जवाब के तौर चार टेस्‍ट की सीरीज में जोड़े 70 की औसत से करीब पांच सौ रन। इतना ही नहीं, ऑस्‍ट्रेलिया पर पहली बार दर्ज ट्राइंग्‍यूलर सीरीज जीत में फाइनल में मैन ऑफ द मैच बने सचिन तेंदुलकर। 18 साल से लगातार सिर्फ और सिर्फ बल्‍ले से हर सवाल का जवाब दे रहे हैं सचिन तेंदुलकर।

माइकल हसी खुलकर चुनौती स्‍वीकारते हैं। ऑस्‍ट्रेलियाई बल्‍लेबाजी में एक छोर को संभालने में हसी का कोई जवाब नहीं। सिडनी में दूसरी पारी में नाबाद 145 रन हों या फिर इसी दौरे में बोर्ड प्रेसीडेंट इलेवन के खिलाफ खेली गई शतकीय पारी। आखिरी विकेट के लिए 40 ओवर तक स्‍टूअर्ट क्‍लार्क के साथ ना सिर्फ जमे रहे, टीम को भी फॉलोऑन के पार पहुंचाया।‍ हसी टेस्‍ट क्रिकेट के माइकल बेवन हैं, ठीक उन्‍हीं की तरह पूरी टीम को मंजिल तक पहुंचाते हसी।

सचिन तेंदुलकर चुनौतियों का आंख में आंख डालकर सामना ही नहीं करते, वो जो सर्वश्रेष्‍ठ है, उसको अपने बल्‍ले से जवाब देने में यकीन रखते हैं। ऑस्‍ट्रेलिया दुनिया में सर्वश्रेष्‍ठ है, तो तेंदुलकर ने उन्‍हीं के खिलाफ अपने खेल को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया है। ऑस्‍ट्रेलिया के खिलाफ उनका औसत (56 ) उनके करिअर औसत (54) से बेहतर होना इसे पुख्‍ता करता है। शेन वार्न दुनिया के सबसे बड़े स्पिनर हैं तो सचिन ने उन्‍हें ना सिर्फ अपने विकेट से दूर रखा, अपने काउंटर अटैक से उन्‍हें हाशिए पर भी धकेल दिया। 18 साल की उम्र में 1991 में सिडनी और पर्थ पर खेली बेमिसाल शतकीय पारियों से लेकर आज तक ऑस्‍ट्रेलिया के खिलाफ इस सिलसिले को बनाए हुए हैं सचिन तेंदुलकर ।

क्रिकेट को बाकी खेलों से आगे ठहराते हुए कहा गया है- ये क्रिकेट की ही खबसूरती है कि एक बललेबाज अलग-अलग स्‍तर पर जंग लड़ता है, कभी गेंदबाज से, कभी मैच की स्थितियों से, कभी वक्‍त से। इन्‍हीं के बीच वो अपने खेल को नई ऊंचाइयों पर ले जाता है। माइकल हसी और सचिन भी इस सीरीज में इसी कोशिशों के साथ मैदान पर उतर रहे हैं। दोनों की कोशिशें अपनी-अपनी टीमों के लिए निजी कोशिशें होगी। लेकिन, दोनों ही अपनी टीमों के एक साझा लक्ष्‍य को लेकर इस सीरीज में आगे बढ़ेंगे।

भारतीय टीम की धुरी बने सचिन तेंदुलकर ग्रीक कथाओं के नायक एटलस की याद दिलाते हैं। अपने कंधे पर ग्‍लोब यानी दुनिया को उठाए एटलस। पिछले दो दशक में सचिन तेंदुलकर ने भी अपने बल्‍ले के सहारे भारतीय टीम का भार इसी तरह उठाया हुआ है। बीते कुछ सालों में राहुल द्रविड़ ने जरूर उनके भार को कम किया है। माइकल हसी को ऑस्‍ट्रेलियाई टीम का भार इस तरह उठाने के लिए अभी तैयार होना है। हो सकता है ये सीरीज इसकी शुरुआत हो। फिलहाल माइकल हसी से कहीं बहुत आगे खड़े हैं सचिन तेंदुलकर।

Friday, October 10, 2008

शतक के साथ अपने खोए भरोसे को जीता पोंटिंग ने

दिन वक्त और साल। आस्ट्रेलिया कप्तान रिकी पोंटिंग के लिए गुरुवार की दोपहर बेंगलुरु के चेन्नास्वामी स्टेडियम में सब ठहर गया। अनिल कुंबले के हाथ से गेंद छूटी, कुछ धीमी और ऑफ स्टंप के बाहर। 99 रन पर खेल रहे पोंटिंग ने अपना मौका भांपा। गेंद को पूरे आत्मविश्वास के साथ प्वाइंट की ओर दिशा देते हुए अपने टेस्ट करियर के 36वें शतक की ओर बढ़ निकले। तीसरे रन को पूरा करते करते उनके दोनों हाथ हवा में लहराए। फिर एक हाथ से हवा में मुठ्ठी को तानते हुए चिल्लाए। और फिर दोनों हाथ हवा में लहराते हुए उनके चेहरे पर एक संतुष्टि का भाव तैर गया। एक आत्मसंतोष।

पोंटिंग के लिए आत्मसंतुष्टि और आत्मसंतोष का लम्हा था। बावजूद इसके कि पोंटिंग इससे पहले भी अपनी पारी को 35 बार तीन अंकों में ले जा चुके थे। बावजूद इसके कि पोंटिंग की ये पारी उन्हें सचिन तेंदुलकर के उन 39 सेंचुरी के शिखर के और नजदीक ले गई थी लेकिन ये आत्मसंतोष इससे अलग था। दरअसल,इस शतक ने पोंटिंग को एक बहुत बढ़े दबाव से मुक्त कर दिया था। टेस्ट क्रिकेट मे दस हजार से ज्यादा रन, 58 से ज्यादा की बेहतरीन औसत के बावजूद भारत की ज़मी पर पोंटिंग अपनी औसत को 12.28 से आगे नहीं ले जा पाए थे। इस शतक से पहले आठ टेस्ट में 14 पारियां खेलने के बावजूद पोंटिंग अपने खाते में सिर्फ 172 रन ही जोड़ पाए थे।

फिर,पोंटिंग आज जब क्रीज पर पहुंचे तो यही अकेला दबाव नहीं था। मैच की तीसरी ही गेंद पर मैथ्यू हेडन पैवेलियन लौट चुके थे। हेडन का पैवेलियन लौटना सिर्फ एक विकेट का गिरना नहीं था। ये भारत में भारत केखिलाफ उनके सबसे कामयाब बल्लेबाज मैथ्यू हैडन का विकेट था। फिर,इस मोड से पोंटिंग का मोर्चा संभालना था। सिर्फ एक बल्लेबाज की हैसियत से नहीं, एक कप्तान की भूमिका में बाकी साथियों के लिए मिसाल पेश करते हुए आगे की राह आसान करनी थी। अपने करियर में चुनौतियों की आंख में आंख डालकर सामना करना पोंटिंग की पहचान है। इंग्लैंड में एशेज गंवाने के बाद अपने घर में उन्हें 5-0 की करारी शिकस्त से लेकर ऐसे ढेरों लम्हे हैं,जहां से पोंटिंग ने एक बार फिर वापसी की। आज भी मैच के शुरुआती और बेहद नाजुक मोड़ पर पोंटिंग ने कोई चूक नहीं की। इन विपरित हालात के बीच उन्होंने एक बेजोड़ शतकीय पारी का आगाज़ किया। अपने आक्रामक तेवरों से उलट,बेहद धैर्य से हर गेंद को उसकी मैरिट पर खेलना शुरु किया। भारत के पिछले दौरे की गतलियों से सबक लेते हुए इस बार वो गेंद को खेलने में कोई जल्दबाजी नहीं दिखा रहे थे। जानकारों के मुताबिक पोंटिंग का बल्ला अब पैड के पीछे नहीं,सामने था। वो अपने स्ट्रोक्स को चुनने में भी बेहद सावधानी बरत रहे थे। ईशांत शर्मा की गेंद पर जमाए अपने पहले चौके में इसकी झलक महसूस की जा सकती है। ऑफ स्टंप पर पड़ी थोड़ी सी ओवरपिच गेंद पर वो चाहते तो अपनी पहचान के मुताबिक अपने बल्ले का मुंह खोलते हुए कवर ड्राइव के सहारे सीमा रेखा के बाहर भेजते।

लेकिन,गेंदबाज को अपने विकेट तक पहुंचने का मौका न देने का इरादा कर उतरे पोंटिंग ने बेहद सीधे बल्ले से ऑफ ड्राइव के जरिए गेंद को बाउंड्री तक पहुंचाया। उनके स्ट्रोक में आप उनके इरादों को महसूस कर सकते थे। भारतीय विकेटों पर उनका खुद में लौटता आत्मविश्वास पढ़ सकते थे।
ये पोंटिंग के आत्मविश्वास की ही बानगी थी कि राउंड द विकेट गेंदबाजी कर रहे हरभजन को उन्होंने टर्न के सहारे मिडविकेट के ऊपर से लॉफ्ट करने में कोई देरी नहीं की। ये वही हरभजन थे,जिनके खिलाफ हर कोई उन्हें एक नौसिखिया बल्लेबाज की तरह पेश करता है। हालांकि,हरभजन ने गुरुवार को एक बार फिर उनकी पारी का अंत किया,लेकिन हरभजन के खिलाफ वो सबसे ज्यादा आक्रामक मूड में थे। हरभजन के खिलाफ करीब 75 से ज्यादा का उनका स्ट्राइक रेट यह साबित भी करता है।

फिर.पर्थ में पिछले टेस्ट मैच के दौरान ईशांत शर्मा के खिलाफ दुविधा में दिख रहे पोंटिंग ने आज उन पर भी काबू पाना शुरु किया। लंच से पहले जरुर ईशांत शर्मा ने अपनी गेंदों की रफ्तार में बदलाव करते हुए उन्हें कुछ परेशान किया लेकिन लंच के बाद के दौर मे पोंटिंग ईशांत शर्मा पर भी पकड़ जमाते दिखायी देने लगे। ईशांत के खिलाफ जमाए उनके स्कायर ड्राइव में आप इसकी झलक देख सकते हैं।
दरअसल,गुरुवार को पोंटिंग ने बेहद सलीके से अपनी पारी को गढ़ा। न सिर्फ उन्होंने हरभजन और कुंबले के खिलाफ अपने को कट स्ट्रोक्स से रोका बल्कि बेहतर गेंदों के खिलाफ आक्रमण करने की अपनी स्वाभाविक सोच से हटकर उन्होंने उसे अपने विकेट से दूर रखने में कामयाबी पायी। इसी का नतीजा था कि एक बार फिर पोंटिंग के बल्ले से उनका बहुमुखी टेलेंट झलक रहा था। उनका अपने मे विश्वास लौट आया था। ये न सिर्फ पोंटिंग की एक शतकीय पारी थी। ये उनकी भारतीय गेंदबाजों के खिलाफ एक मनोवैज्ञानिक जीत है। उनकी अपने खोए भरोसे पर बड़ी जीत है। इससे भी बढ़कर ये आस्ट्रेलियाई टीम के लिए एक मिसाल है,जहां कैटिच से लेकर हसी तक सभी खिलाड़ी अपने कप्तान के नक्शेकदम पर चल अपनी टीम को जीत की राह पर ले जाने के लिए जुटे दिख रहे हैं। इन सबके बीच ये पोंटिंग की पिछले 35 शतकों पर भारी पड़ती अकेली शतकीय पारी है।

Wednesday, October 8, 2008

भारत को गांगुली के संन्‍यास की छाया से उबरना होगा

ये भारतीय क्रिकेट का बेमिसाल लम्‍हा है। एक ऐसा लम्‍हा, जिससे हम कभी रूबरू नहीं हुए। हमने ऐसे लम्‍हे की विराटता महसूस जरूर की है। 6 जनवरी, 2004 को अपने साथियों के कंधों पर सिडनी क्रिकेट ग्राउंड से बाहर आते ऑस्‍ट्रेलियाई झंडे में लिपटे कप्‍तान स्‍टीव वॉ। इसी सिडनी मैदान पर करीब दो साल पहले अपने बच्‍चों के साथ तस्‍वीरों में कैद होते ग्‍लेन मैक्‍ग्रा, शेन वार्न और जस्टिन लैंगर। ये उनके अपने खेल से अलविदा के लम्‍हे हैं। ऐसे लम्‍हे, जहां उनका मैदान पर सुनहरा सफर थम गया। लेकिन, हम उनके बीते कल के हर एक लम्‍हे को पहली ही जैसी ताजगी के साथ आज भी जी सकते हैं। ये शिखर पर खड़े स्‍टीव वॉ, शेन वार्न और ग्‍लेन मैक्‍ग्रा का अलविदा है। एक एलान के साथ की गई विदाई। भारतीय क्रिकेट में इस तरह अलविदा कहने का साहस आज तक कोई बटोर नहीं पाया।
लेकिन, सौरव गांगुली ने मंगलवार की दोपहर बंगलुरु में ये एलान करने का साहस दिखाया। बेशक, उनके इस एलान को बोर्ड के साथ समझौते से जोड़कर देखा जाए। बेशक, गांगुली ऐसे किसी समझौते से इंकार करें, लेकिन भारतीय क्रिकेट के लिए एक अलहदा अनुभव है। एक लेजेंड को हम ठीक मैदान से अपने खेल को अलविदा कहते हुए देखेंगे। गुरुवार से शुरू हो रही बार्डर-गावस्‍कर ट्रॉफी में हर गुजरते लम्‍हे के बीच हमें सौरव गांगुली की अलविदा की गूंज सुनाई देगी। उनके हर स्‍ट्रोक से, उनके हर हावभव में हम उनके बीते कल को तलाश कर बार-बार जीने की कोशिश करेंगे। आखिर, सुनील गावस्‍कर से लेकर कपिल देव तक अलविदा के एलान के बीच खेल को परवान चढ़ाते नहीं दिखे।
गावस्‍कर ने इसी बंगलुरु के चिन्‍नास्‍वामी स्‍डेडियम में 22 साल पहले पाकिस्‍तान के खिलाफ 96 रन की यादगार पारी खेली। एक सलामी बल्‍लेबाज की स्पिन के खिलाफ खेली गई बेजोड़ पारी गावस्‍कर के टेस्‍ट करिअर की आखिरी पारी थी, लेकिन अलविदा के इस सच को या तो गावस्‍कर जानते थे या गिने-चुने कुछ लोग, जिन्‍हें गावस्‍कर ने अपने इस फैसले के बारे में बताया था। लेकिन, भारतीय क्रिकेट के चाहने वाले गावस्‍कर के इस फैसले से बिल्‍कुल वाकिफ नहीं थे। भारतीय क्रिकेट को नई राह पर मोड़ने वाले कपिल देव ने विदाई ली, तो आनन-फानन में दिल्‍ली के पांचसितारा होटल के एक कमरे में कुछ गिने-चुने पत्रकारों के सामने। मैदान से दूर।

लेकिन,भारतीय टेस्ट टीम के सबसे सफल कप्तान सौरव गांगुली इस लकीर से हटकर ठीक मैदान के बीच से अपने करिअर को अलविदा कहेंगे। उनकी ये विदाई हमको एक अलहदा अनुभव देगी, लेकिन साथ ही एक बहस को भी आगे बढ़ाएगी। भारतीय क्रिकेट टीम विदाई लेते सौरव के साथ कैसे इस सीरीज में आगे बढ़ेगी, इस पर हर किसी की निगाह रहेगी। भारतीय टीम अभी तक इस मन:स्थिति में खेलने की आदी नहीं है। साथ ही, देखना होगा कि विवादों के बीच टीम में बरकरार गांगुली अपने खेल को नई ऊंचाइयों की तरफ ले जा पाते हैं या नहीं।

स्‍टीव वॉ ने जब भारत के खिलाफ अपना आखिरी टेस्‍ट मैच खेला तो उनकी 80 रन की जुझारु पारी ही थी, जिसने ऑस्‍ट्रेलिया को बराबरी पर सीरीज खत्‍म करने का मौका दिया। शेन वार्न और ग्‍लेन मैक्‍ग्रा ने इंग्‍लैंड का एशेज में सफाया करने में बड़ी भूमिका अदा की। मैक्‍ग्रा ने 21 और वार्न ने 23 विकेट हासिल किए। इन्‍हीं के साथ रिटायर हुए लेंगर ने 43 की औसत से 303 रन जोड़े। साफ है कि इन लेजेंड ने अपने अलविदा को सीरीज के नतीजों पर हावी नहीं होने दिया। उन्‍होंने पूरी सीरीज में हर मुकाबले में अपनी पहचान के मुताबिक खेलते हुए अपनी टीम के लिए जीत की एक मजबूत कड़ी की तरह काम किया।
लेकिन, यहां सौरव गांगुली एक अलग जमीन पर खड़े हैं। ना तो भारतीय टीम ऐसी विदाई की आदी है, ना ही गांगुली अपने प्रदर्शन के बूते टीम में बरकरार हैं। चयन समिति के अध्‍यक्ष श्रीकांत का ये कहना कि अब गांगुली बिना दबाव के खेलेंगे, उनके टीम में बने रहने को सवालों में खड़ा करता है। तथाकथित डील या समझौते को हवा देता है। मेरा मानना है कि गांगुली अब पहले से कहीं ज्‍यादा दबाव में होंगे। अब नाकामी का भय उनके अवचेतन में पहले से ज्‍यादा होगा।
दरअसल, गांगुली का ये फैसला ऑस्‍ट्रेलियाई क्रिकेट की सोच को अपनाने की कोशिश है। लेकिन, सवाल यही है कि हम उन्‍हीं की तरह जीत को ध्‍यान में रखकर आगे बढ़ पाते हैं या नहीं। आखिर, जब स्‍टीव वॉ के रिटायरमेंट पर ऑस्‍ट्रेलियाई बोर्ड ने फैसला किया, उस वक्‍त स्‍टीव वॉ अपनी बेहतरीन फॉर्म में थे। वेस्‍टइंडीज के खिलाफ सीरीज में 75 रन की औसत से 226 रन बनाए थे। बांग्‍लादेश के खिलाफ दो मुकाबलों में बिना आउट हुए 256 रन जोड़े थे, जबकि जिम्‍बाब्‍वे के खिलाफ 70 की औसत से रन बना चुके थे। शेन वार्न ने जब एशेज में आखिरी बार उतरने का फैसला किया, उससे पहले 11 टेस्‍टों में 56 विकेट ले चुके थे। यानी हर मैच में औसतन पांच विकेट। ठीक इसी तरह ग्‍लेन मैक्‍ग्रा ने इसी एशेज से पहले 10 टेस्‍ट में 43 विकेट लिए थे।
साफ है, जब इन लेजेंड की अलविदा पर फैसला लिया गया तब इनका खेल शिखर से डिगा नहीं था। लेकिन, सौ से ज्यादा टेस्ट खेल चुके गांगुली श्रीलंका के खिलाफ पूरी सीरीज में 100 रन भी नहीं जोड़ पाए। 16 की औसत से महज 96 रन उनके नाम के आगे जुड़े। ईरानी ट्रॉफी में उन्‍हें शेष भारत की टीम में जगह देने के लायक नहीं समझा गया। यानी ये गांगुली के खेल का शिखर नहीं है। गांगुली आज उस लय में नहीं हैं, जो ऑस्‍ट्रेलिया जैसी टीम के खिलाफ जीत तक पहुंचाने का भरोसा जता सके। भारतीय टीम गांगुली की विदाई के लिए सीरीज खेलती नहीं दिखनी चाहिए। वो जीत तक पहुंचने की कोशिश में जुटी दिखई देनी चाहिए। ठीक ऑस्‍ट्रेलियाई सोच की तरह, जहां आखिरी मंत्र उसकी जीत के आसपास जाकर ठहरता है। टीम के लिए खिलाड़ी सिर्फ उसी जज्‍बे के साथ मैदान पर खेलता दिखाई देता है। वो टीम के लिए एक अलविदा कहता खिलाड़ी नहीं होता। भावनाओं से दूर वो सिर्फ जीत और जीत की धुरी की तरह टीम में मौजूद रहता है। भारतीय क्रिकेट के लिए भी जरूरत है इस सोच की। गांगुली जैसी अलविदा नहीं, स्‍टीव वॉ, शेन वार्न और ग्‍लेन मैक्‍ग्रा जैसी विदाई की।

Wednesday, October 1, 2008

सौरव गांगुली और ‘समझौते’ की टीस



करीब बारह साल से सौरव गांगुली अंतरराष्‍ट्रीय क्रिकेट मंच पर मौजूद हैं। टेस्‍ट से लेकर वनडे तक कितनी ही बेजोड़ पारियां उनके नाम दर्ज हैं। लेकिन, अगर आज यह पूछा जाए कि इस दौरान सौरव की कौन सी एक तस्‍वीर आपके जेहन में ठहर गई है, तो 99 फीसदी का जवाब होगा- लॉर्ड्स की बाल्‍कनी में नंगे बदन टी-शर्ट को हवा में लहराते सौरव। मेरे लिए भी सौरव की पहचान से जुड़ी सबसे यादगार तस्‍वीर है। खुद को साबित करते सौरव गांगुली की शख्सियत को बयां करती तस्‍वीर। अपने प्रतिद्वंद्वी को उसी की जबान में जवाब देते सौरव गांगुली।

लेकिन, पिछले दो सालों के दौरान इसी के समानांतर एक और तस्‍वीर भी बार-बार दस्‍तक देने लगी है। ईडन गार्डन में बीच दोपहरी में अकेले अपनी कमर में एक टायर को बांध आगे बढ़ने की जी-तोड़ कोशिश करते सौरव। ठीक उसी ईडन में बिल्‍कुल तन्‍हा, जहां लाखों लोगों की हौसलाअफजाई के बीच उन्‍होंने अपनी हर पारी को परवान चढ़ाया। अपनी कप्‍तानी में स्‍टीव वॉ से लेकर इंजमामुल हक से बड़ी लकीर खींच दी। इसी ईडन में टीम में अपनी वापसी की कोशिशों में जुटे सौरव गांगुली को सामने लाती तस्‍वीर। जीवट से भरपूर, कभी न हार मानने वाली सौरव गांगुली से रूबरू कराती तस्‍वीर।

बीते दो सालों में वापसी के बाद सौरव के बल्‍ले से बहे रनों ने इस तस्‍वीर को और मजबूती से गढ़ दिया है। इस दौरान सौरव ने टेस्‍ट में 45 और वनडे में 43 की औसत से रन बटोरे। लेकिन, इन रनों से ज्‍यादा नाजुक मौकों पर खेली उनकी पारियां एक फीनिक्‍स की तरह उनकी पहचान से जुड़ गईं। पाकिस्‍तान के खिलाफ बंगलुरु में उनके दोहरे शतक पर गावस्‍कर ने लिखा- ‘पैंतीस साल की उम्र में आप सेंचुरी की उम्‍मीद नहीं करते, लेकिन सौरव ने डबल सेंचुरी जमाकर अपनी वापसी को परीकथा में तब्‍दील कर दिया। ये उनकी अपने में भरोसे की मिसाल है।’

सौरव ने बेशक इस बार वापसी नहीं की है, उन्‍हें टेस्‍ट टीम में बरकरार रखा गया है। लेकिन, उनका टीम में बने रहना एक वापसी से कम नहीं है। ना सिर्फ इसलिए कि उन्‍हें ईरानी ट्रॉफी के लिए शेष भारत की टीम में नहीं चुना गया, बल्कि इसलिए भी कि सौरव को ईरानी ट्रॉफी ठीक बाद बुलाए गए कंडशिनिंग कैंप से दूर रखा गया। उन्‍हें बाहर रखने को लेकर कप्‍तान अनिल कुंबले और कोच गैरी कर्स्‍टन पर भी उंगली उठी। ये इशारा करते करते हुए कि टीम में सौरव गांगुली की जगह नहीं बनती है। श्रीलंका सीरीज की नाकामी के चलते उन्‍हें टीम शामिल नहीं किया जाएगा। लेकिन तमाम बहसों, बयानों और आलोचनाओं के बावजूद सौरव गांगुली एक बार फिर टीम में है। एक बार फिर सौरव की भारतीय टीम में वापसी हो रही है।

लेकिन, सौरव की ये वापसी उनकी ठहरी तस्‍वीर, उनकी परीकथाओं की तरह रची कहानियों से झलकती उनकी शख्सियत पर चोट कर रही है। अगर खबरों पर भरोसा करें तो यह कहा जा रहा है कि सौरव और बोर्ड के बीच एक ‘समझौता’ हो गया है। सौरव कैसा भी खेलें, ऑस्‍ट्रेलिया और इंग्‍लैंड के खिलाफ होने वाले घरेलू टेस्‍ट सीरीज के बाद उन्‍हें हटना होगा। भारतीय क्रिकेट में सौरव के योगदान के मद्देनजर ये पहल की जा रही है। गोल्‍डन मिड्ल ऑर्डर के बाकी तीनों महानायकों- सचिन, द्रविड़ और लक्ष्‍मण को भी ये राह चुननी होगी।

ये खबर कई मायनों में तकलीफदेह है। ये हमारे जेहन में वापसी करते सौरव गांगुली की छवि से मेल नहीं खाता। यह सौरव की वापसी से कम जुड़ती है। दो पक्षों के बीच रजामंदी के बाद एक फैसले को ज्‍यादा बयां करती है। अगर ये ‘समझौता’ है तो सवाल खड़ा करता है कि ये सौरव का खेल नहीं है, जो उन्‍हें टीम में जग‍ह दिला रहा है। ये सौरव का भारतीय क्रिकेट में बीता कल है, भारतीय क्रिकेट के लिए हासिल लम्‍हों की कीमत वसूलने जैसा है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि क्रिकेटर या किसी भी दूसरे महान खिलाड़ी को अलविदा कहनी है, तो ठीक उसी स्‍टेज से विदाई लेनी चाहिए, जहां उसने अपने खेल को परवान चढ़ाया। अपने खेल से उभार लेती कहानियों को मिथकों में तब्‍दील कर दिया है। लेकिन, ये जरूरी है कि ये उस खिलाड़ी का शिखर होना चाहिए। पाकिस्‍तान ने भी इंजमाम को विदाई के लिए ऐसा ही मौका दिया था। लेकिन, उस वक्‍त भी इंजमाम अपने बेहतरीन फॉर्म में थे। लेकिन, जिस सौरव गांगुली को टीम में बरकरार रखा गया है, वह शिखर पर नहीं हैं। वरना क्‍या वजह है कि पिछली चयन समिति के अध्‍यक्ष दिलीप वेंगसरकर ने ईरानी ट्रॉफी में उन्‍हें जगह न देने की वजह उनकी खराब फिटनेस और फॉर्म को बताया था। गौरतलब है कि ये वही वचेंगसरकर हैं, जिन्‍होंने सौरव की टीम में वापसी के रास्‍ते खोले थे।

फिर ये ‘समझौता’ चयन समिति के फैसलों को भी सवालों के कटघरे में ला खड़ा करता है। आप वर्ल्‍ड चैंपियपन ऑस्‍ट्रेलिया के खिलाफ उतर रहे हैं। एक ऐसी टीम, जो मैदान में खेल के साथ-साथ मनोवैज्ञानिक दबाव बनाकर जीत तक पहुंचने की हर मुमकिन कोशिश करती है। इतने कड़े मुकाबले में आप अपने टीम कॉम्बिनेशन में एक भी जगह के लिए समझौता करने की कैसे सोच सकते हैं। या तो आप ये कहें कि सौरव टीम में जगह के बराबर हकदार हैं या दो टूक कहें कि टीम में उनकी जगह नहीं बनती। इससे हटकर आप कोई दूसरी दलील दे ही नहीं सकते।

सौरव को टीम में बरकरार रखने में कोई हर्ज नहीं है। सवाल है तो सोच का, जो ना सिर्फ चयन समिति के फैसलों पर सवालिया निशान खड़ा करती है, बल्कि ये भारतीय इस महानायक की शख्सियत पर भी चोट करती है। बेशक, सौरव अब हल्‍के बल्‍ले से अपने स्‍ट्रोक की टाइमिंग को दुरुस्‍त करने में जुट गए हैं, लेकिन अब उनके बल्‍ले से निकलते हर रन से इस समझौते की गूंज सुनाई देगी। आलोचक इस समझौते की कडियां खोलने में जुट जाएंगे। सौरव अगर अपनी पहचान के मुताबिक अपने खेल को नई ऊंचाइयों पर ले जाकर अलविदा भी कहेंगे तो भी इस ‘समझौते’ की टीस से ना तो सौरव मुक्‍त हो पाएंगे, न ही हम और आप जैसे सौरव के चाहने वाले।