बीते शुक्रवार की बात है। मेरे एक मित्र ने मुझसे क्रिकेट पर एक नयी किताब के विमोचन पर चलने का आग्रह किया। जमशेदपुर के एक नौजवान लेखक और फिलहाल मुंबई में स्क्रिप्ट राइटिंग से जुड़े तुहिन सिन्हा की किताब 22 यार्ड्स। मैं जब तक सोचता, उसने कहा-वहां टॉम ऑल्टर होंगे,मिलोगे? इस एक नाम ने मेरे असमंजस को एक झटके में तोड़ दिया। टॉम ऑल्टर! जरुर मिलना चाहिए।
टॉम ऑल्टर ! बॉलीवुड के दीवानों के लिए सिनेमा के पर्दे पर ब्रिटिश हुकूमत के दौर के किरदारों को निभाता एक अभिनेता । अगर आप ज्यादा गहराई से बॉलीवुड से जुड़े हैं तो आप उनकी छवि को इस दायरे से बाहर ले जाकर कभी पादरी, कभी प्रोफेसर के रूप में भी देख चुके होंगे। प्रादेशिक सिनेमा में भी टॉम ने अपनी छाप छोड़ी है। करीब चार दशक से रंगमंच से भी जुड़े हैं टॉम ऑल्टर। रंगमंच के शौकीन लोगों के जेहन में मौलाना अबुल कलाम आजाद से लेकर मिर्जा गालिब के चरित्र उभार ले सकते हैं। मेरे लिए भी टॉम ऑल्टर की एक पहचान बॉलीवुड से लेकर रंगमंच तक जरुर है। लेकिन, इससे भी पहले टॉम ऑल्टर मेरे लिए कलम के जरिए शिद्दत से खेलों की एक अलहदा तस्वीर को उकेरते लेखक हैं।
अस्सी के दशक को याद कीजिए। कपिल की अगुवाई में भारत की वर्ल्ड कप जीत। गावस्कर की कप्तानी में बेंसन हेजेस। चैंपियंस ऑफ चैंपियन रवि शास्त्री। दस हजार रनों के शिखर पर काबिज होते गावस्कर। अपने करिश्मों से क्रिकेट की दुनिया को बदलते इन भारतीय महानायकों के किस्सों से भरा है ये दशक। लेकिन, ये दशक स्प्रिंट क्वीन पी टी ऊषा का भी है। ये दशक भारतीय तैराकी की सबसे बड़ी जलपरी अनीता सूद का भी है। टॉम ऑल्टर ने भारतीय खेलों के इस यादगार दशक में मेरी तरह कितने ही खेल के चाहने वालों को स्पोर्ट्स वीक पत्रिका के जरिए अपनी कलम से क्रिकेट के दायरे के बाहर खड़े इन चेहरों से रुबरु कराया। ट्रैक से लेकर पूल तक समय के दायरे से बाहर जाकर इनकी कोशिशों को यादगार कहानियों में तब्दील किया।
शुक्रवार को मैंने टॉम ऑल्टर से शुरुआती परिचय के बाद सीधे इन्हीं कहानियों की बात छेड़ी। इस ढलती उम्र में भी खेलों को लेकर उनका जुनून सामने था। “मेरे वो लेख याद हैं आपको। दिलचस्प है कि मेरे वो 14 लेखों की उस सीरिज में एक भी क्रिकेटर नहीं था।” टॉम ऑल्टर ये कहते-कहते जाहिर कर रहे थे कि उनके लिए खेलों का दायरा कितना विस्तार लिए है। बेशक वो, क्रिकेट की स्टेज पर सचिन तेंदुलकर को एक ईश्वर की तरह देखते हैं। लेकिन, खेल के मैदान में वो हर खिलाड़ी की कोशिशों को एक ही पायदान पर ऱखते हैं।
55.42 सेकेंड। ये एक आंकडा हो सकता है। लेकिन, जब टॉम ऑल्टर कहते हैं कि 1984 में 400 मीटर हर्डल में पीटीऊषा हासिल किए अपने सर्वश्रेष्ठ समय से कैसे धीरे-धीरे दूर होती चली गईं तो महसूस होता है कि ये शख्स कितनी बारीकी से खेलों से जुड़ा है। गुजरते वक्त के बीच भी उसकी पकड़ कमजोर नहीं हुई है। अपनी इन्हीं कहानियों से जुड़ा उनका एक दिलचस्प नज़रिया भी सामने था। “इस देश में किसी भी खिलाड़ी के शिखर छूने में उसके परिवार, दोस्त और स्कूल की एक बड़ी भूमिका है। मेरी इन 14 कहानियों में सिर्फ अकेली अनीता सूद थी, जिसने अपने कोच को भी अपनी कामयाबियों में एक बड़ा अहम हिस्सा माना था। और मैं भी यह बात महसूस करता हूं कि परिवार, दोस्त और स्कूल किसी भी खिलाड़ी को गढ़ने में बड़ी भूमिका निभाते हैं।”
दरअसल, टॉम ऑल्टर से मुलाकात के बीच बराबर ये महसूस होता रहा कि ये शख्स खेलों को बाहर बैठकर देखता भर नहीं है, उसमें पूरा डूबकर उसे जीने की कोशिश करता है। शायद, इसलिए ये कहते हुए उनका गला भर उठता है कि “जिस दिन मैच फिक्सिंग का फैसला सुनाया गया, वो दिन मेरे लिए सबसे दुखद दिन था। मैं मेरीन ड्राइव से लौट रहा था और मुझे वानखेड़े की झुकी फ्लडलाइट बराबर अहसास करा रही थी, जैसे आज वो इस वाकये के बाद शर्मसार होकर इसे रोशन नहीं कर रही, बल्कि शर्म से झुकी गई हैं।“
खेल को ज़िंदगी से गहरे जोड़कर देखने का ही आइना है उनका ये कहना कि “आईपीएल इज द रिजल्ट ऑफ ग्रीड एंड रिवेन्ज (आईपीएल लालच और बदले का नतीजा है।)”। वो कहते हैं “अपनी निजी जिंदगी में भी अगर आप रिश्तों को पाक रखना चाहते हैं, तो आपको लालच और बदले की भावना को अलग रखना होगा।” क्रिकेट की खूबसूरती और उनके बीच के प्यार को आप महसूस कर सकते हैं।
लेकिन, इन निराशाओं के बीच आज भी उनकी आंखें ध्यानचंद और बलबीर का नाम सुनकर चमक उठती हैं। मैं और मेरा मित्र जिक्र करते हैं ट्रिपल ओलंपिक गोल्ड मेडलिस्ट- ध्यानचंद और बलबीर का। वो फौरन इसमें जोड़ते हैं- “अरे सर, आप क्लाडियस को भूल गए। चार ओलंपिक में तीन गोल्ड हैं उनके भी।” मैं 1995 के सैफ खेलों के दौरान गोविन्दा से हुई अपनी मुलाकात की चर्चा छेड़ता हूं तो वे बरबस बोल पड़ते हैं, “ व्हाट ए प्लेयर। याद है आपको। क्या खेलता था गोविन्दा। सिर पर हैडबैंड बांधकर। हमारा हीरो था वो।” मैं महसूस कर सकता था कि कितनी बारीक और पैनी निगाह के साथ-साथ खेल के हर लम्हों को उन्होंने संजो कर रखा है।
लेकिन, ये सिर्फ कल ही नहीं है, जो उन्हें रोमांचित करता है। अभिनव बिंद्रा की कामयाबी के वो कायल हैं, तो साइना नेहवाल उन्हें बैडमिंटन के कोर्ट पर सबसे बड़ी उम्मीद के रुप में दिखायी दे रही है। चीन ताइपे में खिताबी जीत हासिल करने से दो मैच पहले ही टॉम साइना की मेहनत और खेल पर अपनी राय रखते हुए कहते हैं, “ ये खिलाड़ी बहुत दूर तक जाएगी।”
मैं महसूस कर रहा था खेल की ताकत को। इससे एक बार अगर आप जुड़ गए तो फिर ज़िंदगी के सारे उतार-चढ़ाव आपको इसमें नए मायनों के साथ दिखायी देते हैं। टॉम ऑल्टर से मुलाकात के बीच भी यह बराबर महसूस होता रहा। फिल्म और रंगमंच के बीच खेलों को इतनी शिद्दत से जीना ही है, जो उन्हें कभी इससे दूर ले जा नहीं सकता।
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1 comment:
sanjay srivastava said
पढ़कर लगा टॉम आल्टर केवल फिल्म और रंगमंच को ही नहीं जीते बल्कि उतनी ही शिद्दत से खेल को भी जीते हैं. आपने बहुत बारीकी से उनके व्यक्तित्व के उस पहलू को दिखाया है, जिसके बारे मैं कम लोगों को मालूम होगा. खेल और जिंदगी से जुड़े सरोकारों को आप अपने जिस ख़ास अंदाज़ मे सामने ला रहे हैं, वो प्रशंसनीय है.
sanjay srivastava
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