पहाड़ों की खूबसूरत पृष्ठभूमि में पैडल में जी जान झोंकते साइक्लिस्ट। दिल को छूती वादियों में सपनीले रास्तों पर अपनी मंजिल की ओर बढ़ते साइक्लिस्ट। एक नयी ऊंचाई को अपने कदमों तले रौंद अपने ख्वाबों को साकार करते साइक्लिस्ट। हर एक नयी मंजिल पर अपने चाहने वालों की दीवानगी के बीच आगे बढ़ते साइक्लिस्ट। इंसान, मशीन और प्रकृति के बीच की रहस्यमयी कड़ियां जोड़ते साइक्लिस्ट। जिंदगी और ख्वाब को साइकिल के पैडलों तक सिमटाते साइक्लिस्ट। टूर डे फ्रांस। इंसानी हौसलों को चुनौती देता बेमिसाल मुकाबला टूर डे फ्रांस।
लेकिन, मेरे लिए ये मुकाबला इन पहलुओं में ही नहीं सिमटा है। मैं और शायद मेरी तरह फ्रांस की इन वादियों से सैकड़ों मील दूर टेलीविजन सैट पर इसे निहारने वाला हर खेल चहेता इन सबके बीच लगातार एक शख्स को देखते देखते ही इसकी दीवानगी में डूब गया। एक ऐसी शख्सियत, जिसे न ये दुरुह रास्ते शिकस्त दे पाए और न ही कोई विरोधी। इस शख्स ने मौत को मात देकर जीत की नयी इबारत लिखी। इसका कहना है कि मैं जिंदगी में कभी हार नहीं मानता । मैं सब कुछ जीतना चाहता हूं और उसने सब कुछ जीता है।
लांस आर्मस्ट्रांग। मैं लांस आर्मस्ट्रांग की बात कर रहा हूं। कैंसर पर जीत दर्ज कर टूर डे फ्रांस मे एक या दो बार नहीं बल्कि सात बार 3500 किलोमीटर से ज्यादा का फासला तय किया-एक चैंपियन की हैसियत से। 1999 से 2005 के बीच कोई लांस को चुनौती नहीं दे सका। इंसानी जज्बों और हौसलों की एक मिसाल बनकर हम सबके सामने खड़े हैं लांस आर्मस्ट्रांग।
लेकिन, तीन साल बाद वो फिर इन ऊंचाईयों को छूना चाहते हैं। 38 साल की उम्र में वो खेलों के इस सबसे बेहतरीन मुकाबले में खिताब छूने का ख्वाब संजो रहे हैं। ये जानते हुए कि 36 साल की उम्र के बाद कोई साइक्लिस्ट इस शिखर को नहीं छू पाया। 1922 में फिरमिल लाम्बोर्ट इस मंजिल तक पहुंचे थे। आर्मस्ट्रांग खुद कहते रहे हैं कि एक उम्र के बाद पैडल आपको ऊपर नहीं, नीचे ले जाते हैं।
शिखर से नीचे आते आर्मस्ट्रांग को कोई देखना नहीं चाहता। अगर वो इस नयी मंजिल से एक कदम भी चूके तो उनको लेकर बना मिथक दरक सकता है। मिथक को दरकना नहीं चाहिए। लेजेंड की खूबसूरती तो इसी में हैं कि वो अपने करिश्मों से अपने आसपास कहानियों का जाल बुनता है। कहानियां किवदंतियों में बदलती हैं,और किवदंतियां चमत्कारों में। आप देखते ही देखते एक शिखर पर काबिज हो जाते हैं। महानायक एक लेजेंड में तब्दील हो जाते हैं। एक मिथक बन जाते हैं। लेकिन, इस मिथक को बरकरार रखने की जिम्मेदारी अब इस खिलाड़ी की ही होती है। उसे तय करना होता है कि कब उसे अपने शिखर से अलग होना है। कुछ इस तरह का तिलिस्म का जाल बुनते हुए कि उसकी आभा हर गुजरते वक्त, हर दौर में नए बनते मिथकों, महानायकों के बीच भी बरकरार रहे।
इसीलिए, सवाल जेहन में कौध रहा है कि आर्मस्ट्रांग क्या इस मिथक को दरकने से बचा पाएंगे? आखिर वापसी की कोशिशें करते हमने ब्योर्न बोर्ग को देखा, जॉर्ज फॉरमैन को देखा, मार्क स्पिट्ज और बॉबी फिशर को भी देखा। बोर्ग अमेरिकी ओपन हारने के साथ ही टेनिस से अलग हो गए। आठ साल बाद लौटे तो बूम बूम टेनिस के दौर में खारिज हो गए। जो फ्रेजियर को हराकर 70 के दशक में वर्ल्ड हैवीवेट का खिताब जीतने वाले जॉर्ज फॉरमैन ने दो दशक के बाद रिंग में वापसी की तो माइकल मूर को शिकस्त दी। लेकिन, वर्ल्ड चैंपियन की गूंज इन मुक्कों में सुनायी नहीं दी। म्यूनिख में सात ओलंपिक गोल्ड हासिल करने वाले स्पिट्ज ने दो दशक बाद बार्सिलोना ओलंपिक में जगह बनाने के लिए पूल मे छलांग लगाई। लेकिन,वो बार्सिलोना का सफर तक पूरा नहीं कर पाए। क्वालीफाई मुकाबले में ही उनकी चुनौती दम तोड़ गई। 1972 में शीत युद्ध के दौर में स्पास्की को शिकस्त देकर सोवियत संघ के गढ़ को भेदने वाले अमेरिकी बॉब फिशर एक लेंजेंड में तब्दील हो गए। लेकिन दो दशक बाद गुमनामी से लौटकर वो इसी बिसात पर स्पास्की के सामने फिर बैठे तो उनकी चालें बदलते वक्त में बहुत पीछे छूट गईं। इस हद तक कि तत्कालीन वर्ल्ड चैंपियन गैरी कास्पोरोव को ये कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं हुई कि हमारे बीच कोई मुकाबला ही नहीं हो सकता। यानी बोर्ग से लेकर जॉर्ज फॉरमैन और स्पिट्ज से लेकर फिशर तक– ये सब लेंजेंड हैं, और रहेंगे लेकिन वापसी की इनकी सोच ने इनके लेजेंड पर एक चोट तो की ही। कम से कम उन खेल दीवानों के जेहन में, जिन्होंने किवदंतियों में गढ़ते हुए इन्हें काल और समय की सीमाओं से बाहर पायदान पर जगह दी।
तो फिर, आर्मस्ट्रांग क्यों लौटना चाहते हैं। बेशक, वो कहें कि वो सिर्फ जीतना चाहते हैं। लेकिन, इन्हीं आर्मस्ट्रांग ने कभी कहा था कि पैडल आपको शिखर की ओर नहीं ले जाते। अगर पैडल आपको नीचे ढकेलते हैं,तो वो फिर क्यों ये जोखिम ले रहे हैं। आर्मस्ट्रांग की मानें तो वो कैंसर की रोकथाम के प्रचार को मकसद बनाकर एक बार फिर टूर डे फ्रांस में उतरना चाहते हैं। ये भी हो सकता है कि अपने सुनहरे करियर पर पड़े डोपिंग के छींटों से उबरने की चाह उन्हें इस नयी जंग के लिए मजबूर कर रही हो। ऐसा भी कहा जा रहा है कि वो शायद भविष्य में राजनीति मे उतरना चाहते हैं। टैक्सास के गवर्नर की कुर्सी का ख्वाब वो संजो रहे हैं।
वजह जो भी हो। अगर आर्मस्ट्रांग जीत से एक कदम भी पीछे रहे तो उनकी हासिल उपलब्धियों पर एक सवाल की छाया जरुर मंडराने लगेगी। हम विजयी आर्मस्ट्रांग को देखने के आदी हो चुके हैं। अगर आप मुकाबले में उतरेंगे तो आपसे सिर्फ हिस्सेदारी की उम्मीद नहीं होगी। उम्मीद होगी तो सिर्फ जीत और जीत की। अपने से जुड़े मिथक को ताउम्र इसी मजबूती से बरकरार रखना है तो आपको अजेय रहना होगा। एक शिकस्त आपको लेकर बने मिथक पर चोट कर सकती है।
आर्मस्ट्रांग आप खुद को साबित करने से आगे निकल चुके हैं। हार आपके साथ जुड़ नहीं सकती। जुड़नी भी नहीं चाहिए। आखिर, जीत का दूसरा नाम लांस आर्मस्ट्रांग भी है। टूर डे फ्रांस ने यही संदेश बार बार दिया है। हम विजयी आर्मस्ट्रांग के मिथक के साथ जीना चाहते हैं।
लेकिन, मेरे लिए ये मुकाबला इन पहलुओं में ही नहीं सिमटा है। मैं और शायद मेरी तरह फ्रांस की इन वादियों से सैकड़ों मील दूर टेलीविजन सैट पर इसे निहारने वाला हर खेल चहेता इन सबके बीच लगातार एक शख्स को देखते देखते ही इसकी दीवानगी में डूब गया। एक ऐसी शख्सियत, जिसे न ये दुरुह रास्ते शिकस्त दे पाए और न ही कोई विरोधी। इस शख्स ने मौत को मात देकर जीत की नयी इबारत लिखी। इसका कहना है कि मैं जिंदगी में कभी हार नहीं मानता । मैं सब कुछ जीतना चाहता हूं और उसने सब कुछ जीता है।
लांस आर्मस्ट्रांग। मैं लांस आर्मस्ट्रांग की बात कर रहा हूं। कैंसर पर जीत दर्ज कर टूर डे फ्रांस मे एक या दो बार नहीं बल्कि सात बार 3500 किलोमीटर से ज्यादा का फासला तय किया-एक चैंपियन की हैसियत से। 1999 से 2005 के बीच कोई लांस को चुनौती नहीं दे सका। इंसानी जज्बों और हौसलों की एक मिसाल बनकर हम सबके सामने खड़े हैं लांस आर्मस्ट्रांग।
लेकिन, तीन साल बाद वो फिर इन ऊंचाईयों को छूना चाहते हैं। 38 साल की उम्र में वो खेलों के इस सबसे बेहतरीन मुकाबले में खिताब छूने का ख्वाब संजो रहे हैं। ये जानते हुए कि 36 साल की उम्र के बाद कोई साइक्लिस्ट इस शिखर को नहीं छू पाया। 1922 में फिरमिल लाम्बोर्ट इस मंजिल तक पहुंचे थे। आर्मस्ट्रांग खुद कहते रहे हैं कि एक उम्र के बाद पैडल आपको ऊपर नहीं, नीचे ले जाते हैं।
शिखर से नीचे आते आर्मस्ट्रांग को कोई देखना नहीं चाहता। अगर वो इस नयी मंजिल से एक कदम भी चूके तो उनको लेकर बना मिथक दरक सकता है। मिथक को दरकना नहीं चाहिए। लेजेंड की खूबसूरती तो इसी में हैं कि वो अपने करिश्मों से अपने आसपास कहानियों का जाल बुनता है। कहानियां किवदंतियों में बदलती हैं,और किवदंतियां चमत्कारों में। आप देखते ही देखते एक शिखर पर काबिज हो जाते हैं। महानायक एक लेजेंड में तब्दील हो जाते हैं। एक मिथक बन जाते हैं। लेकिन, इस मिथक को बरकरार रखने की जिम्मेदारी अब इस खिलाड़ी की ही होती है। उसे तय करना होता है कि कब उसे अपने शिखर से अलग होना है। कुछ इस तरह का तिलिस्म का जाल बुनते हुए कि उसकी आभा हर गुजरते वक्त, हर दौर में नए बनते मिथकों, महानायकों के बीच भी बरकरार रहे।
इसीलिए, सवाल जेहन में कौध रहा है कि आर्मस्ट्रांग क्या इस मिथक को दरकने से बचा पाएंगे? आखिर वापसी की कोशिशें करते हमने ब्योर्न बोर्ग को देखा, जॉर्ज फॉरमैन को देखा, मार्क स्पिट्ज और बॉबी फिशर को भी देखा। बोर्ग अमेरिकी ओपन हारने के साथ ही टेनिस से अलग हो गए। आठ साल बाद लौटे तो बूम बूम टेनिस के दौर में खारिज हो गए। जो फ्रेजियर को हराकर 70 के दशक में वर्ल्ड हैवीवेट का खिताब जीतने वाले जॉर्ज फॉरमैन ने दो दशक के बाद रिंग में वापसी की तो माइकल मूर को शिकस्त दी। लेकिन, वर्ल्ड चैंपियन की गूंज इन मुक्कों में सुनायी नहीं दी। म्यूनिख में सात ओलंपिक गोल्ड हासिल करने वाले स्पिट्ज ने दो दशक बाद बार्सिलोना ओलंपिक में जगह बनाने के लिए पूल मे छलांग लगाई। लेकिन,वो बार्सिलोना का सफर तक पूरा नहीं कर पाए। क्वालीफाई मुकाबले में ही उनकी चुनौती दम तोड़ गई। 1972 में शीत युद्ध के दौर में स्पास्की को शिकस्त देकर सोवियत संघ के गढ़ को भेदने वाले अमेरिकी बॉब फिशर एक लेंजेंड में तब्दील हो गए। लेकिन दो दशक बाद गुमनामी से लौटकर वो इसी बिसात पर स्पास्की के सामने फिर बैठे तो उनकी चालें बदलते वक्त में बहुत पीछे छूट गईं। इस हद तक कि तत्कालीन वर्ल्ड चैंपियन गैरी कास्पोरोव को ये कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं हुई कि हमारे बीच कोई मुकाबला ही नहीं हो सकता। यानी बोर्ग से लेकर जॉर्ज फॉरमैन और स्पिट्ज से लेकर फिशर तक– ये सब लेंजेंड हैं, और रहेंगे लेकिन वापसी की इनकी सोच ने इनके लेजेंड पर एक चोट तो की ही। कम से कम उन खेल दीवानों के जेहन में, जिन्होंने किवदंतियों में गढ़ते हुए इन्हें काल और समय की सीमाओं से बाहर पायदान पर जगह दी।
तो फिर, आर्मस्ट्रांग क्यों लौटना चाहते हैं। बेशक, वो कहें कि वो सिर्फ जीतना चाहते हैं। लेकिन, इन्हीं आर्मस्ट्रांग ने कभी कहा था कि पैडल आपको शिखर की ओर नहीं ले जाते। अगर पैडल आपको नीचे ढकेलते हैं,तो वो फिर क्यों ये जोखिम ले रहे हैं। आर्मस्ट्रांग की मानें तो वो कैंसर की रोकथाम के प्रचार को मकसद बनाकर एक बार फिर टूर डे फ्रांस में उतरना चाहते हैं। ये भी हो सकता है कि अपने सुनहरे करियर पर पड़े डोपिंग के छींटों से उबरने की चाह उन्हें इस नयी जंग के लिए मजबूर कर रही हो। ऐसा भी कहा जा रहा है कि वो शायद भविष्य में राजनीति मे उतरना चाहते हैं। टैक्सास के गवर्नर की कुर्सी का ख्वाब वो संजो रहे हैं।
वजह जो भी हो। अगर आर्मस्ट्रांग जीत से एक कदम भी पीछे रहे तो उनकी हासिल उपलब्धियों पर एक सवाल की छाया जरुर मंडराने लगेगी। हम विजयी आर्मस्ट्रांग को देखने के आदी हो चुके हैं। अगर आप मुकाबले में उतरेंगे तो आपसे सिर्फ हिस्सेदारी की उम्मीद नहीं होगी। उम्मीद होगी तो सिर्फ जीत और जीत की। अपने से जुड़े मिथक को ताउम्र इसी मजबूती से बरकरार रखना है तो आपको अजेय रहना होगा। एक शिकस्त आपको लेकर बने मिथक पर चोट कर सकती है।
आर्मस्ट्रांग आप खुद को साबित करने से आगे निकल चुके हैं। हार आपके साथ जुड़ नहीं सकती। जुड़नी भी नहीं चाहिए। आखिर, जीत का दूसरा नाम लांस आर्मस्ट्रांग भी है। टूर डे फ्रांस ने यही संदेश बार बार दिया है। हम विजयी आर्मस्ट्रांग के मिथक के साथ जीना चाहते हैं।
1 comment:
लांस आर्मस्ट्रांग ने अगर कहा है कि मैं कैंसर के खिलाफ एक संदेश देने के लिए अपनी विश्वविजयी साईकिल के साथ उतर रहा हूं तो इस पर शक करने का कोई कारण नहीं बनता..दरअसल आर्मस्ट्रांग के लीजेंड बनने में कैंसर का भी एक रोल तो है ही।लेकिन आर्मस्ट्रांग की सफाई से बाहर उन खिलाड़ियों के नामों पर सोचा जाय जिनका जिक्र इस लेख में है और जो दोबारा खेल के मैदान पर लौटे..इन खिलाड़ियों के पास भी मैदान पर लौटने का कोई ना कोई तर्क होगा ही..मूल बात खिलाड़ियों के तर्क से अलग उनका मैदान पर लौटना है।कभी कभी ये लगता है कि खिलाड़ी वक्त के किसी खास मुकाम पर अपने खेल में सर्वश्रेष्ठ हो तो उसके भीतर ये वहम बैठ जाता है कि उसकी श्रेष्ठता सार्वकालिक श्रेष्ठता है..कहीं गहरे में उसके भीतर यह विचार बैठा हो सकता है कि मैं ,वक्त चाहे जो भी हो,अपराजेय था और हूं।यह एक बुनियादी गलती है-खेल के मैदान पर भी और जिन्दगी के बाकी मैदानों पर भी।मैं कोई सापेक्षतावाद का तर्क इस्तेमाल नहीं कर रहा-मगर जोर देकर कहना चाहता हूं कि सार्वकालिक श्रेष्ठता जैसी कोई चीज होती नहीं।इतिहास अपने को दोहराने लगे तो इतिहास ना हो अनवरत चलने वाला वर्तमान ही बना रहे।याद आती है कृष्ण और अर्जुन से जुड़ी कथा।अपने अचूक तीरों से महाभारत जीतने वाले अर्जुन को कृष्ण ने भेजा गोप-बालाओं की मुक्ति के लिए।देहात में इस घटना के समाहार पर कहा जाता है--अर्जुन के तीर चूक गए-छिन छिन लुटत गोपियां वही अर्जुन वही बान।खुद इंद्र से होड़ लेने और कंस को मारने वाले कृष्ण आखिर को एक व्याध के तीर का शिकार हुए।अब भले ही यह एक कथा हो लेकिन बड़ी साफगोई से कहती है कि सार्वकालिक श्रैष्ठता का दावा तो भगवान का भी नहीं होता(कम से कम हिन्दू मानस में)।
मुझे ध्यानचंद पर केंद्रित लेख में कही गई आपकी बात ज्यादा जंचती है कि कोई भी मूव दोहराया नहीं जा सकता-चाहे खेल के मैदान पर हो या जिन्दगी के मैदान पर..आर्मस्ट्रांग बड़े सम्मानित हैं..और उनके सम्मान की शोभा यही होगी कि वे साईकिल कैंसर के लिए जागरुकता फैलाने और गरीब मरीजों के उपचार के लिए चंदा उगाहने के लिए चलाएं..ना कि मुकाबले में उतरकर एक बार फिर अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए।
खिलाड़ी की दुविधाओं को पकड़ता एक उत्तम लेख..
चंदन श्रीवास्तव
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