बर्मिंघम का एजबेस्टन मैदान। 1999 के वर्ल्ड कप का सेमीफाइनल। दक्षिण अफ्रीका और आस्ट्रेलिया के बीच मुकाबला आखिरी कुछ गेंदों में सिमटा है। दक्षिण अफ्रीका को जीत के लिए 31 गेंदों पर 39 रन चाहिए। आस्ट्रेलिया की मजबूत फील्डिंग और सटीक गेंदबाजी के बीच ये एक मुश्किल काम है। लेकिन, लांस क्लूजनर अगर विकेट पर मौजूद हों तो नामुमकिन कुछ भी नहीं। इंग्लैंड में खेले जा रहे इस वर्ल्ड कप में क्लूजनर के बल्ले की ताकत और प्रहार की मार करीब करीब हर गेंदबाज झेल चुका है। यहां भी क्लूजनर के इरादे नहीं डगमगाते। 14 गेंदों में 31 ताबड़तोड़ रन।
अब दक्षिण अफ्रीका को पहली बार वर्ल्ड कप के फाइनल में जगह बनाने के लिए महज एक रन चाहिए। चार गेंद बाकी है। डेमियन फ्लेमिंग मुकाबले के आखिरी ओवर की तीसरी गेंद फेंकते हैं। क्लूजनर कोई रन नहीं लेते। चौथी गेंद को पुश कर वो पूरे उल्लास में एक विजयी दौड़ लगाते हैं। लेकिन, दूसरे छोर पर मौजूद एलन डोनाल्ड अपनी जगह पर खड़े रह जाते हैं। क्लूजनर को अपनी ओर बढ़ते देख वो जब तक विकेट कीपिंग एंड की ओर दौड़ लगाएं, गिलक्रिस्ट गिल्लियां उड़ा चुके हैं। मुकाबला टाई हो चुका है। पहले मुकाबले में मिली हार के चलते दक्षिण अफ्रीका एक बार फिर फाइनल में जगह बनाने से चूक गया। आस्ट्रेलिया वर्ल्ड कप के अब तक के सबसे रोमांचक मुकाबले में चौथी बार फाइनल में पहुंच जाता है।
आप सोच रहे होंगे आखिर मैं क्यों इतिहास के पन्ने पलटने लगा। मैं इसकी वजह पर आता हूं। लेकिन पहले हम 1981 में लौटते हैं। आस्ट्रेलिया का मेलबर्न क्रिकेट ग्राउंड। बेंसन हेसेज कप का मुकाबला। न्यूजीलैंड को आस्ट्रेलिया से इस मुकाबले में बराबरी के लिए आखिरी गेंद पर छह रन चाहिए। कप्तान ग्रैग चैपल अपने गेंदबाज भाई ट्रेवर चैपल को हिदायत देते हैं। ट्रेवर मैच की आखिरी गेंद अंडर आर्म फेंकते हैं। हाथ को ज़मीन से सटाते हुए बल्लेबाज ब्रायन मैकेंजी की ओर गेंद बढ़ाते हैं। नतीजतन आस्ट्रेलिया मैच जीत जाता है। दूसरे छोर पर बेहतरीन 102 रन बनाकर ब्रूस एडगर हैरान हैं। पूरा मेलबर्न क्रिकेट मैदान अपने ही हीरो ग्रैग चैपल को सवालों में खड़ा कर रहा है। लेकिन ग्रैग को कोई रंज नहीं। बेशक, खेल भावना आज आहत हुई हो लेकिन उन्होंने क्रिकेट के कायदों में रहकर जीत हासिल की है।
ये आस्ट्रेलियाई क्रिकेट के दो लम्हे हैं। जीत तक पहुंचने के दो लम्हे। अब शायद अहसास कर रहे होंगे कि मैं बीते कल के इन पन्नों को क्यों पलटने लगा। मैं आस्ट्रेलियाई क्रिकेट और उनकी सोच से बावस्ता कराने की कोशिश कर रहा हूं। एक टीम,जो जीत के लिए आखिरी गेंद,आखिरी क्षणों तक कोशिश करती है। एक टीम,जिसके लिए जीत ही खेल की परिपूर्णता है। कभी खेल को उसके सबसे रोमांचक, सबसे बेहतरीन पल देते हुए। कभी खेल के दायरे में ही जीत तक पहुंचते हुए एक अंतहीन बहस को छेड़ते हुए। लेकिन खेल है तो जीत है, इस मंत्र के साथ उसका हर खिलाड़ी मैदान पर हर लम्हे को शिद्दत से जीत के लम्हे में तब्दील करने की कोशिश में जुटा दिखता है।
क्रिकेट या खेल की सोच के बीच कल तक टीम इंडिया के गुरु ग्रैग चैपल का आस्ट्रेलियाई क्रिकेट टीम से टैक्नीकल डायरेक्टर की हैसियत से जुडना बेशक कइयों के गले नहीं उतरता हो। लेकिन,मेरे लिए वो एक टीम के लिए जीत की जीतोड़ कोशिशों को बयां करता है। ये जानते हुए कि पोंटिंग की इस टीम में सिर्फ चार खिलाड़ी ही भारत की जमी पर इससे पहले टेस्ट खेले हैं। मैक्ग्रा और वार्न की विदाई के बाद पोंटिंग की ये मौजूदा टीम एक बदलाव के दौर से गुजर रही है। ऐसे में,ये टीम ग्रैग चैपल की भारतीय क्रिकेट में कोच की हैसियत से बनाई पकड़ का हर फायदा उठाने की कोशिश में है। ब्रेटली बेहिचक स्वीकार करते हैं-"हम ग्रैग से हर मुमकिन जानकारी का लाभ उठाएंगे। भारत के पूर्व कोच होने के नाते ही वो हमारे साथ है। हमारी टीम के एक अहम सदस्य के नाते।" साफ है कि ये आस्ट्रेलियाई टीम में उभर रही कमियों को ग्रैग के जरिए भरने की कोशिश है।
इसी कड़ी में आप श्रीलंका टीम के मौजूदा कोच बेलिस के बयां पर नज़र डालिए-"क्रेटजा अजंता मेंडिस की तरह भारतीय बल्लेबाजों पर खौफ बरपा सकते हैं।"हम और आप अभी तक क्रेटजा को नहीं जानते। बहुतों को वक्त लग जाएगा ये जानने में भी कि क्रेटजा स्पिनर हैं या पेसर। अगर आप क्रिकेट पर बेहद करीबी नजर रखते हैं तो आप उन्हें वेस्टइंडीज गए स्पिनर केसन की जगज टीम में शामिल किए गए स्पिनर के तौर पर देख सकते हैं। लेकिन बेलिस ने ये बयां देकर भारतीय बल्लेबाजों पर एक मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने की कोशिश की है। कभी विक्टोरिया में उनके कोच रहे बेलिस के मुताबिक क्रेटजा भी मेंडिस की तरह गेंद को टर्न करा सकते हैं। साफ है आस्ट्रेलियाई क्रिकेट में ये भारत पर एक चौतरफा वार है। मैदान में जंग की शुरुआत से पहले मैदान के बाहर एक मनोवैज्ञानिक लड़ाई। लेकिन,ये नयी सोच नहीं है। 2001 में लास्ट फ्रंटियर फतेह करने आए स्टीव वॉ और उनके साथी भी अपने बयानों से माहौल को गरमा रहे थे लेकिन इरादा सिर्फ एक था-जीत।
दरअसल,ये आस्ट्रेलियाई सोच है। मैदान पर हर हाल में बेहतर रहने की सोच। मुश्किल से मुश्किल मोड़ पर मुकाबले को अपनी ओर मोड़ने की ताकत देती सोच। आस्ट्रेलिया का मानना रहा है कि आप अपनी मानसिक सोच को जितना बेहतर करोगे, आपका स्किल उतना ही निखार लेगा। आस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों को ये कहा जाता है-एथलीट जिस तरह सोचते हैं,नाजुक मौकों पर फैसला लेते हैं,वो ही आखिर में हार और जीत को तय करता है। खेलों की दुनिया भी इसे महसूस कर चुकी है।
ये आस्ट्रेलियाई सोच अंतरराष्ट्रीय मंच पर ही नहीं,उनके घरेलू ढांचे में हर जगह मौजूद है। रग्बी में केंटबरी बलडॉग टीम के बारे में पढ़िए। साफ हो जाएगा कैसे जीत की इसी सोच के साथ वो लीग में चोटी पर रहे। इसी सोच के साथ वहां बी ग्रेड के खिलाड़ियों को ए ग्रेड में तब्दील करने की कोशिश होती है,और ए ग्रेड के खिलाड़ियों को वर्ल्ड चैंपियन में तब्दील किया जाता है। इस आस्ट्रेलियाई सोच को बाकी दुनिया भी सलाम करती है। क्रिकेट की दुनिया में आईपीएल पर नजर डालें तो आधी टीमों के कोच आस्ट्रेलियाई थे। इतना ही नहीं,क्रिकेट की बाकी दुनिया में अगर बेलिस श्रीलंका के कोच हैं,तो लॉसन ने पाकिस्तान की कमान संभाली है। डेव व्हाटमोर भारत की ए टीम पर निगाह रखते हैं। ये सब स्किल और तकनीक से पहले टीम में बेहद बारीकी से जीत का जज्बा भरते हैं।
आस्ट्रेलिया की इसी सोच को अमेरिका इंस्टीट्यूट ऑफ लर्निंग एंड कॉगनिटिव डवलपमेंट ने गोल्फ के खिलाड़ी पर प्रयोग किया तो गोल्फर ने 12 स्ट्रोक पहले ही अपनी मजिल हासिल कर ली। जबकि,स्किल में वो बाकी खिलाड़ियों से पीछे था। इसी आस्ट्रेलियाई सोच को क्रिकेट और खेल के दायरे से बाहर भी आजमाया गया है। दरअसल,आस्ट्रेलिया में खेल ज़िंदगी जीने के तरीके में तब्दील हो चुका है। इस हद तक कि हर दूसरा आस्ट्रेलियाई कई खेलों में अपनी मंजिल खोजता है,और जिस खेल में उसे ऊंचाई पाने की उम्मीद नज़र आती है,उसे वो अपना लेता है।और पीछे मुड़ कर नहीं दिखता। आस्ट्रेलियाई हॉकी में लेजेंड रिक चार्ल्सवर्थ को देखिए। 1976 के मोट्रियल ओलंपिक के बाद वो दक्षिण आस्ट्रेलिया के लिए क्रिकेट खेल रहे थे। इस हद तक कि पैकर के झटकों से उबरने की कोशिश कर रही आस्ट्रेलियाई क्रिकेट टीम में उनका नाम भी शामिल करने की चर्चा छिड़ने लगी थी। लेकिन,चार्ल्सवर्थ ने हॉकी को आजमाया और चार ओलंपिक मे शिरकत करने के साथ साथ अपनी कप्तानी में 1986 का वर्ल्ड कप भी जीता।
आस्ट्रेलियाई में खेल समाज और संस्कृति को जोड़ने में एक जरिया बन चुका है। खेल समाज के अलग अलग तबकों को जोड़ रहा है। वो बाकी दुनिया में आस्ट्रेलिया की पहचान के तौर पर सबके सामने आता है। आखिरी क्षणों तक जीत की कोशिशों में जुटे आस्ट्रेलियाई की तस्वीर को पेश करता है। और इस सोच को वो कतई कमज़ोर पड़ने नहीं देना चाहता। इसके लिए वो हर उस शख्स को अपने से जोड़ता है,जो उसे इस सोच में एक पायदान और ऊपर खड़ा कर सके। यही वजह है कि महज सात फर्स्ट क्लास खेलने वाले जॉन बुकानन लेजेंड से भरपूर आस्ट्रेलियाई क्रिकेट में एक बेमिसाल कोच की तरह उभार लेते हैं। लगातार 16 टेस्ट मैच जिताकर एक नया इतिहास रचते हैं। टीम को तीन बार लगातार वर्ल्ड चैंपियन के पायदान पर ला खड़ा करते हैं। इन सबके बीच ग्रैग चैपल का टीम से जुड़ने या बेलिस के बयान के मायने आप समझ सकते हैं। इस पर हैरानी नहीं होनी चाहिए। ये आस्ट्रेलियाई सोच है,जो सिर्फ जीत तक पहुंचना ही नहीं जानती। वो जीत के शिखर पर बरकरार रहने की राह भी दिखाती है।
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