क्या आपने कभी गोपाल भैंगरा का नाम सुना है? डुंगडुंग नाम का कोई हॉकी खिलाड़ी ओलंपिक तक पहुंचा है,ये आपको मालूम है?आप माखन सिंह के बारे में जानते हैं शायद नहीं।नामों को याद रखना जितना व्यक्तितगत स्मृति पर निर्भर करता है उतना ही उस सामूहिक प्रयत्न पर जो इतिहास लिखने के लिए जिम्मेदार होता है। अगर ये नाम आपको याद नहीं तो दोष उस सामूहिक प्रयत्न का है जो कुछ नामों को जरुरी मानकर बार बार याद कराती है,कुछ को हमेशा के लिए भुला देती है।
खिलाडियों की फेहरिस्त में ये नाम भी शामिल हैं। आइए,इनसे इनका पता पूछें। गोपाल भैंगरा 1978 के ब्यूनर्स आयर्स के हॉकी वर्ल्ड कप में भारत के लिए मैदान में उतरे थे। इससे पहले, मोंट्रियाल ओलंपिक में बुरी तरह नाकाम रही वर्ल्ड चैंपियन टीम के बाद आदिवासी खिलाड़ियों के सहारे भारत ने अपने टाइटल को बचाने की कोशिश की थी। इस कोशिश में गोपाल भैंगरा भी एक हिस्सा थे। डुंगडुंग भी इसी कड़ी का एक नाम है। माखन सिंह मिल्खा के बाद 400 मीटर दौड़ में सबसे बड़ा नाम रहा। 1962 के एशियाई खेलों में मिल्खा ने 400 मीटर के सोने पर नाम लिखा तो माखन की झोली में सिल्वर आया। 400 मीटर रिले में मिल्खा के साथ सोने पर साझा नाम लिखा।इतना ही नहीं,मिल्खा को जिन गिने चुने एथलिटों के खिलाफ 400 मीटर में हार माननी पड़ी,उनमें माखन भी एक थे। माखन ने कोलकाता में मिल्खा पर जीत दर्ज करने में कामयाबी पायी थी।
लेकिन, इन सब बातों का आपस में क्या वास्ता। दरअसल, अंतरराष्ट्रीय मंच पर एक दर्जन से ज्यादा पदक जीत चुके पहलवान शौकेन्द्र अपने क्षेत्र बागपत में कुश्ती की दुर्दशा से आहत हैं और उन्होंने रविवार को तमगे बेचने की घोषणा कर डाली। इस घोषणा के बाद से मन इन नामों के आसपास जाकर ठहर गया है। गोपाल भैंगरा बिहार में 50 रुपए में सौ पत्थर रोज़ तोड़ा करते थे। डुंगडुंग को ओलंपियन होने के बावजूद एक चौकीदार की नौकरी के लिए दर दर भटकना पड़ा। माखन सिंह ने तो ट्रक चलाते चलाते अपनी ज़िंदगी काट दी। इस हद तक कि नाकों पर घूस मांगते पुलिसवालों को वो अक्सर हताशा में राष्ट्रपति राधाकृष्णन के हाथों लिए गए अर्जुन अवॉर्ड की तस्वीर दिखा दिया करते थे। इस उम्मीद में कि उन्हें शायद राहत मिल जाए।
बीजिंग ओलंपिक में मिले तीन मेडलों की खनक के बीच भारतीय खेलों का ये भी एक सच है। बेशक, कितना भी कड़वा लगे। आखिर,भारत का व्यक्तिगत मेडल जीतने वाले खशाबा जाधव की भी उम्र राहत के इंतजार में ही तो कट गई। इन सबके बीच शौकेन्द्र का यह ऐलान आपको झकझोरता है,तो कचोटता भी है। इन सबने देश के लिए खेलने से पहले अपनी ज़िंदगी के हर वो क्षण पूरी शिद्दत के साथ इस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए झोंका होगा। कामयाबी और नाकामी के बीच खींची एक बारीक लकीर पर चलते चलते ये अपनी मंजिलों तक पहुंचे की कोशिश करते हैं। इनकी कामयाबियां हमें उल्लास में डुबोती हैं, लेकिन इनकी नाकामी इन्हें बेहद अकेला छोड़ देती हैं।
शायद, इस वक्त शौकेन्द्र ने भी खुद को बेहद अकेला महसूस किया होगा। देश के लिए एशियन गेम्स और कॉमनवेल्थ में पदक बटोरने वाला यह पहलवान जरुर सिस्टम से हताश हुआ होगा। वो सिस्टम जो अक्सर खिलाड़ी की सफलता में साझा करता है, विफलता नहीं। लेकिन, यही शौकेन्द्र जब कॉरपोरेट मदद के सहारे आगे बढ़ने की बात करता है, तो लगता है कि उम्मीद से भरा एक पहलवान कुछ करने की राह तलाश रहा है। लेकिन, यही शौकेन्द्र जब मेडल बेचने का ऐलान करता है,तो हताशा में टूटा और मुकाबले से पहले ही हारा हुआ दिखने लगता है।
शौकेन्द्र को देश में ही कुछ दूसरी मिसाल सामने रखकर आगे का रास्ता चुनना चाहिए। रोम ओलंपिक के बाद नस्लीय भेदभाव के चलते मुहम्मद अली ने भी अपना मेडल पानी में फेंक दिया था। लेकिन,खुद को साबित करने के जुनून में उन्होंने यह फैसला लिया और फिर मुक्केबाजी की पूरी दुनिया को ही बदल डाला। इस हद तक कि उन्हें 20वीं सदी के सबसे बड़े एथलीट की जगह दी गई। अटलांटा ओलंपिक में खेलों की मशाल जलाने के साथ साथ उन्हें उनका गोल्ड मेडल भी लौटाया गया।
शौकेन्द्र का ये बिकाऊ मेडल या तो पूरी तस्वीर को बदल दे या फिर इस सोच से इतर वो खुद अपनी कोशिशों के लिए दूसरी राह तलाशे। आखिर, उसका ये मेडल महज एक तमगा नहीं है, इसमें उसके हर बीते कल का एक एक लम्हा जुड़ा है। अखाड़े में घंटों बहाए पसीने की हर एक बूंद की कीमत जुड़ी है इससे। शौकेन्द्र का ये मेडल उसके हर एक सपने का आइना है। एक ऐसी धरोहर,जिसे वो जब चाहे सामने रख सुकून हासिल कर सकता है,जो उसे एक खिलाड़ी होने का सच्चा अहसास कराती है।
बेशक,हम कुश्ती में ओलंपिक पदक जीतने में कामयाब हो गए हों लेकिन पहलवानों को लगातार दिक्कतों को सामना करना पड़ता है-इसमें कोई दो राय नहीं हैं। लेकिन,कई खिलाड़ियों ने इन्हीं दिक्कतों के बीच अपनी मंजिल को तलाशा है,और लगातार उम्मीद की नयी अलख जगाए हुए हैं।
बहरहाल,अपनी बात खत्म करते करते मैं यहां रोहित बृजनाथ के एक लेख की चर्चा करना चाहूंगा। उन्होंने लेख खत्म होते होते एक पोस्ट स्क्रिप्ट लिखी-" रांची से 55 किलोमीटर दूर वयूरगरिया गांव के दो लड़के शिद्दत से हॉकी खेलना चाहते हैं। वो भारत के लिए हॉकी खेलना चाहते हैं। उनके पिता भी चाहते हैं कि वो हॉकी खेलें। उनके पिता है-गोपाल भैंगरा।"
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1 comment:
भारत में खेल और खिलाडि़यों की दुर्दशा का वास्तविक प्रतिबिंब इस लेख में दृष्टिगोचर होता है। कई लोगों के विपरीत मैं यह नहीं मानता कि इस देश में क्रिकेट के अलावा अन्य सभी खेलों के साथ सौतेला व्यवहार होता है। आखिर हर जीत के बाद पटाखे और हर हार पर मातम दिखाने वाले कितने न्यूज चैनलों ने अशोक मांकड़ की मृत्यु की खबर को वह महत्व दिया, जिसके वो हकदार थे। सच तो यह हे कि कोई खिलाड़ी मैदान पर दृष्टिपटल से ओझल हुआ नहीं कि लोग उसे पहचानने से भी इंकार कर देते हैं। चाहे वह किसी भी खेल से जुड़ा, लेकिन जब कोई खिलाड़ी मैदान पर अपने देश के लिए जान की बाजी लगाता है ओर बदले में उसे मिलती है जिल्लत और गरीबी, तो इस तरह के कदम उठाना लाजिमी है। शौकेंद्र ने जाने किन मुश्किलों में अपने मेडल बेचने का फैसला किया हो, आज जबकि सारा देश 2008 ओलंपिक में तीन मेडल जीतने की खुशियां मना रहा है, हम केवल उम्मीद भर कर सकते हैं कि भविष्य में किसी खिलाड़ी को फिर इन हालातों से नहीं गुजरना होगा।
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