Sunday, August 31, 2008

सचिन कभी बूढ़ा नहीं होता...

इंग्लैंड के ब्रिस्टल शहर की एक ढलती शाम आज नौ साल बाद भी जेहन में जस की तस बसी है। उस शाम से जुड़ा एक लम्हा यादों में जैसे ठहर कर रह गया है। सचिन तेंदुलकर के बल्ले से एक और शतक निकला था। इस शतक ने एक बार फिर भारतीय टीम के लिए जीत की राह तैयार की थी। इस मैच से पहले भारत जिम्बाव्वे के हाथों शिकस्त झेल चुका था। बात क्रिकेट के गणित की करें तो भारत को अब जीत की सख्त जरुरत थी लेकिन, ये लम्हा इस हार जीत से कहीं आगे का लम्हा था। तेंदुलकर ने शतक पर पहुंचते ही आसमान की ओर सिर उठाया, लगा जैसे किसी से संवाद कर रहे हों। वो शायद अपने उस पिता से बात कर रहे थे,जिसने कभी उनके ख्वाबों की ज़मीन तैयार की थी लेकिन आज वही पिता अपने बेटे के इस यादगार लम्हे को देखने के लिए मौजूद नहीं था। दो दिन पहले सचिन के पिता दुनिया से रुख्सत हो गए थे। तेंदुलकर विश्व कप को बीच में छोड़ सात समुंदर का फासला तय कर मुंबई पहुंचे थे। अपने पिता को अंतिम विदाई देने के बाद वो वापस भारतीय चुनौती का आगाज कर रहे थे।

लेकिन,इस लम्हे से पहले और इस लम्हे के बाद तेंदुलकर के बल्ले से ढेरों शतक निकले। कितने ही स्ट्रोक्स हमें एक नए जुनून में डूबते उतराते रहे। सचिन के साथ साथ हर क्रिकेट चाहने वाले ने उनके बल्ले से निकले करिश्माई लम्हों को जीया। उन लम्हों को कुछ इस अंदाज में संजो कर रखा कि जब चाहें आप अपनी यादों के पन्ने पलटिए और डूब जाइए,जहां तेंदुलकर नाम का ये महानायक आपको सिर्फ और सिर्फ सुकून देता है।
लेकिन इसके बावजूद, ब्रिस्टल की ढलती शाम जेहन में ठहर गई है। जिन झकझोर देने वाले जेहनी हालात में तेंदुलकर ने अपनी पारी को परवान चढ़ाया,वो उनके जीवट की नयी बानगी बन गया। लेकिन,थोड़ा सा ठहर कर देखें तो ये पारी हमें तेंदुलकर होने के मतलब से रुबरु कराती है। दरअसल, इस लम्हे से भारतीय समाज में तेंदुलकर के रचे बसे होने का सूत्र धीरे धीरे खुलता जाता है। ब्रिस्टल के मैदान पर केन्या के सामने उस दिन सिर्फ एक क्रिकेटर तेंदुलकर मौजूद नहीं था, एक बल्लेबाज तेंदुलकर नहीं था, एक महानायक नहीं था, वहां एक बच्चा मौजूद था। वो बच्चा जो अपने पिता के आदर्शों की मिसाल की तरह सबके सामने खड़ा था। वो उस लम्हे में पूरे भारतीय समाज के सामने बेटे होने का बिंब था। एक ऐसा बच्चा,जिसमें हर कोई अपना ही अक्स तलाशना चाहता है।
दरअसल,तेंदुलकर की इमेज एक ऐसे बच्चे के रुप में रच बस गई है,जो जीवन को गति देते एक बच्चे के प्रतीक के रुप में दिन- ब-दिन ठोस होते जा रही है। प्रतीक के रुप में ये बच्चा जिंदगी के ठहराव को तोड़ता है। यह बच्चा हमारे मन में बसी हमारी ही मध्यवर्गीय आकांक्षाओं का बोझ अपने कंधे पर संभालने का करिश्मा करता बच्चा है, जो बार बार हमें आभास देता है कि बच्चे के सहारे हमारा जीवन आगे बढ़ रहा है। मानो बच्चे के इस प्रतीक में हमारे लिए दिलासा हो कि हमारा जीवन सिर्फ हम तक नहीं ठहरता हमारे बच्चे के माध्यम से और आगे जाता है। तेंदुलकर हम सबके जेहन में एक ठहराव को तोड़ते हुए, एक निरंतरता के साथ आ खड़े होते हैं,हमारी जड़ता को तोड़ते हुए हमारे ही मनोलोक में बसे हमारी सदाबहार किशोर छवि की तरह। तेंदुलकर की यह छवि हमें सीधे सीधे भारतीय जनमानस में गहरे ठहर चुकी कृष्ण की छवि के करीब ले जाती है। अपना पूरा देश कृष्ण जन्म का उत्सव बनाता है। वो कृष्ण के द्वारा कंस की वध की बात नहीं करता,वो कृष्ण की बाल-लीलाओं में जिंदगी के मायने तलाशता है। तेंदुलकर इसी बाल-कृष्ण का प्रतिरुप बनकर हमारे बीच आ खड़े होते हैं।
तेंदुलकर की शख्सियत को आप अलग अलग हिस्सों में कितना भी बांट लें, लेकिन उनकी इमेज एक बच्चे की तरह ही हमारे सामने आती है। विज्ञापनों ने भी उनकी इसी इमेज को कैद किया है। पेप्सी के विज्ञापन में बच्चों के साथ धमाचौकड़ी मचाते सचिन को देखिए,बोर्नविटा के एड में तेंदुलकर पर नज़र डालिए या फिर बीती सदी के सबसे बड़े महानायक अमिताभ के साथ छोटे मियां को देखिए। कभी आप तेंदुलकर को धोनी के रुप में मैचोमैन की तरह विज्ञापनों में नहीं देखेंगे। बेशक,सचिन की उम्र बढ़ती गई लेकिन उनकी छवि इसी तरह पेश की जाती है। यानी एक बच्चा जो चमत्कार कर सकता है,ऐसा चमत्कार जो उसके पिता की पीढी का सपना था। हर जगह सचिन चंचल कृष्ण सी छवि के साथ हमारे मानस पर अंकित हो जाते हैं,एक ऐसा बाल-कृष्ण जिसकी मुरली बल्ले में बदल गई हो । यही तेंदुलकर की सबसे बड़ी खासियत है।
इन्हीं सबके बीच तेंदुलकर मीडिल क्लास की उम्मीदों और ख्वाबों को भी परवान चढ़ाते हैं। मिडिल क्लास को उनमें अपना चेहरा नजर आता है। आखिर,सचिन के पिता रमेश तेंदुलकर मुंबई जैसी महानगरी में महज एक प्रोफेसर या कवि थे। बॉलीवुड,राजनेताओं और अंडरवर्ल्ड के इस शहर में उनकी पहचान एक आम शहरी की तरह थी। लेकिन,तेंदुलकर ने तमाम बाधाओं को तोड़ अपने लिए एक नया मुकाम बनाया । बीस साल तक कामयाबी की ऊंचाइयों पर विराजे इस शख्स ने कभी अपने पारिवारिक संस्कारों से नाता नहीं तोड़ा। ये आज भी दिखता है,और ब्रिस्टल में उस शाम भी साफ था कि क्रिकेट में इतनी बलुंदियों तक पहुंचने के बावजूद यह शख्स अपनी जड़ो से दूर नहीं गया। इसलिए वो सिर्फ सचिन नहीं सचिन रमेश तेंदुलकर है। हमेशा एक ऐसा किशोर जिसे लगातार जवान होना है, जिसे अपने कंधे पर थक चुकी पिता की पीढ़ी का हर जायज सपना ढोना है-चाहे वो सपना कितना भी असंभव क्यों ना हो। बाल-कृष्ण को संस्कारों में बसाए रखने वाला यह देश सचिन को एक मिथक में बदल चुका है।उसके जेहन में सचिन के बुढ़ापे के लिए कोई संभावना नहीं है।और क्रीज पर डटे खुद सचिन के लिए, रनों का कोई भी पहाड़ ऐसा एवरेस्ट नहीं जिसे यह सदाबहार किशोर लांघ ना सके ।सचिन का खेल और दर्शक की आकांक्षा का यही मेल सचिन को एक सदाबहार किशोर बनाता है।

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