Wednesday, August 13, 2008

75 सेकेंड में इतिहास को लांघते अभिनव बिंद्रा को बार बार निहारिए

ये उनकी ज़िंदगी के सबसे बेशकीमती 75 सेकेंड थे। ऐसे 75 सेकेंड,जो सुनहरे इतिहास और उनके बीच एक लकीर की तरह आ खड़े हुए थे। इन 75 सेकेंड में उनके हाथ से छूटा आखिरी निशाना उन्हें ऐसे शिखर पर काबिज कर सकता था,जहां से भारतीय खेलों की बाकी दुनिया बहुत छोटी दिखने लगती। ये भी हो सकता था कि अपने लक्ष्य से हल्की सी चूक एक बार फिर चैंपियन की स्टेज पर उन्हें खारिज कर देती।

लेकिन,नहीं। भारतीय निशानेबाज अभिनव बिंद्रा ने खारिज होने से इंकार कर दिया। ओलंपिक की सबसे मुश्किल स्टेज पर, सबसे नाजुक लम्हे पर वो डिगे नहीं। बरसों की मेहनत, अभ्यास में झोंके एक एक पल का हिसाब किताब और विक्ट्री पोडियम के इतने नज़दीक पहुंच मरीचिका की तरह भटकाव का भय। अभिनव बिंद्रा ने इन सब पहलुओं से खुद को अलग कर आखिरी बार अपनी राइफल का ट्रिगर दबाया। बंदूक की नाल से निकली गोली दशमलव पांच मिलिमीटर के लक्ष्य को भेद गई। इतने करीब और सटीकता से कि कमेन्टेटर ने बाकी निशानेबाजों का निशाना पूरा करने से पहले ही उनकी जीत का ऐलान कर दिया। गोल्ड टू अभिनव बिंद्रा।

ये ऐसे शब्द थे,जिसका हर भारतीय खेल चहेता पिछले 28 साल से इंतजार कर रहा था। हॉकी को छोड़ दें तो ओलंपिक में शिरकत करने से लेकर आज तक इन सुनहरे शब्दों का इंतज़ार करते करते एक सदी बीत गई। लेकिन, बिंद्रा का यह एक निशाना सारे इंतज़ार पर भारी पड़ गया। वो भी उस वक्त,जब देश अपने सबसे बड़े महानायक सचिन तेंदुलकर के बल्ले की फीकी पड़ती चमक को लेकर पसोपेश में है। बिंद्रा के इस एक लम्हे ने अचानक सारे जुनून को कोलंबो से बीजिंग की ओर मोड़ दिया। वरना,चार दिन पहले तक तेंदुलकर के नए शिखर की उम्मीदों के बीच खेलों का महाकुंभ भी पृष्ठभूमि में पड़ता दिख रहा था।

लेकिन,ठीक इस मोड़ से भारतीय खेल प्रेमियों के लिए बीजिंग और ओलंपिक के मायने अब सीधे सीधे अभिनव बिंद्रा से जुड़ गए हैं। बिंद्रा के इस निशाने ने इस सोच और बनी बनायी धारणा पर गहरी चोट की है कि भारतीय खिलाड़ी चैंपियंस की स्टेज पर नाकाम हैं। नाजुक मौकों पर ये चूक जाते हैं। फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह का रोम ओलंपिक में चूकना या लॉस एजेंलिस में उड़नपरी पीटी ऊषा का आखिरी कदम पर लड़खड़ाना, उम्मीदों और कामयाबी के बीच सवालों की खाई बन हमारे सामने खड़ा होता है। खशाबा जाधव के बाद लिएंडर पेस,कर्णम मल्लेश्वरी और राज्यवर्धन राठौर ने हमें विक्ट्री पोडियम तक जरुर पहुंचाया लेकिन हॉकी को छोड़ दें तो इस पोडियम पर खड़ा होकर राष्ट्रगान सुनने के इंतजार को बिंद्रा ने ही पूरा किया।

शायद,ये उम्मीदों से आगे का लम्हा है। ऐसा लम्हा,जिसकी उम्मीद बीजिंग पहुंचे हमारे अधिकारियों को भी नहीं थी। वरना,कोई वजह नहीं थी कि अभिनव के इस निशाने का गवाह बनने के लिए कुछ गिने चुने लोग ही वहां मौजूद होते। शायद, उम्मीद ही वो वजह है,जो फेलेप्स के लिए दुनिया के सबसे ताकतवर शख्स जॉर्ज बुश को ओलंपिक के स्वीमिंग सेंटर तक खींच लाती है। फेलेप्स की सुनहरी उपलब्धि के बीच बुश जैसा शख्स भी कुछ देर के लिए हाशिए पर छूट जाता है। वहां मौजूद हर शख्स सिर्फ और सिर्फ फेलेप्स तक ही पहुंचना चहता था।

वैसे,इस लम्हे की विराट अहमियत को महसूस करने में अभी बिंद्रा को भी वक्त लगेगा। शायद,यही वजह थी कि जैसे ही उन्होंने अपना आखिरी निशाना साधा, सिर्फ एक बार के लिए उनकी मुठ्ठी भिंची,उनके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आई। लेकिन,जीत के बाद दुनिया फतेह करने का उन्माद अपने तीसरे ओलंपिक में शिरकत कर रहे इस नौजवान निशानेबाज पर हावी नहीं हुआ। उनके लिए ये जैसे महज एक और जीत भर दिखायी दे रही थी।

फिर, दो साल पहले जगरेब में वर्ल्ड चैंपियनशिप में भी आखिरी निशाने पर उन्हें 10.4 अंक हासिल करने थे। इसी सूरत में वो वर्ल्ड चैंपियन बन सकते थे। वो शिखर,जहां तक कोई भारतीय निशानेबाज नहीं पहुंचा था। लेकिन,यहां भी बिंद्रा ने एक चैंपियन का जीवट दिखाते हुए 10.7 अंक के साथ यह मुकाम भी हासिल कर लिया था। शायद इसलिए सोमवार की सुबह बीजिंग में बिंद्रा इस नाजुक मोड़ पर न लड़खड़ाए और न ही जीत के बाद किसी उम्माद में डूबे। 10.8 अंक के साथ आखिरी निशाने पर उन्होंने ओलंपिक गोल्ड अपने नाम कर लिया। एक साथ,वर्ल्ड चैंपियन और ओलंपिक चैंपियन-भारतीय खेल इतिहास में इतनी ऊंचाई पर आज तक कोई खिलाड़ी नहीं पहुंच पाया है। यादों का काफिला भी गिने चुने लम्हों के आसपास सिमट जाता है। हॉकी के सुनहरे दौर के अलावा 1980 में प्रकाश पादुकोण की ऑल इंग्लैड चैंपियनशिप की कामयाबी या फिर 1983 में कपिल देव की लॉर्ड्स पर लिखी गई विजयगाथा।

बिंद्रा का हासिल किया शिखर एक टेलेंट के चैंपियन में तब्दील होने की कहानी भी है। वर्ल्ड चैंपियनशिप के दौरान पीठ के दर्द के बावजूद खिताब तक पहुंचना उनके जीवट की मिसाल है। इसी पीठ के दर्द की वजह से बिंद्रा ने एक साल तक राइफल नहीं उठायी। डॉक्टर से सर्जरी के बजाय फिजोयोथेरेपिस्ट के साथ घंटों बिताकर उन्होंने ओलंपिक के इस कड़े मंच के लिए खुद को तैयार किया। इसी दौर मे मित्तल चैंपियंस ट्रस्ट से मिली मदद ने उन्हें अपने टेलेंट को तराशने में मदद की। ओलंपिक से ठीक पहले उनके साथ माइंड एनालिस्ट दक्षिण अफ्रीका के टिमोथी हारकेनिस को जोड़ा। नतीजा साफ है कि यहां एथेंस की तरह फाइनल में पहुंचकर बिंद्रा लड़खड़ाए नहीं। उनका ओलंपिक चैंपियन बनना इस पहलू को भी पुख्ता करता है कि सरकारी मदद से अपने लक्ष्य की बाट जोहने की अब जरुरत नहीं है। ये भारतीय खेलों में टेलेंट को चैंपियन में तब्दील करने की एक नयी शुरुआत है।

अब बिंद्रा की कामयाबी के साथ सबको इंतजार रहेगा-ओलंपिक और दूसरे अंतरराष्ट्रीय मंच पर ऐसी ही सुनहरी कामयाबियों का। लेकिन,इसके लिए देखना होगा कि बिंद्रा का ये निशाना नींद में सोए भारतीय खेलों को ठीक उसी तरह जगा पाता है,जैसा कभी कपिल के जांबाजों ने 25 साल पहले लॉर्ड्स के मैदान पर इतिहास रचने के साथ किया था। अगर बिंद्रा का ये लम्हा भारतीय खेलों में एक नयी हलचल पैदा करने में कामयाब हुआ तो यह एक ना थमने वाली शुरुआत होगी। लेकिन, तब तक बिंद्रा के इस आखिरी निशाने के साथ शुरु हुए जश्न में डूब जाइए। 75 सेकेंड में इतिहास को लांघते बिंद्रा को निहारिए। आप खुद को एक नए रोमांच में डूबा महसूस करेंगे। एक बार नहीं बार बार।
[This article was first published in Dainik Bhaskar on August 12, 2008]

1 comment:

डॉ.भूपेन्द्र कुमार सिंह said...

well said n.p bhai,liked yr approach and style.pl. keep writing because these are the proofs showing and describing us as living races.
dr.bhoopendra rewa