अब से अट्ठाइस साल पहले प्रकाश पादुकोण ने भारतीय बैडमिंटन को सुनहरे पच्चीस दिन दिए थे। इनकी चमक कभी फीकी नहीं पड़ सकती। 1980 के उन पच्चीस दिनों में प्रकाश विश्व बेडमिंटन की तीन सबसे प्रतिष्ठित प्रतियोगिताएं- डेनिश ओपन, स्वीडिश ओपन और ऑल इंग्लैंड चैंपियनशिप जीतते हुए खुद एक इतिहास बन गए। भारतीय बैडमिंटन की सबसे बड़ी शख्सियत प्रकाश पादुकोण से ये बातचीत मैंने पंद्रह साल पहले की थी। ‘अमर उजाला’ में 1 जून, 1993 को प्रकाशित हुई थी ये बातचीत।
अस्सी के दशक का पहला पड़ाव! इस पड़ाव के दौरान खेलों की दुनिया ने कहां, कौन सा मोड़ लिया, कुछ याद नहीं। हमें याद है तो पच्चीस दिनों का एक खास दौर। तेरह साल बीत जाने के बाद भी उन पच्चीस दिनों की यादें कहीं से धूमिल नहीं पड़ रही हैं, बल्कि उन्हें याद करते-करते हर बार एक नई ताजगी से सराबोर हो जाते हैं हम।
इन पच्चीस दिनों के सफर में ही हमने देखा प्रकाश पादुकोण को महान में तब्दील होते हुए। यह दौर न इससे पहले भारतीय बैडमिंटन में आया था, न ही आज तक दोहराया गया है। प्रकाश ने सिर्फ पच्चीस दिनों में ही स्वीडिश ओपन, डेनिस ओपन और ऑल इंग्लैंड प्रतियोगिता जीतते हुए इतिहास ही लिखा था। इतिहास लिखा ही नहीं था, बल्कि बैडमिंटन के इतिहास में ये पच्चीस दिन सिर्फ प्रकाश के नाम दर्ज हो चुके हैं। सर्वकालीन महान रूडी हार्तोनो के कोर्ट पर मौजूद रहते इन दिनों का इतिहास सिर्फ प्रकाश पादुकोण हैं।
फिर इतिहास के इन इन्हीं पन्नों को उलटने के लिए ही तो मैं प्रकाश से मिलना चाहता था। सोलह-सत्रह की साल उम्र में एक किशोर के तौर पर ट्रांजिस्टर से सटे कानों ने उन लम्हों को महसूस जरूर किया था। टेलीविजन पर कई-कई बार आती रिकॉर्डिंग से उसकी जीवंतता का एहसास किया था। अखबार और पत्रिकाओं की कतरनों के साथ उन्हें हमेशा-हमेशा के लिए संजो कर रख दिया था।
लेकिन, इसके बाद भी प्रकाश की ही जुबानी इन दिनों को एक नए सिरे से ताजा करने की चाह कहीं अंदर मौजूद थी। खुद प्रकाश को इन दिनों की ओर लौटते कैसा लगता है! प्रकाश क्यों इस दौर को फिर दोहरा नहीं पाए! क्यों यह एक ट्रेजेडी में तब्दील होकर रह गया! इन्हीं सब सवालों की बेताबी मुझे उस दिन इंदिरा गांधी स्टेडियम तक खींच ले गई थी। भारतीय टीम सुदिरमन कप के लिए अपनी तैयारियों में मशगुल थी। और प्रकाश रेलिंग पर हाथ टिकाए एक कप्तान की नजर से उन्हें परख रहे थे। पर मेरे उन पच्चीस दिनों का जिक्र छेड़ने के साथ ही प्रकाश कब तेरह साल पीछे लौट गए, आभास तक ही नहीं हो पाया।
‘उन दिनों की याद करना तो बहुत अच्छा लगता है। बहुत सुखद।‘ प्रकाश ने अपने लिखे इतिहास को खुद पढ़ने की शुरूआत कर दी थी, ‘दरअसल, जब तक मैं इस मुकाम को हासिल कर वापिस नही लौटा, मुझे इसकी अहमियत का पता नही था। घर लौटने पर जिस तरह मेरा स्वागत किया गया, मुझे सम्मान मिला, मुझे इसकी उम्मीद नही थी। मेरा यह हासिल करना इतनी सनसनी फैला देगा, पूरे गेम पर असर डालेगा, मैंने यह सोचा भी नही था।’ इंदिरा गांधी इंडोर स्टेडियम में उमस के चलते पसीने की बुंदें बराबर प्रकाश के चेहरे पर छलछला रही थी, लेकिन इससे कहीं बेखबर भारतीय बैडमिंटन में हमारे समय की सबसे बड़ी शख्सियत प्रकाश अपनी यादों में कही गहरे उतरना शुरू हो चुके थे।
‘डेनिश ओपन में जीता, तो खुश था। पहली प्रतियोगिता जीत ली। और यह खुशी इसलिए भी कुछ ज्यादा ही थी क्योंकि यहां मैंने अपने ही आदर्श खिलाड़ी रूडी हार्तोनो को शिकस्त दी थी। उसके बाद वहां से स्वीडन गया। वहां भी जीता। फिर ऑल इंग्लैंड में पहुंचा। पहली दोनों प्रतियोगिताएं जीतने के साथ ही खासा आश्वस्त था। कहीं से कोई तनाव नही था। सीधे गेमों में मैंने लिम स्वी किंग को शिकस्त देते हुए, चैंपियनशिप जीत ली थी। पूरी तरह से खासा यादगार था ये सब।’
लेकिन, प्रकाश को ये सब सिर्फ उनके टैलेंट के चलते ही हासिल नही हुआ था। जाने से पहले कोट पर अभ्यास में झोंके गए छह-छह घंटे, भला कोई कैसे भूल सकता है। लेकिन इसके बाद प्रकाश इन दिनों का फिर दोहरा नही सके, यह भी तो नही भूलाया जा सकता। कुछ लोग इसकी वजह प्रकाश के डेनमार्क जाने को ठहराते है। लेकिन खुद प्रकाश इसे नही स्वीकारते। इस मुद्दे पर वह कहते है – ‘1980 में इस उपलब्धि को हासिल कर डेनमार्क जाने का मुझे कोई अफसोस नही है। बेशक, मैंने वहां जाने के बाद कोई टूर्नामेंट नही जीता। पर, विश्व बैडमिंटन में कांस्य पदक (1981) वहीं जाने के बाद जीता। और ऑल इंग्लैंड के फाइनल में भी पहुंचा।’ अपनी बात जारी रखते हुए प्रकाश कहते हैं – ‘ मार्टिन फ्रास्ट से तुलना करने में ऐसा लगता है कि मैं वैसी प्रोग्रेस नही दिखा पाया। यह सच है कि डेनमार्क में फ्रास्ट के साथ मैं काफी समय खेलता था। उसको मेरा गेम भी मालूम हो गया था, उसकी वजह से जब भी वह मेरे सामने होता, तो एक अतिरिक्त लाभ की स्थिती में रहता था। लेकिन अगर मैं भारत में रूका रहता, तो मैनें जीतना हासिल किया, उतना भी नही कर पाता। वहां जाने के बाद भी मैं 1986 तक पहले छह मे तो बना ही रहा। भारत में जिस तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता हैं। उसके चलते इतना भी हासिल करना संभव नही था।’
प्रकाश अब अपनी रौ में बह रह थे ‘फिर उम्र भी तो बढ़ रही थी, मैं साढे़ पच्चीस साल का था। जब मैंने डेनमार्क की ओर रूख किया, उम्र बढ़ने के साथ-साथ एकाग्र होकर खेलना भी तो खासा मुश्किल हो रहा था। वहां पर जिस तरह का प्रयास मैंने किया, मैं ही जानता हूं। जितना ज्यादा से ज्यादा मैं खुद को झोंक सकता था, मैंने झोंका। मैं इससे अधिक नहीं कर सकता था। यह संतोष तो मुझे है ही। मुझे भारत छोड़कर डेनमार्क जाने का कोई अफसोस नहीं है।’
यह सही है कि प्रकाश का भारत छोड़कर डेनमार्क जाना सही फैसला था। कम से कम जिस तरह की दिक्कतों का सामना भारत में खिलाडि़यों को करना पडता है वह किसी से छिपा नहीं है। आज तो सुविधाएं कुछ बेहतर ही हैं। प्रकाश के समय में जो हालत थी वह तो बस ...।
इसी पर प्रकाश कह उठते हैं – ‘जिन दिक्कतों में हम खेलते थे, हम ही जानते हैं। मैं नहीं सोचता कि हमारी जगह अगर कोई और होता तो वह सामने भी आ पाता। अगर आप रूडी हार्तोनो को ही इस हालत में खड़ा कर दें तो मुझे संदेह है कि मैंने जितना हासिल किया, उससे ज्यादा वह कुछ कर लेते।’ ‘लेकिन प्रकाश, आप अपने टेलेंट के लिहाज से जितना हासिल कर सकते थे, आपने किया।’ इस पर हमेशा की तरह बिना किसी पर कोई अंगुली उठाए प्रकाश का सहज जवाब था – ‘अपने देश में हालात को देखते हुए मैं सोचता हूं कि मैंने अधिकतम हासिल किया।’ लेकिन यहीं वह सवाल को दूसरे सिरे से पकड़ते हुए कहते हैं – ‘अगर मुझे बाहर जैसी सुविधाएं मिलतीं तो मैं कहां होता, यह जरूर एक अटकल हो सकती है। पर, हो सकता है कि मैं कुछ अधिक हासिल कर लेता।’
साथ ही एक खिलाड़ी के तौर पर अपने करियर का मूल्यांकन करते हुए प्रकाश कहते हैं – ‘मैं अपने करियर को लेकर पूरी तरह से संतुष्ट हूं। खासतौर से डेनमार्क में अपने प्रवास के मद्देनजर। मुझे कोई अफसोस नहीं है। जैसे कुछ लोगों को अक्सर यह अफसोस रहता है कि अगर कुछ और मेहनत की जाती तो कुछ और बन सकता था, तो ऐसा कोई अफसोस मुझे नहीं है। मैं जानता हूं कि मैंने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास किया। हरसंभव प्रयास किया। लगातार बिना कुछ और किए पांच-छह घंटे सिर्फ कोर्ट पर बिताए। आप जानते हैं कि खासतौर पर डेनमार्क जाने के बाद बैडमिंटन और सिर्फ बैडमिंटन ही मेरा सब कुछ बनकर रह गया था। एक जुनून-सा था मेरे लिए।’
सचमुच जुनून तो था ही यह। नहीं तो जिस दौर में प्रकाश एक खिलाड़ी के तौर पर विश्व बेडमिंटन में अपनी पहचान बनाने में लगे थे, उस दौर में हालात तो किसी को भी कुंठित कर सकते थे। प्रकाश ही कहते हैं – ‘आज और उस दौर की कोई तुलना ही नहीं। अब तो खेल भी बहुत लोकप्रिय हो गया है। कई लोग खेलने लगे हैं। ज्यादा कोर्ट हैं। ज्यादा सुविधाएं हैं। प्रायोजक मिलना आसान है। नौकरी हासिल करना आसान है। कैम्प कहीं ज्यादा हैं। उपकरणों की हालत बहुत बेहतर है। आपको विदेशी शटल से खेलने का मौका मिलता है। उस वक्त तो आप सोच भी नहीं सकते थे।’
लेकिन, प्रकाश को कोई हालात डिगा ही नही सकते थे। फिर जब आपके सामने आपकी मंजिल बिल्कुल साफ हो, तो यह सवाल ही उभर नहीं सकता। तभी तो प्रकाश ने स्वीकारा था, ‘उस दौर में तमाम विपरीत हालात में मुझे कभी किसी तरह की हताशा नहीं हुई थी। मैंने अपने लिए एक साफ लक्ष्य बनाया था। फिर बाकी किसी बात की मैंने परवाह नहीं की। मेरा केवल एक ही उद्देश्य था सिर्फ खेलना। मेरी कभी यह इच्छा भी नहीं रही कि खेल से मुझे पैसा मिलेगा या शोहरत। मैं बस अपने खेल से जुड़ा रहा। मैं खुद से यही कहता रहा कि मैं अपना खेल खेलता रहूंगा। यह नही है। वह नही है। ऐसी आलोचनाएं करने में मैंने कोई वक्त नही गवांया। कोई व्यर्थ प्रयास नही किया। जो भी सुविधाए थी, जो भी संभव था, मैंने अपना सारा वक्त उन्हीं में अपने खेल को बेहतर से बेहतर करने में लगाया। इसलिए मुझे कोई अफसोस नहीं है।’
प्रकाश से सवालों का सिलसिला यहीं खत्म हो जाना चाहिए था। वह हो भी गया था। लेकिन, फिर भी एक कचोट अभी भी बराबर बनी हुई थी। इंदिरा गांधी स्टेडियम से वापस लौटते हुए खुद से इसकी वजह जानना चाह रहा था। और कही अर्द्धचेतन से जवाब मिल रहा था, ‘हम भारतीय ऐसे क्षण देखने के आदी नहीं हैं। और प्रकाश ने सबकी उम्मीदों से कहीं बहुत आगे निकलते हुए उस क्षण से रू-ब-रू कराया। और आने वाले वक्त में कोई इसे दोहरा भी पाएगा, इसकी हल्की सी पदचाप भी सुनाई नही पड़ती।’ शायद इस दौर को फिर न देख पाना ही कचोट रहा था। रह रह कर वह पच्चीस दिन याद आ रहे थे।
अस्सी के दशक का पहला पड़ाव! इस पड़ाव के दौरान खेलों की दुनिया ने कहां, कौन सा मोड़ लिया, कुछ याद नहीं। हमें याद है तो पच्चीस दिनों का एक खास दौर। तेरह साल बीत जाने के बाद भी उन पच्चीस दिनों की यादें कहीं से धूमिल नहीं पड़ रही हैं, बल्कि उन्हें याद करते-करते हर बार एक नई ताजगी से सराबोर हो जाते हैं हम।
इन पच्चीस दिनों के सफर में ही हमने देखा प्रकाश पादुकोण को महान में तब्दील होते हुए। यह दौर न इससे पहले भारतीय बैडमिंटन में आया था, न ही आज तक दोहराया गया है। प्रकाश ने सिर्फ पच्चीस दिनों में ही स्वीडिश ओपन, डेनिस ओपन और ऑल इंग्लैंड प्रतियोगिता जीतते हुए इतिहास ही लिखा था। इतिहास लिखा ही नहीं था, बल्कि बैडमिंटन के इतिहास में ये पच्चीस दिन सिर्फ प्रकाश के नाम दर्ज हो चुके हैं। सर्वकालीन महान रूडी हार्तोनो के कोर्ट पर मौजूद रहते इन दिनों का इतिहास सिर्फ प्रकाश पादुकोण हैं।
फिर इतिहास के इन इन्हीं पन्नों को उलटने के लिए ही तो मैं प्रकाश से मिलना चाहता था। सोलह-सत्रह की साल उम्र में एक किशोर के तौर पर ट्रांजिस्टर से सटे कानों ने उन लम्हों को महसूस जरूर किया था। टेलीविजन पर कई-कई बार आती रिकॉर्डिंग से उसकी जीवंतता का एहसास किया था। अखबार और पत्रिकाओं की कतरनों के साथ उन्हें हमेशा-हमेशा के लिए संजो कर रख दिया था।
लेकिन, इसके बाद भी प्रकाश की ही जुबानी इन दिनों को एक नए सिरे से ताजा करने की चाह कहीं अंदर मौजूद थी। खुद प्रकाश को इन दिनों की ओर लौटते कैसा लगता है! प्रकाश क्यों इस दौर को फिर दोहरा नहीं पाए! क्यों यह एक ट्रेजेडी में तब्दील होकर रह गया! इन्हीं सब सवालों की बेताबी मुझे उस दिन इंदिरा गांधी स्टेडियम तक खींच ले गई थी। भारतीय टीम सुदिरमन कप के लिए अपनी तैयारियों में मशगुल थी। और प्रकाश रेलिंग पर हाथ टिकाए एक कप्तान की नजर से उन्हें परख रहे थे। पर मेरे उन पच्चीस दिनों का जिक्र छेड़ने के साथ ही प्रकाश कब तेरह साल पीछे लौट गए, आभास तक ही नहीं हो पाया।
‘उन दिनों की याद करना तो बहुत अच्छा लगता है। बहुत सुखद।‘ प्रकाश ने अपने लिखे इतिहास को खुद पढ़ने की शुरूआत कर दी थी, ‘दरअसल, जब तक मैं इस मुकाम को हासिल कर वापिस नही लौटा, मुझे इसकी अहमियत का पता नही था। घर लौटने पर जिस तरह मेरा स्वागत किया गया, मुझे सम्मान मिला, मुझे इसकी उम्मीद नही थी। मेरा यह हासिल करना इतनी सनसनी फैला देगा, पूरे गेम पर असर डालेगा, मैंने यह सोचा भी नही था।’ इंदिरा गांधी इंडोर स्टेडियम में उमस के चलते पसीने की बुंदें बराबर प्रकाश के चेहरे पर छलछला रही थी, लेकिन इससे कहीं बेखबर भारतीय बैडमिंटन में हमारे समय की सबसे बड़ी शख्सियत प्रकाश अपनी यादों में कही गहरे उतरना शुरू हो चुके थे।
‘डेनिश ओपन में जीता, तो खुश था। पहली प्रतियोगिता जीत ली। और यह खुशी इसलिए भी कुछ ज्यादा ही थी क्योंकि यहां मैंने अपने ही आदर्श खिलाड़ी रूडी हार्तोनो को शिकस्त दी थी। उसके बाद वहां से स्वीडन गया। वहां भी जीता। फिर ऑल इंग्लैंड में पहुंचा। पहली दोनों प्रतियोगिताएं जीतने के साथ ही खासा आश्वस्त था। कहीं से कोई तनाव नही था। सीधे गेमों में मैंने लिम स्वी किंग को शिकस्त देते हुए, चैंपियनशिप जीत ली थी। पूरी तरह से खासा यादगार था ये सब।’
लेकिन, प्रकाश को ये सब सिर्फ उनके टैलेंट के चलते ही हासिल नही हुआ था। जाने से पहले कोट पर अभ्यास में झोंके गए छह-छह घंटे, भला कोई कैसे भूल सकता है। लेकिन इसके बाद प्रकाश इन दिनों का फिर दोहरा नही सके, यह भी तो नही भूलाया जा सकता। कुछ लोग इसकी वजह प्रकाश के डेनमार्क जाने को ठहराते है। लेकिन खुद प्रकाश इसे नही स्वीकारते। इस मुद्दे पर वह कहते है – ‘1980 में इस उपलब्धि को हासिल कर डेनमार्क जाने का मुझे कोई अफसोस नही है। बेशक, मैंने वहां जाने के बाद कोई टूर्नामेंट नही जीता। पर, विश्व बैडमिंटन में कांस्य पदक (1981) वहीं जाने के बाद जीता। और ऑल इंग्लैंड के फाइनल में भी पहुंचा।’ अपनी बात जारी रखते हुए प्रकाश कहते हैं – ‘ मार्टिन फ्रास्ट से तुलना करने में ऐसा लगता है कि मैं वैसी प्रोग्रेस नही दिखा पाया। यह सच है कि डेनमार्क में फ्रास्ट के साथ मैं काफी समय खेलता था। उसको मेरा गेम भी मालूम हो गया था, उसकी वजह से जब भी वह मेरे सामने होता, तो एक अतिरिक्त लाभ की स्थिती में रहता था। लेकिन अगर मैं भारत में रूका रहता, तो मैनें जीतना हासिल किया, उतना भी नही कर पाता। वहां जाने के बाद भी मैं 1986 तक पहले छह मे तो बना ही रहा। भारत में जिस तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता हैं। उसके चलते इतना भी हासिल करना संभव नही था।’
प्रकाश अब अपनी रौ में बह रह थे ‘फिर उम्र भी तो बढ़ रही थी, मैं साढे़ पच्चीस साल का था। जब मैंने डेनमार्क की ओर रूख किया, उम्र बढ़ने के साथ-साथ एकाग्र होकर खेलना भी तो खासा मुश्किल हो रहा था। वहां पर जिस तरह का प्रयास मैंने किया, मैं ही जानता हूं। जितना ज्यादा से ज्यादा मैं खुद को झोंक सकता था, मैंने झोंका। मैं इससे अधिक नहीं कर सकता था। यह संतोष तो मुझे है ही। मुझे भारत छोड़कर डेनमार्क जाने का कोई अफसोस नहीं है।’
यह सही है कि प्रकाश का भारत छोड़कर डेनमार्क जाना सही फैसला था। कम से कम जिस तरह की दिक्कतों का सामना भारत में खिलाडि़यों को करना पडता है वह किसी से छिपा नहीं है। आज तो सुविधाएं कुछ बेहतर ही हैं। प्रकाश के समय में जो हालत थी वह तो बस ...।
इसी पर प्रकाश कह उठते हैं – ‘जिन दिक्कतों में हम खेलते थे, हम ही जानते हैं। मैं नहीं सोचता कि हमारी जगह अगर कोई और होता तो वह सामने भी आ पाता। अगर आप रूडी हार्तोनो को ही इस हालत में खड़ा कर दें तो मुझे संदेह है कि मैंने जितना हासिल किया, उससे ज्यादा वह कुछ कर लेते।’ ‘लेकिन प्रकाश, आप अपने टेलेंट के लिहाज से जितना हासिल कर सकते थे, आपने किया।’ इस पर हमेशा की तरह बिना किसी पर कोई अंगुली उठाए प्रकाश का सहज जवाब था – ‘अपने देश में हालात को देखते हुए मैं सोचता हूं कि मैंने अधिकतम हासिल किया।’ लेकिन यहीं वह सवाल को दूसरे सिरे से पकड़ते हुए कहते हैं – ‘अगर मुझे बाहर जैसी सुविधाएं मिलतीं तो मैं कहां होता, यह जरूर एक अटकल हो सकती है। पर, हो सकता है कि मैं कुछ अधिक हासिल कर लेता।’
साथ ही एक खिलाड़ी के तौर पर अपने करियर का मूल्यांकन करते हुए प्रकाश कहते हैं – ‘मैं अपने करियर को लेकर पूरी तरह से संतुष्ट हूं। खासतौर से डेनमार्क में अपने प्रवास के मद्देनजर। मुझे कोई अफसोस नहीं है। जैसे कुछ लोगों को अक्सर यह अफसोस रहता है कि अगर कुछ और मेहनत की जाती तो कुछ और बन सकता था, तो ऐसा कोई अफसोस मुझे नहीं है। मैं जानता हूं कि मैंने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास किया। हरसंभव प्रयास किया। लगातार बिना कुछ और किए पांच-छह घंटे सिर्फ कोर्ट पर बिताए। आप जानते हैं कि खासतौर पर डेनमार्क जाने के बाद बैडमिंटन और सिर्फ बैडमिंटन ही मेरा सब कुछ बनकर रह गया था। एक जुनून-सा था मेरे लिए।’
सचमुच जुनून तो था ही यह। नहीं तो जिस दौर में प्रकाश एक खिलाड़ी के तौर पर विश्व बेडमिंटन में अपनी पहचान बनाने में लगे थे, उस दौर में हालात तो किसी को भी कुंठित कर सकते थे। प्रकाश ही कहते हैं – ‘आज और उस दौर की कोई तुलना ही नहीं। अब तो खेल भी बहुत लोकप्रिय हो गया है। कई लोग खेलने लगे हैं। ज्यादा कोर्ट हैं। ज्यादा सुविधाएं हैं। प्रायोजक मिलना आसान है। नौकरी हासिल करना आसान है। कैम्प कहीं ज्यादा हैं। उपकरणों की हालत बहुत बेहतर है। आपको विदेशी शटल से खेलने का मौका मिलता है। उस वक्त तो आप सोच भी नहीं सकते थे।’
लेकिन, प्रकाश को कोई हालात डिगा ही नही सकते थे। फिर जब आपके सामने आपकी मंजिल बिल्कुल साफ हो, तो यह सवाल ही उभर नहीं सकता। तभी तो प्रकाश ने स्वीकारा था, ‘उस दौर में तमाम विपरीत हालात में मुझे कभी किसी तरह की हताशा नहीं हुई थी। मैंने अपने लिए एक साफ लक्ष्य बनाया था। फिर बाकी किसी बात की मैंने परवाह नहीं की। मेरा केवल एक ही उद्देश्य था सिर्फ खेलना। मेरी कभी यह इच्छा भी नहीं रही कि खेल से मुझे पैसा मिलेगा या शोहरत। मैं बस अपने खेल से जुड़ा रहा। मैं खुद से यही कहता रहा कि मैं अपना खेल खेलता रहूंगा। यह नही है। वह नही है। ऐसी आलोचनाएं करने में मैंने कोई वक्त नही गवांया। कोई व्यर्थ प्रयास नही किया। जो भी सुविधाए थी, जो भी संभव था, मैंने अपना सारा वक्त उन्हीं में अपने खेल को बेहतर से बेहतर करने में लगाया। इसलिए मुझे कोई अफसोस नहीं है।’
प्रकाश से सवालों का सिलसिला यहीं खत्म हो जाना चाहिए था। वह हो भी गया था। लेकिन, फिर भी एक कचोट अभी भी बराबर बनी हुई थी। इंदिरा गांधी स्टेडियम से वापस लौटते हुए खुद से इसकी वजह जानना चाह रहा था। और कही अर्द्धचेतन से जवाब मिल रहा था, ‘हम भारतीय ऐसे क्षण देखने के आदी नहीं हैं। और प्रकाश ने सबकी उम्मीदों से कहीं बहुत आगे निकलते हुए उस क्षण से रू-ब-रू कराया। और आने वाले वक्त में कोई इसे दोहरा भी पाएगा, इसकी हल्की सी पदचाप भी सुनाई नही पड़ती।’ शायद इस दौर को फिर न देख पाना ही कचोट रहा था। रह रह कर वह पच्चीस दिन याद आ रहे थे।
4 comments:
आभार इस बातचीत को यहाँ पेश करने का.
प्रकाश के बाद सैयद मोदी और पुलेला गोपीचंद ने अलख जगाने की कोशिश की थी लेकिन दोनों उस मुकाम पर नहीं पहुंच जिस शिखर को प्रकाश ने छुआ था। गोपीचंद अब कोच बन कर सायना नेहवाल जैसे खिलाड़ियों को उभारने में जी जान से लगे हैं। उनका जुनून इसी तरह रहा तो वो दिन दूर नहीं जब खेल प्रेमियों को प्रकाश, मोदी और गोपीचंद जैसे कई खिलाड़ी देखने को मिलें।
sanjay srivastava said
आज की युवा पीढी के लिए प्रकाश पादुकोण बेशक दीपिका पादुकोण के पिता के रूप मैं ही जाने जाते होंगे. लेकिन वो पीढी जो अस्सी के दशक मे किशोर या जवान हो रही थी, वो अच्छी तरह जानती है कि प्रकाश कितने महान खिलाडी थे. जब उन्होंने यूरोप मे एक के बाद एक ये तीन बडी प्रतियोगिताएं जीती, तो हम गर्व से भर उठे थे. सोचिये भला क्या दिन रहे होंगे वो, एकदम सपनो जैसे. मुझे अब तक याद है जब प्रकाश लौटे थे तो मुंबई की सड़कों पर उनकी कितनी शानदार आगवानी हुई थी. ये इंटरव्यू भी मैंने पन्द्रह साल पहले अमरउजाला में पढा था, इतने सालों बाद दोबारा इसे पढ़कर काफी अच्छा लगा. आपको इसके लिए धन्यवाद. कुछ old-gold और दें, अच्छा होगा.
sanjay srivastava
Post a Comment