दिन, तारीख ,वक्त। सब कुछ ठहरा हुआ है। तारीख ११ अगस्त। दिन सोमवार। वक्त सुबह पौने दस बजे। वक्त लगातार गुज़र रहा है। गुजरता रहेगा। लेकिन, मेरी यादों में ठहर गया ये लम्हा कभी वक्त के साथ पीछे नहीं छूटेगा। बीजिंग ओलंपिक के विक्ट्री पोडियम पर खड़े अभिनव बिंद्रा। राष्ट्रगान की धुन के बीच ऊपर और ऊपर उठता तिरंगा। गर्व में हम सबका सीना चौड़ा करता,रोंगटे खड़ा करता लम्हा। सिरहन पैदा करता लम्हा। ऐसा लम्हा,जिसमें जितना गहरे डूबो,और डूबने का मन करे।
लेकिन, मेरे इस लम्हे पर आज एक कचोट की कसक है। इस विडंबना ही कहेंगे कि ये चोट उसी शख्स अभिनव बिंद्रा के बयान से उपज रही है, जिसने हमें डूब कर जीने का यह पल दिया। बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में बिंद्रा ने कहा “मैंने विक्ट्री स्टैंड पर दो मिनट इस पल का आनंद लिया, और फिर मैं बोर हो गया ”। बिंद्रा का ये कहना मेरे ठहरे हुए लम्हे पर सीधे सीधे चोट करता है। हो सकता है कि लगातार, हर रोज, मुकाबले दर मुकाबले,निशाना साधने के जुनून में बिंद्रा हार-जीत से आगे निकल चुके हों। हो सकता है कि खिलाड़ी के नाते वर्ल्ड चैंपियनशिप के संघर्षपूर्ण मुकाबलों के बीच ओलंपिक गोल्ड की चमक कुछ फीकी दिखती हो लेकिन खेलों के सबसे बड़े महाकुंभ में एक अरब की आबादी वाला यह देश जब इस इकलौते गोल्ड मेडल तक पहुंचा हो,वो भी अस्सी साल के इंतजार के बाद,तो आप इस शिखर की सिर्फ कल्पना और कल्पना ही कर सकते हैं।
अभिनव के लिए भी ये ख्वाबों के सच होने जैसा ही है। उन्होंने भी इस एक लम्हे के लिए अपने एक एक बीते क्षण को दांव पर लगा दिया। हो सकता है कि बातचीत की किसी रवानगी में वो यह बात कह बैठे,लेकिन जिस शिखर पर बिंद्रा काबिज हैं,वहां वे सिर्फ एक मिसाल पेश कर सकते हैं। इस शिखर ने न सिर्फ उन्हें कामयाबियों की बुलंदियां दी हैं, न सिर्फ उन्हें सम्मान दिया है,नयी पहचान दी है और इन सबसे आगे बढ़कर एक अरब आबादी के इस देश के सपनों को ज़मी दी है। इन सबके बीच बिंद्रा एक नयी जिम्मेदारी से जुड़ गए हैं।
इसीलिए शायद,बिंद्रा का ये कहना भी अखरता है-“ मैं इस मुकाम तक पहुंचते पहुंचते बहुत कुछ गंवा बैठा। शूटिंग के अलावा मैंने कुछ नहीं किया। पूरी उम्र शूटिंग करता रहा। मैं एक तरह से बहुत कुछ हारा हूं।” बिंद्रा ज़िंदगी से शिकायत नहीं कर सकते। बिंद्रा इस कड़वे सच से तो इंकार नहीं कर सकते कि किसी भी शिखर की कीमत तो चुकानी ही पड़ती है। बिंद्रा इस बात से कैसे इंकार कर सकते हैं कि लाखों खिलाड़ी दिन रात के फासले को खत्म करते हुए अपने एक ख्वाब के लिए पूरी ज़िंदगी दांव पर लगा देते हैं। लेकिन,ख्वाब सिर्फ ख्वाब रह जाता है।
दरकते ख्वाबों के बीच मुझे रामानाथन कृष्णन याद आ रहे हैं। दो बार विंबल्डन के सेमीफाइनल में पहुंचने वाले रामानाथन से १९९३ में चंडीगढ़ में डेविस कप के मुकाबले के दौरान हुई मुलाकात में उन्होंने एक किस्सा सुनाया था। अपने पहले विंबल्डन में शिरकत करने के लिए रामानाथन लंबी समुद्री यात्रा के बाद इंग्लैंड पहुंचे। वे मुकाबले में उतरते, इससे पहले ही अभ्यास में उनका लकड़ी का रैकेट टूट गया। अपनी चुनौती पेश करने से पहले ही उन्हें लौटना पड़ा। ये है दरकते ख्वाबों की कहानी।
दूसरी ओर,प्रकाश पादुकोण यादों में उभार लेते हैं। अपने खेल में नयी से नयी ऊंचाइयां छूने की कोशिश में प्रकाश डेनमार्क में दिन में १३-१३ घंटे कोर्ट पर गुजारते थे। अभिनव के शूटिंग रेंज की तरह उनकी ज़िंदगी भी बैडमिंटन कोर्ट में सिमट गयी। यहां तक कि पांच साल तक वो किसी सिनेमाहॉल का रुख तक नहीं कर पाए। लेकिन,बैडमिंटन में वर्ल्ड चैंपियन का खिताब हासिल करने वाले प्रकाश पादुकोण की ये कोशिशें उनके नक्शे कदम पर चलने वाली पीढ़ी के लिए कहानियों की शक्ल ले चुकी है।
अभिनव आप जहां खड़े हैं,वो भारतीय खेलों का एवरेस्ट है। एवरेस्ट को छूने की राह में न जाने कितने कदम आगे बढ़े, लेकिन मंजिल तक पहुंचने से पहले राह में ही टूट गए। आप वहां खड़े हैं तेनजिंग और हिलेरी की तरह। तेनजिंग और हिलेरी ने रास्ता बनाया था, उसके बाद बाकी दुनिया उस पर चलती रही। इन दोनों के कदमों के निशां एवरेस्ट की राह में गढ़ गए हैं। अब हर दूसरे दिन वहां पहुंचने वाला पर्वतारोही इस कड़ी में सिर्फ एक आंकडा भर होता है। ऐसे में, भारतीय खेलों में जो भी इस शिखर पर पहुंचेगा,वो अभिनव के कदमों के निशां तलाशता हुआ ही पहुंचेगा। अभिनव के इस निशां को कोई मिटा नहीं सकता। तेनजिंग और हिलेरी की तरह ये भी भारतीय खेलों के एवरेस्ट पर गढ़ गए हैं। इसे अभिनव को मसहूस करना होगा। उसे अपने लम्हे की विराटता को समझना होगा। वरना इस तरह के बयान से बार बार यही अहसास होगा कि अभिनव जीत तक पहुंचना तो जानते थे लेकिन इस चैंपियन को आगे का रास्ता शायद मालूम नहीं था। हम इस बिंद्रा से रुबरु नहीं होना चाहते...।
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2 comments:
अभिनव बिंद्रा ने गोल्ड हासिल कर भारत को सम्मान दिलाया। लेकिन वो जिस तरह के बयान दे रहे हैं और फिर अपने बयान से पलट रहे हैं उससे लग रहा है कि वो अपने आपको देश से ऊपर समझने लगे हैं।
sanjay shrivastava said
बिंद्रा बेशक हमारे हीरो हैं...देश को उन्होंने वो लम्हा दिया है, जो इस देश ने कभी सोचा ही नहीं था..इसलिए बिंद्रा हमारे लिए महज़ एक खिलाडी या एक चैम्पियन नहीं, इससे भी कहीं ऊपर हैं...आपका कहना सही है कि वो हमारे लिए न केवल रोलमॉडल हैं बल्कि ऐसे शख्स, जिनसे नई पीढी प्रेरणा भी लेगी...ज़ाहिर है ऐसे में उनकी जिम्मेदारी भी बढ़ जाती है...शिखर पर पहुंच कर झुंझलाहट और कड़वाहट के भाव दिखाना उनके बडे कद पर धब्बा ही लगायेगा..ऐसा लग रहा है कि ये महान खिलाड़ी सफलता के नशे मे अनियंत्रित सा हो गया है...
sanjay shrivastav
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