ये भारतीय क्रिकेट का बेमिसाल लम्हा है। एक ऐसा लम्हा, जिससे हम कभी रूबरू नहीं हुए। हमने ऐसे लम्हे की विराटता महसूस जरूर की है। 6 जनवरी, 2004 को अपने साथियों के कंधों पर सिडनी क्रिकेट ग्राउंड से बाहर आते ऑस्ट्रेलियाई झंडे में लिपटे कप्तान स्टीव वॉ। इसी सिडनी मैदान पर करीब दो साल पहले अपने बच्चों के साथ तस्वीरों में कैद होते ग्लेन मैक्ग्रा, शेन वार्न और जस्टिन लैंगर। ये उनके अपने खेल से अलविदा के लम्हे हैं। ऐसे लम्हे, जहां उनका मैदान पर सुनहरा सफर थम गया। लेकिन, हम उनके बीते कल के हर एक लम्हे को पहली ही जैसी ताजगी के साथ आज भी जी सकते हैं। ये शिखर पर खड़े स्टीव वॉ, शेन वार्न और ग्लेन मैक्ग्रा का अलविदा है। एक एलान के साथ की गई विदाई। भारतीय क्रिकेट में इस तरह अलविदा कहने का साहस आज तक कोई बटोर नहीं पाया।
लेकिन, सौरव गांगुली ने मंगलवार की दोपहर बंगलुरु में ये एलान करने का साहस दिखाया। बेशक, उनके इस एलान को बोर्ड के साथ समझौते से जोड़कर देखा जाए। बेशक, गांगुली ऐसे किसी समझौते से इंकार करें, लेकिन भारतीय क्रिकेट के लिए एक अलहदा अनुभव है। एक लेजेंड को हम ठीक मैदान से अपने खेल को अलविदा कहते हुए देखेंगे। गुरुवार से शुरू हो रही बार्डर-गावस्कर ट्रॉफी में हर गुजरते लम्हे के बीच हमें सौरव गांगुली की अलविदा की गूंज सुनाई देगी। उनके हर स्ट्रोक से, उनके हर हावभव में हम उनके बीते कल को तलाश कर बार-बार जीने की कोशिश करेंगे। आखिर, सुनील गावस्कर से लेकर कपिल देव तक अलविदा के एलान के बीच खेल को परवान चढ़ाते नहीं दिखे।
गावस्कर ने इसी बंगलुरु के चिन्नास्वामी स्डेडियम में 22 साल पहले पाकिस्तान के खिलाफ 96 रन की यादगार पारी खेली। एक सलामी बल्लेबाज की स्पिन के खिलाफ खेली गई बेजोड़ पारी गावस्कर के टेस्ट करिअर की आखिरी पारी थी, लेकिन अलविदा के इस सच को या तो गावस्कर जानते थे या गिने-चुने कुछ लोग, जिन्हें गावस्कर ने अपने इस फैसले के बारे में बताया था। लेकिन, भारतीय क्रिकेट के चाहने वाले गावस्कर के इस फैसले से बिल्कुल वाकिफ नहीं थे। भारतीय क्रिकेट को नई राह पर मोड़ने वाले कपिल देव ने विदाई ली, तो आनन-फानन में दिल्ली के पांचसितारा होटल के एक कमरे में कुछ गिने-चुने पत्रकारों के सामने। मैदान से दूर।
लेकिन,भारतीय टेस्ट टीम के सबसे सफल कप्तान सौरव गांगुली इस लकीर से हटकर ठीक मैदान के बीच से अपने करिअर को अलविदा कहेंगे। उनकी ये विदाई हमको एक अलहदा अनुभव देगी, लेकिन साथ ही एक बहस को भी आगे बढ़ाएगी। भारतीय क्रिकेट टीम विदाई लेते सौरव के साथ कैसे इस सीरीज में आगे बढ़ेगी, इस पर हर किसी की निगाह रहेगी। भारतीय टीम अभी तक इस मन:स्थिति में खेलने की आदी नहीं है। साथ ही, देखना होगा कि विवादों के बीच टीम में बरकरार गांगुली अपने खेल को नई ऊंचाइयों की तरफ ले जा पाते हैं या नहीं।
स्टीव वॉ ने जब भारत के खिलाफ अपना आखिरी टेस्ट मैच खेला तो उनकी 80 रन की जुझारु पारी ही थी, जिसने ऑस्ट्रेलिया को बराबरी पर सीरीज खत्म करने का मौका दिया। शेन वार्न और ग्लेन मैक्ग्रा ने इंग्लैंड का एशेज में सफाया करने में बड़ी भूमिका अदा की। मैक्ग्रा ने 21 और वार्न ने 23 विकेट हासिल किए। इन्हीं के साथ रिटायर हुए लेंगर ने 43 की औसत से 303 रन जोड़े। साफ है कि इन लेजेंड ने अपने अलविदा को सीरीज के नतीजों पर हावी नहीं होने दिया। उन्होंने पूरी सीरीज में हर मुकाबले में अपनी पहचान के मुताबिक खेलते हुए अपनी टीम के लिए जीत की एक मजबूत कड़ी की तरह काम किया।
लेकिन, यहां सौरव गांगुली एक अलग जमीन पर खड़े हैं। ना तो भारतीय टीम ऐसी विदाई की आदी है, ना ही गांगुली अपने प्रदर्शन के बूते टीम में बरकरार हैं। चयन समिति के अध्यक्ष श्रीकांत का ये कहना कि अब गांगुली बिना दबाव के खेलेंगे, उनके टीम में बने रहने को सवालों में खड़ा करता है। तथाकथित डील या समझौते को हवा देता है। मेरा मानना है कि गांगुली अब पहले से कहीं ज्यादा दबाव में होंगे। अब नाकामी का भय उनके अवचेतन में पहले से ज्यादा होगा।
दरअसल, गांगुली का ये फैसला ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट की सोच को अपनाने की कोशिश है। लेकिन, सवाल यही है कि हम उन्हीं की तरह जीत को ध्यान में रखकर आगे बढ़ पाते हैं या नहीं। आखिर, जब स्टीव वॉ के रिटायरमेंट पर ऑस्ट्रेलियाई बोर्ड ने फैसला किया, उस वक्त स्टीव वॉ अपनी बेहतरीन फॉर्म में थे। वेस्टइंडीज के खिलाफ सीरीज में 75 रन की औसत से 226 रन बनाए थे। बांग्लादेश के खिलाफ दो मुकाबलों में बिना आउट हुए 256 रन जोड़े थे, जबकि जिम्बाब्वे के खिलाफ 70 की औसत से रन बना चुके थे। शेन वार्न ने जब एशेज में आखिरी बार उतरने का फैसला किया, उससे पहले 11 टेस्टों में 56 विकेट ले चुके थे। यानी हर मैच में औसतन पांच विकेट। ठीक इसी तरह ग्लेन मैक्ग्रा ने इसी एशेज से पहले 10 टेस्ट में 43 विकेट लिए थे।
साफ है, जब इन लेजेंड की अलविदा पर फैसला लिया गया तब इनका खेल शिखर से डिगा नहीं था। लेकिन, सौ से ज्यादा टेस्ट खेल चुके गांगुली श्रीलंका के खिलाफ पूरी सीरीज में 100 रन भी नहीं जोड़ पाए। 16 की औसत से महज 96 रन उनके नाम के आगे जुड़े। ईरानी ट्रॉफी में उन्हें शेष भारत की टीम में जगह देने के लायक नहीं समझा गया। यानी ये गांगुली के खेल का शिखर नहीं है। गांगुली आज उस लय में नहीं हैं, जो ऑस्ट्रेलिया जैसी टीम के खिलाफ जीत तक पहुंचाने का भरोसा जता सके। भारतीय टीम गांगुली की विदाई के लिए सीरीज खेलती नहीं दिखनी चाहिए। वो जीत तक पहुंचने की कोशिश में जुटी दिखई देनी चाहिए। ठीक ऑस्ट्रेलियाई सोच की तरह, जहां आखिरी मंत्र उसकी जीत के आसपास जाकर ठहरता है। टीम के लिए खिलाड़ी सिर्फ उसी जज्बे के साथ मैदान पर खेलता दिखाई देता है। वो टीम के लिए एक अलविदा कहता खिलाड़ी नहीं होता। भावनाओं से दूर वो सिर्फ जीत और जीत की धुरी की तरह टीम में मौजूद रहता है। भारतीय क्रिकेट के लिए भी जरूरत है इस सोच की। गांगुली जैसी अलविदा नहीं, स्टीव वॉ, शेन वार्न और ग्लेन मैक्ग्रा जैसी विदाई की।
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1 comment:
सौरभ के सन्यास पर लिखे इस पोस्ट को पढ़ते हुए एक सवाल में मन में कौंधा कि क्या किसी खेल की बनावट जीवन की बुनियादी आकांक्षाओं में एक-स्थिरता-के विपरीत जाती है।घड़ी की हर टिक टिक के साथ जीवन बीतता जाता है और बीतने के साथ अपने रीते होते जाने का ख्याल भी हावी होता है।अमरता की कल्पना और आत्मा के अविनाशी होने के ख्याल शायद इसी मनोभाव से लड़ने की मानसिक तैयारियां और मिथकीय अभिव्यक्तियां हैं।जीवन के बाकी अध्वयवसायों की तुलना में खेल इस अर्थ में निराला है कि उसमें खिलाड़ी हार-जीत के मनोभाव से तो उतरता ही है,इस मनोभाव से भी उतरता है कि खेल को चंद मिनटों,घंटों,या दिनों में बीत जाना है।खेलने से पहले ही खेल के सुनिश्चित तौर पर बीत जाने के भाव की तुलना जरा जीवन की अपरिहार्य घटना मृत्यु से करें।सभी जानते हैं-मृत्यु होनी है और इसे जानने के बावजूद मृत्यु इतनी दूर लगती है कि उसका भाव हमारे जेहन पर इतना हावी नहीं होता कि जीवन का जिया जाना रुक जाय।हम जीते हैं और कुछ ऐसा करना चाहते हैं जो मृत्यु के बाद एक शिलालेख के रुप में हमारे होने की मुनादी करे।पुरानी भाषा में इसे पुण्य कहा जाता था।संतति पैदा करना.पुस्तकें लिखना,दान करना-ये सब आखिरकार अपनी मानसिक मौजूदगी को स्थिर बनाने की ही तो कोशिशें हैं।क्या खेल में भी ऐसा होता है।उत्तर होगा-निश्चित ही।खेल के आंकड़े आखिरकार खेल के इतिहासवेत्ता को इस बात की याद तो दिलाते ही हैं कि एक खिलाड़ी हो गया है ऐसा जिसने इतने और ऐसे कीर्तिमान बनाए।जीनव की बुनियादी आकांक्षाओं में एक -अमरता-इस अर्थ में खेल में भी अक्षुण्ण रहती है। जैसे कोई जीवन मृत्यु की शरण लेता है तो मानवता को अफसोस होता है वैसे ही खिलाडी के मैदान से हमेशा के लिए हटने पर दर्शक को भी अफसोस होता है।खिलाडी का मैदान से हटना एक तरह से अंतिम मृत्यु से पहले एक छोटी मौत को स्वीकार करना है।सारा सवाल यहीं आकर किसी तलवार की तरह तन जाता है--क्या हर खिलाड़ी के भीतर अपनी मृत्यु को अपने खेल के चरम क्षणों में स्वीकार करने का साहस होता है। क्या हर जीवन जीने वाला अपनी मृत्यु को किसी योद्धा की तरह स्वीकार करने को तैयार होता है।मैक्ग्रा,शेन वार्न और स्टीव वाव में हमें इस साहस के दर्शन होते हैं।सौरभ के भीतर इस साहस को नहीं खोजा सकता।उन्होने मैदान पर बने रहने की हरचंद कोशिशें कीं।इसमें कोई गलती नहीं है।आंकड़े सौरभ के मौजूद रहने के पक्ष में गवाही देते हैं।और इस गवाही के बिनाह पर सौरभ बार बार ये जताते नजर आए कि वक्त चाहे बूढ़ा हो जाए-कोलकाता का यह टाइगर सदाबहार रहेगा।सौरभ अपनी इसी सोच के कारण चूक गए।वो जीवन और खेल के इस मूल तर्क को भूल गए कि किसी के अलविदा का वक्त दुनिया तभी याद रखती है जब उसने अलविदा उस मकाम से कहा हो जहां पर उसके बने रहने की संभावना सबसे ज्यादा मानी जा रही हो।
सौऱभ के अलविदा के लम्हें पर एक विचारोत्तेजक लेख।
चंदन श्रीवास्तव
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