स्टेडियम की सीढि़यों पर तन्हा बैठे सौरव गांगुली का एक विज्ञापन आज बार-बार याद आ रहा है। दो साल पहले सौरव को भारतीय टीम से बाहर कर दिया गया था। वो अपनी वापसी की जी-तोड़ कोशिशों में लगे थे। एक सॉफ्ट ड्रिंक बनाने वाली कंपनी ने सौरव की इन्हीं कोशिशों को अपने विज्ञापन में ढाल दिया था। ये विज्ञापन शुरू होता था सौरव के परिचय से, सौरव के सवाल से। ‘मैं सौरव गांगुली हूं, भूले तो नहीं... ’
दो साल पहले टीम से ड्रॉप कर दिए गए सौरव को कोई भूला नहीं था, सौरव को भूलना नामुमकिन है। आज भी कोई सौरव को भूला नहीं है। लेकिन, भारतीय क्रिकेट में उन्हें भूलाने की कोशिश जरूर हो रही है। बंगलुरु में ऑस्ट्रेलियाई सीरीज के लिए कैंप जारी है। हर कोई वहां मौजूद हैं, नहीं हैं तो सिर्फ सौरव गांगुली। टीम संभावितों की कोई आधिकारिक घोषणा नहीं की गई है। ना तो वेंगसरकर की पुरानी चयन समिति ने किन्हीं संभावितों के नाम जारी किए, ना ही शनिवार को श्रीकांत की अगुवाई में कमान संभालेवाली चयन समिति ने ऐसी कोई पहल की।
लेकिन बंगलुरु में भारतीय टेस्ट टीम का हर दूसरा संभावित चेहरा मौजूद है, सिर्फ सौरव गांगुली को छोड़कर। आखिर ईरानी ट्रॉफी की टीम घोषित करते वक्त चयन समिति ने सौरव को टेस्ट टीम से खारिज नहीं किया था, तो फिर सौरव बंगलुरु में जारी कंडिशनिंग कैंप में क्यों मौजूद नहीं है ? ना तो कोई यह सवाल खड़ा कर रहा है, ना ही इसका जवाब तलाशा जा रहा है।
दिलचस्प है कि वेंगसरकर ने चयन समिति में रहते वक्त सौरव को ड्रॉप करने पर कोई सफाई नहीं दी, लेकिन पद से हटते ही एक के बाद एक इंटरव्यू में उन्होंने अपने इस फैसले की वजह गिनाने में देर नहीं की। 'सौरव टेस्ट के लिए अनफिट हैं। उनका खेल ढलान पर है।' ये वेंगसरकर के बयान हैं।
इन सबके बीच बुधवार को चयन समिति की होने वाली बैठक में क्या यह मान लिया जाए कि सौरव को टेस्ट टीम में जगह नहीं दी जाएगी ? अगर नई चयन समिति के सदस्यों की सौरव को लेकर सोच पर नजर डाली जाए तो एकबारगी ऐसा नहीं लगता। भारतीय क्रिकेट की पहली प्रोफेशनल चयन समिति के अध्यक्ष कृष्णमाचारी श्रीकांत सौरव के अनुभव को तरजीह दे सकते हैं। श्रीलंका में मिली नाकामी के बाद श्रीकांत ने अपनी वेबसाइट पर साफ लिखा है, 'हमारा मिड्ल अपने करियर की संध्या में हैं और समय आ गया है कि इन महान खिलाडि़यों के विकल्पों को तैयार करने की कवायद शुरू कर दी जाए, लेकिन यह आसान नहीं होगा। हमें धैर्य रखना होगा और शुरू में कुछ झटकों को सहने के लिए भी तैयार रहना होगा। सौभग्य से हमारे पास काफी प्रतिभाशाली खिलाड़ी हैं, लेकिन इन महान खिलाडि़यों के विस्तृत अनुभव और उनकी महानता का विकल्प ढूंढ पाना बहुत मुश्किल होगा।'
बेशक श्रीकांत का यह बयान एक कमेंटेटर और क्रिकेट जानकार की हैसियत से है। लेकिन, ये संकेत जरूर देता है कि वे अभी इस गोल्डन मिड्ल ऑर्डर को बदलने की जल्दबाजी में नहीं हैं। कम से कम पोंटिंग की वर्ल्ड चैंपियन टीम के खिलाफ ऐसा जोखिम उठाने की कोशिश वे नहीं करना चाहेंगे।
अकेले श्रीकांत ही नहीं, उनके सहयोगी यशपाल शर्मा भी चयनकर्ता के नाते अपने पहले कार्यकाल में सौरव के हक में लड़ते रहे हैं। 2006 में तो सौरव की वापसी के मुद्दे पर चयन समिति के अध्यक्ष किरण मोरे और यशपाल का टकराव खुलकर सामने आ गया था। इसी कड़ी में तीसरे चयनकर्ता राजा वेंकट का मंगलवार को दिया बयान भी गौरतलब है। बंगाल के लिए क्रिकेट खेलने वाले राजा वेंकट का मानना है कि सचिन, सौरव और द्रविड़ को कब तक क्रिकेट खेलना है, यह उन पर छोड़ देना चाहिए।
ऐसे में बेशक सौरव को कंडिशनिंग कैंप से दूर रखा गया है, लेकिन मौजूदा चयन समिति के इन सदस्यों के विचारों के मद्देनजर सौरव को टीम में जगह मिलनी चाहिए।
लेकिन, सवाल यही है कि क्या ऐसा होगा ? जवाब अभी भी आसान नहीं है। भारतीय टीम चयन समिति ही चुनती है, लेकिन इस पर औपचारिक मुहर अध्यक्ष ही लगाता है। टीम के चुनने में चयन समिति के फैसलों में कोई दखलअंदाजी नहीं होती, लेकिन ये बोर्ड की एक औपचारिक प्रक्रिया है। ऐसे में बोर्ड के नए अध्यक्ष शशांक मनोहर पर सबकी निगाहें हैं। अगर आपको याद हो तो, 2004 में नागपुर में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ खेला गया टेस्ट मैच पिच को लेकर विवादों में घिर गया था। मुकाबले से पहले कप्तान सौरव गांगुली 'होम एडवांटेज' की गुहार लगाते हुए पिच से घास हटाने की मांग करते रहे, लेकिन विदर्भ क्रिकेट एसोसिएशन ने इससे साफ इंकार कर दिया था। उस समय विदर्भ क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष शशांक मनोहर ही थे। इस मुकाबले की सुबह अनफिट सौरव गांगुली की जगह कप्तानी राहुल द्रविड़ को संभालनी पड़ी। माना जाता है कि शशांक मनोहर से पिच के मुद्दे पर गांगुली नाराज हो गए थे। ऐसे में बुधवार को टेस्ट टीम की सूची पर शशांक मनोहर की आखिरी मुहर पर सबकी नजर रहेगी।
लेकिन, इन सबके बीच एक बात साफ है। सौरव गांगुली का टीम में आना, बाहर होना और टीम में वापसी, हर बार सौरव से जुड़े फैसले राजनीति के छीटों से नहीं बच पाते। 1996 में टेस्ट टीम में सौरव जगह बनाते हैं, तो उन के चयन पर सीधे-सीधे कोटा सिस्टम का आरोप लगता है। लॉर्ड्स पर अपने पहले ही टेस्ट में वे शतक जमाकर इसका भरपूर जवाब देते हैं। भारतीय क्रिकेट को अपनी कप्तानी में वे एक शिखर पर काबिज करते हैं, लेकिन कोच ग्रेग चैपल से अनबन टीम से बाहर होने की वजह बनकर सामने आती है। संसद में लेफ्ट फ्रंट के समर्थन की आवाजों के बीच सौरव टीम में वापसी करते हैं। आज भी सौरव की टीम में जगह को बरकरार रखने को लेकर बहस छिड़ी है तो इसकी वजह उनका एक सीरीज में नाकाम होना ही नहीं है। बढ़ती उम्र से लेकर तमाम दूसरी दलीलें सामने आ रही हैं। ऐसे में टीम में अगर वो बरकरार रहते हैं तो भी उनका खेल या फॉर्म आधार नहीं बन सकता। श्रीलंका के नाकाम दौरे के बाद ना तो सौरव कहीं घरेलू क्रिकेट खेले हैं, ना ही उन्हें बंगलुरु के कैंप के लायक माना गया। ऐसे में टीम में उनकी जगह बरकरार रहने का आधार उनका फॉर्म तो नहीं ही होगा।
इन सबके बीच सौरव गांगुली की कहानी सॉफ्ट ड्रिंक के उस विज्ञापन से आगे जाते दिखती है। अब वो सिर्फ वापसी की कोशिशों में जुटे सौरव गांगुली नहीं हैं, जो कहते हैं कि वापसी के साथ शर्ट घुमाने का मौका एक बार फिर मिल जाए। आप दादा की बात सुन रहे हैं ना ! दादा की बात ही नहीं, दादा से जुड़े और उनके आसपास बुने हर किस्से को ये देश ध्यान से सुन रहा है। भारतीय क्रिकेट में सौरव की कहानी अब एक विज्ञापन के दायरे से बाहर निकल एक सोप ओपेरा में तब्दील हो गई है।
Tuesday, September 30, 2008
Wednesday, September 24, 2008
स्किल और तकनीक से पहले जीत की आस्ट्रेलियाई सोच
बर्मिंघम का एजबेस्टन मैदान। 1999 के वर्ल्ड कप का सेमीफाइनल। दक्षिण अफ्रीका और आस्ट्रेलिया के बीच मुकाबला आखिरी कुछ गेंदों में सिमटा है। दक्षिण अफ्रीका को जीत के लिए 31 गेंदों पर 39 रन चाहिए। आस्ट्रेलिया की मजबूत फील्डिंग और सटीक गेंदबाजी के बीच ये एक मुश्किल काम है। लेकिन, लांस क्लूजनर अगर विकेट पर मौजूद हों तो नामुमकिन कुछ भी नहीं। इंग्लैंड में खेले जा रहे इस वर्ल्ड कप में क्लूजनर के बल्ले की ताकत और प्रहार की मार करीब करीब हर गेंदबाज झेल चुका है। यहां भी क्लूजनर के इरादे नहीं डगमगाते। 14 गेंदों में 31 ताबड़तोड़ रन।
अब दक्षिण अफ्रीका को पहली बार वर्ल्ड कप के फाइनल में जगह बनाने के लिए महज एक रन चाहिए। चार गेंद बाकी है। डेमियन फ्लेमिंग मुकाबले के आखिरी ओवर की तीसरी गेंद फेंकते हैं। क्लूजनर कोई रन नहीं लेते। चौथी गेंद को पुश कर वो पूरे उल्लास में एक विजयी दौड़ लगाते हैं। लेकिन, दूसरे छोर पर मौजूद एलन डोनाल्ड अपनी जगह पर खड़े रह जाते हैं। क्लूजनर को अपनी ओर बढ़ते देख वो जब तक विकेट कीपिंग एंड की ओर दौड़ लगाएं, गिलक्रिस्ट गिल्लियां उड़ा चुके हैं। मुकाबला टाई हो चुका है। पहले मुकाबले में मिली हार के चलते दक्षिण अफ्रीका एक बार फिर फाइनल में जगह बनाने से चूक गया। आस्ट्रेलिया वर्ल्ड कप के अब तक के सबसे रोमांचक मुकाबले में चौथी बार फाइनल में पहुंच जाता है।
आप सोच रहे होंगे आखिर मैं क्यों इतिहास के पन्ने पलटने लगा। मैं इसकी वजह पर आता हूं। लेकिन पहले हम 1981 में लौटते हैं। आस्ट्रेलिया का मेलबर्न क्रिकेट ग्राउंड। बेंसन हेसेज कप का मुकाबला। न्यूजीलैंड को आस्ट्रेलिया से इस मुकाबले में बराबरी के लिए आखिरी गेंद पर छह रन चाहिए। कप्तान ग्रैग चैपल अपने गेंदबाज भाई ट्रेवर चैपल को हिदायत देते हैं। ट्रेवर मैच की आखिरी गेंद अंडर आर्म फेंकते हैं। हाथ को ज़मीन से सटाते हुए बल्लेबाज ब्रायन मैकेंजी की ओर गेंद बढ़ाते हैं। नतीजतन आस्ट्रेलिया मैच जीत जाता है। दूसरे छोर पर बेहतरीन 102 रन बनाकर ब्रूस एडगर हैरान हैं। पूरा मेलबर्न क्रिकेट मैदान अपने ही हीरो ग्रैग चैपल को सवालों में खड़ा कर रहा है। लेकिन ग्रैग को कोई रंज नहीं। बेशक, खेल भावना आज आहत हुई हो लेकिन उन्होंने क्रिकेट के कायदों में रहकर जीत हासिल की है।
ये आस्ट्रेलियाई क्रिकेट के दो लम्हे हैं। जीत तक पहुंचने के दो लम्हे। अब शायद अहसास कर रहे होंगे कि मैं बीते कल के इन पन्नों को क्यों पलटने लगा। मैं आस्ट्रेलियाई क्रिकेट और उनकी सोच से बावस्ता कराने की कोशिश कर रहा हूं। एक टीम,जो जीत के लिए आखिरी गेंद,आखिरी क्षणों तक कोशिश करती है। एक टीम,जिसके लिए जीत ही खेल की परिपूर्णता है। कभी खेल को उसके सबसे रोमांचक, सबसे बेहतरीन पल देते हुए। कभी खेल के दायरे में ही जीत तक पहुंचते हुए एक अंतहीन बहस को छेड़ते हुए। लेकिन खेल है तो जीत है, इस मंत्र के साथ उसका हर खिलाड़ी मैदान पर हर लम्हे को शिद्दत से जीत के लम्हे में तब्दील करने की कोशिश में जुटा दिखता है।
क्रिकेट या खेल की सोच के बीच कल तक टीम इंडिया के गुरु ग्रैग चैपल का आस्ट्रेलियाई क्रिकेट टीम से टैक्नीकल डायरेक्टर की हैसियत से जुडना बेशक कइयों के गले नहीं उतरता हो। लेकिन,मेरे लिए वो एक टीम के लिए जीत की जीतोड़ कोशिशों को बयां करता है। ये जानते हुए कि पोंटिंग की इस टीम में सिर्फ चार खिलाड़ी ही भारत की जमी पर इससे पहले टेस्ट खेले हैं। मैक्ग्रा और वार्न की विदाई के बाद पोंटिंग की ये मौजूदा टीम एक बदलाव के दौर से गुजर रही है। ऐसे में,ये टीम ग्रैग चैपल की भारतीय क्रिकेट में कोच की हैसियत से बनाई पकड़ का हर फायदा उठाने की कोशिश में है। ब्रेटली बेहिचक स्वीकार करते हैं-"हम ग्रैग से हर मुमकिन जानकारी का लाभ उठाएंगे। भारत के पूर्व कोच होने के नाते ही वो हमारे साथ है। हमारी टीम के एक अहम सदस्य के नाते।" साफ है कि ये आस्ट्रेलियाई टीम में उभर रही कमियों को ग्रैग के जरिए भरने की कोशिश है।
इसी कड़ी में आप श्रीलंका टीम के मौजूदा कोच बेलिस के बयां पर नज़र डालिए-"क्रेटजा अजंता मेंडिस की तरह भारतीय बल्लेबाजों पर खौफ बरपा सकते हैं।"हम और आप अभी तक क्रेटजा को नहीं जानते। बहुतों को वक्त लग जाएगा ये जानने में भी कि क्रेटजा स्पिनर हैं या पेसर। अगर आप क्रिकेट पर बेहद करीबी नजर रखते हैं तो आप उन्हें वेस्टइंडीज गए स्पिनर केसन की जगज टीम में शामिल किए गए स्पिनर के तौर पर देख सकते हैं। लेकिन बेलिस ने ये बयां देकर भारतीय बल्लेबाजों पर एक मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने की कोशिश की है। कभी विक्टोरिया में उनके कोच रहे बेलिस के मुताबिक क्रेटजा भी मेंडिस की तरह गेंद को टर्न करा सकते हैं। साफ है आस्ट्रेलियाई क्रिकेट में ये भारत पर एक चौतरफा वार है। मैदान में जंग की शुरुआत से पहले मैदान के बाहर एक मनोवैज्ञानिक लड़ाई। लेकिन,ये नयी सोच नहीं है। 2001 में लास्ट फ्रंटियर फतेह करने आए स्टीव वॉ और उनके साथी भी अपने बयानों से माहौल को गरमा रहे थे लेकिन इरादा सिर्फ एक था-जीत।
दरअसल,ये आस्ट्रेलियाई सोच है। मैदान पर हर हाल में बेहतर रहने की सोच। मुश्किल से मुश्किल मोड़ पर मुकाबले को अपनी ओर मोड़ने की ताकत देती सोच। आस्ट्रेलिया का मानना रहा है कि आप अपनी मानसिक सोच को जितना बेहतर करोगे, आपका स्किल उतना ही निखार लेगा। आस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों को ये कहा जाता है-एथलीट जिस तरह सोचते हैं,नाजुक मौकों पर फैसला लेते हैं,वो ही आखिर में हार और जीत को तय करता है। खेलों की दुनिया भी इसे महसूस कर चुकी है।
ये आस्ट्रेलियाई सोच अंतरराष्ट्रीय मंच पर ही नहीं,उनके घरेलू ढांचे में हर जगह मौजूद है। रग्बी में केंटबरी बलडॉग टीम के बारे में पढ़िए। साफ हो जाएगा कैसे जीत की इसी सोच के साथ वो लीग में चोटी पर रहे। इसी सोच के साथ वहां बी ग्रेड के खिलाड़ियों को ए ग्रेड में तब्दील करने की कोशिश होती है,और ए ग्रेड के खिलाड़ियों को वर्ल्ड चैंपियन में तब्दील किया जाता है। इस आस्ट्रेलियाई सोच को बाकी दुनिया भी सलाम करती है। क्रिकेट की दुनिया में आईपीएल पर नजर डालें तो आधी टीमों के कोच आस्ट्रेलियाई थे। इतना ही नहीं,क्रिकेट की बाकी दुनिया में अगर बेलिस श्रीलंका के कोच हैं,तो लॉसन ने पाकिस्तान की कमान संभाली है। डेव व्हाटमोर भारत की ए टीम पर निगाह रखते हैं। ये सब स्किल और तकनीक से पहले टीम में बेहद बारीकी से जीत का जज्बा भरते हैं।
आस्ट्रेलिया की इसी सोच को अमेरिका इंस्टीट्यूट ऑफ लर्निंग एंड कॉगनिटिव डवलपमेंट ने गोल्फ के खिलाड़ी पर प्रयोग किया तो गोल्फर ने 12 स्ट्रोक पहले ही अपनी मजिल हासिल कर ली। जबकि,स्किल में वो बाकी खिलाड़ियों से पीछे था। इसी आस्ट्रेलियाई सोच को क्रिकेट और खेल के दायरे से बाहर भी आजमाया गया है। दरअसल,आस्ट्रेलिया में खेल ज़िंदगी जीने के तरीके में तब्दील हो चुका है। इस हद तक कि हर दूसरा आस्ट्रेलियाई कई खेलों में अपनी मंजिल खोजता है,और जिस खेल में उसे ऊंचाई पाने की उम्मीद नज़र आती है,उसे वो अपना लेता है।और पीछे मुड़ कर नहीं दिखता। आस्ट्रेलियाई हॉकी में लेजेंड रिक चार्ल्सवर्थ को देखिए। 1976 के मोट्रियल ओलंपिक के बाद वो दक्षिण आस्ट्रेलिया के लिए क्रिकेट खेल रहे थे। इस हद तक कि पैकर के झटकों से उबरने की कोशिश कर रही आस्ट्रेलियाई क्रिकेट टीम में उनका नाम भी शामिल करने की चर्चा छिड़ने लगी थी। लेकिन,चार्ल्सवर्थ ने हॉकी को आजमाया और चार ओलंपिक मे शिरकत करने के साथ साथ अपनी कप्तानी में 1986 का वर्ल्ड कप भी जीता।
आस्ट्रेलियाई में खेल समाज और संस्कृति को जोड़ने में एक जरिया बन चुका है। खेल समाज के अलग अलग तबकों को जोड़ रहा है। वो बाकी दुनिया में आस्ट्रेलिया की पहचान के तौर पर सबके सामने आता है। आखिरी क्षणों तक जीत की कोशिशों में जुटे आस्ट्रेलियाई की तस्वीर को पेश करता है। और इस सोच को वो कतई कमज़ोर पड़ने नहीं देना चाहता। इसके लिए वो हर उस शख्स को अपने से जोड़ता है,जो उसे इस सोच में एक पायदान और ऊपर खड़ा कर सके। यही वजह है कि महज सात फर्स्ट क्लास खेलने वाले जॉन बुकानन लेजेंड से भरपूर आस्ट्रेलियाई क्रिकेट में एक बेमिसाल कोच की तरह उभार लेते हैं। लगातार 16 टेस्ट मैच जिताकर एक नया इतिहास रचते हैं। टीम को तीन बार लगातार वर्ल्ड चैंपियन के पायदान पर ला खड़ा करते हैं। इन सबके बीच ग्रैग चैपल का टीम से जुड़ने या बेलिस के बयान के मायने आप समझ सकते हैं। इस पर हैरानी नहीं होनी चाहिए। ये आस्ट्रेलियाई सोच है,जो सिर्फ जीत तक पहुंचना ही नहीं जानती। वो जीत के शिखर पर बरकरार रहने की राह भी दिखाती है।
अब दक्षिण अफ्रीका को पहली बार वर्ल्ड कप के फाइनल में जगह बनाने के लिए महज एक रन चाहिए। चार गेंद बाकी है। डेमियन फ्लेमिंग मुकाबले के आखिरी ओवर की तीसरी गेंद फेंकते हैं। क्लूजनर कोई रन नहीं लेते। चौथी गेंद को पुश कर वो पूरे उल्लास में एक विजयी दौड़ लगाते हैं। लेकिन, दूसरे छोर पर मौजूद एलन डोनाल्ड अपनी जगह पर खड़े रह जाते हैं। क्लूजनर को अपनी ओर बढ़ते देख वो जब तक विकेट कीपिंग एंड की ओर दौड़ लगाएं, गिलक्रिस्ट गिल्लियां उड़ा चुके हैं। मुकाबला टाई हो चुका है। पहले मुकाबले में मिली हार के चलते दक्षिण अफ्रीका एक बार फिर फाइनल में जगह बनाने से चूक गया। आस्ट्रेलिया वर्ल्ड कप के अब तक के सबसे रोमांचक मुकाबले में चौथी बार फाइनल में पहुंच जाता है।
आप सोच रहे होंगे आखिर मैं क्यों इतिहास के पन्ने पलटने लगा। मैं इसकी वजह पर आता हूं। लेकिन पहले हम 1981 में लौटते हैं। आस्ट्रेलिया का मेलबर्न क्रिकेट ग्राउंड। बेंसन हेसेज कप का मुकाबला। न्यूजीलैंड को आस्ट्रेलिया से इस मुकाबले में बराबरी के लिए आखिरी गेंद पर छह रन चाहिए। कप्तान ग्रैग चैपल अपने गेंदबाज भाई ट्रेवर चैपल को हिदायत देते हैं। ट्रेवर मैच की आखिरी गेंद अंडर आर्म फेंकते हैं। हाथ को ज़मीन से सटाते हुए बल्लेबाज ब्रायन मैकेंजी की ओर गेंद बढ़ाते हैं। नतीजतन आस्ट्रेलिया मैच जीत जाता है। दूसरे छोर पर बेहतरीन 102 रन बनाकर ब्रूस एडगर हैरान हैं। पूरा मेलबर्न क्रिकेट मैदान अपने ही हीरो ग्रैग चैपल को सवालों में खड़ा कर रहा है। लेकिन ग्रैग को कोई रंज नहीं। बेशक, खेल भावना आज आहत हुई हो लेकिन उन्होंने क्रिकेट के कायदों में रहकर जीत हासिल की है।
ये आस्ट्रेलियाई क्रिकेट के दो लम्हे हैं। जीत तक पहुंचने के दो लम्हे। अब शायद अहसास कर रहे होंगे कि मैं बीते कल के इन पन्नों को क्यों पलटने लगा। मैं आस्ट्रेलियाई क्रिकेट और उनकी सोच से बावस्ता कराने की कोशिश कर रहा हूं। एक टीम,जो जीत के लिए आखिरी गेंद,आखिरी क्षणों तक कोशिश करती है। एक टीम,जिसके लिए जीत ही खेल की परिपूर्णता है। कभी खेल को उसके सबसे रोमांचक, सबसे बेहतरीन पल देते हुए। कभी खेल के दायरे में ही जीत तक पहुंचते हुए एक अंतहीन बहस को छेड़ते हुए। लेकिन खेल है तो जीत है, इस मंत्र के साथ उसका हर खिलाड़ी मैदान पर हर लम्हे को शिद्दत से जीत के लम्हे में तब्दील करने की कोशिश में जुटा दिखता है।
क्रिकेट या खेल की सोच के बीच कल तक टीम इंडिया के गुरु ग्रैग चैपल का आस्ट्रेलियाई क्रिकेट टीम से टैक्नीकल डायरेक्टर की हैसियत से जुडना बेशक कइयों के गले नहीं उतरता हो। लेकिन,मेरे लिए वो एक टीम के लिए जीत की जीतोड़ कोशिशों को बयां करता है। ये जानते हुए कि पोंटिंग की इस टीम में सिर्फ चार खिलाड़ी ही भारत की जमी पर इससे पहले टेस्ट खेले हैं। मैक्ग्रा और वार्न की विदाई के बाद पोंटिंग की ये मौजूदा टीम एक बदलाव के दौर से गुजर रही है। ऐसे में,ये टीम ग्रैग चैपल की भारतीय क्रिकेट में कोच की हैसियत से बनाई पकड़ का हर फायदा उठाने की कोशिश में है। ब्रेटली बेहिचक स्वीकार करते हैं-"हम ग्रैग से हर मुमकिन जानकारी का लाभ उठाएंगे। भारत के पूर्व कोच होने के नाते ही वो हमारे साथ है। हमारी टीम के एक अहम सदस्य के नाते।" साफ है कि ये आस्ट्रेलियाई टीम में उभर रही कमियों को ग्रैग के जरिए भरने की कोशिश है।
इसी कड़ी में आप श्रीलंका टीम के मौजूदा कोच बेलिस के बयां पर नज़र डालिए-"क्रेटजा अजंता मेंडिस की तरह भारतीय बल्लेबाजों पर खौफ बरपा सकते हैं।"हम और आप अभी तक क्रेटजा को नहीं जानते। बहुतों को वक्त लग जाएगा ये जानने में भी कि क्रेटजा स्पिनर हैं या पेसर। अगर आप क्रिकेट पर बेहद करीबी नजर रखते हैं तो आप उन्हें वेस्टइंडीज गए स्पिनर केसन की जगज टीम में शामिल किए गए स्पिनर के तौर पर देख सकते हैं। लेकिन बेलिस ने ये बयां देकर भारतीय बल्लेबाजों पर एक मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने की कोशिश की है। कभी विक्टोरिया में उनके कोच रहे बेलिस के मुताबिक क्रेटजा भी मेंडिस की तरह गेंद को टर्न करा सकते हैं। साफ है आस्ट्रेलियाई क्रिकेट में ये भारत पर एक चौतरफा वार है। मैदान में जंग की शुरुआत से पहले मैदान के बाहर एक मनोवैज्ञानिक लड़ाई। लेकिन,ये नयी सोच नहीं है। 2001 में लास्ट फ्रंटियर फतेह करने आए स्टीव वॉ और उनके साथी भी अपने बयानों से माहौल को गरमा रहे थे लेकिन इरादा सिर्फ एक था-जीत।
दरअसल,ये आस्ट्रेलियाई सोच है। मैदान पर हर हाल में बेहतर रहने की सोच। मुश्किल से मुश्किल मोड़ पर मुकाबले को अपनी ओर मोड़ने की ताकत देती सोच। आस्ट्रेलिया का मानना रहा है कि आप अपनी मानसिक सोच को जितना बेहतर करोगे, आपका स्किल उतना ही निखार लेगा। आस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों को ये कहा जाता है-एथलीट जिस तरह सोचते हैं,नाजुक मौकों पर फैसला लेते हैं,वो ही आखिर में हार और जीत को तय करता है। खेलों की दुनिया भी इसे महसूस कर चुकी है।
ये आस्ट्रेलियाई सोच अंतरराष्ट्रीय मंच पर ही नहीं,उनके घरेलू ढांचे में हर जगह मौजूद है। रग्बी में केंटबरी बलडॉग टीम के बारे में पढ़िए। साफ हो जाएगा कैसे जीत की इसी सोच के साथ वो लीग में चोटी पर रहे। इसी सोच के साथ वहां बी ग्रेड के खिलाड़ियों को ए ग्रेड में तब्दील करने की कोशिश होती है,और ए ग्रेड के खिलाड़ियों को वर्ल्ड चैंपियन में तब्दील किया जाता है। इस आस्ट्रेलियाई सोच को बाकी दुनिया भी सलाम करती है। क्रिकेट की दुनिया में आईपीएल पर नजर डालें तो आधी टीमों के कोच आस्ट्रेलियाई थे। इतना ही नहीं,क्रिकेट की बाकी दुनिया में अगर बेलिस श्रीलंका के कोच हैं,तो लॉसन ने पाकिस्तान की कमान संभाली है। डेव व्हाटमोर भारत की ए टीम पर निगाह रखते हैं। ये सब स्किल और तकनीक से पहले टीम में बेहद बारीकी से जीत का जज्बा भरते हैं।
आस्ट्रेलिया की इसी सोच को अमेरिका इंस्टीट्यूट ऑफ लर्निंग एंड कॉगनिटिव डवलपमेंट ने गोल्फ के खिलाड़ी पर प्रयोग किया तो गोल्फर ने 12 स्ट्रोक पहले ही अपनी मजिल हासिल कर ली। जबकि,स्किल में वो बाकी खिलाड़ियों से पीछे था। इसी आस्ट्रेलियाई सोच को क्रिकेट और खेल के दायरे से बाहर भी आजमाया गया है। दरअसल,आस्ट्रेलिया में खेल ज़िंदगी जीने के तरीके में तब्दील हो चुका है। इस हद तक कि हर दूसरा आस्ट्रेलियाई कई खेलों में अपनी मंजिल खोजता है,और जिस खेल में उसे ऊंचाई पाने की उम्मीद नज़र आती है,उसे वो अपना लेता है।और पीछे मुड़ कर नहीं दिखता। आस्ट्रेलियाई हॉकी में लेजेंड रिक चार्ल्सवर्थ को देखिए। 1976 के मोट्रियल ओलंपिक के बाद वो दक्षिण आस्ट्रेलिया के लिए क्रिकेट खेल रहे थे। इस हद तक कि पैकर के झटकों से उबरने की कोशिश कर रही आस्ट्रेलियाई क्रिकेट टीम में उनका नाम भी शामिल करने की चर्चा छिड़ने लगी थी। लेकिन,चार्ल्सवर्थ ने हॉकी को आजमाया और चार ओलंपिक मे शिरकत करने के साथ साथ अपनी कप्तानी में 1986 का वर्ल्ड कप भी जीता।
आस्ट्रेलियाई में खेल समाज और संस्कृति को जोड़ने में एक जरिया बन चुका है। खेल समाज के अलग अलग तबकों को जोड़ रहा है। वो बाकी दुनिया में आस्ट्रेलिया की पहचान के तौर पर सबके सामने आता है। आखिरी क्षणों तक जीत की कोशिशों में जुटे आस्ट्रेलियाई की तस्वीर को पेश करता है। और इस सोच को वो कतई कमज़ोर पड़ने नहीं देना चाहता। इसके लिए वो हर उस शख्स को अपने से जोड़ता है,जो उसे इस सोच में एक पायदान और ऊपर खड़ा कर सके। यही वजह है कि महज सात फर्स्ट क्लास खेलने वाले जॉन बुकानन लेजेंड से भरपूर आस्ट्रेलियाई क्रिकेट में एक बेमिसाल कोच की तरह उभार लेते हैं। लगातार 16 टेस्ट मैच जिताकर एक नया इतिहास रचते हैं। टीम को तीन बार लगातार वर्ल्ड चैंपियन के पायदान पर ला खड़ा करते हैं। इन सबके बीच ग्रैग चैपल का टीम से जुड़ने या बेलिस के बयान के मायने आप समझ सकते हैं। इस पर हैरानी नहीं होनी चाहिए। ये आस्ट्रेलियाई सोच है,जो सिर्फ जीत तक पहुंचना ही नहीं जानती। वो जीत के शिखर पर बरकरार रहने की राह भी दिखाती है।
Monday, September 22, 2008
इरफान की छाया से बाहर आते युसूफ पठान
हवा में लहराते एक हाथ में बल्ला। दूसरे हाथ में हैलमेट। एक सकून के साथ अपने लम्हे को जीते युसूफ पठान। आज अखबारों में छपी इस तस्वीर को मैं बार बार पढ़ने की कोशिश कर रहा हूं। बार बार ये तस्वीर मुझे 15 साल पीछे ले जाती है। यादों का कारवां एक झटके में चेन्नई के चेपक से मुंबई के वानखेडे का रुख करता है। युसूफ पठान के अंदाज में सामने खड़े होते हैं विनोद कांबली।
1993 के फरवरी महीने के आखिरी दिन थे। ग्राहम गूज की अगुवाई में इंग्लैंड की टीम सीरिज का तीसरा और आखरी टेस्ट खेल रही थी। मैच के चौथे दिन लंच के करीब विनोद कांबली ने अपना दोहरा शतक पूरा किया। इस मुकाम पर पहुंचते ही कांबली ने बल्ले को बार बार हवा में लहराया। फिर,युसूफ पठान की तरह उनका बल्ला और हेलमेट ड्रेसिंग रुम और पैवेलियन की तरफ रुख कर ठहर गया। एक ठहरी हुई तस्वीर में तब्दील होता हुआ।
मेरे लिए ये तस्वीर हमेशा हमेशा के लिए ठहर चुकी है। कांबली की इस पारी में शतक से दोहरे शतक के बीच महज आंकडों में ही एक मंजिल हासिल नहीं की। इन 100 रनों के दरम्यान कांबली की एक नयी शख्सियत से रुबरु होने का मौका मिला। तीसरे दिन 100 रनों से पार करते हुए कांबली कुछ देर के लिए भूल गए कि उन्होंने टेस्ट में अपना पहला शतक पूरा कर लिया। वे इस मंजिल तक पहुंचने की खुशी को जाहिर नहीं कर पाए। या कुछ देर के लिए वो इस क्षण से चूक गए। एक ऐसा पल,जिसे छूने की चाह में उन्होंने दिन रात के फासले को खत्म कर दिया होगा। कांबली इस मुकाम की विराटता को महसूस करने में चूकते दिखायी दे रहे थे।
मैं आज भी इस सवाल के जवाब को जितना टटोलता हूं,उतनी ही सटीकता से उसका जवाब मेरे सामने आता है। पंद्रह साल बाद भी इसका सच मुझे मालूम नहीं लेकिन मुझे जवाब एक ही मिलता है। आखिर,उस दिन कांबली पहली बार टेस्ट क्रिकेट में तीन अंकों में पहुंचे तो दूसरे छोर पर सचिन तेंदुलकर मौजूद थे। कांबली के हिस्से की क्रिकेट में हर बार मौजूद रहे तेंदुलकर आज भी दूसरे छोर पर खड़े थे। शारदा आश्रम स्कूल से लेकर मुंबई रणजी टीम और भारत के लिए तेंदुलकर की छाया में ही कांबली अपना सफर तय कर रहे थे। कांबली के इस लम्हे से पहले ही तेंदुलकर को क्रिकेट की दुनिया ने एक नए पायदान पर काबिज कर दिया था। उनमें ब्रैडमैन की झलक दिखी जा रही थी। क्रिकेट के बाजार ने तेंदुलकर को एक ब्रांड में तब्दील कर दिया था। शायद इसीलिए, दोस्ताना दौड़ में खेल के मैदान में भी कांबली अपनी नयी मंजिल पर पहुंचकर भी कहीं पीछे छूटे दिख रहे थे।
फिर चौथे दिन कांबली ने अपने करियर का पहला दोहरा शतक पूरा किया। आज दूसरे छोर पर तेंदुलकर मौजूद नहीं थे। कांबली अब अपने लम्हे को खुलकर जी रहे थे। शायद,वो तेंदुलकर के लेजेंड की छाया से बाहर आ रहे थे। इस हद तक कि उन्होंने न सिर्फ तेंदुलकर से पहले टेस्ट क्रिकेट में दोहरा शतक पूरा कर डाला बल्कि दिल्ली में जिम्बाव्वे के खिलाफ इसी कामयाबी को दोहराते हुए टेस्ट इतिहास में सर डॉन ब्रेडमैन और लेन हटन के बराबार जा खड़े हुए। लगातार दो मैचों में दो दोहरे शतक। ये नए विनोद कांबली थे।
चेन्नई में युसूफ पठान की ये तस्वीर भी अपने छोटे भाई इरफान पठान की छाया से बाहर आते युसूफ पठान का आभास करा रही थी। इरफान पठान भारतीय क्रिकेट में एक पोस्टर ब्यॉय । युसूफ से पहले उन्हें मौका मिला। इस मौके को कामयाबी में तब्दील कर कहानियों में ढलते चले गए इरफान पठान। बार बार यह आभास कराते हुए कि ये देश कामयाबियों का ही जश्न मनाता है। इसलिए इरफान पठान का टीम में आना, उससे बाहर होना या फिर वापसी-हर कुछ एक खबर में तब्दील होता गया। लेकिन, दूसरी ओर संभावनाओं को तरजीह देने में चूकते रहे इस देश में युसूफ पीछे छूटते रहे। युसूफ घरेलू क्रिकेट में लाजवाब खेलते हुए भी सुर्खियों में नहीं आ पाए। उनकी कामयाबियां जाहिर भी हुईं तो वो युसूफ पठान की कामयाबी कम, इरफान पठान के भाई की कामयाबी ज्यादा कहलायीं। बावजूद इसके कि खुद इरफान लगातार कहते रहे-युसूफ मुझसे ज्यादा टेलेंटेड हैं।
लेकिन,चेन्नई में न्यूजीलैंड ‘ए’ के खिलाफ खेली युसूफ की पारी को आंकडों में आप जितना भी पढ़ते जाएं, उतना ही उनकी शख्सियत एक नए सिरे से गढ़ती चली जाती है। उतना ही वो इरफान पठान की छाया से बाहर आते दिखायी देते हैं। 148 रनों की इस तूफानी पारी में 9 छक्कों की बारिश उनके ताकतवर स्ट्रोकों की बानगी बनकर सामने आती है। पचास ओवर में भारत ए की पारी को 305 रनों तक ले जाते युसूफ एक भरोसेमंद बल्लेबाज की परिभाषा में शिद्दत से उभार लेते हैं।
इस पारी के दौरान युसूफ की बेताबी साफ झलकती है। मौके के जरिए अपनी दर्ज कराने की बेताबी। मैच की पूर्व संध्या पर वो लगातार इस बात को लेकर फिक्रमंद थे कि आखिर सातवें नंबर पर बल्लेबाजी करते हुए वो कैसे खुद को साबित कर पाएंगे। खासकर उस टीम में ,जहां उनकी तरह हर दूसरा बल्लेबाज भारतीय टीम में जगह बनाने के लिए जी जान से जुटा हो। अपने इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए वो कोच डेव व्हाटमोर तक भी जा पहुंचे। व्हाटमोर का जवाब था-सातवे नंबर पर सेंचुरी जमाना बहुत मुश्किल है लेकिन सातवे नंबर की भूमिका बहुत अहम है। टीम में उसके योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। रविवार को महज 15 ओवर में भारत ‘ए’ के पांच विकेट महज 66 रन पर ढह गए। मौका युसूफ पठान के हाथ में था। 35 ओवर तक बल्लेबाजी करने का मौका। उन्होंने इसे हाथ से जाने नहीं दिया।
दरअसल, युसूफ पठान पिछले एक साल से लगातार अपने हाथ में आए हर मौके को नतीजों में बदलने में जुटे हैं। 20-20 वर्ल्ड कप के फाइनल में सहवाग की गैरमौजूदगी में पारी की शुरुआत की जिम्मेदारी सौंपी गई। युसूफ ने मोहम्मद आसिफ की पहली ही गेंद को अपने ताकतवर प्रहार से मैदान के बाहर कर डाला। आईपीएल में कप्तान शेन वार्न ने उन्हें जिम्मेदारी के साथ आक्रामक रुख बरकरार रखने की हिदायत दी। फाइनल मुकाबले तक वो लगातार अपने कप्तान की उम्मीदों को परवान चढ़ाते रहे। कभी अपनी तूफानी पारियों से तो कभी अपनी सधी ऑफ स्पिन गेंदों से। इस हद तक कि इस ऑलराउंड खेल से वो आईपीएल के ‘मैन ऑफ द फाइनल’ बनकर सामने आए। इस प्रदर्शन से उन्हें भारतीय वनडे टीम में उन्हें जगह मिली। लेकिन उनकी नाकामी ने एक बार फिर उन्हें इरफान पठान के बड़े भाई के दायरे में बांध दिया। लेकिन, चेन्नई में रविवार को खेली इस पारी ने शायद एक बार फिर युसूफ को इस छाया से बाहर निकाल दिया है। ये युसूफ पठान की पारी है। भारतीय क्रिकेट में अपनी मौजूदगी का अहसास कराते युसूफ पठान की यादगार पारी।
1993 के फरवरी महीने के आखिरी दिन थे। ग्राहम गूज की अगुवाई में इंग्लैंड की टीम सीरिज का तीसरा और आखरी टेस्ट खेल रही थी। मैच के चौथे दिन लंच के करीब विनोद कांबली ने अपना दोहरा शतक पूरा किया। इस मुकाम पर पहुंचते ही कांबली ने बल्ले को बार बार हवा में लहराया। फिर,युसूफ पठान की तरह उनका बल्ला और हेलमेट ड्रेसिंग रुम और पैवेलियन की तरफ रुख कर ठहर गया। एक ठहरी हुई तस्वीर में तब्दील होता हुआ।
मेरे लिए ये तस्वीर हमेशा हमेशा के लिए ठहर चुकी है। कांबली की इस पारी में शतक से दोहरे शतक के बीच महज आंकडों में ही एक मंजिल हासिल नहीं की। इन 100 रनों के दरम्यान कांबली की एक नयी शख्सियत से रुबरु होने का मौका मिला। तीसरे दिन 100 रनों से पार करते हुए कांबली कुछ देर के लिए भूल गए कि उन्होंने टेस्ट में अपना पहला शतक पूरा कर लिया। वे इस मंजिल तक पहुंचने की खुशी को जाहिर नहीं कर पाए। या कुछ देर के लिए वो इस क्षण से चूक गए। एक ऐसा पल,जिसे छूने की चाह में उन्होंने दिन रात के फासले को खत्म कर दिया होगा। कांबली इस मुकाम की विराटता को महसूस करने में चूकते दिखायी दे रहे थे।
मैं आज भी इस सवाल के जवाब को जितना टटोलता हूं,उतनी ही सटीकता से उसका जवाब मेरे सामने आता है। पंद्रह साल बाद भी इसका सच मुझे मालूम नहीं लेकिन मुझे जवाब एक ही मिलता है। आखिर,उस दिन कांबली पहली बार टेस्ट क्रिकेट में तीन अंकों में पहुंचे तो दूसरे छोर पर सचिन तेंदुलकर मौजूद थे। कांबली के हिस्से की क्रिकेट में हर बार मौजूद रहे तेंदुलकर आज भी दूसरे छोर पर खड़े थे। शारदा आश्रम स्कूल से लेकर मुंबई रणजी टीम और भारत के लिए तेंदुलकर की छाया में ही कांबली अपना सफर तय कर रहे थे। कांबली के इस लम्हे से पहले ही तेंदुलकर को क्रिकेट की दुनिया ने एक नए पायदान पर काबिज कर दिया था। उनमें ब्रैडमैन की झलक दिखी जा रही थी। क्रिकेट के बाजार ने तेंदुलकर को एक ब्रांड में तब्दील कर दिया था। शायद इसीलिए, दोस्ताना दौड़ में खेल के मैदान में भी कांबली अपनी नयी मंजिल पर पहुंचकर भी कहीं पीछे छूटे दिख रहे थे।
फिर चौथे दिन कांबली ने अपने करियर का पहला दोहरा शतक पूरा किया। आज दूसरे छोर पर तेंदुलकर मौजूद नहीं थे। कांबली अब अपने लम्हे को खुलकर जी रहे थे। शायद,वो तेंदुलकर के लेजेंड की छाया से बाहर आ रहे थे। इस हद तक कि उन्होंने न सिर्फ तेंदुलकर से पहले टेस्ट क्रिकेट में दोहरा शतक पूरा कर डाला बल्कि दिल्ली में जिम्बाव्वे के खिलाफ इसी कामयाबी को दोहराते हुए टेस्ट इतिहास में सर डॉन ब्रेडमैन और लेन हटन के बराबार जा खड़े हुए। लगातार दो मैचों में दो दोहरे शतक। ये नए विनोद कांबली थे।
चेन्नई में युसूफ पठान की ये तस्वीर भी अपने छोटे भाई इरफान पठान की छाया से बाहर आते युसूफ पठान का आभास करा रही थी। इरफान पठान भारतीय क्रिकेट में एक पोस्टर ब्यॉय । युसूफ से पहले उन्हें मौका मिला। इस मौके को कामयाबी में तब्दील कर कहानियों में ढलते चले गए इरफान पठान। बार बार यह आभास कराते हुए कि ये देश कामयाबियों का ही जश्न मनाता है। इसलिए इरफान पठान का टीम में आना, उससे बाहर होना या फिर वापसी-हर कुछ एक खबर में तब्दील होता गया। लेकिन, दूसरी ओर संभावनाओं को तरजीह देने में चूकते रहे इस देश में युसूफ पीछे छूटते रहे। युसूफ घरेलू क्रिकेट में लाजवाब खेलते हुए भी सुर्खियों में नहीं आ पाए। उनकी कामयाबियां जाहिर भी हुईं तो वो युसूफ पठान की कामयाबी कम, इरफान पठान के भाई की कामयाबी ज्यादा कहलायीं। बावजूद इसके कि खुद इरफान लगातार कहते रहे-युसूफ मुझसे ज्यादा टेलेंटेड हैं।
लेकिन,चेन्नई में न्यूजीलैंड ‘ए’ के खिलाफ खेली युसूफ की पारी को आंकडों में आप जितना भी पढ़ते जाएं, उतना ही उनकी शख्सियत एक नए सिरे से गढ़ती चली जाती है। उतना ही वो इरफान पठान की छाया से बाहर आते दिखायी देते हैं। 148 रनों की इस तूफानी पारी में 9 छक्कों की बारिश उनके ताकतवर स्ट्रोकों की बानगी बनकर सामने आती है। पचास ओवर में भारत ए की पारी को 305 रनों तक ले जाते युसूफ एक भरोसेमंद बल्लेबाज की परिभाषा में शिद्दत से उभार लेते हैं।
इस पारी के दौरान युसूफ की बेताबी साफ झलकती है। मौके के जरिए अपनी दर्ज कराने की बेताबी। मैच की पूर्व संध्या पर वो लगातार इस बात को लेकर फिक्रमंद थे कि आखिर सातवें नंबर पर बल्लेबाजी करते हुए वो कैसे खुद को साबित कर पाएंगे। खासकर उस टीम में ,जहां उनकी तरह हर दूसरा बल्लेबाज भारतीय टीम में जगह बनाने के लिए जी जान से जुटा हो। अपने इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए वो कोच डेव व्हाटमोर तक भी जा पहुंचे। व्हाटमोर का जवाब था-सातवे नंबर पर सेंचुरी जमाना बहुत मुश्किल है लेकिन सातवे नंबर की भूमिका बहुत अहम है। टीम में उसके योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। रविवार को महज 15 ओवर में भारत ‘ए’ के पांच विकेट महज 66 रन पर ढह गए। मौका युसूफ पठान के हाथ में था। 35 ओवर तक बल्लेबाजी करने का मौका। उन्होंने इसे हाथ से जाने नहीं दिया।
दरअसल, युसूफ पठान पिछले एक साल से लगातार अपने हाथ में आए हर मौके को नतीजों में बदलने में जुटे हैं। 20-20 वर्ल्ड कप के फाइनल में सहवाग की गैरमौजूदगी में पारी की शुरुआत की जिम्मेदारी सौंपी गई। युसूफ ने मोहम्मद आसिफ की पहली ही गेंद को अपने ताकतवर प्रहार से मैदान के बाहर कर डाला। आईपीएल में कप्तान शेन वार्न ने उन्हें जिम्मेदारी के साथ आक्रामक रुख बरकरार रखने की हिदायत दी। फाइनल मुकाबले तक वो लगातार अपने कप्तान की उम्मीदों को परवान चढ़ाते रहे। कभी अपनी तूफानी पारियों से तो कभी अपनी सधी ऑफ स्पिन गेंदों से। इस हद तक कि इस ऑलराउंड खेल से वो आईपीएल के ‘मैन ऑफ द फाइनल’ बनकर सामने आए। इस प्रदर्शन से उन्हें भारतीय वनडे टीम में उन्हें जगह मिली। लेकिन उनकी नाकामी ने एक बार फिर उन्हें इरफान पठान के बड़े भाई के दायरे में बांध दिया। लेकिन, चेन्नई में रविवार को खेली इस पारी ने शायद एक बार फिर युसूफ को इस छाया से बाहर निकाल दिया है। ये युसूफ पठान की पारी है। भारतीय क्रिकेट में अपनी मौजूदगी का अहसास कराते युसूफ पठान की यादगार पारी।
Thursday, September 18, 2008
आइए, हॉकी का शोकगीत लिखें
1975। क्वालालम्पुर वर्ल्ड कप हॉकी। 33 साल बाद भी वो दिन फ्लैशबैक की तरह निगाहों के सामने गुजर जाते हैं। मार्च का महीना ! ऑलइंडिया रेडियो पर आती कमेंट्री से सटे कान। मलेशिया के खिलाफ सेमीफाइनल के मुकाबले से सिर्फ आठ मिनट पहले माइकल किंडो की जगह मैदान पर उतरते असलम शेर खान। ताबीज चूम भारत को पेनाल्टी कॉर्नर पर गोल जमाकर बराबरी पर लाते असलम। एक्स्ट्रा टाइम में फिलिप्स के दाहिनें फ्लैंग से मिले क्रॉस पर हरचरण का विजयी गोल। भारत पहली बार वर्ल्ड कप के फाइनल में। फाइनल में पाकिस्तान की शुरुआती बढ़त। इस्लाउद्दीन के पास पर जाहिद का गोल। सुरजीत सिंह का पेनाल्टी कॉर्नर पर बराबरी दिलाना। अशोक कुमार का विवादों से भरा विजयी गोल। शिखर पर काबिज होती भारतीय हॉकी। जश्न में डूबता पूरा देश। सर आंखों पर खिलाड़ियों को नवाजता देश। एक एक लम्हा मेरी यादों में, मेरी कल्पनाओं के हस्ताक्षर के साथ जस का तस मौजूद है। आज भी याद करता हूं तो रोमांच में एक बारगी रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
1976। मॉट्रियल ओलंपिक। शिखर से ओझल होती भारतीय हॉकी। लीग में होलैंड से एक के मुकाबले तीन गोल से शिकस्त। आस्ट्रेलिया के हाथों एक-छह की करारी हार। वर्ल्ड चैंपियन भारत सेमीफाइनल तो दूर, गिरते गिरते सातवें पायदान पर जा ठहरा। इस कदर शर्मनाक प्रदर्शन कि स्टेट्समैन के पूर्व खेल संपादक और हॉकी को शिद्दत से जीने वाले के एन मौलाजी के शब्द थे-मॉट्रियल के इस हॉकी स्टेडियम में हम शर्म में इतना डूब चुके हैं कि अपनी कमीजों में भी इसे ढाक नहीं सकते।
महज एक साल में ये भारतीय हॉकी के दो छोर हैं। क्वालालम्पुर और मॉट्रियाल। एक ही टीम मैदान पर उतरी। अजीत पाल, अशोक कुमार, बीरेन्दर सिंह, फिलिप्स, हरचरण। करीब करीब एक से चेहरे। लेकिन, एक शिखर पर काबिज हुई तो दूसरी रसातल की ओर जा मुड़ी। मेरे लिए भारतीय हॉकी की जीवंत कहानी इस एक साल में ही शुरु हुई और इसी एक साल में खत्म हो गई। इस हद तक कि जीत का बड़े से बड़ा लम्हा 1975 के शिखर पर भारी पड़ नहीं सका। बड़ी से बड़ी शिकस्त मॉट्रियल के सामने ढांढस बंधाती दिखी। भारत 1998 में एशियाई चैंपियन बना तो 1982 के दिल्ली एशियाड़ में पाकिस्तान के हाथों अब तक की सबसे बड़ी शिकस्त से रुबरु हुआ। एक ऐसी शिकस्त,जिसे आधार बनाकर बॉलीवुड के पर्दे पर चक दे इंडिया की कहानी ने जन्म लिया। लेकिन,मेरे लिए ये जीत और ये हार 1975 के शिखर और 1976 के पतन के सामने कहीं नहीं ठहरती। आज महसूस करता हूं तो लगता है कि भारतीय हॉकी का आगाज और अंत शायद एक साल के दौरान ही तय हो गया।
लेकिन, इस सबके बीच एक उम्मीद जरुर परवान चढ़ती रही। एक बार बिलकुल नयी शुरुआत होगी तो भारतीय हॉकी फिर शिखर की ओर मुखातिब होगी। ओलंपिक में हॉकी के 100 साल पूरे होने के मौके पर आठ बार की ओलंपिक चैंपियन भारतीय टीम पहली बार क्वालिफाई करने में नाकाम रही। एक बारगी महसूस हुआ कि इस राष्ट्रीय खेल को लेकर बना शून्य आखिरकार विस्तार ले गया। लेकिन, कहीं अवचेतन में जरुर था कि ऐसा आज नहीं तो कल होना ही था। भारतीय हॉकी जिस ढर्रे पर चल रही थी,वहां से आगे का रास्ता दिखायी नहीं दे रहा था। वो सुनहरे कल के बोझ को लेकर जी रही थी। जबकि,बाकी दुनिया बहुत तेजी से आगे निकल चुकी थी। इन सबके बीच,बीजिंग की दौड़ से बाहर होते ही एक नयी शुरुआत का मौका सामने था। अपने बीते कल को भुलाकर,अपने अहम को किनारे रख राष्ट्रीय खेल के सम्मान को लौटा लाने का ख्वाब शक्ल लेने लगा था।
लेकिन,शायद हम अभी भी सीखने को तैयार नहीं हैं। आधुनिक हॉकी के सबसे बड़े लेजेंड रिक चार्ल्सवर्थ को बेइज्जत कर हम वापस भेज देते हैं। इस मौके पर एकजुट होकर नए सिरे से इस खेल की एक एक ईंट को कायदे से रखने की जरुरत है, लेकिन हम हर एक ईंट को ही तार तार करने में जुटे हैं। कल तक एक आईएचएफ भारतीय हॉकी की रहनुमा थी। आज भारतीय हॉकी तीन तीन दिशाओं में घूम रही है। डेढ़ दशक तक केपीएस गिल भारतीय हॉकी की दशा भी ऐसे ही दुरुस्त करने में जुटे रहे, जैसे कभी पंजाब में आतंकवाद की समस्या को दुरुस्त किया था। आलम ये है कि आज बाहर बैठकर भी उनका भ्रम टूटा नहीं है। दूसरी रहनुमाई बंगाल हॉकी एसोसिएशन की ओर से हो रही है। तीसरी रहनुमाई कर रही है एडहॉक कमेटी की ओर से बनी चयनसमिति। ये संयोग ही है कि इस चयन समिति में सत्तर के दशक के हीरो और विलेन मौजूद हैं। चार बार के ओलंपियन और पूर्व कप्तान दिलीप टिर्की को टीम से बाहर बैठाकर चयनकर्ताओं के अंदाज को देखिए- “टिर्की के लिए वापसी के मौके खत्म नहीं हुए हैं।“ लेकिन,क्या कोई इस सवाल का जवाब देगा कि वापसी का मंच है कहां। गिल के दौर में राष्ट्रीय चैंपियनशिप गुजरे कल मे तब्दील हो चुकी है। टिर्की को कहां और कैसे साबित करना होगा,कोई नहीं जानता। नाजुक मौकों पर बाकी दुनिया अनुभव के सहारे बेहतर कल की राह तैयार करती है। लेकिन,हम इससे बेपरवाह दीपक ठाकुर जैसे स्ट्राइकर, विमल लाकरा और विनय जैसे मिड फील्डर के अनुभव को ठेंगा दिखाते हैं। लेकिन,अफसोस सिर्फ यह नहीं है। मीडिया भी सिर्फ खबर तक सिमटकर रह गया है। हॉकी में उसे खबर के पीछे की खबर तलाशने की उसे जरुरत नहीं होती। शायद,हॉकी अब खबर रही भी नहीं।
शायद भारतीय हॉकी अभी तक शून्य पर नहीं पहुंची है। शायद,क्वालीफाई करने से चूकना हमारी हॉकी का शून्य नहीं था। वो हमारा भ्रम था। शून्य होता,तो हॉकी समीक्षक इस लम्हे की चीर फाड़ कर सभी को कड़वे सच से रुबरु कराते। हॉकी के चाहने वाले नायकों पर अपना गुस्सा जाहिर करते। लेकिन,शायद न तो इस हॉकी का कोई नायक था,और न ही नाकामी से कोई आक्रोश उपजा। अगर एक दौड़ता बच्चा गिर जाए तो उसके मां बाप उसे हौसला देकर उठकर आगे बढ़ने को कहते हैं लेकिन यहां ऐसी हौसलाफसाई की उम्मीद करना भी बेमानी है।
तो पहले हमें शून्य पर पहुंचने का इंतजार करना होगा। यानी अभी और नीचे जाना होगा। शायद,इसी सूरत में हम एक नयी शुरुआत की ओर बढ़ सकते हैं। तो चलो हम सब मिलकर इस शून्य का इंतजार करते हैं। तब तक दद्दा ध्यानचंद,बलबीर सिंह,क्लाडियस के किस्सों से भरपूर इस खेल के शोकगीत की तैयारी की जाए। एक अरब की आबादी के इस देश को कभी बाकी दुनिया में शुरुआती सम्मान दिलाने वाले राष्ट्रीय खेल का इतना हक तो बनता ही है।
1976। मॉट्रियल ओलंपिक। शिखर से ओझल होती भारतीय हॉकी। लीग में होलैंड से एक के मुकाबले तीन गोल से शिकस्त। आस्ट्रेलिया के हाथों एक-छह की करारी हार। वर्ल्ड चैंपियन भारत सेमीफाइनल तो दूर, गिरते गिरते सातवें पायदान पर जा ठहरा। इस कदर शर्मनाक प्रदर्शन कि स्टेट्समैन के पूर्व खेल संपादक और हॉकी को शिद्दत से जीने वाले के एन मौलाजी के शब्द थे-मॉट्रियल के इस हॉकी स्टेडियम में हम शर्म में इतना डूब चुके हैं कि अपनी कमीजों में भी इसे ढाक नहीं सकते।
महज एक साल में ये भारतीय हॉकी के दो छोर हैं। क्वालालम्पुर और मॉट्रियाल। एक ही टीम मैदान पर उतरी। अजीत पाल, अशोक कुमार, बीरेन्दर सिंह, फिलिप्स, हरचरण। करीब करीब एक से चेहरे। लेकिन, एक शिखर पर काबिज हुई तो दूसरी रसातल की ओर जा मुड़ी। मेरे लिए भारतीय हॉकी की जीवंत कहानी इस एक साल में ही शुरु हुई और इसी एक साल में खत्म हो गई। इस हद तक कि जीत का बड़े से बड़ा लम्हा 1975 के शिखर पर भारी पड़ नहीं सका। बड़ी से बड़ी शिकस्त मॉट्रियल के सामने ढांढस बंधाती दिखी। भारत 1998 में एशियाई चैंपियन बना तो 1982 के दिल्ली एशियाड़ में पाकिस्तान के हाथों अब तक की सबसे बड़ी शिकस्त से रुबरु हुआ। एक ऐसी शिकस्त,जिसे आधार बनाकर बॉलीवुड के पर्दे पर चक दे इंडिया की कहानी ने जन्म लिया। लेकिन,मेरे लिए ये जीत और ये हार 1975 के शिखर और 1976 के पतन के सामने कहीं नहीं ठहरती। आज महसूस करता हूं तो लगता है कि भारतीय हॉकी का आगाज और अंत शायद एक साल के दौरान ही तय हो गया।
लेकिन, इस सबके बीच एक उम्मीद जरुर परवान चढ़ती रही। एक बार बिलकुल नयी शुरुआत होगी तो भारतीय हॉकी फिर शिखर की ओर मुखातिब होगी। ओलंपिक में हॉकी के 100 साल पूरे होने के मौके पर आठ बार की ओलंपिक चैंपियन भारतीय टीम पहली बार क्वालिफाई करने में नाकाम रही। एक बारगी महसूस हुआ कि इस राष्ट्रीय खेल को लेकर बना शून्य आखिरकार विस्तार ले गया। लेकिन, कहीं अवचेतन में जरुर था कि ऐसा आज नहीं तो कल होना ही था। भारतीय हॉकी जिस ढर्रे पर चल रही थी,वहां से आगे का रास्ता दिखायी नहीं दे रहा था। वो सुनहरे कल के बोझ को लेकर जी रही थी। जबकि,बाकी दुनिया बहुत तेजी से आगे निकल चुकी थी। इन सबके बीच,बीजिंग की दौड़ से बाहर होते ही एक नयी शुरुआत का मौका सामने था। अपने बीते कल को भुलाकर,अपने अहम को किनारे रख राष्ट्रीय खेल के सम्मान को लौटा लाने का ख्वाब शक्ल लेने लगा था।
लेकिन,शायद हम अभी भी सीखने को तैयार नहीं हैं। आधुनिक हॉकी के सबसे बड़े लेजेंड रिक चार्ल्सवर्थ को बेइज्जत कर हम वापस भेज देते हैं। इस मौके पर एकजुट होकर नए सिरे से इस खेल की एक एक ईंट को कायदे से रखने की जरुरत है, लेकिन हम हर एक ईंट को ही तार तार करने में जुटे हैं। कल तक एक आईएचएफ भारतीय हॉकी की रहनुमा थी। आज भारतीय हॉकी तीन तीन दिशाओं में घूम रही है। डेढ़ दशक तक केपीएस गिल भारतीय हॉकी की दशा भी ऐसे ही दुरुस्त करने में जुटे रहे, जैसे कभी पंजाब में आतंकवाद की समस्या को दुरुस्त किया था। आलम ये है कि आज बाहर बैठकर भी उनका भ्रम टूटा नहीं है। दूसरी रहनुमाई बंगाल हॉकी एसोसिएशन की ओर से हो रही है। तीसरी रहनुमाई कर रही है एडहॉक कमेटी की ओर से बनी चयनसमिति। ये संयोग ही है कि इस चयन समिति में सत्तर के दशक के हीरो और विलेन मौजूद हैं। चार बार के ओलंपियन और पूर्व कप्तान दिलीप टिर्की को टीम से बाहर बैठाकर चयनकर्ताओं के अंदाज को देखिए- “टिर्की के लिए वापसी के मौके खत्म नहीं हुए हैं।“ लेकिन,क्या कोई इस सवाल का जवाब देगा कि वापसी का मंच है कहां। गिल के दौर में राष्ट्रीय चैंपियनशिप गुजरे कल मे तब्दील हो चुकी है। टिर्की को कहां और कैसे साबित करना होगा,कोई नहीं जानता। नाजुक मौकों पर बाकी दुनिया अनुभव के सहारे बेहतर कल की राह तैयार करती है। लेकिन,हम इससे बेपरवाह दीपक ठाकुर जैसे स्ट्राइकर, विमल लाकरा और विनय जैसे मिड फील्डर के अनुभव को ठेंगा दिखाते हैं। लेकिन,अफसोस सिर्फ यह नहीं है। मीडिया भी सिर्फ खबर तक सिमटकर रह गया है। हॉकी में उसे खबर के पीछे की खबर तलाशने की उसे जरुरत नहीं होती। शायद,हॉकी अब खबर रही भी नहीं।
शायद भारतीय हॉकी अभी तक शून्य पर नहीं पहुंची है। शायद,क्वालीफाई करने से चूकना हमारी हॉकी का शून्य नहीं था। वो हमारा भ्रम था। शून्य होता,तो हॉकी समीक्षक इस लम्हे की चीर फाड़ कर सभी को कड़वे सच से रुबरु कराते। हॉकी के चाहने वाले नायकों पर अपना गुस्सा जाहिर करते। लेकिन,शायद न तो इस हॉकी का कोई नायक था,और न ही नाकामी से कोई आक्रोश उपजा। अगर एक दौड़ता बच्चा गिर जाए तो उसके मां बाप उसे हौसला देकर उठकर आगे बढ़ने को कहते हैं लेकिन यहां ऐसी हौसलाफसाई की उम्मीद करना भी बेमानी है।
तो पहले हमें शून्य पर पहुंचने का इंतजार करना होगा। यानी अभी और नीचे जाना होगा। शायद,इसी सूरत में हम एक नयी शुरुआत की ओर बढ़ सकते हैं। तो चलो हम सब मिलकर इस शून्य का इंतजार करते हैं। तब तक दद्दा ध्यानचंद,बलबीर सिंह,क्लाडियस के किस्सों से भरपूर इस खेल के शोकगीत की तैयारी की जाए। एक अरब की आबादी के इस देश को कभी बाकी दुनिया में शुरुआती सम्मान दिलाने वाले राष्ट्रीय खेल का इतना हक तो बनता ही है।
Wednesday, September 17, 2008
इस टॉम ऑल्टर से रुबरु होते हुए...
बीते शुक्रवार की बात है। मेरे एक मित्र ने मुझसे क्रिकेट पर एक नयी किताब के विमोचन पर चलने का आग्रह किया। जमशेदपुर के एक नौजवान लेखक और फिलहाल मुंबई में स्क्रिप्ट राइटिंग से जुड़े तुहिन सिन्हा की किताब 22 यार्ड्स। मैं जब तक सोचता, उसने कहा-वहां टॉम ऑल्टर होंगे,मिलोगे? इस एक नाम ने मेरे असमंजस को एक झटके में तोड़ दिया। टॉम ऑल्टर! जरुर मिलना चाहिए।
टॉम ऑल्टर ! बॉलीवुड के दीवानों के लिए सिनेमा के पर्दे पर ब्रिटिश हुकूमत के दौर के किरदारों को निभाता एक अभिनेता । अगर आप ज्यादा गहराई से बॉलीवुड से जुड़े हैं तो आप उनकी छवि को इस दायरे से बाहर ले जाकर कभी पादरी, कभी प्रोफेसर के रूप में भी देख चुके होंगे। प्रादेशिक सिनेमा में भी टॉम ने अपनी छाप छोड़ी है। करीब चार दशक से रंगमंच से भी जुड़े हैं टॉम ऑल्टर। रंगमंच के शौकीन लोगों के जेहन में मौलाना अबुल कलाम आजाद से लेकर मिर्जा गालिब के चरित्र उभार ले सकते हैं। मेरे लिए भी टॉम ऑल्टर की एक पहचान बॉलीवुड से लेकर रंगमंच तक जरुर है। लेकिन, इससे भी पहले टॉम ऑल्टर मेरे लिए कलम के जरिए शिद्दत से खेलों की एक अलहदा तस्वीर को उकेरते लेखक हैं।
अस्सी के दशक को याद कीजिए। कपिल की अगुवाई में भारत की वर्ल्ड कप जीत। गावस्कर की कप्तानी में बेंसन हेजेस। चैंपियंस ऑफ चैंपियन रवि शास्त्री। दस हजार रनों के शिखर पर काबिज होते गावस्कर। अपने करिश्मों से क्रिकेट की दुनिया को बदलते इन भारतीय महानायकों के किस्सों से भरा है ये दशक। लेकिन, ये दशक स्प्रिंट क्वीन पी टी ऊषा का भी है। ये दशक भारतीय तैराकी की सबसे बड़ी जलपरी अनीता सूद का भी है। टॉम ऑल्टर ने भारतीय खेलों के इस यादगार दशक में मेरी तरह कितने ही खेल के चाहने वालों को स्पोर्ट्स वीक पत्रिका के जरिए अपनी कलम से क्रिकेट के दायरे के बाहर खड़े इन चेहरों से रुबरु कराया। ट्रैक से लेकर पूल तक समय के दायरे से बाहर जाकर इनकी कोशिशों को यादगार कहानियों में तब्दील किया।
शुक्रवार को मैंने टॉम ऑल्टर से शुरुआती परिचय के बाद सीधे इन्हीं कहानियों की बात छेड़ी। इस ढलती उम्र में भी खेलों को लेकर उनका जुनून सामने था। “मेरे वो लेख याद हैं आपको। दिलचस्प है कि मेरे वो 14 लेखों की उस सीरिज में एक भी क्रिकेटर नहीं था।” टॉम ऑल्टर ये कहते-कहते जाहिर कर रहे थे कि उनके लिए खेलों का दायरा कितना विस्तार लिए है। बेशक वो, क्रिकेट की स्टेज पर सचिन तेंदुलकर को एक ईश्वर की तरह देखते हैं। लेकिन, खेल के मैदान में वो हर खिलाड़ी की कोशिशों को एक ही पायदान पर ऱखते हैं।
55.42 सेकेंड। ये एक आंकडा हो सकता है। लेकिन, जब टॉम ऑल्टर कहते हैं कि 1984 में 400 मीटर हर्डल में पीटीऊषा हासिल किए अपने सर्वश्रेष्ठ समय से कैसे धीरे-धीरे दूर होती चली गईं तो महसूस होता है कि ये शख्स कितनी बारीकी से खेलों से जुड़ा है। गुजरते वक्त के बीच भी उसकी पकड़ कमजोर नहीं हुई है। अपनी इन्हीं कहानियों से जुड़ा उनका एक दिलचस्प नज़रिया भी सामने था। “इस देश में किसी भी खिलाड़ी के शिखर छूने में उसके परिवार, दोस्त और स्कूल की एक बड़ी भूमिका है। मेरी इन 14 कहानियों में सिर्फ अकेली अनीता सूद थी, जिसने अपने कोच को भी अपनी कामयाबियों में एक बड़ा अहम हिस्सा माना था। और मैं भी यह बात महसूस करता हूं कि परिवार, दोस्त और स्कूल किसी भी खिलाड़ी को गढ़ने में बड़ी भूमिका निभाते हैं।”
दरअसल, टॉम ऑल्टर से मुलाकात के बीच बराबर ये महसूस होता रहा कि ये शख्स खेलों को बाहर बैठकर देखता भर नहीं है, उसमें पूरा डूबकर उसे जीने की कोशिश करता है। शायद, इसलिए ये कहते हुए उनका गला भर उठता है कि “जिस दिन मैच फिक्सिंग का फैसला सुनाया गया, वो दिन मेरे लिए सबसे दुखद दिन था। मैं मेरीन ड्राइव से लौट रहा था और मुझे वानखेड़े की झुकी फ्लडलाइट बराबर अहसास करा रही थी, जैसे आज वो इस वाकये के बाद शर्मसार होकर इसे रोशन नहीं कर रही, बल्कि शर्म से झुकी गई हैं।“
खेल को ज़िंदगी से गहरे जोड़कर देखने का ही आइना है उनका ये कहना कि “आईपीएल इज द रिजल्ट ऑफ ग्रीड एंड रिवेन्ज (आईपीएल लालच और बदले का नतीजा है।)”। वो कहते हैं “अपनी निजी जिंदगी में भी अगर आप रिश्तों को पाक रखना चाहते हैं, तो आपको लालच और बदले की भावना को अलग रखना होगा।” क्रिकेट की खूबसूरती और उनके बीच के प्यार को आप महसूस कर सकते हैं।
लेकिन, इन निराशाओं के बीच आज भी उनकी आंखें ध्यानचंद और बलबीर का नाम सुनकर चमक उठती हैं। मैं और मेरा मित्र जिक्र करते हैं ट्रिपल ओलंपिक गोल्ड मेडलिस्ट- ध्यानचंद और बलबीर का। वो फौरन इसमें जोड़ते हैं- “अरे सर, आप क्लाडियस को भूल गए। चार ओलंपिक में तीन गोल्ड हैं उनके भी।” मैं 1995 के सैफ खेलों के दौरान गोविन्दा से हुई अपनी मुलाकात की चर्चा छेड़ता हूं तो वे बरबस बोल पड़ते हैं, “ व्हाट ए प्लेयर। याद है आपको। क्या खेलता था गोविन्दा। सिर पर हैडबैंड बांधकर। हमारा हीरो था वो।” मैं महसूस कर सकता था कि कितनी बारीक और पैनी निगाह के साथ-साथ खेल के हर लम्हों को उन्होंने संजो कर रखा है।
लेकिन, ये सिर्फ कल ही नहीं है, जो उन्हें रोमांचित करता है। अभिनव बिंद्रा की कामयाबी के वो कायल हैं, तो साइना नेहवाल उन्हें बैडमिंटन के कोर्ट पर सबसे बड़ी उम्मीद के रुप में दिखायी दे रही है। चीन ताइपे में खिताबी जीत हासिल करने से दो मैच पहले ही टॉम साइना की मेहनत और खेल पर अपनी राय रखते हुए कहते हैं, “ ये खिलाड़ी बहुत दूर तक जाएगी।”
मैं महसूस कर रहा था खेल की ताकत को। इससे एक बार अगर आप जुड़ गए तो फिर ज़िंदगी के सारे उतार-चढ़ाव आपको इसमें नए मायनों के साथ दिखायी देते हैं। टॉम ऑल्टर से मुलाकात के बीच भी यह बराबर महसूस होता रहा। फिल्म और रंगमंच के बीच खेलों को इतनी शिद्दत से जीना ही है, जो उन्हें कभी इससे दूर ले जा नहीं सकता।
टॉम ऑल्टर ! बॉलीवुड के दीवानों के लिए सिनेमा के पर्दे पर ब्रिटिश हुकूमत के दौर के किरदारों को निभाता एक अभिनेता । अगर आप ज्यादा गहराई से बॉलीवुड से जुड़े हैं तो आप उनकी छवि को इस दायरे से बाहर ले जाकर कभी पादरी, कभी प्रोफेसर के रूप में भी देख चुके होंगे। प्रादेशिक सिनेमा में भी टॉम ने अपनी छाप छोड़ी है। करीब चार दशक से रंगमंच से भी जुड़े हैं टॉम ऑल्टर। रंगमंच के शौकीन लोगों के जेहन में मौलाना अबुल कलाम आजाद से लेकर मिर्जा गालिब के चरित्र उभार ले सकते हैं। मेरे लिए भी टॉम ऑल्टर की एक पहचान बॉलीवुड से लेकर रंगमंच तक जरुर है। लेकिन, इससे भी पहले टॉम ऑल्टर मेरे लिए कलम के जरिए शिद्दत से खेलों की एक अलहदा तस्वीर को उकेरते लेखक हैं।
अस्सी के दशक को याद कीजिए। कपिल की अगुवाई में भारत की वर्ल्ड कप जीत। गावस्कर की कप्तानी में बेंसन हेजेस। चैंपियंस ऑफ चैंपियन रवि शास्त्री। दस हजार रनों के शिखर पर काबिज होते गावस्कर। अपने करिश्मों से क्रिकेट की दुनिया को बदलते इन भारतीय महानायकों के किस्सों से भरा है ये दशक। लेकिन, ये दशक स्प्रिंट क्वीन पी टी ऊषा का भी है। ये दशक भारतीय तैराकी की सबसे बड़ी जलपरी अनीता सूद का भी है। टॉम ऑल्टर ने भारतीय खेलों के इस यादगार दशक में मेरी तरह कितने ही खेल के चाहने वालों को स्पोर्ट्स वीक पत्रिका के जरिए अपनी कलम से क्रिकेट के दायरे के बाहर खड़े इन चेहरों से रुबरु कराया। ट्रैक से लेकर पूल तक समय के दायरे से बाहर जाकर इनकी कोशिशों को यादगार कहानियों में तब्दील किया।
शुक्रवार को मैंने टॉम ऑल्टर से शुरुआती परिचय के बाद सीधे इन्हीं कहानियों की बात छेड़ी। इस ढलती उम्र में भी खेलों को लेकर उनका जुनून सामने था। “मेरे वो लेख याद हैं आपको। दिलचस्प है कि मेरे वो 14 लेखों की उस सीरिज में एक भी क्रिकेटर नहीं था।” टॉम ऑल्टर ये कहते-कहते जाहिर कर रहे थे कि उनके लिए खेलों का दायरा कितना विस्तार लिए है। बेशक वो, क्रिकेट की स्टेज पर सचिन तेंदुलकर को एक ईश्वर की तरह देखते हैं। लेकिन, खेल के मैदान में वो हर खिलाड़ी की कोशिशों को एक ही पायदान पर ऱखते हैं।
55.42 सेकेंड। ये एक आंकडा हो सकता है। लेकिन, जब टॉम ऑल्टर कहते हैं कि 1984 में 400 मीटर हर्डल में पीटीऊषा हासिल किए अपने सर्वश्रेष्ठ समय से कैसे धीरे-धीरे दूर होती चली गईं तो महसूस होता है कि ये शख्स कितनी बारीकी से खेलों से जुड़ा है। गुजरते वक्त के बीच भी उसकी पकड़ कमजोर नहीं हुई है। अपनी इन्हीं कहानियों से जुड़ा उनका एक दिलचस्प नज़रिया भी सामने था। “इस देश में किसी भी खिलाड़ी के शिखर छूने में उसके परिवार, दोस्त और स्कूल की एक बड़ी भूमिका है। मेरी इन 14 कहानियों में सिर्फ अकेली अनीता सूद थी, जिसने अपने कोच को भी अपनी कामयाबियों में एक बड़ा अहम हिस्सा माना था। और मैं भी यह बात महसूस करता हूं कि परिवार, दोस्त और स्कूल किसी भी खिलाड़ी को गढ़ने में बड़ी भूमिका निभाते हैं।”
दरअसल, टॉम ऑल्टर से मुलाकात के बीच बराबर ये महसूस होता रहा कि ये शख्स खेलों को बाहर बैठकर देखता भर नहीं है, उसमें पूरा डूबकर उसे जीने की कोशिश करता है। शायद, इसलिए ये कहते हुए उनका गला भर उठता है कि “जिस दिन मैच फिक्सिंग का फैसला सुनाया गया, वो दिन मेरे लिए सबसे दुखद दिन था। मैं मेरीन ड्राइव से लौट रहा था और मुझे वानखेड़े की झुकी फ्लडलाइट बराबर अहसास करा रही थी, जैसे आज वो इस वाकये के बाद शर्मसार होकर इसे रोशन नहीं कर रही, बल्कि शर्म से झुकी गई हैं।“
खेल को ज़िंदगी से गहरे जोड़कर देखने का ही आइना है उनका ये कहना कि “आईपीएल इज द रिजल्ट ऑफ ग्रीड एंड रिवेन्ज (आईपीएल लालच और बदले का नतीजा है।)”। वो कहते हैं “अपनी निजी जिंदगी में भी अगर आप रिश्तों को पाक रखना चाहते हैं, तो आपको लालच और बदले की भावना को अलग रखना होगा।” क्रिकेट की खूबसूरती और उनके बीच के प्यार को आप महसूस कर सकते हैं।
लेकिन, इन निराशाओं के बीच आज भी उनकी आंखें ध्यानचंद और बलबीर का नाम सुनकर चमक उठती हैं। मैं और मेरा मित्र जिक्र करते हैं ट्रिपल ओलंपिक गोल्ड मेडलिस्ट- ध्यानचंद और बलबीर का। वो फौरन इसमें जोड़ते हैं- “अरे सर, आप क्लाडियस को भूल गए। चार ओलंपिक में तीन गोल्ड हैं उनके भी।” मैं 1995 के सैफ खेलों के दौरान गोविन्दा से हुई अपनी मुलाकात की चर्चा छेड़ता हूं तो वे बरबस बोल पड़ते हैं, “ व्हाट ए प्लेयर। याद है आपको। क्या खेलता था गोविन्दा। सिर पर हैडबैंड बांधकर। हमारा हीरो था वो।” मैं महसूस कर सकता था कि कितनी बारीक और पैनी निगाह के साथ-साथ खेल के हर लम्हों को उन्होंने संजो कर रखा है।
लेकिन, ये सिर्फ कल ही नहीं है, जो उन्हें रोमांचित करता है। अभिनव बिंद्रा की कामयाबी के वो कायल हैं, तो साइना नेहवाल उन्हें बैडमिंटन के कोर्ट पर सबसे बड़ी उम्मीद के रुप में दिखायी दे रही है। चीन ताइपे में खिताबी जीत हासिल करने से दो मैच पहले ही टॉम साइना की मेहनत और खेल पर अपनी राय रखते हुए कहते हैं, “ ये खिलाड़ी बहुत दूर तक जाएगी।”
मैं महसूस कर रहा था खेल की ताकत को। इससे एक बार अगर आप जुड़ गए तो फिर ज़िंदगी के सारे उतार-चढ़ाव आपको इसमें नए मायनों के साथ दिखायी देते हैं। टॉम ऑल्टर से मुलाकात के बीच भी यह बराबर महसूस होता रहा। फिल्म और रंगमंच के बीच खेलों को इतनी शिद्दत से जीना ही है, जो उन्हें कभी इससे दूर ले जा नहीं सकता।
Saturday, September 13, 2008
"......बस ऐसा ही होता है"
इयान हाइबेल। ये नाम आपके लिए जितना अंजाना है, मेरे लिए भी कुछ घंटे पहले उतना ही अंजाना था। लेकिन,मेरे एक मित्र ने इकनॉमिस्ट के ताजा अंक में छपे एक लेख को पढ़ने के लिए भेजा, तो इस शख्स को लेकर मेरी खोज अभी तक जारी है।
इयान हाइबेल। दुनिया के मशहूर टूरिस्ट साइकिलस्ट। साइकिल के पैडल घुमाते घुमाते इस शख्स ने दुनिया को एक नहीं,दसियों बार नाप डाला। पिछले चालीस साल के दौरान इस शख्स ने हर साल औसतन छह हजार मील का फासला तय किया। यानी इन चार दशक के दौरान यह शख्स करीब ढाई लाख मील की दूरी साइकिल के जरिए पार कर गया। आप हिसाब लगाने बैठ जाएं तो ये फासला धरती से चांद की दूरी को पूरा कर डालता है।
इस दौरान इंग्लैंड के इस साइकिलस्ट ने अमेरिकी महाद्वीप के एक छोर से दूसरे छोर को छुआ तो 2006 में 72 साल की उम्र में उत्तर से दक्षिण चीन को नाप डाला। दो पहियों पर चलते चलते वो अमेज़न के घने जंगलों से गुजरा। हौसलों को तोड़ने वाले रेगिस्तान से भी निकला और इंडोनेशिया के अंजान टापुओं तक उसने पढ़ाव खोज लिए। अपनी इस राह में करीब अस्सी पौंड वजनी सामान को साइकिल पर लाद कभी वह तीन तीन फीट गहरे कीचड़ से निकला तो कभी रेत में धंसी साइकिल को खींचता हुआ आगे बढ़ा।
कभी घने जंगलों के बीच हाथियों के झुंड ने उसका पीछा किया,कभी शेर ने उसे महज सूंघकर जान बख्श दी,कभी चीटियों और कीड़ों ने रातों रात उसका पूरा टैंट बर्बाद कर दिया तो कभी लुटेरों का वह आसान निशाना बना। लेकिन, अंजान देश, अंजान राह और अंजान भाषियों के बीच उसके लिए मददगार भी तैयार थे।
इयान हाइबेल। दुनिया के मशहूर टूरिस्ट साइकिलस्ट। साइकिल के पैडल घुमाते घुमाते इस शख्स ने दुनिया को एक नहीं,दसियों बार नाप डाला। पिछले चालीस साल के दौरान इस शख्स ने हर साल औसतन छह हजार मील का फासला तय किया। यानी इन चार दशक के दौरान यह शख्स करीब ढाई लाख मील की दूरी साइकिल के जरिए पार कर गया। आप हिसाब लगाने बैठ जाएं तो ये फासला धरती से चांद की दूरी को पूरा कर डालता है।
इस दौरान इंग्लैंड के इस साइकिलस्ट ने अमेरिकी महाद्वीप के एक छोर से दूसरे छोर को छुआ तो 2006 में 72 साल की उम्र में उत्तर से दक्षिण चीन को नाप डाला। दो पहियों पर चलते चलते वो अमेज़न के घने जंगलों से गुजरा। हौसलों को तोड़ने वाले रेगिस्तान से भी निकला और इंडोनेशिया के अंजान टापुओं तक उसने पढ़ाव खोज लिए। अपनी इस राह में करीब अस्सी पौंड वजनी सामान को साइकिल पर लाद कभी वह तीन तीन फीट गहरे कीचड़ से निकला तो कभी रेत में धंसी साइकिल को खींचता हुआ आगे बढ़ा।
कभी घने जंगलों के बीच हाथियों के झुंड ने उसका पीछा किया,कभी शेर ने उसे महज सूंघकर जान बख्श दी,कभी चीटियों और कीड़ों ने रातों रात उसका पूरा टैंट बर्बाद कर दिया तो कभी लुटेरों का वह आसान निशाना बना। लेकिन, अंजान देश, अंजान राह और अंजान भाषियों के बीच उसके लिए मददगार भी तैयार थे।
मुश्किल हालात में कभी चीन में किसान आगे आए,तो अमेजनिया में इंडियंस ने उन्हें जंगल से बाहर निकलने की राह दिखायी और रेगिस्तान में बच्चों ने खजूर और चाय पिलाकर मौत से लड़ते इयान को नयी जिंदगी दी। हां,हालात कैसे भी हों,वो अपनी साइकिल को बचाने में हमेशा कामयाब हुए। लेकिन, इन उबड़ खाबड़ और मुश्किल रास्तों से ज्यादा भारी पड़ा सपाट रोड का तेज भागता ट्रैफिक। 23 अगस्त ग्रीस में एथेंस और सोलोनिका के बीच दो कारों की रेस के दौरान एक कार ने उनके इस सफर को हमेशा के लिए थाम दिया।
ये सफर 1963 में शुरु हुआ था। अपने दफ्तर से दो साल की छुट्टी लेकर उन्होंने अपने साइकिल पर पहली बार एक अंजान मंजिल की ओर कदम बढ़ाए थे। लौटे तो दस साल बाद। लेकिन, ठहरने के लिए नहीं-इसे एक सिलसिले में तब्दील करने के लिए। सिलसिला,जो एक पखवाड़े तक जारी था। वो लगातार साइकिल चलाते रहे। अकेले। सिर्फ अकेले, अंजान मंजिलों की ओर बढ़ते हुए।
इस सफर ने उन्हें दिए ऐसे अनुभव, जिसे उन्होंने किताबों की शक्ल दी और यूनिवर्सिटी में लेक्चर के रुप में छात्रों के साथ बांटा। लेकिन,एक सवाल का जवाब उनके पास भी नहीं था। आखिर,वो क्यों साइकिल के इन दो पहियों पर अंजान मंजिलों की ओर निकल जाते हैं। एक बार नहीं बार बार। हम और आप भी यही जानना चाहते हैं। उनका बस इतना ही कहना था- “पक्षी उड़ान भरता है,जब उसे कोई जगह आकर्षित करती है। अगर आप उससे इसका जवाब पूछें, तो इसका कोई जवाब नहीं है। बस, ऐसा ही होता है............” इयान हाइबेल भी एक पक्षी की तरह एक जगह से दूसरे जगह साइकिल पर उडान भरते रहे।
Thursday, September 11, 2008
ये मिथक टूटना नहीं चाहिए लांस आर्मस्ट्रांग
पहाड़ों की खूबसूरत पृष्ठभूमि में पैडल में जी जान झोंकते साइक्लिस्ट। दिल को छूती वादियों में सपनीले रास्तों पर अपनी मंजिल की ओर बढ़ते साइक्लिस्ट। एक नयी ऊंचाई को अपने कदमों तले रौंद अपने ख्वाबों को साकार करते साइक्लिस्ट। हर एक नयी मंजिल पर अपने चाहने वालों की दीवानगी के बीच आगे बढ़ते साइक्लिस्ट। इंसान, मशीन और प्रकृति के बीच की रहस्यमयी कड़ियां जोड़ते साइक्लिस्ट। जिंदगी और ख्वाब को साइकिल के पैडलों तक सिमटाते साइक्लिस्ट। टूर डे फ्रांस। इंसानी हौसलों को चुनौती देता बेमिसाल मुकाबला टूर डे फ्रांस।
लेकिन, मेरे लिए ये मुकाबला इन पहलुओं में ही नहीं सिमटा है। मैं और शायद मेरी तरह फ्रांस की इन वादियों से सैकड़ों मील दूर टेलीविजन सैट पर इसे निहारने वाला हर खेल चहेता इन सबके बीच लगातार एक शख्स को देखते देखते ही इसकी दीवानगी में डूब गया। एक ऐसी शख्सियत, जिसे न ये दुरुह रास्ते शिकस्त दे पाए और न ही कोई विरोधी। इस शख्स ने मौत को मात देकर जीत की नयी इबारत लिखी। इसका कहना है कि मैं जिंदगी में कभी हार नहीं मानता । मैं सब कुछ जीतना चाहता हूं और उसने सब कुछ जीता है।
लांस आर्मस्ट्रांग। मैं लांस आर्मस्ट्रांग की बात कर रहा हूं। कैंसर पर जीत दर्ज कर टूर डे फ्रांस मे एक या दो बार नहीं बल्कि सात बार 3500 किलोमीटर से ज्यादा का फासला तय किया-एक चैंपियन की हैसियत से। 1999 से 2005 के बीच कोई लांस को चुनौती नहीं दे सका। इंसानी जज्बों और हौसलों की एक मिसाल बनकर हम सबके सामने खड़े हैं लांस आर्मस्ट्रांग।
लेकिन, तीन साल बाद वो फिर इन ऊंचाईयों को छूना चाहते हैं। 38 साल की उम्र में वो खेलों के इस सबसे बेहतरीन मुकाबले में खिताब छूने का ख्वाब संजो रहे हैं। ये जानते हुए कि 36 साल की उम्र के बाद कोई साइक्लिस्ट इस शिखर को नहीं छू पाया। 1922 में फिरमिल लाम्बोर्ट इस मंजिल तक पहुंचे थे। आर्मस्ट्रांग खुद कहते रहे हैं कि एक उम्र के बाद पैडल आपको ऊपर नहीं, नीचे ले जाते हैं।
शिखर से नीचे आते आर्मस्ट्रांग को कोई देखना नहीं चाहता। अगर वो इस नयी मंजिल से एक कदम भी चूके तो उनको लेकर बना मिथक दरक सकता है। मिथक को दरकना नहीं चाहिए। लेजेंड की खूबसूरती तो इसी में हैं कि वो अपने करिश्मों से अपने आसपास कहानियों का जाल बुनता है। कहानियां किवदंतियों में बदलती हैं,और किवदंतियां चमत्कारों में। आप देखते ही देखते एक शिखर पर काबिज हो जाते हैं। महानायक एक लेजेंड में तब्दील हो जाते हैं। एक मिथक बन जाते हैं। लेकिन, इस मिथक को बरकरार रखने की जिम्मेदारी अब इस खिलाड़ी की ही होती है। उसे तय करना होता है कि कब उसे अपने शिखर से अलग होना है। कुछ इस तरह का तिलिस्म का जाल बुनते हुए कि उसकी आभा हर गुजरते वक्त, हर दौर में नए बनते मिथकों, महानायकों के बीच भी बरकरार रहे।
इसीलिए, सवाल जेहन में कौध रहा है कि आर्मस्ट्रांग क्या इस मिथक को दरकने से बचा पाएंगे? आखिर वापसी की कोशिशें करते हमने ब्योर्न बोर्ग को देखा, जॉर्ज फॉरमैन को देखा, मार्क स्पिट्ज और बॉबी फिशर को भी देखा। बोर्ग अमेरिकी ओपन हारने के साथ ही टेनिस से अलग हो गए। आठ साल बाद लौटे तो बूम बूम टेनिस के दौर में खारिज हो गए। जो फ्रेजियर को हराकर 70 के दशक में वर्ल्ड हैवीवेट का खिताब जीतने वाले जॉर्ज फॉरमैन ने दो दशक के बाद रिंग में वापसी की तो माइकल मूर को शिकस्त दी। लेकिन, वर्ल्ड चैंपियन की गूंज इन मुक्कों में सुनायी नहीं दी। म्यूनिख में सात ओलंपिक गोल्ड हासिल करने वाले स्पिट्ज ने दो दशक बाद बार्सिलोना ओलंपिक में जगह बनाने के लिए पूल मे छलांग लगाई। लेकिन,वो बार्सिलोना का सफर तक पूरा नहीं कर पाए। क्वालीफाई मुकाबले में ही उनकी चुनौती दम तोड़ गई। 1972 में शीत युद्ध के दौर में स्पास्की को शिकस्त देकर सोवियत संघ के गढ़ को भेदने वाले अमेरिकी बॉब फिशर एक लेंजेंड में तब्दील हो गए। लेकिन दो दशक बाद गुमनामी से लौटकर वो इसी बिसात पर स्पास्की के सामने फिर बैठे तो उनकी चालें बदलते वक्त में बहुत पीछे छूट गईं। इस हद तक कि तत्कालीन वर्ल्ड चैंपियन गैरी कास्पोरोव को ये कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं हुई कि हमारे बीच कोई मुकाबला ही नहीं हो सकता। यानी बोर्ग से लेकर जॉर्ज फॉरमैन और स्पिट्ज से लेकर फिशर तक– ये सब लेंजेंड हैं, और रहेंगे लेकिन वापसी की इनकी सोच ने इनके लेजेंड पर एक चोट तो की ही। कम से कम उन खेल दीवानों के जेहन में, जिन्होंने किवदंतियों में गढ़ते हुए इन्हें काल और समय की सीमाओं से बाहर पायदान पर जगह दी।
तो फिर, आर्मस्ट्रांग क्यों लौटना चाहते हैं। बेशक, वो कहें कि वो सिर्फ जीतना चाहते हैं। लेकिन, इन्हीं आर्मस्ट्रांग ने कभी कहा था कि पैडल आपको शिखर की ओर नहीं ले जाते। अगर पैडल आपको नीचे ढकेलते हैं,तो वो फिर क्यों ये जोखिम ले रहे हैं। आर्मस्ट्रांग की मानें तो वो कैंसर की रोकथाम के प्रचार को मकसद बनाकर एक बार फिर टूर डे फ्रांस में उतरना चाहते हैं। ये भी हो सकता है कि अपने सुनहरे करियर पर पड़े डोपिंग के छींटों से उबरने की चाह उन्हें इस नयी जंग के लिए मजबूर कर रही हो। ऐसा भी कहा जा रहा है कि वो शायद भविष्य में राजनीति मे उतरना चाहते हैं। टैक्सास के गवर्नर की कुर्सी का ख्वाब वो संजो रहे हैं।
वजह जो भी हो। अगर आर्मस्ट्रांग जीत से एक कदम भी पीछे रहे तो उनकी हासिल उपलब्धियों पर एक सवाल की छाया जरुर मंडराने लगेगी। हम विजयी आर्मस्ट्रांग को देखने के आदी हो चुके हैं। अगर आप मुकाबले में उतरेंगे तो आपसे सिर्फ हिस्सेदारी की उम्मीद नहीं होगी। उम्मीद होगी तो सिर्फ जीत और जीत की। अपने से जुड़े मिथक को ताउम्र इसी मजबूती से बरकरार रखना है तो आपको अजेय रहना होगा। एक शिकस्त आपको लेकर बने मिथक पर चोट कर सकती है।
आर्मस्ट्रांग आप खुद को साबित करने से आगे निकल चुके हैं। हार आपके साथ जुड़ नहीं सकती। जुड़नी भी नहीं चाहिए। आखिर, जीत का दूसरा नाम लांस आर्मस्ट्रांग भी है। टूर डे फ्रांस ने यही संदेश बार बार दिया है। हम विजयी आर्मस्ट्रांग के मिथक के साथ जीना चाहते हैं।
लेकिन, मेरे लिए ये मुकाबला इन पहलुओं में ही नहीं सिमटा है। मैं और शायद मेरी तरह फ्रांस की इन वादियों से सैकड़ों मील दूर टेलीविजन सैट पर इसे निहारने वाला हर खेल चहेता इन सबके बीच लगातार एक शख्स को देखते देखते ही इसकी दीवानगी में डूब गया। एक ऐसी शख्सियत, जिसे न ये दुरुह रास्ते शिकस्त दे पाए और न ही कोई विरोधी। इस शख्स ने मौत को मात देकर जीत की नयी इबारत लिखी। इसका कहना है कि मैं जिंदगी में कभी हार नहीं मानता । मैं सब कुछ जीतना चाहता हूं और उसने सब कुछ जीता है।
लांस आर्मस्ट्रांग। मैं लांस आर्मस्ट्रांग की बात कर रहा हूं। कैंसर पर जीत दर्ज कर टूर डे फ्रांस मे एक या दो बार नहीं बल्कि सात बार 3500 किलोमीटर से ज्यादा का फासला तय किया-एक चैंपियन की हैसियत से। 1999 से 2005 के बीच कोई लांस को चुनौती नहीं दे सका। इंसानी जज्बों और हौसलों की एक मिसाल बनकर हम सबके सामने खड़े हैं लांस आर्मस्ट्रांग।
लेकिन, तीन साल बाद वो फिर इन ऊंचाईयों को छूना चाहते हैं। 38 साल की उम्र में वो खेलों के इस सबसे बेहतरीन मुकाबले में खिताब छूने का ख्वाब संजो रहे हैं। ये जानते हुए कि 36 साल की उम्र के बाद कोई साइक्लिस्ट इस शिखर को नहीं छू पाया। 1922 में फिरमिल लाम्बोर्ट इस मंजिल तक पहुंचे थे। आर्मस्ट्रांग खुद कहते रहे हैं कि एक उम्र के बाद पैडल आपको ऊपर नहीं, नीचे ले जाते हैं।
शिखर से नीचे आते आर्मस्ट्रांग को कोई देखना नहीं चाहता। अगर वो इस नयी मंजिल से एक कदम भी चूके तो उनको लेकर बना मिथक दरक सकता है। मिथक को दरकना नहीं चाहिए। लेजेंड की खूबसूरती तो इसी में हैं कि वो अपने करिश्मों से अपने आसपास कहानियों का जाल बुनता है। कहानियां किवदंतियों में बदलती हैं,और किवदंतियां चमत्कारों में। आप देखते ही देखते एक शिखर पर काबिज हो जाते हैं। महानायक एक लेजेंड में तब्दील हो जाते हैं। एक मिथक बन जाते हैं। लेकिन, इस मिथक को बरकरार रखने की जिम्मेदारी अब इस खिलाड़ी की ही होती है। उसे तय करना होता है कि कब उसे अपने शिखर से अलग होना है। कुछ इस तरह का तिलिस्म का जाल बुनते हुए कि उसकी आभा हर गुजरते वक्त, हर दौर में नए बनते मिथकों, महानायकों के बीच भी बरकरार रहे।
इसीलिए, सवाल जेहन में कौध रहा है कि आर्मस्ट्रांग क्या इस मिथक को दरकने से बचा पाएंगे? आखिर वापसी की कोशिशें करते हमने ब्योर्न बोर्ग को देखा, जॉर्ज फॉरमैन को देखा, मार्क स्पिट्ज और बॉबी फिशर को भी देखा। बोर्ग अमेरिकी ओपन हारने के साथ ही टेनिस से अलग हो गए। आठ साल बाद लौटे तो बूम बूम टेनिस के दौर में खारिज हो गए। जो फ्रेजियर को हराकर 70 के दशक में वर्ल्ड हैवीवेट का खिताब जीतने वाले जॉर्ज फॉरमैन ने दो दशक के बाद रिंग में वापसी की तो माइकल मूर को शिकस्त दी। लेकिन, वर्ल्ड चैंपियन की गूंज इन मुक्कों में सुनायी नहीं दी। म्यूनिख में सात ओलंपिक गोल्ड हासिल करने वाले स्पिट्ज ने दो दशक बाद बार्सिलोना ओलंपिक में जगह बनाने के लिए पूल मे छलांग लगाई। लेकिन,वो बार्सिलोना का सफर तक पूरा नहीं कर पाए। क्वालीफाई मुकाबले में ही उनकी चुनौती दम तोड़ गई। 1972 में शीत युद्ध के दौर में स्पास्की को शिकस्त देकर सोवियत संघ के गढ़ को भेदने वाले अमेरिकी बॉब फिशर एक लेंजेंड में तब्दील हो गए। लेकिन दो दशक बाद गुमनामी से लौटकर वो इसी बिसात पर स्पास्की के सामने फिर बैठे तो उनकी चालें बदलते वक्त में बहुत पीछे छूट गईं। इस हद तक कि तत्कालीन वर्ल्ड चैंपियन गैरी कास्पोरोव को ये कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं हुई कि हमारे बीच कोई मुकाबला ही नहीं हो सकता। यानी बोर्ग से लेकर जॉर्ज फॉरमैन और स्पिट्ज से लेकर फिशर तक– ये सब लेंजेंड हैं, और रहेंगे लेकिन वापसी की इनकी सोच ने इनके लेजेंड पर एक चोट तो की ही। कम से कम उन खेल दीवानों के जेहन में, जिन्होंने किवदंतियों में गढ़ते हुए इन्हें काल और समय की सीमाओं से बाहर पायदान पर जगह दी।
तो फिर, आर्मस्ट्रांग क्यों लौटना चाहते हैं। बेशक, वो कहें कि वो सिर्फ जीतना चाहते हैं। लेकिन, इन्हीं आर्मस्ट्रांग ने कभी कहा था कि पैडल आपको शिखर की ओर नहीं ले जाते। अगर पैडल आपको नीचे ढकेलते हैं,तो वो फिर क्यों ये जोखिम ले रहे हैं। आर्मस्ट्रांग की मानें तो वो कैंसर की रोकथाम के प्रचार को मकसद बनाकर एक बार फिर टूर डे फ्रांस में उतरना चाहते हैं। ये भी हो सकता है कि अपने सुनहरे करियर पर पड़े डोपिंग के छींटों से उबरने की चाह उन्हें इस नयी जंग के लिए मजबूर कर रही हो। ऐसा भी कहा जा रहा है कि वो शायद भविष्य में राजनीति मे उतरना चाहते हैं। टैक्सास के गवर्नर की कुर्सी का ख्वाब वो संजो रहे हैं।
वजह जो भी हो। अगर आर्मस्ट्रांग जीत से एक कदम भी पीछे रहे तो उनकी हासिल उपलब्धियों पर एक सवाल की छाया जरुर मंडराने लगेगी। हम विजयी आर्मस्ट्रांग को देखने के आदी हो चुके हैं। अगर आप मुकाबले में उतरेंगे तो आपसे सिर्फ हिस्सेदारी की उम्मीद नहीं होगी। उम्मीद होगी तो सिर्फ जीत और जीत की। अपने से जुड़े मिथक को ताउम्र इसी मजबूती से बरकरार रखना है तो आपको अजेय रहना होगा। एक शिकस्त आपको लेकर बने मिथक पर चोट कर सकती है।
आर्मस्ट्रांग आप खुद को साबित करने से आगे निकल चुके हैं। हार आपके साथ जुड़ नहीं सकती। जुड़नी भी नहीं चाहिए। आखिर, जीत का दूसरा नाम लांस आर्मस्ट्रांग भी है। टूर डे फ्रांस ने यही संदेश बार बार दिया है। हम विजयी आर्मस्ट्रांग के मिथक के साथ जीना चाहते हैं।
Wednesday, September 10, 2008
प्रकाश पादुकोण के वो सुनहरे पच्चीस दिन
अब से अट्ठाइस साल पहले प्रकाश पादुकोण ने भारतीय बैडमिंटन को सुनहरे पच्चीस दिन दिए थे। इनकी चमक कभी फीकी नहीं पड़ सकती। 1980 के उन पच्चीस दिनों में प्रकाश विश्व बेडमिंटन की तीन सबसे प्रतिष्ठित प्रतियोगिताएं- डेनिश ओपन, स्वीडिश ओपन और ऑल इंग्लैंड चैंपियनशिप जीतते हुए खुद एक इतिहास बन गए। भारतीय बैडमिंटन की सबसे बड़ी शख्सियत प्रकाश पादुकोण से ये बातचीत मैंने पंद्रह साल पहले की थी। ‘अमर उजाला’ में 1 जून, 1993 को प्रकाशित हुई थी ये बातचीत।
अस्सी के दशक का पहला पड़ाव! इस पड़ाव के दौरान खेलों की दुनिया ने कहां, कौन सा मोड़ लिया, कुछ याद नहीं। हमें याद है तो पच्चीस दिनों का एक खास दौर। तेरह साल बीत जाने के बाद भी उन पच्चीस दिनों की यादें कहीं से धूमिल नहीं पड़ रही हैं, बल्कि उन्हें याद करते-करते हर बार एक नई ताजगी से सराबोर हो जाते हैं हम।
इन पच्चीस दिनों के सफर में ही हमने देखा प्रकाश पादुकोण को महान में तब्दील होते हुए। यह दौर न इससे पहले भारतीय बैडमिंटन में आया था, न ही आज तक दोहराया गया है। प्रकाश ने सिर्फ पच्चीस दिनों में ही स्वीडिश ओपन, डेनिस ओपन और ऑल इंग्लैंड प्रतियोगिता जीतते हुए इतिहास ही लिखा था। इतिहास लिखा ही नहीं था, बल्कि बैडमिंटन के इतिहास में ये पच्चीस दिन सिर्फ प्रकाश के नाम दर्ज हो चुके हैं। सर्वकालीन महान रूडी हार्तोनो के कोर्ट पर मौजूद रहते इन दिनों का इतिहास सिर्फ प्रकाश पादुकोण हैं।
फिर इतिहास के इन इन्हीं पन्नों को उलटने के लिए ही तो मैं प्रकाश से मिलना चाहता था। सोलह-सत्रह की साल उम्र में एक किशोर के तौर पर ट्रांजिस्टर से सटे कानों ने उन लम्हों को महसूस जरूर किया था। टेलीविजन पर कई-कई बार आती रिकॉर्डिंग से उसकी जीवंतता का एहसास किया था। अखबार और पत्रिकाओं की कतरनों के साथ उन्हें हमेशा-हमेशा के लिए संजो कर रख दिया था।
लेकिन, इसके बाद भी प्रकाश की ही जुबानी इन दिनों को एक नए सिरे से ताजा करने की चाह कहीं अंदर मौजूद थी। खुद प्रकाश को इन दिनों की ओर लौटते कैसा लगता है! प्रकाश क्यों इस दौर को फिर दोहरा नहीं पाए! क्यों यह एक ट्रेजेडी में तब्दील होकर रह गया! इन्हीं सब सवालों की बेताबी मुझे उस दिन इंदिरा गांधी स्टेडियम तक खींच ले गई थी। भारतीय टीम सुदिरमन कप के लिए अपनी तैयारियों में मशगुल थी। और प्रकाश रेलिंग पर हाथ टिकाए एक कप्तान की नजर से उन्हें परख रहे थे। पर मेरे उन पच्चीस दिनों का जिक्र छेड़ने के साथ ही प्रकाश कब तेरह साल पीछे लौट गए, आभास तक ही नहीं हो पाया।
‘उन दिनों की याद करना तो बहुत अच्छा लगता है। बहुत सुखद।‘ प्रकाश ने अपने लिखे इतिहास को खुद पढ़ने की शुरूआत कर दी थी, ‘दरअसल, जब तक मैं इस मुकाम को हासिल कर वापिस नही लौटा, मुझे इसकी अहमियत का पता नही था। घर लौटने पर जिस तरह मेरा स्वागत किया गया, मुझे सम्मान मिला, मुझे इसकी उम्मीद नही थी। मेरा यह हासिल करना इतनी सनसनी फैला देगा, पूरे गेम पर असर डालेगा, मैंने यह सोचा भी नही था।’ इंदिरा गांधी इंडोर स्टेडियम में उमस के चलते पसीने की बुंदें बराबर प्रकाश के चेहरे पर छलछला रही थी, लेकिन इससे कहीं बेखबर भारतीय बैडमिंटन में हमारे समय की सबसे बड़ी शख्सियत प्रकाश अपनी यादों में कही गहरे उतरना शुरू हो चुके थे।
‘डेनिश ओपन में जीता, तो खुश था। पहली प्रतियोगिता जीत ली। और यह खुशी इसलिए भी कुछ ज्यादा ही थी क्योंकि यहां मैंने अपने ही आदर्श खिलाड़ी रूडी हार्तोनो को शिकस्त दी थी। उसके बाद वहां से स्वीडन गया। वहां भी जीता। फिर ऑल इंग्लैंड में पहुंचा। पहली दोनों प्रतियोगिताएं जीतने के साथ ही खासा आश्वस्त था। कहीं से कोई तनाव नही था। सीधे गेमों में मैंने लिम स्वी किंग को शिकस्त देते हुए, चैंपियनशिप जीत ली थी। पूरी तरह से खासा यादगार था ये सब।’
लेकिन, प्रकाश को ये सब सिर्फ उनके टैलेंट के चलते ही हासिल नही हुआ था। जाने से पहले कोट पर अभ्यास में झोंके गए छह-छह घंटे, भला कोई कैसे भूल सकता है। लेकिन इसके बाद प्रकाश इन दिनों का फिर दोहरा नही सके, यह भी तो नही भूलाया जा सकता। कुछ लोग इसकी वजह प्रकाश के डेनमार्क जाने को ठहराते है। लेकिन खुद प्रकाश इसे नही स्वीकारते। इस मुद्दे पर वह कहते है – ‘1980 में इस उपलब्धि को हासिल कर डेनमार्क जाने का मुझे कोई अफसोस नही है। बेशक, मैंने वहां जाने के बाद कोई टूर्नामेंट नही जीता। पर, विश्व बैडमिंटन में कांस्य पदक (1981) वहीं जाने के बाद जीता। और ऑल इंग्लैंड के फाइनल में भी पहुंचा।’ अपनी बात जारी रखते हुए प्रकाश कहते हैं – ‘ मार्टिन फ्रास्ट से तुलना करने में ऐसा लगता है कि मैं वैसी प्रोग्रेस नही दिखा पाया। यह सच है कि डेनमार्क में फ्रास्ट के साथ मैं काफी समय खेलता था। उसको मेरा गेम भी मालूम हो गया था, उसकी वजह से जब भी वह मेरे सामने होता, तो एक अतिरिक्त लाभ की स्थिती में रहता था। लेकिन अगर मैं भारत में रूका रहता, तो मैनें जीतना हासिल किया, उतना भी नही कर पाता। वहां जाने के बाद भी मैं 1986 तक पहले छह मे तो बना ही रहा। भारत में जिस तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता हैं। उसके चलते इतना भी हासिल करना संभव नही था।’
प्रकाश अब अपनी रौ में बह रह थे ‘फिर उम्र भी तो बढ़ रही थी, मैं साढे़ पच्चीस साल का था। जब मैंने डेनमार्क की ओर रूख किया, उम्र बढ़ने के साथ-साथ एकाग्र होकर खेलना भी तो खासा मुश्किल हो रहा था। वहां पर जिस तरह का प्रयास मैंने किया, मैं ही जानता हूं। जितना ज्यादा से ज्यादा मैं खुद को झोंक सकता था, मैंने झोंका। मैं इससे अधिक नहीं कर सकता था। यह संतोष तो मुझे है ही। मुझे भारत छोड़कर डेनमार्क जाने का कोई अफसोस नहीं है।’
यह सही है कि प्रकाश का भारत छोड़कर डेनमार्क जाना सही फैसला था। कम से कम जिस तरह की दिक्कतों का सामना भारत में खिलाडि़यों को करना पडता है वह किसी से छिपा नहीं है। आज तो सुविधाएं कुछ बेहतर ही हैं। प्रकाश के समय में जो हालत थी वह तो बस ...।
इसी पर प्रकाश कह उठते हैं – ‘जिन दिक्कतों में हम खेलते थे, हम ही जानते हैं। मैं नहीं सोचता कि हमारी जगह अगर कोई और होता तो वह सामने भी आ पाता। अगर आप रूडी हार्तोनो को ही इस हालत में खड़ा कर दें तो मुझे संदेह है कि मैंने जितना हासिल किया, उससे ज्यादा वह कुछ कर लेते।’ ‘लेकिन प्रकाश, आप अपने टेलेंट के लिहाज से जितना हासिल कर सकते थे, आपने किया।’ इस पर हमेशा की तरह बिना किसी पर कोई अंगुली उठाए प्रकाश का सहज जवाब था – ‘अपने देश में हालात को देखते हुए मैं सोचता हूं कि मैंने अधिकतम हासिल किया।’ लेकिन यहीं वह सवाल को दूसरे सिरे से पकड़ते हुए कहते हैं – ‘अगर मुझे बाहर जैसी सुविधाएं मिलतीं तो मैं कहां होता, यह जरूर एक अटकल हो सकती है। पर, हो सकता है कि मैं कुछ अधिक हासिल कर लेता।’
साथ ही एक खिलाड़ी के तौर पर अपने करियर का मूल्यांकन करते हुए प्रकाश कहते हैं – ‘मैं अपने करियर को लेकर पूरी तरह से संतुष्ट हूं। खासतौर से डेनमार्क में अपने प्रवास के मद्देनजर। मुझे कोई अफसोस नहीं है। जैसे कुछ लोगों को अक्सर यह अफसोस रहता है कि अगर कुछ और मेहनत की जाती तो कुछ और बन सकता था, तो ऐसा कोई अफसोस मुझे नहीं है। मैं जानता हूं कि मैंने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास किया। हरसंभव प्रयास किया। लगातार बिना कुछ और किए पांच-छह घंटे सिर्फ कोर्ट पर बिताए। आप जानते हैं कि खासतौर पर डेनमार्क जाने के बाद बैडमिंटन और सिर्फ बैडमिंटन ही मेरा सब कुछ बनकर रह गया था। एक जुनून-सा था मेरे लिए।’
सचमुच जुनून तो था ही यह। नहीं तो जिस दौर में प्रकाश एक खिलाड़ी के तौर पर विश्व बेडमिंटन में अपनी पहचान बनाने में लगे थे, उस दौर में हालात तो किसी को भी कुंठित कर सकते थे। प्रकाश ही कहते हैं – ‘आज और उस दौर की कोई तुलना ही नहीं। अब तो खेल भी बहुत लोकप्रिय हो गया है। कई लोग खेलने लगे हैं। ज्यादा कोर्ट हैं। ज्यादा सुविधाएं हैं। प्रायोजक मिलना आसान है। नौकरी हासिल करना आसान है। कैम्प कहीं ज्यादा हैं। उपकरणों की हालत बहुत बेहतर है। आपको विदेशी शटल से खेलने का मौका मिलता है। उस वक्त तो आप सोच भी नहीं सकते थे।’
लेकिन, प्रकाश को कोई हालात डिगा ही नही सकते थे। फिर जब आपके सामने आपकी मंजिल बिल्कुल साफ हो, तो यह सवाल ही उभर नहीं सकता। तभी तो प्रकाश ने स्वीकारा था, ‘उस दौर में तमाम विपरीत हालात में मुझे कभी किसी तरह की हताशा नहीं हुई थी। मैंने अपने लिए एक साफ लक्ष्य बनाया था। फिर बाकी किसी बात की मैंने परवाह नहीं की। मेरा केवल एक ही उद्देश्य था सिर्फ खेलना। मेरी कभी यह इच्छा भी नहीं रही कि खेल से मुझे पैसा मिलेगा या शोहरत। मैं बस अपने खेल से जुड़ा रहा। मैं खुद से यही कहता रहा कि मैं अपना खेल खेलता रहूंगा। यह नही है। वह नही है। ऐसी आलोचनाएं करने में मैंने कोई वक्त नही गवांया। कोई व्यर्थ प्रयास नही किया। जो भी सुविधाए थी, जो भी संभव था, मैंने अपना सारा वक्त उन्हीं में अपने खेल को बेहतर से बेहतर करने में लगाया। इसलिए मुझे कोई अफसोस नहीं है।’
प्रकाश से सवालों का सिलसिला यहीं खत्म हो जाना चाहिए था। वह हो भी गया था। लेकिन, फिर भी एक कचोट अभी भी बराबर बनी हुई थी। इंदिरा गांधी स्टेडियम से वापस लौटते हुए खुद से इसकी वजह जानना चाह रहा था। और कही अर्द्धचेतन से जवाब मिल रहा था, ‘हम भारतीय ऐसे क्षण देखने के आदी नहीं हैं। और प्रकाश ने सबकी उम्मीदों से कहीं बहुत आगे निकलते हुए उस क्षण से रू-ब-रू कराया। और आने वाले वक्त में कोई इसे दोहरा भी पाएगा, इसकी हल्की सी पदचाप भी सुनाई नही पड़ती।’ शायद इस दौर को फिर न देख पाना ही कचोट रहा था। रह रह कर वह पच्चीस दिन याद आ रहे थे।
अस्सी के दशक का पहला पड़ाव! इस पड़ाव के दौरान खेलों की दुनिया ने कहां, कौन सा मोड़ लिया, कुछ याद नहीं। हमें याद है तो पच्चीस दिनों का एक खास दौर। तेरह साल बीत जाने के बाद भी उन पच्चीस दिनों की यादें कहीं से धूमिल नहीं पड़ रही हैं, बल्कि उन्हें याद करते-करते हर बार एक नई ताजगी से सराबोर हो जाते हैं हम।
इन पच्चीस दिनों के सफर में ही हमने देखा प्रकाश पादुकोण को महान में तब्दील होते हुए। यह दौर न इससे पहले भारतीय बैडमिंटन में आया था, न ही आज तक दोहराया गया है। प्रकाश ने सिर्फ पच्चीस दिनों में ही स्वीडिश ओपन, डेनिस ओपन और ऑल इंग्लैंड प्रतियोगिता जीतते हुए इतिहास ही लिखा था। इतिहास लिखा ही नहीं था, बल्कि बैडमिंटन के इतिहास में ये पच्चीस दिन सिर्फ प्रकाश के नाम दर्ज हो चुके हैं। सर्वकालीन महान रूडी हार्तोनो के कोर्ट पर मौजूद रहते इन दिनों का इतिहास सिर्फ प्रकाश पादुकोण हैं।
फिर इतिहास के इन इन्हीं पन्नों को उलटने के लिए ही तो मैं प्रकाश से मिलना चाहता था। सोलह-सत्रह की साल उम्र में एक किशोर के तौर पर ट्रांजिस्टर से सटे कानों ने उन लम्हों को महसूस जरूर किया था। टेलीविजन पर कई-कई बार आती रिकॉर्डिंग से उसकी जीवंतता का एहसास किया था। अखबार और पत्रिकाओं की कतरनों के साथ उन्हें हमेशा-हमेशा के लिए संजो कर रख दिया था।
लेकिन, इसके बाद भी प्रकाश की ही जुबानी इन दिनों को एक नए सिरे से ताजा करने की चाह कहीं अंदर मौजूद थी। खुद प्रकाश को इन दिनों की ओर लौटते कैसा लगता है! प्रकाश क्यों इस दौर को फिर दोहरा नहीं पाए! क्यों यह एक ट्रेजेडी में तब्दील होकर रह गया! इन्हीं सब सवालों की बेताबी मुझे उस दिन इंदिरा गांधी स्टेडियम तक खींच ले गई थी। भारतीय टीम सुदिरमन कप के लिए अपनी तैयारियों में मशगुल थी। और प्रकाश रेलिंग पर हाथ टिकाए एक कप्तान की नजर से उन्हें परख रहे थे। पर मेरे उन पच्चीस दिनों का जिक्र छेड़ने के साथ ही प्रकाश कब तेरह साल पीछे लौट गए, आभास तक ही नहीं हो पाया।
‘उन दिनों की याद करना तो बहुत अच्छा लगता है। बहुत सुखद।‘ प्रकाश ने अपने लिखे इतिहास को खुद पढ़ने की शुरूआत कर दी थी, ‘दरअसल, जब तक मैं इस मुकाम को हासिल कर वापिस नही लौटा, मुझे इसकी अहमियत का पता नही था। घर लौटने पर जिस तरह मेरा स्वागत किया गया, मुझे सम्मान मिला, मुझे इसकी उम्मीद नही थी। मेरा यह हासिल करना इतनी सनसनी फैला देगा, पूरे गेम पर असर डालेगा, मैंने यह सोचा भी नही था।’ इंदिरा गांधी इंडोर स्टेडियम में उमस के चलते पसीने की बुंदें बराबर प्रकाश के चेहरे पर छलछला रही थी, लेकिन इससे कहीं बेखबर भारतीय बैडमिंटन में हमारे समय की सबसे बड़ी शख्सियत प्रकाश अपनी यादों में कही गहरे उतरना शुरू हो चुके थे।
‘डेनिश ओपन में जीता, तो खुश था। पहली प्रतियोगिता जीत ली। और यह खुशी इसलिए भी कुछ ज्यादा ही थी क्योंकि यहां मैंने अपने ही आदर्श खिलाड़ी रूडी हार्तोनो को शिकस्त दी थी। उसके बाद वहां से स्वीडन गया। वहां भी जीता। फिर ऑल इंग्लैंड में पहुंचा। पहली दोनों प्रतियोगिताएं जीतने के साथ ही खासा आश्वस्त था। कहीं से कोई तनाव नही था। सीधे गेमों में मैंने लिम स्वी किंग को शिकस्त देते हुए, चैंपियनशिप जीत ली थी। पूरी तरह से खासा यादगार था ये सब।’
लेकिन, प्रकाश को ये सब सिर्फ उनके टैलेंट के चलते ही हासिल नही हुआ था। जाने से पहले कोट पर अभ्यास में झोंके गए छह-छह घंटे, भला कोई कैसे भूल सकता है। लेकिन इसके बाद प्रकाश इन दिनों का फिर दोहरा नही सके, यह भी तो नही भूलाया जा सकता। कुछ लोग इसकी वजह प्रकाश के डेनमार्क जाने को ठहराते है। लेकिन खुद प्रकाश इसे नही स्वीकारते। इस मुद्दे पर वह कहते है – ‘1980 में इस उपलब्धि को हासिल कर डेनमार्क जाने का मुझे कोई अफसोस नही है। बेशक, मैंने वहां जाने के बाद कोई टूर्नामेंट नही जीता। पर, विश्व बैडमिंटन में कांस्य पदक (1981) वहीं जाने के बाद जीता। और ऑल इंग्लैंड के फाइनल में भी पहुंचा।’ अपनी बात जारी रखते हुए प्रकाश कहते हैं – ‘ मार्टिन फ्रास्ट से तुलना करने में ऐसा लगता है कि मैं वैसी प्रोग्रेस नही दिखा पाया। यह सच है कि डेनमार्क में फ्रास्ट के साथ मैं काफी समय खेलता था। उसको मेरा गेम भी मालूम हो गया था, उसकी वजह से जब भी वह मेरे सामने होता, तो एक अतिरिक्त लाभ की स्थिती में रहता था। लेकिन अगर मैं भारत में रूका रहता, तो मैनें जीतना हासिल किया, उतना भी नही कर पाता। वहां जाने के बाद भी मैं 1986 तक पहले छह मे तो बना ही रहा। भारत में जिस तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता हैं। उसके चलते इतना भी हासिल करना संभव नही था।’
प्रकाश अब अपनी रौ में बह रह थे ‘फिर उम्र भी तो बढ़ रही थी, मैं साढे़ पच्चीस साल का था। जब मैंने डेनमार्क की ओर रूख किया, उम्र बढ़ने के साथ-साथ एकाग्र होकर खेलना भी तो खासा मुश्किल हो रहा था। वहां पर जिस तरह का प्रयास मैंने किया, मैं ही जानता हूं। जितना ज्यादा से ज्यादा मैं खुद को झोंक सकता था, मैंने झोंका। मैं इससे अधिक नहीं कर सकता था। यह संतोष तो मुझे है ही। मुझे भारत छोड़कर डेनमार्क जाने का कोई अफसोस नहीं है।’
यह सही है कि प्रकाश का भारत छोड़कर डेनमार्क जाना सही फैसला था। कम से कम जिस तरह की दिक्कतों का सामना भारत में खिलाडि़यों को करना पडता है वह किसी से छिपा नहीं है। आज तो सुविधाएं कुछ बेहतर ही हैं। प्रकाश के समय में जो हालत थी वह तो बस ...।
इसी पर प्रकाश कह उठते हैं – ‘जिन दिक्कतों में हम खेलते थे, हम ही जानते हैं। मैं नहीं सोचता कि हमारी जगह अगर कोई और होता तो वह सामने भी आ पाता। अगर आप रूडी हार्तोनो को ही इस हालत में खड़ा कर दें तो मुझे संदेह है कि मैंने जितना हासिल किया, उससे ज्यादा वह कुछ कर लेते।’ ‘लेकिन प्रकाश, आप अपने टेलेंट के लिहाज से जितना हासिल कर सकते थे, आपने किया।’ इस पर हमेशा की तरह बिना किसी पर कोई अंगुली उठाए प्रकाश का सहज जवाब था – ‘अपने देश में हालात को देखते हुए मैं सोचता हूं कि मैंने अधिकतम हासिल किया।’ लेकिन यहीं वह सवाल को दूसरे सिरे से पकड़ते हुए कहते हैं – ‘अगर मुझे बाहर जैसी सुविधाएं मिलतीं तो मैं कहां होता, यह जरूर एक अटकल हो सकती है। पर, हो सकता है कि मैं कुछ अधिक हासिल कर लेता।’
साथ ही एक खिलाड़ी के तौर पर अपने करियर का मूल्यांकन करते हुए प्रकाश कहते हैं – ‘मैं अपने करियर को लेकर पूरी तरह से संतुष्ट हूं। खासतौर से डेनमार्क में अपने प्रवास के मद्देनजर। मुझे कोई अफसोस नहीं है। जैसे कुछ लोगों को अक्सर यह अफसोस रहता है कि अगर कुछ और मेहनत की जाती तो कुछ और बन सकता था, तो ऐसा कोई अफसोस मुझे नहीं है। मैं जानता हूं कि मैंने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास किया। हरसंभव प्रयास किया। लगातार बिना कुछ और किए पांच-छह घंटे सिर्फ कोर्ट पर बिताए। आप जानते हैं कि खासतौर पर डेनमार्क जाने के बाद बैडमिंटन और सिर्फ बैडमिंटन ही मेरा सब कुछ बनकर रह गया था। एक जुनून-सा था मेरे लिए।’
सचमुच जुनून तो था ही यह। नहीं तो जिस दौर में प्रकाश एक खिलाड़ी के तौर पर विश्व बेडमिंटन में अपनी पहचान बनाने में लगे थे, उस दौर में हालात तो किसी को भी कुंठित कर सकते थे। प्रकाश ही कहते हैं – ‘आज और उस दौर की कोई तुलना ही नहीं। अब तो खेल भी बहुत लोकप्रिय हो गया है। कई लोग खेलने लगे हैं। ज्यादा कोर्ट हैं। ज्यादा सुविधाएं हैं। प्रायोजक मिलना आसान है। नौकरी हासिल करना आसान है। कैम्प कहीं ज्यादा हैं। उपकरणों की हालत बहुत बेहतर है। आपको विदेशी शटल से खेलने का मौका मिलता है। उस वक्त तो आप सोच भी नहीं सकते थे।’
लेकिन, प्रकाश को कोई हालात डिगा ही नही सकते थे। फिर जब आपके सामने आपकी मंजिल बिल्कुल साफ हो, तो यह सवाल ही उभर नहीं सकता। तभी तो प्रकाश ने स्वीकारा था, ‘उस दौर में तमाम विपरीत हालात में मुझे कभी किसी तरह की हताशा नहीं हुई थी। मैंने अपने लिए एक साफ लक्ष्य बनाया था। फिर बाकी किसी बात की मैंने परवाह नहीं की। मेरा केवल एक ही उद्देश्य था सिर्फ खेलना। मेरी कभी यह इच्छा भी नहीं रही कि खेल से मुझे पैसा मिलेगा या शोहरत। मैं बस अपने खेल से जुड़ा रहा। मैं खुद से यही कहता रहा कि मैं अपना खेल खेलता रहूंगा। यह नही है। वह नही है। ऐसी आलोचनाएं करने में मैंने कोई वक्त नही गवांया। कोई व्यर्थ प्रयास नही किया। जो भी सुविधाए थी, जो भी संभव था, मैंने अपना सारा वक्त उन्हीं में अपने खेल को बेहतर से बेहतर करने में लगाया। इसलिए मुझे कोई अफसोस नहीं है।’
प्रकाश से सवालों का सिलसिला यहीं खत्म हो जाना चाहिए था। वह हो भी गया था। लेकिन, फिर भी एक कचोट अभी भी बराबर बनी हुई थी। इंदिरा गांधी स्टेडियम से वापस लौटते हुए खुद से इसकी वजह जानना चाह रहा था। और कही अर्द्धचेतन से जवाब मिल रहा था, ‘हम भारतीय ऐसे क्षण देखने के आदी नहीं हैं। और प्रकाश ने सबकी उम्मीदों से कहीं बहुत आगे निकलते हुए उस क्षण से रू-ब-रू कराया। और आने वाले वक्त में कोई इसे दोहरा भी पाएगा, इसकी हल्की सी पदचाप भी सुनाई नही पड़ती।’ शायद इस दौर को फिर न देख पाना ही कचोट रहा था। रह रह कर वह पच्चीस दिन याद आ रहे थे।
Tuesday, September 9, 2008
सौरव को मिलेगा उस विराट लम्हे को जीने का मौका ?
14 साल पहले अक्टूबर का महीना। दीपावली के दिनों में वेस्टइंडीज की टीम भारत के दौरे पर थी। मैं भी बाकी पत्रकार मित्रों की तरह इसकी कवरेज के लिए एक शहर से दूसरे शहर की दूरी पाट रहा था। इसी कड़ी में एक सांझ मैं दिल्ली के फिरोजशाह कोटला पर अगले दिन होने वाले मुकाबले की रिपोर्ट भेजने में जुटा था। अचानक एक पत्रकार मित्र ने कहा- “कपिल रिटायरमेंट ले रहे हैं।” कुछ देर के लिए मैं सन्न रह गया। पल भर में ये खबर पूरे मीडिया में फैल गई। इससे पहले आप कुछ टटोलें, पता चला कि कपिल ने आनन-फानन में पांच-सात पत्रकारों को एक फाइव स्टार होटल में बुलाकर अपने रिटायरमेंट का ऐलान कर दिया है।
ये खबर झकझोरने वाली थी। इसलिए नहीं कि कपिल के इस फैसले से अजहरुद्दीन की उस भारतीय टीम में एक बड़ा शून्य उभर रहा था। वो तो पिछले एक साल से अपने करियर की संध्या में थे। कुछ दिन पहले ही फरीदाबाद के नाहर सिंह स्टेडियम में फिल सिमंस के बल्ले से निकलते हर स्ट्रोक ने कपिल की टीम में मौजूदगी पर सवाल खड़े कर दिए थे। लेकिन, कपिल का क्रिकेट से अलग हटना एक बड़े सवाल की तरह मेरे सामने खड़ा था। कपिल सिर्फ क्रिकेटर भर नहीं थे। कपिल एक बदलाव के प्रतीक थे। इस कपिल देव की इतनी सूनी विदाई नहीं हो सकती।
कपिल से ठीक उलट एक दूसरे छोर पर सुनील मनोहर गावस्कर खड़े दिख रहे हैं। 1987 में बेंगलोर में गावस्कर अपने सुनहरे टेस्ट करियर को अलविदा करने की सोच के साथ ही मैदान में उतरे। जेहन में बीते 17 साल के हर उस लम्हे की याद संजोए, जहां तमाम उतार-चढ़ाव के बीच उनका करियर परवान चढ़ता रहा। इस गावस्कर ने यहां पाकिस्तान के खिलाफ अपने आखिरी टेस्ट में करियर की सबसे यादगार पारी खेली। लगातार टूटती विकेट पर इकबाल कासिम और तौसिफ अहमद के खिलाफ चौथी पारी में करीब साढे पांच घंटे तक एक छोर को थामे गावस्कर खड़े रहे । दुनिया में तेज़ गेंदबाजों के खिलाफ सर्वकालीन महान सलामी बल्लेबाजों में एक गावस्कर की बेहद मुश्किल विकेट पर स्पिन के खिलाफ यह 96 रनों की एक बेजोड़ पारी थी। पारी की शुरुआत करने आए गावस्कर जब आठवें बल्लेबाज के तौर पर पैवेलियन लौटे तो, पूरे चेन्नास्वामी स्टेडियम में गावस्कर की पारी लोगों के जेहन पर हावी हो चुकी थी। भारत की हार-जीत से भी आगे। ड्रेसिंग रुम में ओझल होते सुनील गावस्कर का लेजेंड आज भी अपनी जगह बना हुआ है। यही महानायक की खूबसूरती है। अपने ईर्द-गिर्द बुने तिलिस्म को वो ताउम्र आपके जेहन में छोड़कर चला जाता है।
ये दो महानायकों के क्रिकेट को अलविदा कहने की दास्तां है। ये साफ करते हुए कि जिस खेल ने आपको महानायक के पायदान पर ला खड़ा किया, उस खेल से अलग होने के लिए सिर्फ एक ही मंच है। आप सिर्फ और सिर्फ खेल के मैदान से ही अलविदा कह सकते हैं। पांच सितारा होटल के बंद कमरे में बैठकर आप आखिरी सलाम नहीं कर सकते। आपको अपने उन चाहने वालों के बीच से ही ड्रेसिंग रुम में आखिरी कदम रखना है, जिन्होंने आपको महानायक के पायदान पर काबिज किया। आपको सिर्फ अपने लम्हे को पकड़ना है। शायद, कपिल यहां चूक गए। लेकिन, सुनील गावस्कर ने इस लन्हे की विराटता को पूरी शिद्दत से जीया।
इन दो महानायकों के बीच मेरे जहन में एक और महानायक उभार ले रहा है। सौरव चंडीदास गांगुली। सौरव भी अपने इस लम्हे को पकड़ रहे हैं। इसकी विराटता को मसहूस कर रहे हैं। सौरव गांगुली का कहना है “खेल को अलविदा तभी कहा जाना चाहिए, जब आप अपने खेल के शिखर पर हों, और मैं भी वहीं से अलविदा कहना चाहता हूं।” उनका यह भरोसा तब है, जब कुछ घंटों पहले ही उन्हें विदाई की कहानियां लिखी जानी शुरु हो गई हैं। ये शब्द भले ही उनकी वापसी न करा पाएं, लेकिन ये एक ऐसी सोच को जाहिर करते हैं, जो सौरव गांगुली को क्रिकेटरों की भीड़ में बाकी खिलाड़ियों से अलग खड़ा करती है। कभी हार न मानने वाले सौरव गांगुली।
इस सौरव की शख्सियत अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में उनके बल्ले से निकले 21 हजार रनों में नहीं पढ़ी जा सकती। सौरव की पहचान एक बल्लेबाज और खिलाड़ी के दायरे से बाहर एक कप्तान और उसकी सोच से जुड़ी है। मैच फिक्सिंग के बाद लड़खड़ाती भारतीय क्रिकेट का संबल बनते सौरव। नए खून को मौका देते सौरव। लॉर्ड्स की बालकनी मे नंगे बदन लहराती टी-शर्ट्स से जीत के जज्बे को बयां करते सौरव। ईडन की भरी दोपहरी में अपने कमर में पैराशूट बांध अपनी वापसी की जी-तोड़ कोशिश करते, फीनिक्स की शक्ल लेते सौरव।
ऐसे सौरव की सूनी विदाई शायद कोई नहीं देखना चाहेगा। बेशक, उनकी बुढ़ाती टांगों ने आज विकेटों के बीच उनकी रफ्तार को पहले से कम कर दिया हो। बेशक, उनकी फील्डिंग पर आलोचकों ने निगाह गड़ा दी हों। लेकिन, इसके बावजूद सौरव एक सम्मान के हकदार हैं। एक यादगार विदाई के। अगर सौरव अपने खेल के जरिए एक बार फिर वापसी करने में कामयाब हो जाएं, और उसी शिखर से अलविदा लें, जिसकी वो बात कर रहे हैं, तो इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता। लेकिन, अगर ये भी मुमकिन न भी हो तो भी उनके लिए ऐसी विदाई का रास्ता चयनकर्ताओं को ढूंढना चाहिए। इसकी मिसाल खोजने की कोशिश करेंगे तो उन्हें सरहद पार खड़े इंजमाम-उल-हक नज़र आएंगे। बागी क्रिकेट लीग के तौर पर चर्चित आईसीएल में हिस्सा लेने के बावजूद पाकिस्तानी क्रिकेट बोर्ड ने उन्हें ठीक मैदान से विदाई लेने का मौका दिया। पिछले एक दशक में पाकिस्तान के सबसे बड़े बल्लेबाज इंजमाम लाहौर टेस्ट में दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ मैदान में उतरे। उन्होंने पूरे सम्मान के साथ अपने साथियों के बीच अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट के आखिरी लम्हों को पूरी शिद्दत से जीया। हर पल ये महसूस करते हुए कि इसके बाद अपनी इस चहेती स्टेज पर वो अब नहीं लौटेंगे। ये भी एक चैंपियन की विदाई की दास्तां है। तो क्या भारतीय बोर्ड सौरव गांगुली को भी ऐसा ही मौका देगा?
ये खबर झकझोरने वाली थी। इसलिए नहीं कि कपिल के इस फैसले से अजहरुद्दीन की उस भारतीय टीम में एक बड़ा शून्य उभर रहा था। वो तो पिछले एक साल से अपने करियर की संध्या में थे। कुछ दिन पहले ही फरीदाबाद के नाहर सिंह स्टेडियम में फिल सिमंस के बल्ले से निकलते हर स्ट्रोक ने कपिल की टीम में मौजूदगी पर सवाल खड़े कर दिए थे। लेकिन, कपिल का क्रिकेट से अलग हटना एक बड़े सवाल की तरह मेरे सामने खड़ा था। कपिल सिर्फ क्रिकेटर भर नहीं थे। कपिल एक बदलाव के प्रतीक थे। इस कपिल देव की इतनी सूनी विदाई नहीं हो सकती।
कपिल से ठीक उलट एक दूसरे छोर पर सुनील मनोहर गावस्कर खड़े दिख रहे हैं। 1987 में बेंगलोर में गावस्कर अपने सुनहरे टेस्ट करियर को अलविदा करने की सोच के साथ ही मैदान में उतरे। जेहन में बीते 17 साल के हर उस लम्हे की याद संजोए, जहां तमाम उतार-चढ़ाव के बीच उनका करियर परवान चढ़ता रहा। इस गावस्कर ने यहां पाकिस्तान के खिलाफ अपने आखिरी टेस्ट में करियर की सबसे यादगार पारी खेली। लगातार टूटती विकेट पर इकबाल कासिम और तौसिफ अहमद के खिलाफ चौथी पारी में करीब साढे पांच घंटे तक एक छोर को थामे गावस्कर खड़े रहे । दुनिया में तेज़ गेंदबाजों के खिलाफ सर्वकालीन महान सलामी बल्लेबाजों में एक गावस्कर की बेहद मुश्किल विकेट पर स्पिन के खिलाफ यह 96 रनों की एक बेजोड़ पारी थी। पारी की शुरुआत करने आए गावस्कर जब आठवें बल्लेबाज के तौर पर पैवेलियन लौटे तो, पूरे चेन्नास्वामी स्टेडियम में गावस्कर की पारी लोगों के जेहन पर हावी हो चुकी थी। भारत की हार-जीत से भी आगे। ड्रेसिंग रुम में ओझल होते सुनील गावस्कर का लेजेंड आज भी अपनी जगह बना हुआ है। यही महानायक की खूबसूरती है। अपने ईर्द-गिर्द बुने तिलिस्म को वो ताउम्र आपके जेहन में छोड़कर चला जाता है।
ये दो महानायकों के क्रिकेट को अलविदा कहने की दास्तां है। ये साफ करते हुए कि जिस खेल ने आपको महानायक के पायदान पर ला खड़ा किया, उस खेल से अलग होने के लिए सिर्फ एक ही मंच है। आप सिर्फ और सिर्फ खेल के मैदान से ही अलविदा कह सकते हैं। पांच सितारा होटल के बंद कमरे में बैठकर आप आखिरी सलाम नहीं कर सकते। आपको अपने उन चाहने वालों के बीच से ही ड्रेसिंग रुम में आखिरी कदम रखना है, जिन्होंने आपको महानायक के पायदान पर काबिज किया। आपको सिर्फ अपने लम्हे को पकड़ना है। शायद, कपिल यहां चूक गए। लेकिन, सुनील गावस्कर ने इस लन्हे की विराटता को पूरी शिद्दत से जीया।
इन दो महानायकों के बीच मेरे जहन में एक और महानायक उभार ले रहा है। सौरव चंडीदास गांगुली। सौरव भी अपने इस लम्हे को पकड़ रहे हैं। इसकी विराटता को मसहूस कर रहे हैं। सौरव गांगुली का कहना है “खेल को अलविदा तभी कहा जाना चाहिए, जब आप अपने खेल के शिखर पर हों, और मैं भी वहीं से अलविदा कहना चाहता हूं।” उनका यह भरोसा तब है, जब कुछ घंटों पहले ही उन्हें विदाई की कहानियां लिखी जानी शुरु हो गई हैं। ये शब्द भले ही उनकी वापसी न करा पाएं, लेकिन ये एक ऐसी सोच को जाहिर करते हैं, जो सौरव गांगुली को क्रिकेटरों की भीड़ में बाकी खिलाड़ियों से अलग खड़ा करती है। कभी हार न मानने वाले सौरव गांगुली।
इस सौरव की शख्सियत अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में उनके बल्ले से निकले 21 हजार रनों में नहीं पढ़ी जा सकती। सौरव की पहचान एक बल्लेबाज और खिलाड़ी के दायरे से बाहर एक कप्तान और उसकी सोच से जुड़ी है। मैच फिक्सिंग के बाद लड़खड़ाती भारतीय क्रिकेट का संबल बनते सौरव। नए खून को मौका देते सौरव। लॉर्ड्स की बालकनी मे नंगे बदन लहराती टी-शर्ट्स से जीत के जज्बे को बयां करते सौरव। ईडन की भरी दोपहरी में अपने कमर में पैराशूट बांध अपनी वापसी की जी-तोड़ कोशिश करते, फीनिक्स की शक्ल लेते सौरव।
ऐसे सौरव की सूनी विदाई शायद कोई नहीं देखना चाहेगा। बेशक, उनकी बुढ़ाती टांगों ने आज विकेटों के बीच उनकी रफ्तार को पहले से कम कर दिया हो। बेशक, उनकी फील्डिंग पर आलोचकों ने निगाह गड़ा दी हों। लेकिन, इसके बावजूद सौरव एक सम्मान के हकदार हैं। एक यादगार विदाई के। अगर सौरव अपने खेल के जरिए एक बार फिर वापसी करने में कामयाब हो जाएं, और उसी शिखर से अलविदा लें, जिसकी वो बात कर रहे हैं, तो इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता। लेकिन, अगर ये भी मुमकिन न भी हो तो भी उनके लिए ऐसी विदाई का रास्ता चयनकर्ताओं को ढूंढना चाहिए। इसकी मिसाल खोजने की कोशिश करेंगे तो उन्हें सरहद पार खड़े इंजमाम-उल-हक नज़र आएंगे। बागी क्रिकेट लीग के तौर पर चर्चित आईसीएल में हिस्सा लेने के बावजूद पाकिस्तानी क्रिकेट बोर्ड ने उन्हें ठीक मैदान से विदाई लेने का मौका दिया। पिछले एक दशक में पाकिस्तान के सबसे बड़े बल्लेबाज इंजमाम लाहौर टेस्ट में दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ मैदान में उतरे। उन्होंने पूरे सम्मान के साथ अपने साथियों के बीच अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट के आखिरी लम्हों को पूरी शिद्दत से जीया। हर पल ये महसूस करते हुए कि इसके बाद अपनी इस चहेती स्टेज पर वो अब नहीं लौटेंगे। ये भी एक चैंपियन की विदाई की दास्तां है। तो क्या भारतीय बोर्ड सौरव गांगुली को भी ऐसा ही मौका देगा?
Monday, September 8, 2008
जीत से आगे की राह से अंजान हैं हमारे चैंपियन
दिल्ली का अंबेडकर स्टेडियम। डूरंड कप का फाइनल मुकाबला शुरु होने को है। देश के सबसे पुराने फुटबॉल टूर्नामेंट में रस्म अदायगी के तौर पर इस बार खिलाड़ियों से रुबरु कराने के लिए मुख्य अतिथि की भूमिका में हैं ओलंपिक पदक विजेता विजेन्द्र सिंह। दो दिन पहले वो एक मनोरंजन चैनल के रिएलिटी शो में इसी हैसियत से मौजूद थे। सुरों के प्रतियोगियों का हौसला बढ़ाने के लिए बीजिंग के किस्सों को सुनाते हुए। विजेन्द्र इस हद तक इस रिएलिटी शो पर हावी थे कि गायक सुखविन्दर सिंह समेत तमाम हस्तियां उनकी आगवानी में उठ खड़ी हुई थीं, और विजेन्द्र को भी यह कार्यक्रम इतना भाया कि उन्होंने भी अपने सुर छेड़ने में संकोच नहीं किया।
ओलंपिक में कायमाबी हासिल करने के बाद विजेन्द्र के लिए यह एक यादगार अनुभव है। विजेन्द्र को मिलते इस सम्मान के बीच मैं लगातार महसूस कर रहा था कि क्रिकेट की सीमा रेखा के बाहर भी एक दुनिया है। उस दुनिया में हासिल मुकाम को भी लोग सलाम करते हैं। याद आ रही थी पिछले शुक्रवार को एक स्पोर्ट्स मार्केटिंग समिट में मेरे एक मित्र की छेड़ी बहस। आखिर हम क्रिकेट के बाहर दूसरे खिलाड़ियों को क्यों ब्रांड नहीं बना पाते। इस बहस में क्रिकेट और बाकी खेल के बीच अप्रोच और सोच एक बड़ी खाई की तरह सामने आती दिखायी दी थी। क्यों हम सचिन, धोनी, सहवाग की तरह विजेन्द्र, सुशील और अभिनव बिंद्रा को एक ब्रांड की तरह पेश नहीं कर पाते। खेल में दिख रहे उनके जीवट को उनकी पहचान में गढ़कर हम उन्हें ब्रांड की तरह पेश कर पाने में क्यों चूक जाते हैं।
इन सबके बीच विजेन्द्र के ये दो लम्हे इस बहस से निकली इस सोच पर चोट कर रहे थे। लेकिन,सोमवार की सुबह अखबार के पन्नों को पलटते हुए एक सामान्य सी खबर ने मेरी इस नयी बनती सोच पर सवाल खड़ा कर दिया। भटिंडा में शुरु हुई राष्ट्रीय मुक्केबाजी की रिपोर्ट मैं हिन्दू में पढ़ रहा था। बीजिंग के बाद नए जोशो- खरोश से भरे माहौल के बीच जारी राष्ट्रीय चैंपियनशिप। बीजिंग में रिंग के बाहर विजेन्द्र,जितेन्द्र और अखिल की हौसलाफसाई करते संधू की वहां मौजूदगी। लेकिन, साथ ही एक बड़ा शून्य। एक खालीपन। ओलंपिक में अपने प्रदर्शन के चलते देश में रिंग में एक नयी अलख जगाने वाले भारत के ये तीनों मुक्केबाज विजेन्द्र,जितेन्द्र और अखिल की गैरमौजूदगी एक कचोट की तरह उभार ले रही है। खासकर ओलंपिक मेडल विजेता विजेन्द्र के बिना रिंग एक खालीपन को लिए आपके सामने खड़ा है।
यहीं, ओलंपिक में गोल्ड हासिल करने वाले अभिनव बिंद्रा का बयान भी बेहद तकलीफ देता है। उनसे पत्रकारों ने पूछा कि अब आपकी क्या योजनाएं हैं। तो उनका जवाब था-“ जहां तक शूटिंग की बात है,फिलहाल मैं बहुत थकान महसूस कर रहा हूं। मुझे अब इससे कुछ दिन अलग हटना होगा। पांच महीने बाद आप मुझे फोन कीजिए तो मैं आपको अपनी योजनाएं बता सकूंगा।”
सवाल ये आखिर कैसे आप इस पेशेवर दौर में अपने खेल से खुद को अलग कर सकते हैं। बेशक, आपका खेल दूसरे खेलों से ज्यादा एकाग्रता की मांग करता है। आपको शारीरिक और मानसिक तौर पर थका देता है,लेकिन जो खेल आपको पहचान दे रहा है, नयी बुलंदियों की ओर ले जा रहा है,उसी से आप दूर होने की कैसे सोच सकते हैं। बेशक, कुछ दिनों या महीने की बात क्यों न हो। ये खेल ही आपकी पहचान है। इसकी जरुरतों के मुताबिक आपको जीना होगा। अगर आप मिसाल बन जाएं तो ये जिम्मेदारी और बढ़ा आयाम ले लेती है।
उसेन बोल्ट, असाफा पॉवेल,रोजर फेडरर और नडाल पर नजर डालिए। अंतरराष्ट्रीय मंच पर बीजिंग से ठीक बाद उसेन बोल्ट तीन गोल्ड मेडल लेने के बाद एक नहीं बल्कि दो-दो ग्रां पी प्रतियोगिताओं में उतर जाते हैं। ठीक वैसे ही शिद्दत और जीवट से उसमें हिस्सेदारी करते हैं। नडाल ओलंपिक मेडल हासिल करने के बाद फेडरर के साथ यू एस ओपन में दिखायी देते हैं। दरअसल, खेलों की पेशेवर दुनिया में अगर पैसा बरसता है, तो वो आपसे इसकी कीमत भी वसूलता है। अगर आप सही मायने में पेशेवर हैं तो इससे मुंह नहीं मोड़ सकते। साल में 365 दिन होते हैं,लेकिन एक पेशेवर खिलाड़ी के लिए हर एक खत्म होते दिन के बाद अगले 365 दिन जुड़ते जाते हैं। आज आठ सितंबर को आप ये नहीं कह सकते कि 2008 में अब बस 114 दिन ही बाकी बचे हैं। यहां अगले 364 दिन आपका इंतजार कर रहे हैं। आधुनिक ओलंपिक के सबसे बड़े नायक की तरह उभार लेने वाले अमेरिका के माइकल फेल्पस पर गौर कीजिए। बीते चार सालों के हर 365 दिन उन्होंने कई-कई घंटे पानी में बिताए हैं।
फिर,मेरा तो ये भी मानना है कि बेशक विजेन्द्र भटिंडा में राष्ट्रीय चैंपियनशिप में खेलने नहीं जाते। लेकिन,उनकी मौजूदगी ही उभरते हुए खिलाड़ियों में एक नया हौसला भर सकती थी। ये कुछ ऐसा ही है कि भारतीय क्रिकेट टीम सचिन तेंदुलकर के मैदान में न होने के बावजूद ड्रेंसिंग रुम में उनकी मौजूदगी को एक प्रेरणा की तरह देखती है। हम क्रिकेटर को ऐसे किसी एक फैसले पर गाहे बगाहे सवालों के घेरे में खड़ा करते रहते हैं। लेकिन,यहां शायद विजेन्द्र के इस फैसले पर किसी की गहरी नज़र नहीं जा रही।
लेकिन,दूसरी ओर पहलवान सुशील कुमार भी हैं। विजेन्द्र की तरह ही उन्होंने भी ओलंपिक में ब्रोन्ज मेडल हासिल किया है। लेकिन, जीत के जश्न के बीच भी वो अखाड़े में उतर चुके हैं। मेरे एक दोस्त से मुलाकात में उनका कहना था –“ एक दिन अगर मैं अखाड़े से दूर रहूं तो तीन दिन पिछड़ जाता हूं। लिहाजा ये जोखिम मैं नहीं ले सकता।” इतना ही नहीं, इसी रविवार को बवाना में वो महाबलि सतपाल की ओर से भारत और पाकिस्तान के पहलवानों के बीच आयोजित सालाना कुश्ती मुकाबलों में शिरकत करने पहुंचे।
दरअसल,सुशील कुमार की यह सोच एक मिसाल की तरह सामने आती है। ब्रांड की उस बहस में उन्हें बाकी खिलाड़ियों से कहीं बहुत आगे खड़ा करती है। आखिर,एक ओलंपिक में 8 गोल्ड मेडल हासिल करने के बाद भी फेल्प्स की भूख शांत नहीं हुई है। बीजिंग खत्म होते ही उनके निशाने पर आने वाला कल है। उनका कहना है कि बीजिंग अब अतीत है,और मैं वर्तमान में जीता हूं। साफ है कि शिखर पर बने रहने से वहां पहुंचना कहीं आसान है। कम से कम इस पेशेवर दौर में वहां से बेदखल होने में देर नहीं लगती। मुझे लगता है कि हमारे खिलाड़ी जीत तक तो पहुंचना तो जान गए हैं, जीत का स्वाद उन्होंने चख लिया है,लेकिन जीत से आगे के रास्ते से ज्यादातर खिलाड़ी अंजान हैं।
ओलंपिक में कायमाबी हासिल करने के बाद विजेन्द्र के लिए यह एक यादगार अनुभव है। विजेन्द्र को मिलते इस सम्मान के बीच मैं लगातार महसूस कर रहा था कि क्रिकेट की सीमा रेखा के बाहर भी एक दुनिया है। उस दुनिया में हासिल मुकाम को भी लोग सलाम करते हैं। याद आ रही थी पिछले शुक्रवार को एक स्पोर्ट्स मार्केटिंग समिट में मेरे एक मित्र की छेड़ी बहस। आखिर हम क्रिकेट के बाहर दूसरे खिलाड़ियों को क्यों ब्रांड नहीं बना पाते। इस बहस में क्रिकेट और बाकी खेल के बीच अप्रोच और सोच एक बड़ी खाई की तरह सामने आती दिखायी दी थी। क्यों हम सचिन, धोनी, सहवाग की तरह विजेन्द्र, सुशील और अभिनव बिंद्रा को एक ब्रांड की तरह पेश नहीं कर पाते। खेल में दिख रहे उनके जीवट को उनकी पहचान में गढ़कर हम उन्हें ब्रांड की तरह पेश कर पाने में क्यों चूक जाते हैं।
इन सबके बीच विजेन्द्र के ये दो लम्हे इस बहस से निकली इस सोच पर चोट कर रहे थे। लेकिन,सोमवार की सुबह अखबार के पन्नों को पलटते हुए एक सामान्य सी खबर ने मेरी इस नयी बनती सोच पर सवाल खड़ा कर दिया। भटिंडा में शुरु हुई राष्ट्रीय मुक्केबाजी की रिपोर्ट मैं हिन्दू में पढ़ रहा था। बीजिंग के बाद नए जोशो- खरोश से भरे माहौल के बीच जारी राष्ट्रीय चैंपियनशिप। बीजिंग में रिंग के बाहर विजेन्द्र,जितेन्द्र और अखिल की हौसलाफसाई करते संधू की वहां मौजूदगी। लेकिन, साथ ही एक बड़ा शून्य। एक खालीपन। ओलंपिक में अपने प्रदर्शन के चलते देश में रिंग में एक नयी अलख जगाने वाले भारत के ये तीनों मुक्केबाज विजेन्द्र,जितेन्द्र और अखिल की गैरमौजूदगी एक कचोट की तरह उभार ले रही है। खासकर ओलंपिक मेडल विजेता विजेन्द्र के बिना रिंग एक खालीपन को लिए आपके सामने खड़ा है।
यहीं, ओलंपिक में गोल्ड हासिल करने वाले अभिनव बिंद्रा का बयान भी बेहद तकलीफ देता है। उनसे पत्रकारों ने पूछा कि अब आपकी क्या योजनाएं हैं। तो उनका जवाब था-“ जहां तक शूटिंग की बात है,फिलहाल मैं बहुत थकान महसूस कर रहा हूं। मुझे अब इससे कुछ दिन अलग हटना होगा। पांच महीने बाद आप मुझे फोन कीजिए तो मैं आपको अपनी योजनाएं बता सकूंगा।”
सवाल ये आखिर कैसे आप इस पेशेवर दौर में अपने खेल से खुद को अलग कर सकते हैं। बेशक, आपका खेल दूसरे खेलों से ज्यादा एकाग्रता की मांग करता है। आपको शारीरिक और मानसिक तौर पर थका देता है,लेकिन जो खेल आपको पहचान दे रहा है, नयी बुलंदियों की ओर ले जा रहा है,उसी से आप दूर होने की कैसे सोच सकते हैं। बेशक, कुछ दिनों या महीने की बात क्यों न हो। ये खेल ही आपकी पहचान है। इसकी जरुरतों के मुताबिक आपको जीना होगा। अगर आप मिसाल बन जाएं तो ये जिम्मेदारी और बढ़ा आयाम ले लेती है।
उसेन बोल्ट, असाफा पॉवेल,रोजर फेडरर और नडाल पर नजर डालिए। अंतरराष्ट्रीय मंच पर बीजिंग से ठीक बाद उसेन बोल्ट तीन गोल्ड मेडल लेने के बाद एक नहीं बल्कि दो-दो ग्रां पी प्रतियोगिताओं में उतर जाते हैं। ठीक वैसे ही शिद्दत और जीवट से उसमें हिस्सेदारी करते हैं। नडाल ओलंपिक मेडल हासिल करने के बाद फेडरर के साथ यू एस ओपन में दिखायी देते हैं। दरअसल, खेलों की पेशेवर दुनिया में अगर पैसा बरसता है, तो वो आपसे इसकी कीमत भी वसूलता है। अगर आप सही मायने में पेशेवर हैं तो इससे मुंह नहीं मोड़ सकते। साल में 365 दिन होते हैं,लेकिन एक पेशेवर खिलाड़ी के लिए हर एक खत्म होते दिन के बाद अगले 365 दिन जुड़ते जाते हैं। आज आठ सितंबर को आप ये नहीं कह सकते कि 2008 में अब बस 114 दिन ही बाकी बचे हैं। यहां अगले 364 दिन आपका इंतजार कर रहे हैं। आधुनिक ओलंपिक के सबसे बड़े नायक की तरह उभार लेने वाले अमेरिका के माइकल फेल्पस पर गौर कीजिए। बीते चार सालों के हर 365 दिन उन्होंने कई-कई घंटे पानी में बिताए हैं।
फिर,मेरा तो ये भी मानना है कि बेशक विजेन्द्र भटिंडा में राष्ट्रीय चैंपियनशिप में खेलने नहीं जाते। लेकिन,उनकी मौजूदगी ही उभरते हुए खिलाड़ियों में एक नया हौसला भर सकती थी। ये कुछ ऐसा ही है कि भारतीय क्रिकेट टीम सचिन तेंदुलकर के मैदान में न होने के बावजूद ड्रेंसिंग रुम में उनकी मौजूदगी को एक प्रेरणा की तरह देखती है। हम क्रिकेटर को ऐसे किसी एक फैसले पर गाहे बगाहे सवालों के घेरे में खड़ा करते रहते हैं। लेकिन,यहां शायद विजेन्द्र के इस फैसले पर किसी की गहरी नज़र नहीं जा रही।
लेकिन,दूसरी ओर पहलवान सुशील कुमार भी हैं। विजेन्द्र की तरह ही उन्होंने भी ओलंपिक में ब्रोन्ज मेडल हासिल किया है। लेकिन, जीत के जश्न के बीच भी वो अखाड़े में उतर चुके हैं। मेरे एक दोस्त से मुलाकात में उनका कहना था –“ एक दिन अगर मैं अखाड़े से दूर रहूं तो तीन दिन पिछड़ जाता हूं। लिहाजा ये जोखिम मैं नहीं ले सकता।” इतना ही नहीं, इसी रविवार को बवाना में वो महाबलि सतपाल की ओर से भारत और पाकिस्तान के पहलवानों के बीच आयोजित सालाना कुश्ती मुकाबलों में शिरकत करने पहुंचे।
दरअसल,सुशील कुमार की यह सोच एक मिसाल की तरह सामने आती है। ब्रांड की उस बहस में उन्हें बाकी खिलाड़ियों से कहीं बहुत आगे खड़ा करती है। आखिर,एक ओलंपिक में 8 गोल्ड मेडल हासिल करने के बाद भी फेल्प्स की भूख शांत नहीं हुई है। बीजिंग खत्म होते ही उनके निशाने पर आने वाला कल है। उनका कहना है कि बीजिंग अब अतीत है,और मैं वर्तमान में जीता हूं। साफ है कि शिखर पर बने रहने से वहां पहुंचना कहीं आसान है। कम से कम इस पेशेवर दौर में वहां से बेदखल होने में देर नहीं लगती। मुझे लगता है कि हमारे खिलाड़ी जीत तक तो पहुंचना तो जान गए हैं, जीत का स्वाद उन्होंने चख लिया है,लेकिन जीत से आगे के रास्ते से ज्यादातर खिलाड़ी अंजान हैं।
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Saturday, September 6, 2008
क्यों याद आते हैं वार्न
(इस समय ऑस्ट्रेलिया ए क्रिकेट टीम भारत में खेल रही है और टीम में तीन फिरकी गेंदबाज़ों को जगह दी गयी है। दरअसल ऑस्ट्रेलिया को एक ऐसे गेंदबाज़ की तलाश है जो राष्ट्रीय टीम में स्पिनर की खाली पड़ी जगह को भर सके। इन हालात में याद आता है ऐसा फिरकी गेंदबाज़, जिसके जैसा स्पिनर ऑस्ट्रेलिया ने ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया ने कभी नहीं देखा था। और इसीलिए आज बात शेन वार्न की...)
आज से 15 साल पहले मैनचेस्टर के ओल्ड ट्रैफर्ड मैदान पर एशेज में एक गेंदबाज ने अपनी पहली गेंद फेंकी। इंग्लैंड के पूर्व कप्तान माइक गैटिंग सामने थे। गेंदबाज के हाथ से छूटते ही गेंद हवा में लहराई, लेग स्टंप के बाहर टप्पा खाया और गैटिंग का बल्ला पूरे डिफेंस के साथ आया। गेंद ने करीब करीब नब्बे डिग्री का कोण बनाते हुए बल्ले को परास्त किया। ऑफ स्टंप के ऊपरी हिस्से से टकराते हुए गेंद गिल्लियां बिखेर गई। आस्ट्रेलियाई खेमा खुशी में झूम उठा। एकबारगी गैटिंग ने सोचा शायद एलबीडब्लू की अपील हुई। लेकिन,पीछे मुड़कर देखा तो वो दंग रह गए कि गेंद उनका विकेट उड़ा चुकी थी। वो घूमती गेंद गैटिंग की पारी का अंत कर चुकी थी। लेकिन,वो गेंद घूमने का सिलसिला थमा नहीं। बॉल ऑफ द सेंचुरी कही गई गेंद के बाद उस सीरिज में 34 विकेट लेकर वो एक नए नायक के साथ उबरकर सामने आया। इस अंदाज़ में कि जब जब एशेज में उसके हाथों में गेंद होती, इंग्लैंड के बल्लेबाजों के हौसले पस्त हो जाते। अकेले इंग्लैंड के खिलाफ उसने 36 टेस्ट मैच में 195 विकेट लिए।
जी हां, हम बात कर रहे हैं शेन कीथ वार्न की। गेंदबाजी के शिखर रचने वाले लेग स्पिन के जादूगर शेन वार्न की । जिनकी घूमती गेंदों ने टेस्ट क्रिकेट में 708 विकेट की वो लकीर खींची,जिसे कुछ दिनों पहले मुथैया मुरलीथरन ने छोटा कर दिया। वनडे में भी 194 मैचों में 293 विकेट शेन के नाम रहे। लेकिन,शेन वार्न की शख्सियत को इन आंकडों के दायरे में बांधकर नहीं देखा जा सकता। टेस्ट में मुरलीथरन ने उनसे बड़ी लकीर खींची है,वनडे में भी शेन वार्न का इकोनॉमी रेट उन्हें बेमिसाल गेंदबाज की तरह पेश नहीं कर पाता। लेकिन,शेन वार्न की ताकत ये आंकडे नहीं थे। शेन की ताकत थे उनकी बड़े मौकों पर स्ट्राइक करना।
मुझे अभी भी याद है मोहाली में वेस्टइंडीज और आस्ट्रेलिया के बीच खेला गया वर्ल्ड कप 1995 का सेमीफाइनल। रिची रिचर्डसन की टीम 208 रन के लक्ष्य से महज 29 रन दूर थी। इसके साथ सात विकेट भी बाकी थे। खुद रिची एक छोर को संभाले खड़े थे। उन्हें वर्ल्ड कप सामने दिखायी दे रहा था। ऐसे मौके पर कप्तान मार्क टेलर ने शेन की ओर गेंद उछाली। देखते ही देखते पूरी तस्वीर का रुख बदल गया। वार्न ने मोर्चा संभालते हुए एक के बाद एक गिब्स,एडम्स और एयान बिशप को पैवेलियन की राह दिखायी। सिर्फ 29 रन के दौरान बाकी सात विकेट गिर चुके थे। रिची रिचर्डसन एक छोर पर खड़े ये सारा नज़ारा देखते रहे,और उसके साथ ड्रेसिंग रुम की ओर लौट गए। ये वार्न का जादू है। जब हालात मुश्किल हो,रास्ता न निकल रहा हो,वार्न वहां से अपनी राह तलाशते हैं।
दरअसल, वार्न की सबसे बड़ी खूबी है कि अपने काम को डूबकर अंजाम देना। बॉलिंग रनअप पर कदम बढ़ाते वार्न को देखिए..स्पिनर होने के बावजूद अपने हाव भाव से वो बल्लेबाज में एकबारगी खौफ पैदा कर देते है। कुछ ऐसा आभास देते हुए कि सिर्फ और सिर्फ विकेट निकालना ही उनका काम है। इसके लिए,वार्न ने अपनी गेंदबाजी में लगातार नए से नए प्रयोग किए और जूटर,स्लाइडर समेत कई तरह की स्पिन के तीर अपने तरकश में जोड़े। नतीजा सामने था,तेंज़ गेंदबाजी और पावर क्रिकेट के दौर में शेन वार्न ने गेंदबाजी का शिखर पर चढ़ते हुए वर्ल्ड कप के फाइनल में मैन ऑफ द मैच का खिताब अपने नाम किया, टेस्ट हैट्रिक पूरी की और फिर सदी के सबसे महान पांच टेस्ट क्रिकेटरों में भी अपना नाम शुमार करा लिया। हां,फिरकी का ये बादशाह भारतीय उपमहाद्वीप खासकर भारत में कभी अपना जलवा नहीं दिखा पाया।
इन सबके बीच,कभी सट्टेबाजी,कभी महिलाओं के साथ रंगरलियां मनाने और कभी ड्रग्स के चलते वो विवादों में रहे। लेकिन बावजूद इसके उनकी गेंदबाजी में कहीं इसकी छाप दिखायी नहीं दी। जब भी उन्होंने गेंद हाथ मे संभाली तो बल्लेबाज उनके निशाने पर थे।
इसकी कीमत उन्हें जरुर आस्ट्रेलियाई कप्तानी न मिलने के एवज में चुकानी पड़ी।
एक साल पहले तक जब उन्होंने अपने चहेती स्टेज से अलविदा कहा,तब भी उनका जादू बरकरार था। पंद्रह साल पहले फेंकी गई गेंद तब भी वैसे ही घूम रही थी। वो गेंद आज भी घूम रही है। लेकिन,फर्क इतना है कि वार्न फर्स्ट क्लास से अलविदा कहकर क्रिकेट की एक नयी दुनिया में अपना जादू बिखेर रहे हैं। इसके बीच में बराबार कुछ ऐसा अहसास कराते हैं -मानो आस्ट्रेलियाई टीम की कप्तानी न मिलने और भारत के लोगों को अपने जादू का अहसास न करा पाने की कसक की भरपाई यहां करके रहेंगे। राजस्थान रॉयल्स के अंजान चेहरों को वो आईपीएल की भीड़ में एक अलग मुकाम दिलाने में लगे हैं।
आज से 15 साल पहले मैनचेस्टर के ओल्ड ट्रैफर्ड मैदान पर एशेज में एक गेंदबाज ने अपनी पहली गेंद फेंकी। इंग्लैंड के पूर्व कप्तान माइक गैटिंग सामने थे। गेंदबाज के हाथ से छूटते ही गेंद हवा में लहराई, लेग स्टंप के बाहर टप्पा खाया और गैटिंग का बल्ला पूरे डिफेंस के साथ आया। गेंद ने करीब करीब नब्बे डिग्री का कोण बनाते हुए बल्ले को परास्त किया। ऑफ स्टंप के ऊपरी हिस्से से टकराते हुए गेंद गिल्लियां बिखेर गई। आस्ट्रेलियाई खेमा खुशी में झूम उठा। एकबारगी गैटिंग ने सोचा शायद एलबीडब्लू की अपील हुई। लेकिन,पीछे मुड़कर देखा तो वो दंग रह गए कि गेंद उनका विकेट उड़ा चुकी थी। वो घूमती गेंद गैटिंग की पारी का अंत कर चुकी थी। लेकिन,वो गेंद घूमने का सिलसिला थमा नहीं। बॉल ऑफ द सेंचुरी कही गई गेंद के बाद उस सीरिज में 34 विकेट लेकर वो एक नए नायक के साथ उबरकर सामने आया। इस अंदाज़ में कि जब जब एशेज में उसके हाथों में गेंद होती, इंग्लैंड के बल्लेबाजों के हौसले पस्त हो जाते। अकेले इंग्लैंड के खिलाफ उसने 36 टेस्ट मैच में 195 विकेट लिए।
जी हां, हम बात कर रहे हैं शेन कीथ वार्न की। गेंदबाजी के शिखर रचने वाले लेग स्पिन के जादूगर शेन वार्न की । जिनकी घूमती गेंदों ने टेस्ट क्रिकेट में 708 विकेट की वो लकीर खींची,जिसे कुछ दिनों पहले मुथैया मुरलीथरन ने छोटा कर दिया। वनडे में भी 194 मैचों में 293 विकेट शेन के नाम रहे। लेकिन,शेन वार्न की शख्सियत को इन आंकडों के दायरे में बांधकर नहीं देखा जा सकता। टेस्ट में मुरलीथरन ने उनसे बड़ी लकीर खींची है,वनडे में भी शेन वार्न का इकोनॉमी रेट उन्हें बेमिसाल गेंदबाज की तरह पेश नहीं कर पाता। लेकिन,शेन वार्न की ताकत ये आंकडे नहीं थे। शेन की ताकत थे उनकी बड़े मौकों पर स्ट्राइक करना।
मुझे अभी भी याद है मोहाली में वेस्टइंडीज और आस्ट्रेलिया के बीच खेला गया वर्ल्ड कप 1995 का सेमीफाइनल। रिची रिचर्डसन की टीम 208 रन के लक्ष्य से महज 29 रन दूर थी। इसके साथ सात विकेट भी बाकी थे। खुद रिची एक छोर को संभाले खड़े थे। उन्हें वर्ल्ड कप सामने दिखायी दे रहा था। ऐसे मौके पर कप्तान मार्क टेलर ने शेन की ओर गेंद उछाली। देखते ही देखते पूरी तस्वीर का रुख बदल गया। वार्न ने मोर्चा संभालते हुए एक के बाद एक गिब्स,एडम्स और एयान बिशप को पैवेलियन की राह दिखायी। सिर्फ 29 रन के दौरान बाकी सात विकेट गिर चुके थे। रिची रिचर्डसन एक छोर पर खड़े ये सारा नज़ारा देखते रहे,और उसके साथ ड्रेसिंग रुम की ओर लौट गए। ये वार्न का जादू है। जब हालात मुश्किल हो,रास्ता न निकल रहा हो,वार्न वहां से अपनी राह तलाशते हैं।
दरअसल, वार्न की सबसे बड़ी खूबी है कि अपने काम को डूबकर अंजाम देना। बॉलिंग रनअप पर कदम बढ़ाते वार्न को देखिए..स्पिनर होने के बावजूद अपने हाव भाव से वो बल्लेबाज में एकबारगी खौफ पैदा कर देते है। कुछ ऐसा आभास देते हुए कि सिर्फ और सिर्फ विकेट निकालना ही उनका काम है। इसके लिए,वार्न ने अपनी गेंदबाजी में लगातार नए से नए प्रयोग किए और जूटर,स्लाइडर समेत कई तरह की स्पिन के तीर अपने तरकश में जोड़े। नतीजा सामने था,तेंज़ गेंदबाजी और पावर क्रिकेट के दौर में शेन वार्न ने गेंदबाजी का शिखर पर चढ़ते हुए वर्ल्ड कप के फाइनल में मैन ऑफ द मैच का खिताब अपने नाम किया, टेस्ट हैट्रिक पूरी की और फिर सदी के सबसे महान पांच टेस्ट क्रिकेटरों में भी अपना नाम शुमार करा लिया। हां,फिरकी का ये बादशाह भारतीय उपमहाद्वीप खासकर भारत में कभी अपना जलवा नहीं दिखा पाया।
इन सबके बीच,कभी सट्टेबाजी,कभी महिलाओं के साथ रंगरलियां मनाने और कभी ड्रग्स के चलते वो विवादों में रहे। लेकिन बावजूद इसके उनकी गेंदबाजी में कहीं इसकी छाप दिखायी नहीं दी। जब भी उन्होंने गेंद हाथ मे संभाली तो बल्लेबाज उनके निशाने पर थे।
इसकी कीमत उन्हें जरुर आस्ट्रेलियाई कप्तानी न मिलने के एवज में चुकानी पड़ी।
एक साल पहले तक जब उन्होंने अपने चहेती स्टेज से अलविदा कहा,तब भी उनका जादू बरकरार था। पंद्रह साल पहले फेंकी गई गेंद तब भी वैसे ही घूम रही थी। वो गेंद आज भी घूम रही है। लेकिन,फर्क इतना है कि वार्न फर्स्ट क्लास से अलविदा कहकर क्रिकेट की एक नयी दुनिया में अपना जादू बिखेर रहे हैं। इसके बीच में बराबार कुछ ऐसा अहसास कराते हैं -मानो आस्ट्रेलियाई टीम की कप्तानी न मिलने और भारत के लोगों को अपने जादू का अहसास न करा पाने की कसक की भरपाई यहां करके रहेंगे। राजस्थान रॉयल्स के अंजान चेहरों को वो आईपीएल की भीड़ में एक अलग मुकाम दिलाने में लगे हैं।
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