Sunday, April 19, 2009

बुकानन की सोच से आगे के सवाल

डेक्कन चार्जर्स की एक तरफा जीत मे कोरबो, लोडबो, जीतबो की गूँज कहीं खो गयी थी। हार मे लिपटे कोलकत्ता के स्टार खिलाडियों के चेहर स्क्रीन पर उभार ले रहे थे। नए कप्तान ब्रैडम मैकुलम थे। पूर्व कप्तान सौरव गांगुली थे। वेस्टइंडीज के कप्तान क्रिस गेल थे। लेकिन निगाह सिर्फ और सिर्फ कोच जॉन बुकानन को ढूंढ रही थी .उस बुकानन को जो आंकड़ों और विज्ञान के सहारे नियति से जुडे क्रिकेट के खेल से हार को ख़त्म करना चाहते हैं। जिनके लिये ट्वेंटी ट्वेंटी क्रिकेट दो टीमों के बीच मुकाबला नहीं ज़ंग का मैदान है। वो ट्वेंटी ट्वेंटी को चीन के मिलिटरी जीनिउस सून झू की हजारों साल पहले लिखी किताब आर्ट ऑफ़ वार के आइने में देखते हैं। इस सोच के साथ कि ट्वेंटी ट्वेंटी मे हर पल बदलती परिस्थितियों के लिये तेज और आक्रमक होना होगा।

लेकिन यहीं बुकानन और क्रिकेट के बीच विरोधाभास उभार लेता है। अगर ट्वेंटी ट्वेंटी ज़ंग का मैदान है तो आप सिर्फ और सिर्फ जीत के लिये खेलेंगे। अगर सिर्फ जीत के लिये खेलते हैं तो आप एक दबाव के साथ मैदान में पहुंचते हैं। अगर आप पर दबाव है तो आप अपना सहज खेल नहीं खेल सकते। सहज खेल के बिना आप अपना बेहतरीन खेल नहीं पा सकते। और अगर आप अपना बेहतरीन नहीं दे सकते तो जीत की सोच बेमानी है। फिर, बुकानन भारतीय कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी से भी क्रिकेट के इस सूत्र को सीख सकते हैं।

मौजूदा क्रिकेट के सबसे कामयाब कप्तान धोनी के लिये क्रिकेट मुकाबला कभी जिन्दगी और मौत नहीं बनता। वो हार और जीत से आगे जाकर सिर्फ और सिर्फ खेल के हर हिस्से को भरपूर जीते हैं। अपने साथी खिलाडियों में भी यही सोच भरते हैं। उनका मानना है कि आपकी कामयाबी के सही मायने तभी हैं, जब आपका साथी उस में अपनी ख़ुशी तलाशे। यह इस टीम गेम का वो सूत्र है, जो आज इंडियन ड्रेसिंग रुम को बेजोड़ बनाता है। सचिन से लेकर सहवाग तक सभी का मानना है कि मौजूदा भारतीय ड्रेसिंग रुम अब तक का सर्वश्रेष्ठ है। यही इस भारतीय टीम की जीत का सबसे बड़ा आधार है।लेकिन बुकानन की जीत और जीत के इर्द गिर्द बनती सोच में ये सब पहलू हाशिए पर हैं।

बुकानन जब मल्टीपल कैप्टन की थ्योरी सामने लाते हुए हुए सौरव को किनारे करते हैं तो वो अकेले सौरव के हौसले को नहीं तोड़ते। वो सौरव में अपना नायक तलाशने वाली टीम के हर नौजवान खिलाड़ी के भरोसे पर चोट करते हैं। यहीं टीम में जीत की साझा कोशिश करने की सोच पीछे छूट जाती है। आप एक विनिंग कॉम्बिनेशन मैदान पर नहीं उतारते। आप 11 खिलाड़ियों को मैदान में उतारते हैं। रविवार को कोलकाता की टीम के खिलाड़ी मैदान पर बल्लेबाजी करते हुए भी अकेले थे। फील्डिंग करते हुए भी। बल्लेबाजी में कोई एक नहीं था,जो इस उछाल और मूवमेंट के विकेट पर सचिन और द्रविड़ की तरह एक एंड को संभाले रखता। ब्रैड हॉग को छोड़ कोई भी बल्लेबाज 20 गेंदें भी नहीं खेल पाया। इस पहलू पर टीम में कोई बड़ी रणनीति की दरकार नहीं थी। एक सहज क्रिकेट सोच की जरुरत थी। द्रविड और वार्न के शब्दों में कहें तो इस विकेट पर जीत के लिए जरुरी था सही स्ट्रोक्स सिलेक्शन। लेकिन,कोलकाता के ज्यादातर बल्लेबाजों को जितनी देर डगआउट से विकेट तक पहुंचने में नहीं लगी, उससे कम समय वो विकेट पर टिक सके। यानी दो वर्ल्ड कप और 25 टेस्ट सीरिज जिताने वाले बुकानन की रणनीति यहां खारिज हो गई। इतना ही नहीं, मल्टीप्ल कप्तान का विचार भी तार तार होता दिख रहा था। कप्तान के साथ सीनियर खिलाड़ियों की बातचीत का कोई सिरा आप फील्डिंग के दौरान पकड़ नहीं सकते थे।

वैसे, ये सिर्फ एक मुकाबल है, इससे बहुत नतीजे निकलना सही नहीं है। क्रिकेट के इस ताबड़ तोड़ फॉर्मेट मे हर दूसरे दिन नतीजा बदलता है। पिछले आईपीएल में ही कोलकाता ने बेहतरीन शुरुआत की थी ,लेकिन वो सेमीफाइनल के आस पास नहीं पहुँच सकी। दूसरी और राजस्थान रॉयल्स पहले मुकाबले में दिल्ली से बुरी तरह हारी , लेकिन खिताब तक जा पहुंची। यानी कोलकत्ता और बुकानन के पास आगे की राह तलाशने के लिये प्रेरणा की कमी नहीं है। हां, इतना जरुर है कि यह सीख उन्हे वार्न से मिल रही है, जिन्होंने उनके कामयाब सफ़र में लगातार निशाने पर रखा। लेकिन उस वक़्त भी वार्न का कहना था कि खेल जितना सहज रहे उतना ही बेहतर होता है। आज भी वार्न यही कहते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि मंच बदल गया है। नहीं बदला है तो क्रिकेट।

बुकानन ने बेशक अपनी सोच से ८ साल तक कामयाबियों की दास्ताँ लिखी हो, लेकिन यह भी एक सच है. इससे मुंह नहीं मोड़ सकते। वरना ऐसा ना हो कि जीत और जीत की कोशिश में उनकी कामयाबी की तस्वीर बदरंग हो जाये। २००५ मे एशेज में मिली हार के बाद एयान चैपल ने दो टूक शब्दों में कहा था -अगर आप बुकानन को कोच कहते हैं तो अपने समय की बर्बादी कर रहे हैं। वो क्रिकेट नहीं सिखा सकते। मेरे ख्याल से बुकानन ऐसी प्रतिक्रिया तो नहीं चाहेंगे।

2 comments:

Shiv said...

शानदार पोस्ट.

मशीन क्रिकेट नहीं खेलती. न ही मशीनी दिमाग. बीस ओवरों के मैच में चार कप्तान कितना इनपुट दे सकते हैं, इसपर सोचने की ज़रुरत है. आपका कहना बिलकुल सही है कि खेल को अगर युद्ध की तरह देखा जायेगा तो फिर जीतना उतना ही मुश्किल हो जायेगा जितना कागज़ पर स्ट्रेटजी लिखने के बाद हारना मुश्किल लगता है.

Anonymous said...

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