Sunday, April 19, 2009

'कॉरपोरेट' आईपीएल खेल रहा है लोगों की भावनाओं से !

ये मुकाबला था तो दो टीमों के बीच ही। चेन्नई सुपर किंग्स और मुंबई इंडियंस के बीच। लेकिन मेरी निगाह महेन्द्र सिंह धोनी और सचिन तेंदुलकर के आस पास ठहर गयी थीं। पहली ही गेंद पर स्ट्राइकर एंड पर धोनी के तेज थ्रो से बचते तेंदुलकर थे। मनप्रीत गोनी की गेंद को कवर सीमा रेखा के बाहर भेजते तेंदुलकर से परेशान अपनी फील्डिंग रणनीति मे बदलाव करते धोनी थे। पूरे बीस ओवर तक विकेट पर मैजूद सचिन थे। आखरी ओवेरों मे अपनी टीम को जीत की और लेजाने की नाकाम कोशिश मे जुटे धोनी. टेलीविजन के स्क्रीन पर साकार होते हर मुमकिन फ्रेम में धोनी और तेंदुलकर को पकड़ने की कोशिश जारी थी।

दरअसल, मैं न तो महेन्द्र सिंह धोनी को हारते देखना चाहता था, न ही सचिन तेंदुलकर को। लेकिन, यह मुमकिन था नहीं। खेल मे ये संभव भी नहीं है। एक टीम को हारना, एक को जीतना था।आईपीएल के पहले मैच मे सचिन की जीत हुई, धोनी की टीम हार गयी। लेकिन, मुकाबले के बाद मे आदतन हार की वजहों को नहीं टटोल रहा था। जेहन उस सच को छूना चाहता था, जहाँ इन दोनों की जीत की सोच एक साथ शक्ल ले रही थी। इसकी वजह साफ थी। एक ओर भारतीय क्रिकेट मे कामयाबियों की सुनहरी दास्तां लिखते धोनी थे। दूसरी ओर धोनी में एक बेहतरीन कप्तान को पढ़ने वाले सचिन तेंदुलकर थे। ये महज दो खिलाड़ी नहीं थे। ये दो महानायक थे । इन दो महानायकों के बीच से एक को चुनने के लिए मन तैयार ही नहीं था। हम इन दोनों को जीत की साझा कोशिश करते देखते रहे हैं। लेकिन आज यह ठीक आमने सामने थे।

दिक्कत ठीक यहीं से शुरू हो रही थी। हम इन महानायकों की छवि को भारतीय क्रिकेट टीम के दायरे के बाहर जाकर पढ़ने के लिये मानसिक तौर पर तैयार ही नहीं हैं। इतना जरुर हो सकता है कि हम झारखण्ड मे धोनी की छवि को ढूँढ लें। मुंबई मे सचिन की। यह एक छोटी पहचान है, जहाँ से आप बड़ी राष्ट्रीय पहचान में दाखिल होते हैं .इसलिए हम रणजी ट्रॉफी मे झारखण्ड और मुंबई को आमने सामने स्वीकार कर लेते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे काउंटी क्रिकेट में ससेक्स या केंट। यहाँ हम इन की छोटी छवियों के बीच शहर और राज्य के अहसास को भी छूते चले जाते हैं। आईपीएल ने भी ऐसी वफादारी बटोरने की कोशिश की। लेकिन एक कॉरपोरेट कंपनी की सोच पर खड़ी इस इमारत मे यह अहसास कहीं नीचे दफ़न हो गया। वरना क्या वजह थी कि एक साल मे आपने अपने आइकन खिलाडियों को दरकिनार कर दिया। इन आइकन खिलाड़ियों को शहर की पहचान के तौर पर टीम में शामिल किया गया था। लेकिन आज कोलकत्ता ने सौरव, बंगलोर ने द्रविड़ और हैदराबाद ने लक्ष्मण को हाशिए पर डाल दिया। आईपएल की शहर की पहचान को टीम से जोड़ने के सच की कलाई खुल गयी। सिर्फ टीम के नाम भर रख देने की आप खेल को उसके चाहने वालों सेi इतनी आसानी से नहीं जोड़ सकते।

ठीक यहीं आकर एक आम क्रिकेट चहेते की सोच आईपीएल की टकरा जाती है। आईपीएल कंपनी की हैसियत से खिलाडी को अपनी टीम का हिस्सा बनाता है। यहाँ कंपनी से खिलाड़ी की पहचान जुड़ी है न की खिलाडी से कंपनी की। यह ठीक मौजूदा दौर मे किसी व्यक्ति के लिये देश की पहचान के खो जाने जैसा है। अगर आप किसी बड़ी कारपोरेट कंपनी मे काम करते हैं तो आप उस कंपनी से पहचाने जाते हैं। यह कंपनी इस ग्लोबल विलेज में तब्दील होती दुनिया में कंपनी किसी भी देश मे हो सकती है। यहाँ देश नहीं वो कंपनी पहले है। आईपीएल भी इसी सोच के साथ खिलाडियों को टीम मे जगह दे रहा है। देश की अवधारणा यहाँ खारिज हो रही है। खिलाडियों ने बाज़ार के इस सच को कबूल कर लिया है। वो ठेठ पेशेवर अंदाज में मैदान पर उतरते हैं। अपना सब कुछ दांव पर लगाकर खेलते हैं। ये जानते हुए कि जरा सी चूक उन्हें बाहर का रास्ता दिखा सकती है। इसलिए आज वो भारत के लिये खेलते हैं। ऑस्ट्रेलिया के लिये खेलते हैं, लेकिन अगले ही दिन एक साथ नाइट राइडर्स,डेक्कन चार्जर्स और चेन्नई सुपरकिंग्स के लिये मैदान मे उतरते हैं। सिर्फ एक ऐसे कॉम्बिनेशन मे तब्दील होने के लिये, जो उनकी जीत के सम्भावनाओं को उसके सर्वश्रेष्ठ तक ले जाए। कंपनी को ज्यादा से ज्यादा मुनाफा दिलाए। लेकिन एक आम दर्शक अभी इस सच को स्वीकार नहीं कर पाया है। हो सकता है कि वो इस सच की तरफ जानबूझकर कर आंख मूंदे हुए है। इसलिए वो सौरव की कप्तानी छीनने से व्यथित होता है। सचिन की हार और धोनी की जीत मे खुद को दोराहे पर खड़ा पाता है। खुद को छला और घायल महसूस करता है। लेकिन यही आईपीएल है.यही आज का सच है।

1 comment:

Khanna said...

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