यह धीरे धीरे नियति से समझौता करते कप्तान मैकुलम थे। उन्हें अब गेंद से परास्त होते फील्डर से झुंझलाहट नहीं हो रही थी। हाथ से फिसलते आसान कैच पर हताशा उभार नहीं ले रही थी। अगरकर की गेंद पर दिलशान के बल्ले का किनारा लेती गेंद पर फील्डर काबू नहीं कर पाया तो मैकुलम के चहरे पर नाराजगी नहीं थी। उनके होठों पर एक हलकी सी मुस्कराहट तैर रही थी। मुकाबले के आखिरी क्षणों में इशांत शर्मा की गेंद पर हेनरिक्स ने गौतम गंभीर का आसान सा कैच टपका दिया तो मैकुलम शून्य में ताक रहे थे। वो आत्मचिंतन की मुद्रा में थे। यह अपनी नियति को स्वीकारते मैकुलम थे। हार के न टूटते सिलसिले को अपनी किस्मत मानते हुए।
ये अपने कोच जॉन बुकानन की सोच से ठीक उलट खड़े मैकुलम थे। खेल में नियति को अस्वीकार कर सिर्फ और सिर्फ जीत तक पहुँचने की सोच रखने वाले बुकानन। मल्टीपल कप्तान की थ्योरी के बीच जीत के बेहतरीन कॉम्बिनेशन को इजाद करने की धुन में जुटे बुकानन। ये भूलते हुए कि खेल में आप नतीजों की भविष्यवाणी का जोखिम नहीं उठा सकते। जिस दिन आप नतीजों की भविष्यवाणी करने लग जाएंगे, उस दिन आप खेल से इसके सबसे खूबसूरत पहलू ‘चमत्कार’ को गायब कर देंगे।
आखिर क्रिकेट के मुकाबले में कोई बॉलिंग मशीन नहीं खेलती। मशीन, जो आपको गेंद की सही लम्बाई, ऊँचाई और उछाल को पहले से बता सके। यहाँ फील्डर कैच का पहले से पूर्वानुमान या आकलन नहीं कर सकता। यहाँ बल्लेबाज के लिये हर अगली गेंद एक नयी चुनौती होती है। गेंदबाज रन उप पर उठते कदमों के बीच विकेट से आगे जाकर बल्लेबाज की सोच पर जीत दर्ज करना चाह्ता है। अंपायर का एक फैसला पूरे मुकाबले का रुख मोड़ सकता है। दरअसल, हर एक नयी गेंद के क्रम में एक नयी शुरुआत होती है। गेंदबाज, बल्लेब्बाज, फील्डर और अंपायर के बीच से गुजरती एक नयी कहानी से हम रुबरु होते हैं। ऐसी कहानी, जिसमें आप पहले से कोई भविष्यवाणी नहीं कर सकते। फिर इन सबसे आगे यहाँ हाड मांस के खिलाडी खेलते हैं
। भावनाओं में लिपटे हुए अपनी अपनी भूमिकाओं को अंजाम देते हुए। जीत के लम्हों में लिपटी असीम ख़ुशी होती है तो हार के बीच छिपा दर्द होता है। अपने तमाम टेलेंट और अनुभव के बीच वो अगली गेंद के नतीजे से अनजान दर्द और ख़ुशी के बीच से गुजरते हैं। इन दो छोरों के बीच, जो जितना सहज रह पता है, कामयाबी उसी के हाथ लगाती है।
इसीलिये एक दिन युवराज सिंह हैट्रिक लेते हैं। चार खूबसूरत छक्कों से सजी हाफ सेंचुरी बनाते हैं। लेकिन इसके बावजूद उनकी टीम हार जाती है। एक दिन वॉर्न की राजस्थान रॉयल्स महज 58 रन पर सिमट जाती है। लेकिन एक दिन प्रतियोगिता का सबसे बड़ा स्कोर 212 रन बना देती है। बंगलोर रॉयल्स लगतार तीन मुकाबले हारती है। लेकिन अगले ही दिन वो मुंबई इंडियंस को 9 विकेट से हराती है। यह हार और जीत के दो छोरों को पकड़ती टीम हैं। यहाँ जीत जितना बड़ा सच है, हार उससे भी बड़ा। लेकिन हार और जीत के बीच पूरी सहजता ! यही सहजता इन्हें मुकाबलों के दबाव से उबारती हुई हार से वापस जीत की ओर मुड़ने का हौसला देती है।
लेकिन सिर्फ जीत के आस पास घूमती बुकानन की सोच उन्हें इस सहजता से दूर कर रही है। 17 खिलाडियों की टीम के लिये 16 लोगों का कोचिंग स्टाफ भी जीत का मंत्र नहीं सूझा पा रहा। हर गेंद के साथ बदलता मुकाबला और शुरू होती नयी कहानी के बीच पहले से तैयार फार्मूला अचानक खारिज हो जाता है। मंगलवार को ही ब्रेड हॉज के आउट होने पर 6 ओवर बाकी रहते सौरव को विकेट पर न भेजना अपनी बनी बनायी रणनीति से आगे जाकर न सोचने की कहानी कहता है। वन डे में 22 शतक और 11,000 रन बना चुके सौरव की जगह हेनरिक्स को भेजा जाता है। वो लेग स्पिनर अमित मिश्रा के ओवर को मेडन निकाल देते हैं। भारतीय क्रिकेट में स्पिन्नर के खिलाफ सबसे बड़े स्ट्रोक खेलने वाले सौरव डगआउट में पैड पहने ये सब देखते रह जाते हैं।
इतना ही नहीं, बुकानन की सोच को मैदान पर साकार करने में जुटे कप्तान मैकुलम सौरव की गेंदों में कोई भरोसा नहीं दिखा पाते। शायद बुकानन के दिये ब्लू प्रिंट से मैकुलम आगे जाना नहीं चाहते। बेशक मुकाबले में हर पल आते नए मोड़ कुछ नयी मांग कर रहे हों। यह बुकानन के ब्लू प्रिंट को साकार करने की चुनौती है या हर गुजरते दिन के साथ सामने आती हार का खौफ, मैकुलम दबाव में हैं। उनके साथी भी दबाव में हैं। यही वजह है कि इंटरनेशनल स्टेज पर 300 से ज्यादा कैच ले चुके कप्तान मैकुलम गौतम गंभीर को उस मौके पर आसान सा जीवन दान दे डालते हैं, जहाँ से मुकाबले को अपनी और मोड़ा जा सकता है। पास आती हर गेंद पर अनुभवी हॉज और गांगुली का हौसला लड़खड़ाता दिखता है। और हर दूसरे दिन ऐसे ही लडखडाती कोलकाता से हम रुबरु हो रहे हैं। सिर्फ जीत की सोचते सोचते जो जीतना ही भूल गयी है।
उम्मीद करनी कहिये कि नियति में भरोसा दिखाते मैकुलम हार और जीत को सहजता से स्वीकार करना शुरू करेंगे। सहजता लौटेगी तो कोलकाता की भी वापसी होगी। भले अब काफी देर हो चुकी है, लेकिन हम सभी को उसके लौटने का इंतज़ार है।
Friday, May 8, 2009
Thursday, May 7, 2009
वॉर्न की शख्सियत के जादू से पार पाने की चुनौती
शेन वॉर्न को देख अमेरिकी बास्केटबाल के महानतम कोच पेट रिले का कथन याद आता है। अमेरिकी बास्केटबाल लीग की पांच विजेता टीमों के कोच रहे रिले का मानना है कि आपको महान खिलाडी को शिकस्त देने के लिये उसके खेल से ज्यादा उसके प्रभामंडल, उसके जादू से पार पाना होता है। यानि आपके सामने जीत के लिए दोहरी चुनौती होती है। वॉर्न के खिलाफ भी आप एक महान खिलाडी से जूझते हैं। एक महान गेंदबाज और एक बेहतरीन कप्तान से पार पाने की कोशिश करते हैं। लेकिन इन सबसे ज्यादा आपके सामने इस महानायक की शख्सियत के आस पास रचे जादू से भी पार पाने की चुनौती होती है।
लेकिन गुरूवार को सेंचुरियन में वॉर्न रिले की सोच से भी आगे जा रहे थे। बंगलोर रॉयल चैलेंजर्स की पारी का आखिरी ओवर था। उसके आठ विकेट गिर चुके थे। उनके रन भी बमुश्किल 100 तक पहुंचे थे। कोई दूसरा कप्तान होता तो किसी अनुभवी गेंदबाज को गेंद थमा कुछ राहत की सांस ले सकता था। लेकिन वॉर्न अपने विपक्षी को हल्की सी भी राहत नहीं देना चाहते थे। उन्होंने अपना दूसरा मुकाबला खेल रहे अमित सिंह को गेंद थमाई। साथ ही हर गेंद पर उन्हें सलाह देने के लिए वो मिड ऑफ पर मौजूद थे। माहौल पर हावी होते वॉर्न के जादू के बीच बंगलोर मुकाबला खत्म होने से बहुत पहले ही हार कबूल रहा था। वॉर्न की दी हिदायतों के बीच इस धीमे विकेट पर अपनी पेस में बदलाव करते हुए अमित सिंह ने बंगलोर को आखिरी छह गेंदों पर सिर्फ तीन रन ही बनाने का मौका दिया। साथ ही उनके बाकी बचे दोनों विकेट हासिल कर प्रतियोगिता का अपना सबसे बेहतर प्रदर्शन किया।
फिर यह वॉर्न की शख्सियत का जादू विपक्षी ही नहीं, उनके अपने साथियों को भी अपने साथ बहा ले जाता है। आखिर इस प्रतियोगिता से पहले गुजरात की ओर से रणजी ट्राफी में खेलने वाले अमित सिंह को फर्स्ट क्लास क्रिकेट में पांच साल हो गए थे। लेकिन वो महज १५ मुकाबलों में ही मैदान में उतर पाए। इसके लिये उनकी गेंदबाजी एक्शन पर बोर्ड की तकनीकी समिति की ऊँगलियाँ उठाना भी एक वजह कही जा सकती है। लेकिन वॉर्न ने इन सब को नज़रंदाज कर अमित सिंह पर भरोसा जताया। नतीजा सामने था। वॉर्न के दिखाए भरोसे के बीच अमित ने पहले मुकाबले में संगकारा समेत तीन विकेट लिये। दूसरे मैच में वो अपने प्रदर्शन को चार विकेट तक खींच ले गए।
ठीक इसी आइने में आप नमन ओझा की पंजाब के खिलाफ खेली विस्फोटक पारी को पढ़ सकते हैं। आप कोलकाता के खिलाफ आखिरी ओवर डालते कामरान खान के भरोसे को छू सकते हैं। किसी भी स्तर के राष्ट्रीय क्रिकेट में न उतरने वाले कामरान आखिरी ओवर में सौरव का विकेट लेते हैं। सुपर ओवर फेंकने का भरोसा हासिल करते हैं। जब इस लाजवाब प्रदर्शन के बाद कामरान से प्रतिक्रिया ली जाती है, तो वो सिर्फ एक बात कहते है- मैं कप्तान के भरोसे पर खरा उतरा। फिर, यही सोच टीम के सीनियर सदस्यों में भी झलकती है। युसूफ पठान अपनी कामयाबियों को वॉर्न के दिये हौसलों से जोड़ देते है। मोर्केल उनमे बेहतरीन कप्तान को देखते हैं।
दरअसल, वॉर्न और उनके साथियों के बीच भरोसे के इस तार का सिरा वॉर्न की शख्सियत के जादू से जुड़ा है। कोई वॉर्न के सामने नाकाम नहीं होना चाहता। यही टीम को सबसे बड़ी ताकत देता है। फिर वॉर्न बड़े नामों से हटकर अपनी टीम में ऐसे युवा टेलेंट को जगह देने में यकीन करते हैं जो उनकी सोच के मुताबिक ढल जाये। मज़ाक में वो ये भी कहते हैं कि इन युवा खिलाड़ियों की वजह से वो भी खुद को युवा महसूस करते हैं।
लेकिन, बात मज़ाक से आगे की है। शेन वॉर्न टीम में अंग्रेजी न जानने वाले ज्यादातर युवाओं के होने के बावजूद शिद्दत से संवाद करते हैं। वो उनकी बात तसल्ली से सुनते हैं तो अपनी बात विस्तार से समझाने के लिए द्विभाषिये की मदद लेते हैं। वार्न मैदान में कैच छूटने से लेकर ओवर थ्रो जैसी गलतियों पर नाराज नहीं होते। वो नाजुक मौकों पर गलतियां करते अपने साथियों का हौसला बढ़ाते हैं। एक कप्तान की भूमिका से आगे की कोशिशें ही युवा खिलाड़ियों को उनके पीछे चलने पर मजबूर कर देती हैं। युवा टेलेंट को तरजीह देने के चलते ही पिछली बार के तीन स्टार खिलाडियों की गैरमौजूदगी का टीम पर कोई असर नहीं है। इस बार शेन वॉट्सन, सोहेल तनवीर और कामरान अकमल टीम के साथ नहीं है।
लेकिन इसके बावजूद राजस्थान रॉयल्स अपने खिताब को बचाने की ओर बहुत मजबूती से बढ़ रही है। कल तक वो कोलकाता के खिलाफ सुपर ओवर में जीत दर्ज कर रही थी, तो आज वो पंजाब किंग्स इलेवन और बंगलोर पर एकतरफा जीत दर्ज करते हुए ट्वेंटी ट्वेंटी के रोमांच को खारिज कर रही है। प्रतियोगिता की बाकी टीमों को आगाह करती हुई-आप किसी टीम के खिलाफ नहीं खेल रहे। आप वॉर्न नाम के इस महानायक से जूझ रहे हैं। आपको राजस्थान पर जीत दर्ज करने से पहले वॉर्न के जादू से पार पाना होगा। इसमें फिलहाल सभी बहे चले जा रहे हैं। विपक्षी टीम भी और खुद वॉर्न की राजस्थान रॉयल्स भी।
लेकिन गुरूवार को सेंचुरियन में वॉर्न रिले की सोच से भी आगे जा रहे थे। बंगलोर रॉयल चैलेंजर्स की पारी का आखिरी ओवर था। उसके आठ विकेट गिर चुके थे। उनके रन भी बमुश्किल 100 तक पहुंचे थे। कोई दूसरा कप्तान होता तो किसी अनुभवी गेंदबाज को गेंद थमा कुछ राहत की सांस ले सकता था। लेकिन वॉर्न अपने विपक्षी को हल्की सी भी राहत नहीं देना चाहते थे। उन्होंने अपना दूसरा मुकाबला खेल रहे अमित सिंह को गेंद थमाई। साथ ही हर गेंद पर उन्हें सलाह देने के लिए वो मिड ऑफ पर मौजूद थे। माहौल पर हावी होते वॉर्न के जादू के बीच बंगलोर मुकाबला खत्म होने से बहुत पहले ही हार कबूल रहा था। वॉर्न की दी हिदायतों के बीच इस धीमे विकेट पर अपनी पेस में बदलाव करते हुए अमित सिंह ने बंगलोर को आखिरी छह गेंदों पर सिर्फ तीन रन ही बनाने का मौका दिया। साथ ही उनके बाकी बचे दोनों विकेट हासिल कर प्रतियोगिता का अपना सबसे बेहतर प्रदर्शन किया।
फिर यह वॉर्न की शख्सियत का जादू विपक्षी ही नहीं, उनके अपने साथियों को भी अपने साथ बहा ले जाता है। आखिर इस प्रतियोगिता से पहले गुजरात की ओर से रणजी ट्राफी में खेलने वाले अमित सिंह को फर्स्ट क्लास क्रिकेट में पांच साल हो गए थे। लेकिन वो महज १५ मुकाबलों में ही मैदान में उतर पाए। इसके लिये उनकी गेंदबाजी एक्शन पर बोर्ड की तकनीकी समिति की ऊँगलियाँ उठाना भी एक वजह कही जा सकती है। लेकिन वॉर्न ने इन सब को नज़रंदाज कर अमित सिंह पर भरोसा जताया। नतीजा सामने था। वॉर्न के दिखाए भरोसे के बीच अमित ने पहले मुकाबले में संगकारा समेत तीन विकेट लिये। दूसरे मैच में वो अपने प्रदर्शन को चार विकेट तक खींच ले गए।
ठीक इसी आइने में आप नमन ओझा की पंजाब के खिलाफ खेली विस्फोटक पारी को पढ़ सकते हैं। आप कोलकाता के खिलाफ आखिरी ओवर डालते कामरान खान के भरोसे को छू सकते हैं। किसी भी स्तर के राष्ट्रीय क्रिकेट में न उतरने वाले कामरान आखिरी ओवर में सौरव का विकेट लेते हैं। सुपर ओवर फेंकने का भरोसा हासिल करते हैं। जब इस लाजवाब प्रदर्शन के बाद कामरान से प्रतिक्रिया ली जाती है, तो वो सिर्फ एक बात कहते है- मैं कप्तान के भरोसे पर खरा उतरा। फिर, यही सोच टीम के सीनियर सदस्यों में भी झलकती है। युसूफ पठान अपनी कामयाबियों को वॉर्न के दिये हौसलों से जोड़ देते है। मोर्केल उनमे बेहतरीन कप्तान को देखते हैं।
दरअसल, वॉर्न और उनके साथियों के बीच भरोसे के इस तार का सिरा वॉर्न की शख्सियत के जादू से जुड़ा है। कोई वॉर्न के सामने नाकाम नहीं होना चाहता। यही टीम को सबसे बड़ी ताकत देता है। फिर वॉर्न बड़े नामों से हटकर अपनी टीम में ऐसे युवा टेलेंट को जगह देने में यकीन करते हैं जो उनकी सोच के मुताबिक ढल जाये। मज़ाक में वो ये भी कहते हैं कि इन युवा खिलाड़ियों की वजह से वो भी खुद को युवा महसूस करते हैं।
लेकिन, बात मज़ाक से आगे की है। शेन वॉर्न टीम में अंग्रेजी न जानने वाले ज्यादातर युवाओं के होने के बावजूद शिद्दत से संवाद करते हैं। वो उनकी बात तसल्ली से सुनते हैं तो अपनी बात विस्तार से समझाने के लिए द्विभाषिये की मदद लेते हैं। वार्न मैदान में कैच छूटने से लेकर ओवर थ्रो जैसी गलतियों पर नाराज नहीं होते। वो नाजुक मौकों पर गलतियां करते अपने साथियों का हौसला बढ़ाते हैं। एक कप्तान की भूमिका से आगे की कोशिशें ही युवा खिलाड़ियों को उनके पीछे चलने पर मजबूर कर देती हैं। युवा टेलेंट को तरजीह देने के चलते ही पिछली बार के तीन स्टार खिलाडियों की गैरमौजूदगी का टीम पर कोई असर नहीं है। इस बार शेन वॉट्सन, सोहेल तनवीर और कामरान अकमल टीम के साथ नहीं है।
लेकिन इसके बावजूद राजस्थान रॉयल्स अपने खिताब को बचाने की ओर बहुत मजबूती से बढ़ रही है। कल तक वो कोलकाता के खिलाफ सुपर ओवर में जीत दर्ज कर रही थी, तो आज वो पंजाब किंग्स इलेवन और बंगलोर पर एकतरफा जीत दर्ज करते हुए ट्वेंटी ट्वेंटी के रोमांच को खारिज कर रही है। प्रतियोगिता की बाकी टीमों को आगाह करती हुई-आप किसी टीम के खिलाफ नहीं खेल रहे। आप वॉर्न नाम के इस महानायक से जूझ रहे हैं। आपको राजस्थान पर जीत दर्ज करने से पहले वॉर्न के जादू से पार पाना होगा। इसमें फिलहाल सभी बहे चले जा रहे हैं। विपक्षी टीम भी और खुद वॉर्न की राजस्थान रॉयल्स भी।
Thursday, April 30, 2009
पीटरसन की जीत छोड़ गई बुकानन के लिए कुछ सवाल
मार्क बाउचर के लिए आखिरी ओवर में टीम को मंजिल तक पहुँचाना कोई नयी बात नहीं थी। बीते 12 सालों में इंटरनेशनल स्टेज पर दक्षिण अफ्रीका को वो कितनी ही बार जीत तक ले गए हैं। बुधवार को डरबन में एक बार फिर उन पर ऐसी ही जिम्मेदारी थी। बस, टीम बदल चुकी थी। इस बार उन्हें बंगलोर रॉयल चैलेंजर्स को जीत तक पहुँचाना था। मैच के आखिरी ओवर की पांचवी गेंद पर बाउचर ने विजयी चौका जमाया तो वो एक असीम ख़ुशी में डूब गए। क्रिस गेल की लेग स्टम्प पर आती फुलटॉस पर बाउचर ने जोरदार प्रहार करने के साथ ही अपनी मुट्ठी तानी और हवा में लहरा दी। इशारा करते हुए कि उनके और बंगलोर के लिये इस जीत के मायने क्या हैं।
चार लगातार शिकस्त के बाद ये बंगलोर की पहली जीत जीत थी। कुल मिलकर दूसरी। बंगलोर के डगआउट से लेकर स्टेडियम में मौजूद हर समर्थक बाउचर की दी ख़ुशी में भीग रहा था। लेकिन कप्तान पीटरसन से ज्यादा खुश शायद कोई नहीं था। मार्क बाउचर और उनके साथी मनीष पांडेय को बाँहों में भर लेने के लिए पीटरसन सबसे पहले डगआउट से बाहर निकले तो उनके पैड बंधे हुए थे। इशारा करते हुए कि कितनी बेताबी से वो इस एक जीत का इंतज़ार कर रहे थे। 16वें ओवर में एक और नाकाम पारी खेलने के बाद से वो डगआउट में पैड बांधे बैठे थे। बस, इस एक जीत के इंतज़ार में।
आखिर इस प्रतियोगिता में यह उनका आखिरी मैच था। इसके बाद वो इंग्लैंड लौट रहे हैं। वेस्टइंडीज के खिलाफ टेस्ट सीरीज़ में शिरकत करने। जिस तरह इस प्रतियोगिता के पहले मुकाबले में उन्होंने डिफेंडिंग चैम्पियन राजस्थान रॉयल्स को शिकस्त देकर जोरदार आगाज किया था, उसी तरह वो जीत के साथ यहाँ से विदा लेने की ठान कर आये थे। बेशक, वो बल्ले से खुद लगातार नाकाम रहे थे। लेकिन, क्रिकेट की स्टेज पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराने, उस पर हावी हो जाने की उनकी सोच में कोई कमी नहीं थी।
फिर, अपनी पहचान को दर्ज कराने की उनकी फितरत भी है। इसलिए बुधवार को मुकाबले की पहली ही गेंद से वो नाइट राइडर्स पर हावी हो गए। गेंद उनके हाथ में थी। अपने विरोधी कप्तान मैकुलम को वो प्वाइंट पर विराट कोहली के हाथों कैच करा रहे थे। यह सिर्फ संयोग भी कहा जा सकता है। लेकिन पीटरसन डरबन के धीमे और स्ट्रोक प्ले के लिये मुश्किल विकेट पर एक बेहद सोची समझी रणनीति के साथ उतरे थे। धीमे गेंदबाजों के सहारे अपनी ही तरह हताश कोलकाता पर जीत की सोच के साथ। प्रवीण कुमार और पंकज सिंह जैसे गेंदबाजों की मौजूदगी के बावजूद अपने साथ दूसरे छोर से भी रौलेफ़ वन को लेफ्ट आर्म स्पिन की जिमादारी सौपने का जोखिम उठाया। लेकिन अपनी रणनीति को लेकर उनकी सोच साफ़ थी। इसे आप पीटरसन के धीमे गेंदबाजों से कराये 15 ओवर में महसूस कर सकते हैं। इसी का नतीजा था कि पॉवर प्ले में ही दो विकेट गंवाने के साथ कोलकाता आखिर तक कोई बड़ी चुनौती पेश नहीं कर पाया। उसके बल्लेबाज़ कोई बड़ा प्रहार करने में नाकाम रहे।
इतना ही नहीं, द्रविड़ की गैरमौजूदगी और नाकाम उथप्पा की भरपाई करने के लिये नौजवान बल्लेबाजों में भरोसा दिखाया। श्रीवत्स गोस्वामी से पारी की शुरुआत कराई। आखिरी ओवर में मनीष पाण्डेय को भेजने का जोखिम उठाया। और दोनों ने ही अपने कप्तान के भरोसे को टूटने नहीं दिया। गोस्वामी ने बेहद सीधे बल्ले से रन भी जोड़े और अनुभवी कालिस के साथ पहले 11 ओवर तक विकेट बचा कर रखा। यह इस प्रतियोगिता में बंगलोर की सबसे बेहतर शुरुआत थी। मनीष पांडे ने आखिरी ओवर की पहली गेंद पर एक जरुरी सिंगल लेते हुए सीनियर बल्लेबाज मार्क बाउचर को जरुरी स्ट्राइक थमाई।
दरअसल, यही सोच बंगलोर को इस बेहद नजदीकी मुकाबले में जीत तक ले गयी। वरना कोलकाता की तरह बंगलोर भी लगातार शिकस्त से जूझ रही थी। लेकिन पीटरसन की टीम ने न केवल खेल के बेसिक पर पकड़ जमाई। जीत के लिये अपने साथियों में सबसे जरुरी भरोसा भी दिखाया। दरअसल, बिना भरोसे के आप जोखिम नहीं उठा सकते। लेकिन कोलकत्ता की टीम की तरह ही बुकानन की अगुवाई में लम्बा चौडा कोचिंग स्टाफ टीम में जीत की नयी सोच , नया भरोसा नहीं भर सका . मैकुलम के नाकाम होने के बावजूद ओपनिंग में कोई नया प्रयोग नहीं दिख रहा . फील्डिंग में छोटी छोटी चूक किसी कमजोरी से ज्यादा अपने भरोसे में कमी को ज़ाहिर करती है . एक दिन पहले बुकानन को वार्न ने शिकस्त दी थी। अपनी निजी नाकामी के बीच भी वापस लौटे पीटरसन जाते जाते उन्हे कुछ सबक सिखा गए हैं। यह पीटरसन की टीम की जीत है। बुकानन को अभी टीम की तलाश है।
चार लगातार शिकस्त के बाद ये बंगलोर की पहली जीत जीत थी। कुल मिलकर दूसरी। बंगलोर के डगआउट से लेकर स्टेडियम में मौजूद हर समर्थक बाउचर की दी ख़ुशी में भीग रहा था। लेकिन कप्तान पीटरसन से ज्यादा खुश शायद कोई नहीं था। मार्क बाउचर और उनके साथी मनीष पांडेय को बाँहों में भर लेने के लिए पीटरसन सबसे पहले डगआउट से बाहर निकले तो उनके पैड बंधे हुए थे। इशारा करते हुए कि कितनी बेताबी से वो इस एक जीत का इंतज़ार कर रहे थे। 16वें ओवर में एक और नाकाम पारी खेलने के बाद से वो डगआउट में पैड बांधे बैठे थे। बस, इस एक जीत के इंतज़ार में।
आखिर इस प्रतियोगिता में यह उनका आखिरी मैच था। इसके बाद वो इंग्लैंड लौट रहे हैं। वेस्टइंडीज के खिलाफ टेस्ट सीरीज़ में शिरकत करने। जिस तरह इस प्रतियोगिता के पहले मुकाबले में उन्होंने डिफेंडिंग चैम्पियन राजस्थान रॉयल्स को शिकस्त देकर जोरदार आगाज किया था, उसी तरह वो जीत के साथ यहाँ से विदा लेने की ठान कर आये थे। बेशक, वो बल्ले से खुद लगातार नाकाम रहे थे। लेकिन, क्रिकेट की स्टेज पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराने, उस पर हावी हो जाने की उनकी सोच में कोई कमी नहीं थी।
फिर, अपनी पहचान को दर्ज कराने की उनकी फितरत भी है। इसलिए बुधवार को मुकाबले की पहली ही गेंद से वो नाइट राइडर्स पर हावी हो गए। गेंद उनके हाथ में थी। अपने विरोधी कप्तान मैकुलम को वो प्वाइंट पर विराट कोहली के हाथों कैच करा रहे थे। यह सिर्फ संयोग भी कहा जा सकता है। लेकिन पीटरसन डरबन के धीमे और स्ट्रोक प्ले के लिये मुश्किल विकेट पर एक बेहद सोची समझी रणनीति के साथ उतरे थे। धीमे गेंदबाजों के सहारे अपनी ही तरह हताश कोलकाता पर जीत की सोच के साथ। प्रवीण कुमार और पंकज सिंह जैसे गेंदबाजों की मौजूदगी के बावजूद अपने साथ दूसरे छोर से भी रौलेफ़ वन को लेफ्ट आर्म स्पिन की जिमादारी सौपने का जोखिम उठाया। लेकिन अपनी रणनीति को लेकर उनकी सोच साफ़ थी। इसे आप पीटरसन के धीमे गेंदबाजों से कराये 15 ओवर में महसूस कर सकते हैं। इसी का नतीजा था कि पॉवर प्ले में ही दो विकेट गंवाने के साथ कोलकाता आखिर तक कोई बड़ी चुनौती पेश नहीं कर पाया। उसके बल्लेबाज़ कोई बड़ा प्रहार करने में नाकाम रहे।
इतना ही नहीं, द्रविड़ की गैरमौजूदगी और नाकाम उथप्पा की भरपाई करने के लिये नौजवान बल्लेबाजों में भरोसा दिखाया। श्रीवत्स गोस्वामी से पारी की शुरुआत कराई। आखिरी ओवर में मनीष पाण्डेय को भेजने का जोखिम उठाया। और दोनों ने ही अपने कप्तान के भरोसे को टूटने नहीं दिया। गोस्वामी ने बेहद सीधे बल्ले से रन भी जोड़े और अनुभवी कालिस के साथ पहले 11 ओवर तक विकेट बचा कर रखा। यह इस प्रतियोगिता में बंगलोर की सबसे बेहतर शुरुआत थी। मनीष पांडे ने आखिरी ओवर की पहली गेंद पर एक जरुरी सिंगल लेते हुए सीनियर बल्लेबाज मार्क बाउचर को जरुरी स्ट्राइक थमाई।
दरअसल, यही सोच बंगलोर को इस बेहद नजदीकी मुकाबले में जीत तक ले गयी। वरना कोलकाता की तरह बंगलोर भी लगातार शिकस्त से जूझ रही थी। लेकिन पीटरसन की टीम ने न केवल खेल के बेसिक पर पकड़ जमाई। जीत के लिये अपने साथियों में सबसे जरुरी भरोसा भी दिखाया। दरअसल, बिना भरोसे के आप जोखिम नहीं उठा सकते। लेकिन कोलकत्ता की टीम की तरह ही बुकानन की अगुवाई में लम्बा चौडा कोचिंग स्टाफ टीम में जीत की नयी सोच , नया भरोसा नहीं भर सका . मैकुलम के नाकाम होने के बावजूद ओपनिंग में कोई नया प्रयोग नहीं दिख रहा . फील्डिंग में छोटी छोटी चूक किसी कमजोरी से ज्यादा अपने भरोसे में कमी को ज़ाहिर करती है . एक दिन पहले बुकानन को वार्न ने शिकस्त दी थी। अपनी निजी नाकामी के बीच भी वापस लौटे पीटरसन जाते जाते उन्हे कुछ सबक सिखा गए हैं। यह पीटरसन की टीम की जीत है। बुकानन को अभी टीम की तलाश है।
Tuesday, April 28, 2009
22 गज की बिसात पर नए मोहरे बनते स्पिनर
टी- ट्वेंटी के रोमांच के बीच मुझे अचानक आज बॉबी फिशर याद आ गए। शतरंज की दुनिया में अकेले दम सोवियत किले को ध्वस्त करने वाले बेजोड़ फिशर। फिशर का कहना था, “शतरंज की बिसात पर हार जीत के लिये मैं मनोविज्ञान पर भरोसा नहीं करता। मैं सिर्फ और सिर्फ सही मूव पर भरोसा करता हूं।” ट्वेंटी ट्वेंटी का रोमांच भी सिर्फ उसकी रफ़्तार में नहीं, हर पल आते उतार चदाव में भी छिपा है। और ये उतार चढ़ाव छिपा है कप्तान की चली जा रही चालों में। उसके हर मूव से मुकाबला नया मोड़ लेता है। नए रोमांच से रुबरु कराता है। और इस मूव में अब उसका सबसे बड़ा मोहरा है स्पिनर।
खास बात ये कि इस मोहरे को लेकर चली जा रही हर चाल बेहद दिलचस्प है। ये ट्वेंटी ट्वेंटी के खेल में बनी बनाईं धारणाओं को तोड़ रही है। सोच को हर पल नया विस्तार दे रही है। इस प्रतियोगिता के शुरू होते ही अनिल कुंबले, हरभजन सिंह, शेन वार्न और मुरलीधरन ने अपने अनुभव और चतुराई भरी गेंदों से एलान कर दिया था कि ट्वेंटी ट्वेंटी की इस रफ़्तार के बीच स्पिन गेंदबाजी को खारिज नहीं किया जा सकता। प्रज्ञान ओझा, अमित मिश्र, युसूफ पठान, और अपन्ना ट्वेंटी ट्वेंटी पर मजबूत होती स्पिन की पकड़ को और आगे ले गये। इस हद तक की कप्तान पॉवर प्ले के पहले 6 ओवर में ही उन्हें आक्रमण पर लगाने का दांव खेलने लगे। लेकिन अब कप्तान खालिस स्पिनर पर ही निर्भर नहीं है। वो मुकाबले में हाथ से छिटकती बाज़ी को अपनी और मोड़ने के लिये किसी भी काम चलाऊ स्पिनर की और गेंद उछाल सकते हैं।
सोमवार को डेक्कन चार्जर्स के कप्तान गिलक्रिस्ट और चेन्नई सुपर किंग्स के कप्तान धोनी दोनों ने ये चाल चली। ये हताशा में लिये फैसले नहीं थे। सीधे सीधे एक बेहतरीन मूव था। चेन्नई के मैथ्यू हेडन और सुरेश रैना के आक्रामक तेवेरों के सामने इस प्रतियोगिता में सबसे बेहतर दिख रही आरपी सिंह और फिडल एडवर्ड्स की जोड़ी कोई असर नहीं छोड़ पा रही थी। महज पांच ओवर में ये दोनों बल्लेबाज 55 रन जोड़ चुके थे। ऐसे मौके पर गिलक्रिस्ट ने दोनों ओर से स्पिन गेंदबाजों को आक्रमण पर लगाया। लेकिन अपने सबसे बेहतर स्पिनर प्रज्ञान ओझा को इस मुहिम से दूर रखा। एक छोर पर वेणुगोपाल राव थे। दूसरे छोर पर रोहित शर्मा। लेकिन गिलक्रिस्ट का यह मूव रंग लाया। रोहित ने अपनी पांचवी गेंद पर ही रैना को खूबसूरती से लपकते हुय इस खतरनाक बनती साझेदारी को रोक दिया।
इसी तरह गिलक्रिस्ट और हर्शल गिब्स धोनी के दोनों तेज गेंदबाजों बालाजी और गोनी के खिलाफ जमकर स्ट्रोक खेल रहे थे। ऐसा लग रहा था की 166 रन का लक्ष्य वो महज १५ ओवर में पूरा कर लेंगे। इस मौके पर धोनी ने एक एंड से मुरलीधरन को लगाया तो दूसरे एंड से गेंद सुरेश रैना को गेंद सौंप दी। दांहिने हाथ से ऑफ स्पिन फ़ेंक रहे रैना ने पहले कुछ धीमी और वाइड गेंद पर गिलक्रिस्ट को जल्दी स्ट्रोक खेलने को मजबूर किया। थर्डमैन पर मौजूद मुरली ने उन्हे लपकने में कोई चूक नहीं की। अगले ही ओवर में लक्ष्मण को ठीक इसी तरह ओरम के हाथों कैच कराया। इन दो विकेट के गिरने के साथ ही अभी तक एकतरफा दिख रहा मुकाबला बराबरी में बदलने लगा। सिर्फ तीन गेंद पहले ही चेन्नई जीत तक पहुंच पाया। लेकिन मैं हार और जीत के पार जाकर कप्तानों की सोच को पकड़ने की कोशिश कर रहा हूं।
इस मुकाबले में दोनों कप्तानो के ये फैसले ज़ाहिर कर रहे थे हर गुजरती गेंद के साथ धीमी गेंदबाजी में बढ़ते उनके भरोसे को। इस भरोसे के सहारे नए नए मूव रचती उनकी सोच को। दरअसल, इन दोनों कप्तानों ने इन गेंदबाजों को विकेट लेने के बावजूद आक्रमण से हटाया नहीं। गिलक्रिस्ट ने राव से लगातार तीन ओवर फिंकवाये तो धोनी ने रैना से पूरे चार ओवर का स्पेल डलवाया। इन चार ओवर में रैना ने डेक्कन के बल्लेबाजी पर नकेल कस ली। दरअसल, तेज गेंदबाजी के खिलाफ बल्लेबाज गेंद की रफ़्तार के साथ अपने स्ट्रोक को पूरा कर सकता है। लेकिन धीमी गेंदबाजी के सामने उसे अपने स्ट्रोक को बनाना पड़ता है। गेंद की रफ़्तार, उसके घुमाव और दिशा को आखिरी मौके तक पढ़ते हुए। स्पिनर की सोच से आगे जाते हुए। फिर दक्षिण अफ्रीकी विकेटों पर मिलती मदद के बीच धीमे गेंदबाज ज्यादा कारगर होते जा रहे हैं। इसी का नतीज़ा है कि इस प्रतियोगिता में अभी तक सबसे ज्यादा किफायती 15 गेंदबाजों में 12 स्पिनर हैं। फिर यह 12 स्पिनर अपने एक ओवर ने 4.5 से 6.5 रन तक ही खर्च कर रहे। बल्लेबाजों के ट्वेंटी ट्वेंटी की रफ़्तार में यह आंकडा बहुत मायने रखता है। यही वजह हे की कप्तान इनके इर्द गिर्द अपनी रणनीति को नया विस्तार दे रहे हैं। अपना हर दूसरा मूव बना रहे हैं। अभी तो यह प्रतियोगिता अपने पहले हफ्ते में है। आने वाले दिनों में सिर्फ 20 ओवर में सिमटे इस खेल में हम धीमी गेंदबाजी को लेकर प्रयोगों में नया विस्तार देख सकते हैं। शतरंज की बिसात की तरह सजी इस ट्वेंटी ट्वेंटी की स्टेज पर कुछ नए मूव। शायद इसीलिये आज मुझे फिशर याद आ रहे थे।
खास बात ये कि इस मोहरे को लेकर चली जा रही हर चाल बेहद दिलचस्प है। ये ट्वेंटी ट्वेंटी के खेल में बनी बनाईं धारणाओं को तोड़ रही है। सोच को हर पल नया विस्तार दे रही है। इस प्रतियोगिता के शुरू होते ही अनिल कुंबले, हरभजन सिंह, शेन वार्न और मुरलीधरन ने अपने अनुभव और चतुराई भरी गेंदों से एलान कर दिया था कि ट्वेंटी ट्वेंटी की इस रफ़्तार के बीच स्पिन गेंदबाजी को खारिज नहीं किया जा सकता। प्रज्ञान ओझा, अमित मिश्र, युसूफ पठान, और अपन्ना ट्वेंटी ट्वेंटी पर मजबूत होती स्पिन की पकड़ को और आगे ले गये। इस हद तक की कप्तान पॉवर प्ले के पहले 6 ओवर में ही उन्हें आक्रमण पर लगाने का दांव खेलने लगे। लेकिन अब कप्तान खालिस स्पिनर पर ही निर्भर नहीं है। वो मुकाबले में हाथ से छिटकती बाज़ी को अपनी और मोड़ने के लिये किसी भी काम चलाऊ स्पिनर की और गेंद उछाल सकते हैं।
सोमवार को डेक्कन चार्जर्स के कप्तान गिलक्रिस्ट और चेन्नई सुपर किंग्स के कप्तान धोनी दोनों ने ये चाल चली। ये हताशा में लिये फैसले नहीं थे। सीधे सीधे एक बेहतरीन मूव था। चेन्नई के मैथ्यू हेडन और सुरेश रैना के आक्रामक तेवेरों के सामने इस प्रतियोगिता में सबसे बेहतर दिख रही आरपी सिंह और फिडल एडवर्ड्स की जोड़ी कोई असर नहीं छोड़ पा रही थी। महज पांच ओवर में ये दोनों बल्लेबाज 55 रन जोड़ चुके थे। ऐसे मौके पर गिलक्रिस्ट ने दोनों ओर से स्पिन गेंदबाजों को आक्रमण पर लगाया। लेकिन अपने सबसे बेहतर स्पिनर प्रज्ञान ओझा को इस मुहिम से दूर रखा। एक छोर पर वेणुगोपाल राव थे। दूसरे छोर पर रोहित शर्मा। लेकिन गिलक्रिस्ट का यह मूव रंग लाया। रोहित ने अपनी पांचवी गेंद पर ही रैना को खूबसूरती से लपकते हुय इस खतरनाक बनती साझेदारी को रोक दिया।
इसी तरह गिलक्रिस्ट और हर्शल गिब्स धोनी के दोनों तेज गेंदबाजों बालाजी और गोनी के खिलाफ जमकर स्ट्रोक खेल रहे थे। ऐसा लग रहा था की 166 रन का लक्ष्य वो महज १५ ओवर में पूरा कर लेंगे। इस मौके पर धोनी ने एक एंड से मुरलीधरन को लगाया तो दूसरे एंड से गेंद सुरेश रैना को गेंद सौंप दी। दांहिने हाथ से ऑफ स्पिन फ़ेंक रहे रैना ने पहले कुछ धीमी और वाइड गेंद पर गिलक्रिस्ट को जल्दी स्ट्रोक खेलने को मजबूर किया। थर्डमैन पर मौजूद मुरली ने उन्हे लपकने में कोई चूक नहीं की। अगले ही ओवर में लक्ष्मण को ठीक इसी तरह ओरम के हाथों कैच कराया। इन दो विकेट के गिरने के साथ ही अभी तक एकतरफा दिख रहा मुकाबला बराबरी में बदलने लगा। सिर्फ तीन गेंद पहले ही चेन्नई जीत तक पहुंच पाया। लेकिन मैं हार और जीत के पार जाकर कप्तानों की सोच को पकड़ने की कोशिश कर रहा हूं।
इस मुकाबले में दोनों कप्तानो के ये फैसले ज़ाहिर कर रहे थे हर गुजरती गेंद के साथ धीमी गेंदबाजी में बढ़ते उनके भरोसे को। इस भरोसे के सहारे नए नए मूव रचती उनकी सोच को। दरअसल, इन दोनों कप्तानों ने इन गेंदबाजों को विकेट लेने के बावजूद आक्रमण से हटाया नहीं। गिलक्रिस्ट ने राव से लगातार तीन ओवर फिंकवाये तो धोनी ने रैना से पूरे चार ओवर का स्पेल डलवाया। इन चार ओवर में रैना ने डेक्कन के बल्लेबाजी पर नकेल कस ली। दरअसल, तेज गेंदबाजी के खिलाफ बल्लेबाज गेंद की रफ़्तार के साथ अपने स्ट्रोक को पूरा कर सकता है। लेकिन धीमी गेंदबाजी के सामने उसे अपने स्ट्रोक को बनाना पड़ता है। गेंद की रफ़्तार, उसके घुमाव और दिशा को आखिरी मौके तक पढ़ते हुए। स्पिनर की सोच से आगे जाते हुए। फिर दक्षिण अफ्रीकी विकेटों पर मिलती मदद के बीच धीमे गेंदबाज ज्यादा कारगर होते जा रहे हैं। इसी का नतीज़ा है कि इस प्रतियोगिता में अभी तक सबसे ज्यादा किफायती 15 गेंदबाजों में 12 स्पिनर हैं। फिर यह 12 स्पिनर अपने एक ओवर ने 4.5 से 6.5 रन तक ही खर्च कर रहे। बल्लेबाजों के ट्वेंटी ट्वेंटी की रफ़्तार में यह आंकडा बहुत मायने रखता है। यही वजह हे की कप्तान इनके इर्द गिर्द अपनी रणनीति को नया विस्तार दे रहे हैं। अपना हर दूसरा मूव बना रहे हैं। अभी तो यह प्रतियोगिता अपने पहले हफ्ते में है। आने वाले दिनों में सिर्फ 20 ओवर में सिमटे इस खेल में हम धीमी गेंदबाजी को लेकर प्रयोगों में नया विस्तार देख सकते हैं। शतरंज की बिसात की तरह सजी इस ट्वेंटी ट्वेंटी की स्टेज पर कुछ नए मूव। शायद इसीलिये आज मुझे फिशर याद आ रहे थे।
Wednesday, April 22, 2009
सिर्फ़ 24 गेंदों में ख़ुद को साबित करते सौरव
ये कप्तान ब्रैंडन मैकुलम का हताशा में लिया गया फैसला भी कहा जा सकता है। इरफान पठान के आक्रामक स्ट्रोक प्ले का कोई जवाब न तो इशांत शर्मा की रफ़्तार भरी गेंदों के पास था, न ही नौजवान अशोक डिंडा के हौसलों में। बादलों से घिरे माहौल में अगर मैकुलम के गेंदबाज बल्लेबाजों को थाम नहीं पाते तो टॉस जीतकर किंग इलेवन पंजाब को पहले बल्लेबाजी के लिये उतारने का दांव बेकार चला जाता। सिर्फ 6 ओवर में ही इरफान इंग्लैंड के रवि बोपारा के साथ 47 रन स्कोर बोर्ड पर टांग चुके थे। यानी अगर यहाँ से मुकाबला इस रफ़्तार से आगे बढ़ निकालता तो पहले से ही विवादों में घिरी कोलकाता के लिये आगे का सफ़र बेहद मुश्किल हो जाता।
इरफान के इस आक्रामक मूड के दौरान कैमरा या तो कभी तनाव में सिगरेट के कश भरते शाहरुख खान तक पहुंचता। या ख़ुशी में झूमती प्रीति जिंटा को कैद करता। लेकिन फाइन लेग पर तन्हा तन्हा अपने से बतियाते सौरव तक कैमरा कम ही पहुंच रहा था। कल तक कोलकाता नाइट राइडर्स के कप्तान और आइकन सौरव इस मुकाबले में अभी तक हशिए पर थे। इन्हीं, सौरव गांगुली की ओर मैकुलम ने अपने आखिरी दांव की तरह गेंद उछाली।
सौरव के लिये जैसे ये अपने लम्हे को लपक लेना था। अब ये सौरव नहीं, उनके भीतर बैठा कभी हार ना मानने वाला सौरव गांगुली था। वो सौरव जो टीम में वापसी के लिये अपने चेहेते एडेन गार्डन में अकेला पसीना बहाते बहाते कभी थकता नहीं था। यही सौरव था, जिसने भारतीय क्रिकेट में ऐसी यादगार विदाई ली, जिसे कभी गावस्कर और कपिल जैसे लेजेंड्स भी हासिल नहीं कर पाये। ठीक खेल की स्टेज के बीच से। ऐसा सौरव आईपीएल की स्टेज पर ,वो भी अपने कोलकाता के लिये खेलते हुए यूं ही खारिज नहीं हों सकता। आज गेंद हाथ में लेकर रनअप पर उठे उनके कदम में आप इस बात को महसूस कर सकते थे। सौरव की दूसरी ही गेंद पर इरफान पठान के पुल स्ट्रोक को मुरली कार्तिक ने ठीक डीप मिड विकेट सीमा रेखा पर थाम लिया। सिर्फ दो गेंद बाद ही कट करने के फेर में रवि बोपारा के बल्ले का किनारा लेती गेंद जब विकेट के पीछे मैकुलम के दस्तानों में गयी तो डरबन पर पुराना सौरव लौट चुका था। अपने दायें हाथ को हवा में लहरा असीम ख़ुशी में डूब दौड़ लगाते सौरव से हम रुबरु थे। कुछ इस तरह कि विवादों के बीच से खुद को बाहर निकाल अपने होने और अभी न चुके होने का अहसास करा रहे हों।
यह सौरव अब इस धीमे विकेट पर अपनी लाइन और लेंग्थ में बदलाव कर रहे थे। रफ़्तार से भरमा रहे थे। मुझे बारह साल पहले टोरंटो में फेंके सौरव के स्पेल याद आ रहे थे। सौरव ने पांच मुकाबलों की सीरीज़ में 15 विकेट लिये थे। वो भी सईद अनवर,रमीज राजा,सलीम मलिक और मोइन खान, अफरीदी जैसे बेजोड़ बल्लेबाजी क्रम के खिलाफ। एक मुकाबले में तो उन्होने सिर्फ १5 रन देकर पांच विकेट अपने नाम किये थे।
बेशक आज बारिश से प्रभावित इस मुकाबले में क्रिस गेल की 44 रन की पारी ने कोलकाता को जीत थमा दी। लेकिन इस जीत की जमीं सौरव के फेंके 4 ओवर में ही तैयार हुई। वरना इरफान के आक्रामक तेवर के चलते डकवर्थ लुइस नियम भी कोलकाता के काम नहीं आ पाता। इस ढलती उम्र में सौरव का प्रदर्शन उन्हे इस आईपीएल में सीनियर खिलाडियों की कतार में शामिल कर रहा है, जिन्हे टी-20 की अंतरराष्ट्रीय स्टेज पर खारिज मान लिया गया है। द्रविड़ , सचिन, वार्न,कुंबले,हेडन और अब सौरव यही साबित कर रहे हैं। दिलचस्प है कि ट्वेंटी ट्वेंटी तो दूर द्रविड़ को एक दिवसीय मुकाबलों के लायक भी नहीं समझा जाता। कुंबले,हेडेन,वार्न,और सौरव आज इंटरनेशनल स्टेज से अलविदा ले चुके हैं.लेकिन ये सभी अपने बीते कल की छाप बराबर छोड़ रहे हैं। जैसा सचिन का कहना है की हमें या द्रविड़ को अब कुछ साबित नहीं करना है। हम तो सिर्फ अपने खेल का भरपूर आनंद ले रहे हैं। सचमुच ये सभी आनंद के बीच अपने क्रिकेट को परवान चढ़ा रहे हैं।
लेकिन सौरव अपने बीते कल की तरह आज भी एक लडाई लड़ रहे हैं- क्रिकेट प्रेमियों के जेहन में दर्ज सौरव गांगुली की शख्सियत को बने रखने की लडाई। भारत के महानतम खिलाड़ियों में शुमार सौरव को विवाद की छाया में समेटकर रखने की कोशिश होती है, और हर बार साबित करने की चुनौती सौरव को दी जाती है। ग्रेग चैपल विवाद से वनडे और टेस्ट टीम से बाहर करने और अब कोलकाता नाइट राइडर्स की कप्तानी छीनने तक हर बार सौरव को खुद को साबित करना पड़ा। शायद इसलिए निराश सौरव भावुकता में कह भी पड़ते हैं - हर बार मेरे साथ ही न जाने क्यूं ऐसा होता है।
लेकिन, वो सौरव जो कभी हार नहीं मानता। वो यहाँ भी हार नहीं मानेगे। सौरव यहाँ भी पीछे नहीं हटेंगे । यह उनके हाथ से छूटती 24 गेंदों ने बखूबी साबित किया है। फिर यही तो सौरव गांगुली होने का मतलब है।
इरफान के इस आक्रामक मूड के दौरान कैमरा या तो कभी तनाव में सिगरेट के कश भरते शाहरुख खान तक पहुंचता। या ख़ुशी में झूमती प्रीति जिंटा को कैद करता। लेकिन फाइन लेग पर तन्हा तन्हा अपने से बतियाते सौरव तक कैमरा कम ही पहुंच रहा था। कल तक कोलकाता नाइट राइडर्स के कप्तान और आइकन सौरव इस मुकाबले में अभी तक हशिए पर थे। इन्हीं, सौरव गांगुली की ओर मैकुलम ने अपने आखिरी दांव की तरह गेंद उछाली।
सौरव के लिये जैसे ये अपने लम्हे को लपक लेना था। अब ये सौरव नहीं, उनके भीतर बैठा कभी हार ना मानने वाला सौरव गांगुली था। वो सौरव जो टीम में वापसी के लिये अपने चेहेते एडेन गार्डन में अकेला पसीना बहाते बहाते कभी थकता नहीं था। यही सौरव था, जिसने भारतीय क्रिकेट में ऐसी यादगार विदाई ली, जिसे कभी गावस्कर और कपिल जैसे लेजेंड्स भी हासिल नहीं कर पाये। ठीक खेल की स्टेज के बीच से। ऐसा सौरव आईपीएल की स्टेज पर ,वो भी अपने कोलकाता के लिये खेलते हुए यूं ही खारिज नहीं हों सकता। आज गेंद हाथ में लेकर रनअप पर उठे उनके कदम में आप इस बात को महसूस कर सकते थे। सौरव की दूसरी ही गेंद पर इरफान पठान के पुल स्ट्रोक को मुरली कार्तिक ने ठीक डीप मिड विकेट सीमा रेखा पर थाम लिया। सिर्फ दो गेंद बाद ही कट करने के फेर में रवि बोपारा के बल्ले का किनारा लेती गेंद जब विकेट के पीछे मैकुलम के दस्तानों में गयी तो डरबन पर पुराना सौरव लौट चुका था। अपने दायें हाथ को हवा में लहरा असीम ख़ुशी में डूब दौड़ लगाते सौरव से हम रुबरु थे। कुछ इस तरह कि विवादों के बीच से खुद को बाहर निकाल अपने होने और अभी न चुके होने का अहसास करा रहे हों।
यह सौरव अब इस धीमे विकेट पर अपनी लाइन और लेंग्थ में बदलाव कर रहे थे। रफ़्तार से भरमा रहे थे। मुझे बारह साल पहले टोरंटो में फेंके सौरव के स्पेल याद आ रहे थे। सौरव ने पांच मुकाबलों की सीरीज़ में 15 विकेट लिये थे। वो भी सईद अनवर,रमीज राजा,सलीम मलिक और मोइन खान, अफरीदी जैसे बेजोड़ बल्लेबाजी क्रम के खिलाफ। एक मुकाबले में तो उन्होने सिर्फ १5 रन देकर पांच विकेट अपने नाम किये थे।
बेशक आज बारिश से प्रभावित इस मुकाबले में क्रिस गेल की 44 रन की पारी ने कोलकाता को जीत थमा दी। लेकिन इस जीत की जमीं सौरव के फेंके 4 ओवर में ही तैयार हुई। वरना इरफान के आक्रामक तेवर के चलते डकवर्थ लुइस नियम भी कोलकाता के काम नहीं आ पाता। इस ढलती उम्र में सौरव का प्रदर्शन उन्हे इस आईपीएल में सीनियर खिलाडियों की कतार में शामिल कर रहा है, जिन्हे टी-20 की अंतरराष्ट्रीय स्टेज पर खारिज मान लिया गया है। द्रविड़ , सचिन, वार्न,कुंबले,हेडन और अब सौरव यही साबित कर रहे हैं। दिलचस्प है कि ट्वेंटी ट्वेंटी तो दूर द्रविड़ को एक दिवसीय मुकाबलों के लायक भी नहीं समझा जाता। कुंबले,हेडेन,वार्न,और सौरव आज इंटरनेशनल स्टेज से अलविदा ले चुके हैं.लेकिन ये सभी अपने बीते कल की छाप बराबर छोड़ रहे हैं। जैसा सचिन का कहना है की हमें या द्रविड़ को अब कुछ साबित नहीं करना है। हम तो सिर्फ अपने खेल का भरपूर आनंद ले रहे हैं। सचमुच ये सभी आनंद के बीच अपने क्रिकेट को परवान चढ़ा रहे हैं।
लेकिन सौरव अपने बीते कल की तरह आज भी एक लडाई लड़ रहे हैं- क्रिकेट प्रेमियों के जेहन में दर्ज सौरव गांगुली की शख्सियत को बने रखने की लडाई। भारत के महानतम खिलाड़ियों में शुमार सौरव को विवाद की छाया में समेटकर रखने की कोशिश होती है, और हर बार साबित करने की चुनौती सौरव को दी जाती है। ग्रेग चैपल विवाद से वनडे और टेस्ट टीम से बाहर करने और अब कोलकाता नाइट राइडर्स की कप्तानी छीनने तक हर बार सौरव को खुद को साबित करना पड़ा। शायद इसलिए निराश सौरव भावुकता में कह भी पड़ते हैं - हर बार मेरे साथ ही न जाने क्यूं ऐसा होता है।
लेकिन, वो सौरव जो कभी हार नहीं मानता। वो यहाँ भी हार नहीं मानेगे। सौरव यहाँ भी पीछे नहीं हटेंगे । यह उनके हाथ से छूटती 24 गेंदों ने बखूबी साबित किया है। फिर यही तो सौरव गांगुली होने का मतलब है।
Sunday, April 19, 2009
बुकानन की सोच से आगे के सवाल
डेक्कन चार्जर्स की एक तरफा जीत मे कोरबो, लोडबो, जीतबो की गूँज कहीं खो गयी थी। हार मे लिपटे कोलकत्ता के स्टार खिलाडियों के चेहर स्क्रीन पर उभार ले रहे थे। नए कप्तान ब्रैडम मैकुलम थे। पूर्व कप्तान सौरव गांगुली थे। वेस्टइंडीज के कप्तान क्रिस गेल थे। लेकिन निगाह सिर्फ और सिर्फ कोच जॉन बुकानन को ढूंढ रही थी .उस बुकानन को जो आंकड़ों और विज्ञान के सहारे नियति से जुडे क्रिकेट के खेल से हार को ख़त्म करना चाहते हैं। जिनके लिये ट्वेंटी ट्वेंटी क्रिकेट दो टीमों के बीच मुकाबला नहीं ज़ंग का मैदान है। वो ट्वेंटी ट्वेंटी को चीन के मिलिटरी जीनिउस सून झू की हजारों साल पहले लिखी किताब आर्ट ऑफ़ वार के आइने में देखते हैं। इस सोच के साथ कि ट्वेंटी ट्वेंटी मे हर पल बदलती परिस्थितियों के लिये तेज और आक्रमक होना होगा।
लेकिन यहीं बुकानन और क्रिकेट के बीच विरोधाभास उभार लेता है। अगर ट्वेंटी ट्वेंटी ज़ंग का मैदान है तो आप सिर्फ और सिर्फ जीत के लिये खेलेंगे। अगर सिर्फ जीत के लिये खेलते हैं तो आप एक दबाव के साथ मैदान में पहुंचते हैं। अगर आप पर दबाव है तो आप अपना सहज खेल नहीं खेल सकते। सहज खेल के बिना आप अपना बेहतरीन खेल नहीं पा सकते। और अगर आप अपना बेहतरीन नहीं दे सकते तो जीत की सोच बेमानी है। फिर, बुकानन भारतीय कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी से भी क्रिकेट के इस सूत्र को सीख सकते हैं।
मौजूदा क्रिकेट के सबसे कामयाब कप्तान धोनी के लिये क्रिकेट मुकाबला कभी जिन्दगी और मौत नहीं बनता। वो हार और जीत से आगे जाकर सिर्फ और सिर्फ खेल के हर हिस्से को भरपूर जीते हैं। अपने साथी खिलाडियों में भी यही सोच भरते हैं। उनका मानना है कि आपकी कामयाबी के सही मायने तभी हैं, जब आपका साथी उस में अपनी ख़ुशी तलाशे। यह इस टीम गेम का वो सूत्र है, जो आज इंडियन ड्रेसिंग रुम को बेजोड़ बनाता है। सचिन से लेकर सहवाग तक सभी का मानना है कि मौजूदा भारतीय ड्रेसिंग रुम अब तक का सर्वश्रेष्ठ है। यही इस भारतीय टीम की जीत का सबसे बड़ा आधार है।लेकिन बुकानन की जीत और जीत के इर्द गिर्द बनती सोच में ये सब पहलू हाशिए पर हैं।
बुकानन जब मल्टीपल कैप्टन की थ्योरी सामने लाते हुए हुए सौरव को किनारे करते हैं तो वो अकेले सौरव के हौसले को नहीं तोड़ते। वो सौरव में अपना नायक तलाशने वाली टीम के हर नौजवान खिलाड़ी के भरोसे पर चोट करते हैं। यहीं टीम में जीत की साझा कोशिश करने की सोच पीछे छूट जाती है। आप एक विनिंग कॉम्बिनेशन मैदान पर नहीं उतारते। आप 11 खिलाड़ियों को मैदान में उतारते हैं। रविवार को कोलकाता की टीम के खिलाड़ी मैदान पर बल्लेबाजी करते हुए भी अकेले थे। फील्डिंग करते हुए भी। बल्लेबाजी में कोई एक नहीं था,जो इस उछाल और मूवमेंट के विकेट पर सचिन और द्रविड़ की तरह एक एंड को संभाले रखता। ब्रैड हॉग को छोड़ कोई भी बल्लेबाज 20 गेंदें भी नहीं खेल पाया। इस पहलू पर टीम में कोई बड़ी रणनीति की दरकार नहीं थी। एक सहज क्रिकेट सोच की जरुरत थी। द्रविड और वार्न के शब्दों में कहें तो इस विकेट पर जीत के लिए जरुरी था सही स्ट्रोक्स सिलेक्शन। लेकिन,कोलकाता के ज्यादातर बल्लेबाजों को जितनी देर डगआउट से विकेट तक पहुंचने में नहीं लगी, उससे कम समय वो विकेट पर टिक सके। यानी दो वर्ल्ड कप और 25 टेस्ट सीरिज जिताने वाले बुकानन की रणनीति यहां खारिज हो गई। इतना ही नहीं, मल्टीप्ल कप्तान का विचार भी तार तार होता दिख रहा था। कप्तान के साथ सीनियर खिलाड़ियों की बातचीत का कोई सिरा आप फील्डिंग के दौरान पकड़ नहीं सकते थे।
वैसे, ये सिर्फ एक मुकाबल है, इससे बहुत नतीजे निकलना सही नहीं है। क्रिकेट के इस ताबड़ तोड़ फॉर्मेट मे हर दूसरे दिन नतीजा बदलता है। पिछले आईपीएल में ही कोलकाता ने बेहतरीन शुरुआत की थी ,लेकिन वो सेमीफाइनल के आस पास नहीं पहुँच सकी। दूसरी और राजस्थान रॉयल्स पहले मुकाबले में दिल्ली से बुरी तरह हारी , लेकिन खिताब तक जा पहुंची। यानी कोलकत्ता और बुकानन के पास आगे की राह तलाशने के लिये प्रेरणा की कमी नहीं है। हां, इतना जरुर है कि यह सीख उन्हे वार्न से मिल रही है, जिन्होंने उनके कामयाब सफ़र में लगातार निशाने पर रखा। लेकिन उस वक़्त भी वार्न का कहना था कि खेल जितना सहज रहे उतना ही बेहतर होता है। आज भी वार्न यही कहते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि मंच बदल गया है। नहीं बदला है तो क्रिकेट।
बुकानन ने बेशक अपनी सोच से ८ साल तक कामयाबियों की दास्ताँ लिखी हो, लेकिन यह भी एक सच है. इससे मुंह नहीं मोड़ सकते। वरना ऐसा ना हो कि जीत और जीत की कोशिश में उनकी कामयाबी की तस्वीर बदरंग हो जाये। २००५ मे एशेज में मिली हार के बाद एयान चैपल ने दो टूक शब्दों में कहा था -अगर आप बुकानन को कोच कहते हैं तो अपने समय की बर्बादी कर रहे हैं। वो क्रिकेट नहीं सिखा सकते। मेरे ख्याल से बुकानन ऐसी प्रतिक्रिया तो नहीं चाहेंगे।
लेकिन यहीं बुकानन और क्रिकेट के बीच विरोधाभास उभार लेता है। अगर ट्वेंटी ट्वेंटी ज़ंग का मैदान है तो आप सिर्फ और सिर्फ जीत के लिये खेलेंगे। अगर सिर्फ जीत के लिये खेलते हैं तो आप एक दबाव के साथ मैदान में पहुंचते हैं। अगर आप पर दबाव है तो आप अपना सहज खेल नहीं खेल सकते। सहज खेल के बिना आप अपना बेहतरीन खेल नहीं पा सकते। और अगर आप अपना बेहतरीन नहीं दे सकते तो जीत की सोच बेमानी है। फिर, बुकानन भारतीय कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी से भी क्रिकेट के इस सूत्र को सीख सकते हैं।
मौजूदा क्रिकेट के सबसे कामयाब कप्तान धोनी के लिये क्रिकेट मुकाबला कभी जिन्दगी और मौत नहीं बनता। वो हार और जीत से आगे जाकर सिर्फ और सिर्फ खेल के हर हिस्से को भरपूर जीते हैं। अपने साथी खिलाडियों में भी यही सोच भरते हैं। उनका मानना है कि आपकी कामयाबी के सही मायने तभी हैं, जब आपका साथी उस में अपनी ख़ुशी तलाशे। यह इस टीम गेम का वो सूत्र है, जो आज इंडियन ड्रेसिंग रुम को बेजोड़ बनाता है। सचिन से लेकर सहवाग तक सभी का मानना है कि मौजूदा भारतीय ड्रेसिंग रुम अब तक का सर्वश्रेष्ठ है। यही इस भारतीय टीम की जीत का सबसे बड़ा आधार है।लेकिन बुकानन की जीत और जीत के इर्द गिर्द बनती सोच में ये सब पहलू हाशिए पर हैं।
बुकानन जब मल्टीपल कैप्टन की थ्योरी सामने लाते हुए हुए सौरव को किनारे करते हैं तो वो अकेले सौरव के हौसले को नहीं तोड़ते। वो सौरव में अपना नायक तलाशने वाली टीम के हर नौजवान खिलाड़ी के भरोसे पर चोट करते हैं। यहीं टीम में जीत की साझा कोशिश करने की सोच पीछे छूट जाती है। आप एक विनिंग कॉम्बिनेशन मैदान पर नहीं उतारते। आप 11 खिलाड़ियों को मैदान में उतारते हैं। रविवार को कोलकाता की टीम के खिलाड़ी मैदान पर बल्लेबाजी करते हुए भी अकेले थे। फील्डिंग करते हुए भी। बल्लेबाजी में कोई एक नहीं था,जो इस उछाल और मूवमेंट के विकेट पर सचिन और द्रविड़ की तरह एक एंड को संभाले रखता। ब्रैड हॉग को छोड़ कोई भी बल्लेबाज 20 गेंदें भी नहीं खेल पाया। इस पहलू पर टीम में कोई बड़ी रणनीति की दरकार नहीं थी। एक सहज क्रिकेट सोच की जरुरत थी। द्रविड और वार्न के शब्दों में कहें तो इस विकेट पर जीत के लिए जरुरी था सही स्ट्रोक्स सिलेक्शन। लेकिन,कोलकाता के ज्यादातर बल्लेबाजों को जितनी देर डगआउट से विकेट तक पहुंचने में नहीं लगी, उससे कम समय वो विकेट पर टिक सके। यानी दो वर्ल्ड कप और 25 टेस्ट सीरिज जिताने वाले बुकानन की रणनीति यहां खारिज हो गई। इतना ही नहीं, मल्टीप्ल कप्तान का विचार भी तार तार होता दिख रहा था। कप्तान के साथ सीनियर खिलाड़ियों की बातचीत का कोई सिरा आप फील्डिंग के दौरान पकड़ नहीं सकते थे।
वैसे, ये सिर्फ एक मुकाबल है, इससे बहुत नतीजे निकलना सही नहीं है। क्रिकेट के इस ताबड़ तोड़ फॉर्मेट मे हर दूसरे दिन नतीजा बदलता है। पिछले आईपीएल में ही कोलकाता ने बेहतरीन शुरुआत की थी ,लेकिन वो सेमीफाइनल के आस पास नहीं पहुँच सकी। दूसरी और राजस्थान रॉयल्स पहले मुकाबले में दिल्ली से बुरी तरह हारी , लेकिन खिताब तक जा पहुंची। यानी कोलकत्ता और बुकानन के पास आगे की राह तलाशने के लिये प्रेरणा की कमी नहीं है। हां, इतना जरुर है कि यह सीख उन्हे वार्न से मिल रही है, जिन्होंने उनके कामयाब सफ़र में लगातार निशाने पर रखा। लेकिन उस वक़्त भी वार्न का कहना था कि खेल जितना सहज रहे उतना ही बेहतर होता है। आज भी वार्न यही कहते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि मंच बदल गया है। नहीं बदला है तो क्रिकेट।
बुकानन ने बेशक अपनी सोच से ८ साल तक कामयाबियों की दास्ताँ लिखी हो, लेकिन यह भी एक सच है. इससे मुंह नहीं मोड़ सकते। वरना ऐसा ना हो कि जीत और जीत की कोशिश में उनकी कामयाबी की तस्वीर बदरंग हो जाये। २००५ मे एशेज में मिली हार के बाद एयान चैपल ने दो टूक शब्दों में कहा था -अगर आप बुकानन को कोच कहते हैं तो अपने समय की बर्बादी कर रहे हैं। वो क्रिकेट नहीं सिखा सकते। मेरे ख्याल से बुकानन ऐसी प्रतिक्रिया तो नहीं चाहेंगे।
द्रविड़ से विटोरी तक मिलते संदेश को समझिए !
ये क्रिकेट की ही खूबसूरती है। एक खेल अपने भीतर कितने ही फॉर्मेट लेकर आगे बढ़ रहा है। एक छोर पर टेस्ट क्रिकेट है। दूसरे छोर पर टी-ट्वेंटी का फॉर्मेट। लेकिन हर मोर्चे पर क्रिकेट कामयाब है। आखिर क्यों? इसकी एक ही वजह है। आप किसी फॉर्मेट में दाखिल हो जाएँ, इसकी सोच नहीं बदलती। यह मूल रूप से बल्ले और गेंद के संघर्ष में ही सिमटा है। यहाँ बल्लेबाज के लिये जितनी गुंजाइश है, उतनी ही गेंदबाज के लिए। आईपीएल के पहले दो दिन इस बात को पुख्ता करते हैं। ये फटाफट क्रिकेट सिर्फ बल्लेबाजों का खेल है, महज 58 रन पर सिमटी राजस्थान रॉयल्स इस सोच को तोड़ती है . ये सिर्फ तेज गेंदबाजों का खेल है, हरभजन, वार्न और कुंबले के बाद आज विटोरी इस एकतरफा सोच पर विराम लगाते हैं।
मुझ जैसे क्रिकेट की पारंपरिक सोच में जीने वाले के लिये डेनियल वेटोरी का स्पेल कभी न भुलने वाला अनुभव है। रविवार को विटोरी की महज 18 गेंदों के बीच पंजाब किंग्स इलेवन की तूफानी रफ़्तार लेती पारी अचानक थम गयी। विटोरी का यही स्पेल था, जिसने बारिश से छोटे और छोटे होते इस मुकाबले में दिल्ली की जीत की जमीं तैयार की। उनकी इस गेंदबाजी के बाद मुझे अचानक बरसों पहले बिशन सिंह बेदी की कही बात याद आ गयी- विटोरी एक कम्प्लीट स्पिनर है। वो हर तरह की क्रिकेट मे कामयाब होगा। बेदी के कहने का मतलब यही था कि अगर आप बेहतर हैं तो आप हर मोर्चे पर कामयाब रहेंगे। चाहे वो टेस्ट हो या फिर फटाफट क्रिकेट। मौजूदा क्रिकेट मे सबसे बेहतरीन लेफ्ट आर्म स्पिनर विटोरी ने इसे फिर बखूबी साबित किया। वो भी सिर्फ और सिर्फ 18 गेंदों में।
फिर कल इसी पहलू पर वार्न और कुंबले भी खरे उतरे थे।। इनका प्रदर्शन विटोरी से एक कदम आगे ठहरता है। लेग स्पिनर होने के नाते इन्हें अपनी गेंदबाजी की लय पाने के लिये 5-6 ओवर चाहिए। .लेकिन ट्वेंटी ट्वेंटी के इस फॉर्मेट मे तो महज 4 ओवर में ही गेंदबाजी का मौका ख़त्म हो जाता है। फिर वार्न तो करीब एक साल के बाद किसी बड़े मुकाबले मे गेंदबाजी संभाल रहे थे। लेकिन सिर्फ पांचवी गेंद पर ही वो विकेट तक पहुँच रहे थे। लेगस्टंप पर पड़ी गेंद को जब तक विराट कोहली अपनी क्रीज छोड़ टर्न करने की कोशिश करते उनका मिडिल स्टंप गिर चुका था। ये शेन वार्न थे, लेग स्पिन के जाद्दू से रूबरू कराते हुए। ठीक इसी मुकाबले मे 5 महीने पहले अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट से अलग हुए कुंबले थे। सिर्फ 19 गेंद मे 5 रन देकर 5 विकेट लेते हुए। मेरे जेहन में करीब 15 साल पहले कोलकत्ता के एडेन गार्डन पर वेस्ट इंडीज के खिलाफ हीरो कप मे 12 रन पर 6 विकेट लेते कुंबले की यादें जेहन में ताजा हो गयी। यह कुंबले के शिखर पर जाने की शुरुआत थी।
कुंबले और वार्ने जैसी परिपूर्णता से द्रविड़ और तेंदुलकर ने भी रूबरू कराया। भारत के मुकाबले मुश्किल दक्षिण अफ्रीकी विकेट पर वो आखिर तक एक छोर को संभाले ही नहीं खड़े थे। ये दोनों अपनी बेजोड़ तकनीक के दायरे को विस्तार देते हुए अपने स्ट्रोक्स को अंजाम दे रहे थे। मनप्रीत गोनी की गेंद पर कवर के ऊपर से जमाए बेहतरीन बाउंड्री में आप इसे महसूस कर सकते थे। वार्न की गेंद को आखिरी मौके पर थर्डमैन की ओर दिशा देते द्रविड़ के बल्ले में आप इस गूंज को महसूस कर सकते थे।
ये सभी नौजवान खिलाडियों को सन्देश दे रहे थे। बेशक, हम इस फटाफट क्रिकेट के अंतरराष्ट्रीय मंच पर नहीं हैं। लेकिन इस्सकी बारीकियाँ हम ज्यादा करीब से पकड़ सकते हैं। कुंबले से लेकर वार्न तक, द्रविड़ से लेकर सचिन तक अपने खेल से यही ऐलान कर रहे थे - सिर्फ नौजवानों का खेल नहीं है टी-20 । अनुभव की जगह यहाँ भी मौजूद है। बशर्ते आप खेल को परिपूर्णता में साकार करते हों। उसे भरपूर जीते हों। यही इस जेंटलमैन गेम की खूबसूरती है, जो हमें इसके हर लम्हे में साथ लेकर चलती है। फिर चाहे टेस्ट क्रिकेट हो या फिर आईपीएल की ये स्टेज हो।
मुझ जैसे क्रिकेट की पारंपरिक सोच में जीने वाले के लिये डेनियल वेटोरी का स्पेल कभी न भुलने वाला अनुभव है। रविवार को विटोरी की महज 18 गेंदों के बीच पंजाब किंग्स इलेवन की तूफानी रफ़्तार लेती पारी अचानक थम गयी। विटोरी का यही स्पेल था, जिसने बारिश से छोटे और छोटे होते इस मुकाबले में दिल्ली की जीत की जमीं तैयार की। उनकी इस गेंदबाजी के बाद मुझे अचानक बरसों पहले बिशन सिंह बेदी की कही बात याद आ गयी- विटोरी एक कम्प्लीट स्पिनर है। वो हर तरह की क्रिकेट मे कामयाब होगा। बेदी के कहने का मतलब यही था कि अगर आप बेहतर हैं तो आप हर मोर्चे पर कामयाब रहेंगे। चाहे वो टेस्ट हो या फिर फटाफट क्रिकेट। मौजूदा क्रिकेट मे सबसे बेहतरीन लेफ्ट आर्म स्पिनर विटोरी ने इसे फिर बखूबी साबित किया। वो भी सिर्फ और सिर्फ 18 गेंदों में।
फिर कल इसी पहलू पर वार्न और कुंबले भी खरे उतरे थे।। इनका प्रदर्शन विटोरी से एक कदम आगे ठहरता है। लेग स्पिनर होने के नाते इन्हें अपनी गेंदबाजी की लय पाने के लिये 5-6 ओवर चाहिए। .लेकिन ट्वेंटी ट्वेंटी के इस फॉर्मेट मे तो महज 4 ओवर में ही गेंदबाजी का मौका ख़त्म हो जाता है। फिर वार्न तो करीब एक साल के बाद किसी बड़े मुकाबले मे गेंदबाजी संभाल रहे थे। लेकिन सिर्फ पांचवी गेंद पर ही वो विकेट तक पहुँच रहे थे। लेगस्टंप पर पड़ी गेंद को जब तक विराट कोहली अपनी क्रीज छोड़ टर्न करने की कोशिश करते उनका मिडिल स्टंप गिर चुका था। ये शेन वार्न थे, लेग स्पिन के जाद्दू से रूबरू कराते हुए। ठीक इसी मुकाबले मे 5 महीने पहले अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट से अलग हुए कुंबले थे। सिर्फ 19 गेंद मे 5 रन देकर 5 विकेट लेते हुए। मेरे जेहन में करीब 15 साल पहले कोलकत्ता के एडेन गार्डन पर वेस्ट इंडीज के खिलाफ हीरो कप मे 12 रन पर 6 विकेट लेते कुंबले की यादें जेहन में ताजा हो गयी। यह कुंबले के शिखर पर जाने की शुरुआत थी।
कुंबले और वार्ने जैसी परिपूर्णता से द्रविड़ और तेंदुलकर ने भी रूबरू कराया। भारत के मुकाबले मुश्किल दक्षिण अफ्रीकी विकेट पर वो आखिर तक एक छोर को संभाले ही नहीं खड़े थे। ये दोनों अपनी बेजोड़ तकनीक के दायरे को विस्तार देते हुए अपने स्ट्रोक्स को अंजाम दे रहे थे। मनप्रीत गोनी की गेंद पर कवर के ऊपर से जमाए बेहतरीन बाउंड्री में आप इसे महसूस कर सकते थे। वार्न की गेंद को आखिरी मौके पर थर्डमैन की ओर दिशा देते द्रविड़ के बल्ले में आप इस गूंज को महसूस कर सकते थे।
ये सभी नौजवान खिलाडियों को सन्देश दे रहे थे। बेशक, हम इस फटाफट क्रिकेट के अंतरराष्ट्रीय मंच पर नहीं हैं। लेकिन इस्सकी बारीकियाँ हम ज्यादा करीब से पकड़ सकते हैं। कुंबले से लेकर वार्न तक, द्रविड़ से लेकर सचिन तक अपने खेल से यही ऐलान कर रहे थे - सिर्फ नौजवानों का खेल नहीं है टी-20 । अनुभव की जगह यहाँ भी मौजूद है। बशर्ते आप खेल को परिपूर्णता में साकार करते हों। उसे भरपूर जीते हों। यही इस जेंटलमैन गेम की खूबसूरती है, जो हमें इसके हर लम्हे में साथ लेकर चलती है। फिर चाहे टेस्ट क्रिकेट हो या फिर आईपीएल की ये स्टेज हो।
'कॉरपोरेट' आईपीएल खेल रहा है लोगों की भावनाओं से !
ये मुकाबला था तो दो टीमों के बीच ही। चेन्नई सुपर किंग्स और मुंबई इंडियंस के बीच। लेकिन मेरी निगाह महेन्द्र सिंह धोनी और सचिन तेंदुलकर के आस पास ठहर गयी थीं। पहली ही गेंद पर स्ट्राइकर एंड पर धोनी के तेज थ्रो से बचते तेंदुलकर थे। मनप्रीत गोनी की गेंद को कवर सीमा रेखा के बाहर भेजते तेंदुलकर से परेशान अपनी फील्डिंग रणनीति मे बदलाव करते धोनी थे। पूरे बीस ओवर तक विकेट पर मैजूद सचिन थे। आखरी ओवेरों मे अपनी टीम को जीत की और लेजाने की नाकाम कोशिश मे जुटे धोनी. टेलीविजन के स्क्रीन पर साकार होते हर मुमकिन फ्रेम में धोनी और तेंदुलकर को पकड़ने की कोशिश जारी थी।
दरअसल, मैं न तो महेन्द्र सिंह धोनी को हारते देखना चाहता था, न ही सचिन तेंदुलकर को। लेकिन, यह मुमकिन था नहीं। खेल मे ये संभव भी नहीं है। एक टीम को हारना, एक को जीतना था।आईपीएल के पहले मैच मे सचिन की जीत हुई, धोनी की टीम हार गयी। लेकिन, मुकाबले के बाद मे आदतन हार की वजहों को नहीं टटोल रहा था। जेहन उस सच को छूना चाहता था, जहाँ इन दोनों की जीत की सोच एक साथ शक्ल ले रही थी। इसकी वजह साफ थी। एक ओर भारतीय क्रिकेट मे कामयाबियों की सुनहरी दास्तां लिखते धोनी थे। दूसरी ओर धोनी में एक बेहतरीन कप्तान को पढ़ने वाले सचिन तेंदुलकर थे। ये महज दो खिलाड़ी नहीं थे। ये दो महानायक थे । इन दो महानायकों के बीच से एक को चुनने के लिए मन तैयार ही नहीं था। हम इन दोनों को जीत की साझा कोशिश करते देखते रहे हैं। लेकिन आज यह ठीक आमने सामने थे।
दिक्कत ठीक यहीं से शुरू हो रही थी। हम इन महानायकों की छवि को भारतीय क्रिकेट टीम के दायरे के बाहर जाकर पढ़ने के लिये मानसिक तौर पर तैयार ही नहीं हैं। इतना जरुर हो सकता है कि हम झारखण्ड मे धोनी की छवि को ढूँढ लें। मुंबई मे सचिन की। यह एक छोटी पहचान है, जहाँ से आप बड़ी राष्ट्रीय पहचान में दाखिल होते हैं .इसलिए हम रणजी ट्रॉफी मे झारखण्ड और मुंबई को आमने सामने स्वीकार कर लेते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे काउंटी क्रिकेट में ससेक्स या केंट। यहाँ हम इन की छोटी छवियों के बीच शहर और राज्य के अहसास को भी छूते चले जाते हैं। आईपीएल ने भी ऐसी वफादारी बटोरने की कोशिश की। लेकिन एक कॉरपोरेट कंपनी की सोच पर खड़ी इस इमारत मे यह अहसास कहीं नीचे दफ़न हो गया। वरना क्या वजह थी कि एक साल मे आपने अपने आइकन खिलाडियों को दरकिनार कर दिया। इन आइकन खिलाड़ियों को शहर की पहचान के तौर पर टीम में शामिल किया गया था। लेकिन आज कोलकत्ता ने सौरव, बंगलोर ने द्रविड़ और हैदराबाद ने लक्ष्मण को हाशिए पर डाल दिया। आईपएल की शहर की पहचान को टीम से जोड़ने के सच की कलाई खुल गयी। सिर्फ टीम के नाम भर रख देने की आप खेल को उसके चाहने वालों सेi इतनी आसानी से नहीं जोड़ सकते।
ठीक यहीं आकर एक आम क्रिकेट चहेते की सोच आईपीएल की टकरा जाती है। आईपीएल कंपनी की हैसियत से खिलाडी को अपनी टीम का हिस्सा बनाता है। यहाँ कंपनी से खिलाड़ी की पहचान जुड़ी है न की खिलाडी से कंपनी की। यह ठीक मौजूदा दौर मे किसी व्यक्ति के लिये देश की पहचान के खो जाने जैसा है। अगर आप किसी बड़ी कारपोरेट कंपनी मे काम करते हैं तो आप उस कंपनी से पहचाने जाते हैं। यह कंपनी इस ग्लोबल विलेज में तब्दील होती दुनिया में कंपनी किसी भी देश मे हो सकती है। यहाँ देश नहीं वो कंपनी पहले है। आईपीएल भी इसी सोच के साथ खिलाडियों को टीम मे जगह दे रहा है। देश की अवधारणा यहाँ खारिज हो रही है। खिलाडियों ने बाज़ार के इस सच को कबूल कर लिया है। वो ठेठ पेशेवर अंदाज में मैदान पर उतरते हैं। अपना सब कुछ दांव पर लगाकर खेलते हैं। ये जानते हुए कि जरा सी चूक उन्हें बाहर का रास्ता दिखा सकती है। इसलिए आज वो भारत के लिये खेलते हैं। ऑस्ट्रेलिया के लिये खेलते हैं, लेकिन अगले ही दिन एक साथ नाइट राइडर्स,डेक्कन चार्जर्स और चेन्नई सुपरकिंग्स के लिये मैदान मे उतरते हैं। सिर्फ एक ऐसे कॉम्बिनेशन मे तब्दील होने के लिये, जो उनकी जीत के सम्भावनाओं को उसके सर्वश्रेष्ठ तक ले जाए। कंपनी को ज्यादा से ज्यादा मुनाफा दिलाए। लेकिन एक आम दर्शक अभी इस सच को स्वीकार नहीं कर पाया है। हो सकता है कि वो इस सच की तरफ जानबूझकर कर आंख मूंदे हुए है। इसलिए वो सौरव की कप्तानी छीनने से व्यथित होता है। सचिन की हार और धोनी की जीत मे खुद को दोराहे पर खड़ा पाता है। खुद को छला और घायल महसूस करता है। लेकिन यही आईपीएल है.यही आज का सच है।
दरअसल, मैं न तो महेन्द्र सिंह धोनी को हारते देखना चाहता था, न ही सचिन तेंदुलकर को। लेकिन, यह मुमकिन था नहीं। खेल मे ये संभव भी नहीं है। एक टीम को हारना, एक को जीतना था।आईपीएल के पहले मैच मे सचिन की जीत हुई, धोनी की टीम हार गयी। लेकिन, मुकाबले के बाद मे आदतन हार की वजहों को नहीं टटोल रहा था। जेहन उस सच को छूना चाहता था, जहाँ इन दोनों की जीत की सोच एक साथ शक्ल ले रही थी। इसकी वजह साफ थी। एक ओर भारतीय क्रिकेट मे कामयाबियों की सुनहरी दास्तां लिखते धोनी थे। दूसरी ओर धोनी में एक बेहतरीन कप्तान को पढ़ने वाले सचिन तेंदुलकर थे। ये महज दो खिलाड़ी नहीं थे। ये दो महानायक थे । इन दो महानायकों के बीच से एक को चुनने के लिए मन तैयार ही नहीं था। हम इन दोनों को जीत की साझा कोशिश करते देखते रहे हैं। लेकिन आज यह ठीक आमने सामने थे।
दिक्कत ठीक यहीं से शुरू हो रही थी। हम इन महानायकों की छवि को भारतीय क्रिकेट टीम के दायरे के बाहर जाकर पढ़ने के लिये मानसिक तौर पर तैयार ही नहीं हैं। इतना जरुर हो सकता है कि हम झारखण्ड मे धोनी की छवि को ढूँढ लें। मुंबई मे सचिन की। यह एक छोटी पहचान है, जहाँ से आप बड़ी राष्ट्रीय पहचान में दाखिल होते हैं .इसलिए हम रणजी ट्रॉफी मे झारखण्ड और मुंबई को आमने सामने स्वीकार कर लेते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे काउंटी क्रिकेट में ससेक्स या केंट। यहाँ हम इन की छोटी छवियों के बीच शहर और राज्य के अहसास को भी छूते चले जाते हैं। आईपीएल ने भी ऐसी वफादारी बटोरने की कोशिश की। लेकिन एक कॉरपोरेट कंपनी की सोच पर खड़ी इस इमारत मे यह अहसास कहीं नीचे दफ़न हो गया। वरना क्या वजह थी कि एक साल मे आपने अपने आइकन खिलाडियों को दरकिनार कर दिया। इन आइकन खिलाड़ियों को शहर की पहचान के तौर पर टीम में शामिल किया गया था। लेकिन आज कोलकत्ता ने सौरव, बंगलोर ने द्रविड़ और हैदराबाद ने लक्ष्मण को हाशिए पर डाल दिया। आईपएल की शहर की पहचान को टीम से जोड़ने के सच की कलाई खुल गयी। सिर्फ टीम के नाम भर रख देने की आप खेल को उसके चाहने वालों सेi इतनी आसानी से नहीं जोड़ सकते।
ठीक यहीं आकर एक आम क्रिकेट चहेते की सोच आईपीएल की टकरा जाती है। आईपीएल कंपनी की हैसियत से खिलाडी को अपनी टीम का हिस्सा बनाता है। यहाँ कंपनी से खिलाड़ी की पहचान जुड़ी है न की खिलाडी से कंपनी की। यह ठीक मौजूदा दौर मे किसी व्यक्ति के लिये देश की पहचान के खो जाने जैसा है। अगर आप किसी बड़ी कारपोरेट कंपनी मे काम करते हैं तो आप उस कंपनी से पहचाने जाते हैं। यह कंपनी इस ग्लोबल विलेज में तब्दील होती दुनिया में कंपनी किसी भी देश मे हो सकती है। यहाँ देश नहीं वो कंपनी पहले है। आईपीएल भी इसी सोच के साथ खिलाडियों को टीम मे जगह दे रहा है। देश की अवधारणा यहाँ खारिज हो रही है। खिलाडियों ने बाज़ार के इस सच को कबूल कर लिया है। वो ठेठ पेशेवर अंदाज में मैदान पर उतरते हैं। अपना सब कुछ दांव पर लगाकर खेलते हैं। ये जानते हुए कि जरा सी चूक उन्हें बाहर का रास्ता दिखा सकती है। इसलिए आज वो भारत के लिये खेलते हैं। ऑस्ट्रेलिया के लिये खेलते हैं, लेकिन अगले ही दिन एक साथ नाइट राइडर्स,डेक्कन चार्जर्स और चेन्नई सुपरकिंग्स के लिये मैदान मे उतरते हैं। सिर्फ एक ऐसे कॉम्बिनेशन मे तब्दील होने के लिये, जो उनकी जीत के सम्भावनाओं को उसके सर्वश्रेष्ठ तक ले जाए। कंपनी को ज्यादा से ज्यादा मुनाफा दिलाए। लेकिन एक आम दर्शक अभी इस सच को स्वीकार नहीं कर पाया है। हो सकता है कि वो इस सच की तरफ जानबूझकर कर आंख मूंदे हुए है। इसलिए वो सौरव की कप्तानी छीनने से व्यथित होता है। सचिन की हार और धोनी की जीत मे खुद को दोराहे पर खड़ा पाता है। खुद को छला और घायल महसूस करता है। लेकिन यही आईपीएल है.यही आज का सच है।
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Friday, April 17, 2009
अनलिमिटेड मनोरंजन के पैकेज में तब्दील एक ‘रिएलिटी शो’
न तो ये दक्षिण अफ्रीकी टीमें थी, न ही इन टीमों ने दुनिया फतेह की थी। लेकिन,इसके बावजूद 35 लाख की आबादी वाले केपटाउन ने इन टीमों की अगुआई में पलके बिछा दी। खुली बसों में सवार जयसूर्या और जहीर खान की मुंबई इंडियंस थी, नाचते इठलाते श्रीसंत और युवराज की किंग्स इलेवन थी। सौरव और शाहरुख की नाइट राइडर्स थी। ये इंडियन प्रीमियर लीग की आठ टीमों का कारवां था। अपनी जमी से हजारों मीलों दूर सड़क के दोनों ओर खड़े केपटाउन के सैकड़ों खेल प्रेमियों से सवाल करता हुआ-आप किसकी तरफ हैं।बेशक मजबूरी में ही सही रग्बी और फुटबॉल के दीवाने दक्षिण अफ्रीका में आईपीएल के विस्तार की ये एक नयी कोशिश है। पिछले साल आईपीएल ने अपने घर में वफादारी बटोरने की ऐसी ही कोशिश की थी। कोलकाता से चेन्नई, दिल्ली से मुंबई, महानगरों के बीच क्रिकेट की वफादारी को समेटा जा रहा था। अब केपटाउन की सड़कों और गलियों से गुजरते ऐसे काफिलों और कार्निवल के जरिए दक्षिण अफ्रीकी शहरों में भी ये कवायद शुरु हो गई है। चीयरलीडर्स के थिरकते कदमों ,गीत संगीत की सुर लहरियों और ग्लैमर के चकाचौंध में इस मुहिम को परवान चढ़ाया जाएगा। लेकिन , इन सबके बीच क्रिकेट अपनी जगह ठहरकर रह जाएगा। और उसका शो यानी आईपीएल आगे और आगे निकल जाएगा।
दरअसल, आईपीएल का शो फिल्म की अवधारणा के बरक्स उसी की तर्ज पर एक रिएलिटी शो रचने की कोशिश है ताकि टीवी के जरिए उसे भुनाया जा सके। रिएलिटी शो में कहने को एक असली कहानी होती है। लेकिन,फिल्म से होड़ लेने के चक्कर में उसने नाटकीय उतार चढ़ाव भरपूर होते हैं। आखिर क्या होता है रिएलिटी शो में ? टीवी के पर्दे पर उतरती इस रिएलिटी में पहले से लिखी किसी स्क्रिप्ट की जरुरत नहीं होती। न ही किसी बड़े स्टार की। यहां एक या एक से अधिक आदमियों की असली कहानी क्लाइमेक्स की ओर रुख करती है। इसी के चलते 60 के दशक में सात साल की उम्र के बच्चों के इंटरव्यू पर बने कार्यक्रम सेवन अप ने रातों रात उन्हें स्टार में तब्दील कर दिया। पिछले पांच साल में अमेरिकन आइडल ने टेलीविजन स्क्रीन पर कब्जा जमा लिया। आलम ये है कि आज इंग्लैंड से लेकर अमेरिका में टेलीविजन पर रिएलिटी शो ही नहीं चलते। रिएलिटी चैनल उभार ले चुके हैं। रिएलिटी टीवी मौजूदा दौर की एक बड़ी हकीकत है। न्यूज चैनल का भी रिएलिटी के इर्दगिर्द सिमट जाना इसका गवाह है। इसका एक सीधा गणित है। जितनी ज्यादा जीवंत तस्वीरें ,उतने ही ज्यादा दर्शक।
आईपीएल भी क्रिकेट का ऐसा ही रिएलिटी शो है। इसके आयोजकों ने बेहद चतुराई से इसे एक रिएलिटी शो में बदल दिया है। मजेदार बात ये है कि टी-20 के बेहतरीन फॉर्मेट में उसे कुछ करना ही नहीं पड़ा है। तीन घंटे के इस खेल में एक की जीत तो दूसरी की हार तय है। यानी सीधी सीधे एक रिएलिटी मौजूद है। इस ठोस भरोसे के साथ ही कि शो खत्म होने के साथ ही आप एक टीम को जीतते हुए देखेंगे तो दूसरे का हारना तय है। इस हार और जीत के बीच नाटकीय उतार चढ़ाव तो होंगे ही। इतना ही नहीं ,इसमें ज्यादा से ज्यादा नाटकीय पहलू भरने के लिए फॉर्मेट को तीन घंटे के एक पैकेज में बदल दिया गया है। यहां क्रिकेट को शिद्दत से जीने वाले के लिए जितनी गुंजाइश है, उतनी ही संभावनाएं क्रिकेट की ओर मुड़ते नए दर्शकों के लिए भी मौजूद है। मुकाबले के मोड़ पर रणनीति और उसकी सोच से रुबरु कराने के लिए कमेंटेटर मैदान पर फील्डर से लेकर बल्लेबाज तक से सीधी बात करता है। ये एक ऐसी दुनिया है,जहां क्रिकेट का चहेता नहीं पहुंच पाया था। दूसरी ओर,नौजवान और क्रिकेट से नए जुड़ने वाले वर्ग के लिए सीमारेखा से बाहर चीयरलीडर्स से लेकर गीत संगीत और ग्लैमर सभी मौजूद है। ये आज के दौर के प्रतीक शॉपिंग मॉल में बने मल्टीप्लेक्स की तरह है। यहां आप सिर्फ फिल्म नहीं देखते। यहां खाने पीने से लेकर खरीदारी तक के कई विकल्प मौजूद हैं।
चाहें तो कह लें आईपीएल के शो में सीधे सीधे ये किसी फिल्म का सजा सजाया एक सैट है। इस सैट को एक पर्दा चाहिए। टेलीविजन इसे ये पर्दा या मंच मुहैया कराता है। एक बेहतरीन रिएलिटी शो टेलीविजन स्क्रीन से आपके घर के ड्राइंगरुम में दाखिल हो जाता है। ये ऐलान करते हुए कि इस स्क्रीन के सहारे ये आईपीएल कहीं भी हो सकता है। इसे सिर्फ एक ढांचा चाहिए, जिसके इर्द गिर्द क्रिकेट को खड़ा किया जा सके। इसीलिए, भारत से लेकर दक्षिण अफ्रीका तक , इंग्लैंड से लेकर आस्ट्रेलिया तक, आईपीएल देश की हदों के पार जाकर रिएलिटी शो और मनोरंजन का एक बेहतरीन पैकेज बनकर सामने आ रहा है।
सिनेमा का शो तो खैर एक मनोरंजन है। फिर चाहे इस मनोरंजन के स्वस्थ या अस्वस्थ होने के बारे में हजारों सवाल क्यों न उठें लेकिन खेल सिर्फ मनोरंजन ही नहीं है। मनोरंजन में कुछ भी दांव पर नहीं होता। आप फिल्म देखते हैं तो घटनाओं का दबाव आप पर हावी नहीं होता लेकिन खेल में एक पहचान जुड़ी होती है। कभी मुहल्ले की, कभी राज्य की तो कभी देश की पहचान। इसी के इर्दगिर्द खिलाड़ी को खड़ा कर दर्शक इससे जुड़ता है। चाहे वो मैदान में पहुंचे या स्क्रीन के सामने बैठे, वो किसी एक टीम या एक खिलाड़ी के प्रति झुका रहता है। इसीलिए अपनी पसंदीदा टीम की हार में दुखी होता है। तो जीत में खुश हो जाता है। हार की वजहों का पोस्टमार्टम करता है तो जीत में अपने हीरो तलाशता है। खेल में सचमुच की घटना घटित होती है। फिर,खेल आंकड़ों में भी दर्ज होता है। इतिहास में भी तब्दील होता है। हार से उपजे दुख और जीत से बहते सुख में लिपटकर सामने आता है। बावजूद इसके आईपीएल ने रिएलिटी शो के फॉर्मेट को भुनाकर क्रिकेट को ऐसे मनोरंजन में बदल दिया है,जहां बहुत ज्यादा दिमाग लगाने की जरुरत नहीं है। ये एक अनलिमिटेड मनोरंजन है। एक पूरे का पूरा पैकेज।
दरअसल, आईपीएल का शो फिल्म की अवधारणा के बरक्स उसी की तर्ज पर एक रिएलिटी शो रचने की कोशिश है ताकि टीवी के जरिए उसे भुनाया जा सके। रिएलिटी शो में कहने को एक असली कहानी होती है। लेकिन,फिल्म से होड़ लेने के चक्कर में उसने नाटकीय उतार चढ़ाव भरपूर होते हैं। आखिर क्या होता है रिएलिटी शो में ? टीवी के पर्दे पर उतरती इस रिएलिटी में पहले से लिखी किसी स्क्रिप्ट की जरुरत नहीं होती। न ही किसी बड़े स्टार की। यहां एक या एक से अधिक आदमियों की असली कहानी क्लाइमेक्स की ओर रुख करती है। इसी के चलते 60 के दशक में सात साल की उम्र के बच्चों के इंटरव्यू पर बने कार्यक्रम सेवन अप ने रातों रात उन्हें स्टार में तब्दील कर दिया। पिछले पांच साल में अमेरिकन आइडल ने टेलीविजन स्क्रीन पर कब्जा जमा लिया। आलम ये है कि आज इंग्लैंड से लेकर अमेरिका में टेलीविजन पर रिएलिटी शो ही नहीं चलते। रिएलिटी चैनल उभार ले चुके हैं। रिएलिटी टीवी मौजूदा दौर की एक बड़ी हकीकत है। न्यूज चैनल का भी रिएलिटी के इर्दगिर्द सिमट जाना इसका गवाह है। इसका एक सीधा गणित है। जितनी ज्यादा जीवंत तस्वीरें ,उतने ही ज्यादा दर्शक।
आईपीएल भी क्रिकेट का ऐसा ही रिएलिटी शो है। इसके आयोजकों ने बेहद चतुराई से इसे एक रिएलिटी शो में बदल दिया है। मजेदार बात ये है कि टी-20 के बेहतरीन फॉर्मेट में उसे कुछ करना ही नहीं पड़ा है। तीन घंटे के इस खेल में एक की जीत तो दूसरी की हार तय है। यानी सीधी सीधे एक रिएलिटी मौजूद है। इस ठोस भरोसे के साथ ही कि शो खत्म होने के साथ ही आप एक टीम को जीतते हुए देखेंगे तो दूसरे का हारना तय है। इस हार और जीत के बीच नाटकीय उतार चढ़ाव तो होंगे ही। इतना ही नहीं ,इसमें ज्यादा से ज्यादा नाटकीय पहलू भरने के लिए फॉर्मेट को तीन घंटे के एक पैकेज में बदल दिया गया है। यहां क्रिकेट को शिद्दत से जीने वाले के लिए जितनी गुंजाइश है, उतनी ही संभावनाएं क्रिकेट की ओर मुड़ते नए दर्शकों के लिए भी मौजूद है। मुकाबले के मोड़ पर रणनीति और उसकी सोच से रुबरु कराने के लिए कमेंटेटर मैदान पर फील्डर से लेकर बल्लेबाज तक से सीधी बात करता है। ये एक ऐसी दुनिया है,जहां क्रिकेट का चहेता नहीं पहुंच पाया था। दूसरी ओर,नौजवान और क्रिकेट से नए जुड़ने वाले वर्ग के लिए सीमारेखा से बाहर चीयरलीडर्स से लेकर गीत संगीत और ग्लैमर सभी मौजूद है। ये आज के दौर के प्रतीक शॉपिंग मॉल में बने मल्टीप्लेक्स की तरह है। यहां आप सिर्फ फिल्म नहीं देखते। यहां खाने पीने से लेकर खरीदारी तक के कई विकल्प मौजूद हैं।
चाहें तो कह लें आईपीएल के शो में सीधे सीधे ये किसी फिल्म का सजा सजाया एक सैट है। इस सैट को एक पर्दा चाहिए। टेलीविजन इसे ये पर्दा या मंच मुहैया कराता है। एक बेहतरीन रिएलिटी शो टेलीविजन स्क्रीन से आपके घर के ड्राइंगरुम में दाखिल हो जाता है। ये ऐलान करते हुए कि इस स्क्रीन के सहारे ये आईपीएल कहीं भी हो सकता है। इसे सिर्फ एक ढांचा चाहिए, जिसके इर्द गिर्द क्रिकेट को खड़ा किया जा सके। इसीलिए, भारत से लेकर दक्षिण अफ्रीका तक , इंग्लैंड से लेकर आस्ट्रेलिया तक, आईपीएल देश की हदों के पार जाकर रिएलिटी शो और मनोरंजन का एक बेहतरीन पैकेज बनकर सामने आ रहा है।
सिनेमा का शो तो खैर एक मनोरंजन है। फिर चाहे इस मनोरंजन के स्वस्थ या अस्वस्थ होने के बारे में हजारों सवाल क्यों न उठें लेकिन खेल सिर्फ मनोरंजन ही नहीं है। मनोरंजन में कुछ भी दांव पर नहीं होता। आप फिल्म देखते हैं तो घटनाओं का दबाव आप पर हावी नहीं होता लेकिन खेल में एक पहचान जुड़ी होती है। कभी मुहल्ले की, कभी राज्य की तो कभी देश की पहचान। इसी के इर्दगिर्द खिलाड़ी को खड़ा कर दर्शक इससे जुड़ता है। चाहे वो मैदान में पहुंचे या स्क्रीन के सामने बैठे, वो किसी एक टीम या एक खिलाड़ी के प्रति झुका रहता है। इसीलिए अपनी पसंदीदा टीम की हार में दुखी होता है। तो जीत में खुश हो जाता है। हार की वजहों का पोस्टमार्टम करता है तो जीत में अपने हीरो तलाशता है। खेल में सचमुच की घटना घटित होती है। फिर,खेल आंकड़ों में भी दर्ज होता है। इतिहास में भी तब्दील होता है। हार से उपजे दुख और जीत से बहते सुख में लिपटकर सामने आता है। बावजूद इसके आईपीएल ने रिएलिटी शो के फॉर्मेट को भुनाकर क्रिकेट को ऐसे मनोरंजन में बदल दिया है,जहां बहुत ज्यादा दिमाग लगाने की जरुरत नहीं है। ये एक अनलिमिटेड मनोरंजन है। एक पूरे का पूरा पैकेज।
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Wednesday, April 1, 2009
यहां सौरव के सामने खारिज हो जाते हैं बुकानन
ये सौरव गागंली का अपना कोलकाता था। ये सौरव गांगुली का अपना इडेन गार्डन था। ‘कोरबो लोड़बो जीतबो’ की गूंज के बीच ये उनकी अपनी टीम कोलकाता नाइट राइडर्स थी। लेकिन, इन सबके बीच सौरव गांगुली अकेले छूट गए थे, बिल्कुल अकेले। उन्हें इस कदर अकेला कर दिया था जॉन बुकानन ने। पूर्व ऑस्ट्रेलियाई कोच और अब कोलकाता नाइट राइडर्स के कोच बुकानन ने उन्हें अपनों के बीच अकेला कर दिया था। अपने इस एक बयान के साथ कि अब सौरव नाइट राइडर्स के अकेले कप्तान नहीं होंगे। नाइट राइडर्स की कप्तानी की कैप अब खिलाडि़यों के बीच झूलती रहेगी। इस दलील के साथ कि ये ट्वेंटी-20 क्रिकेट की दरकार है।
बेशक, नाइट राइडर्स के मालिक शाहरूख खान ने सौरव को मुख्य कप्तान कहते हुए उनके जख्मों पर मरहम लगाने की कोशिश की है। लेकिन, शाहरूख की ये कोशिशें भी बुकानन और सौरव के बीच फैलते फासले को थाम नहीं सकेंगी।
फिर, ये दोनों आज नाइट राइडर्स टीम में दो छोर पर नहीं खड़े हैं। मेरे लिए क्रिकेट के आइने में ये दो जीवन दृष्टियों को उभारते सौरव और बुकानन हैं। यहां एक ओर सौरव हैं। क्रिकेट की अनिश्चितता, जीवट, संघर्ष और टेलेंट के प्रतीकों को समेटे हुए। सौरव की क्रिकेट में आप शून्य पर आउट हो सकते हैं, लेकिन अगली बार आप दोहरा शतक भी जमा सकते हें। आप एक दिन एक गेंद पर छक्का जमा सकते हैं, तो अगली दस गेंद तक हर एक रन के लिए तरस सकते हें। ये है क्रिकेट की अनिश्चितता और उतार-चढ़ाव के बीच आगे बढ़ते सौरव गांगुली। दूसरी ओर जॉन बुकानन हैं। खेल को आंकड़ों में पढ़ते बुकानन। ये आंकड़े जो अलग-अलग स्थितियों में जीत की संभावना बताते हैं। बुकानन इन्हीं संभावनाओं को कप्तानी के मुद्दे तक ले जाते हैं। किन सर्वश्रेष्ठ स्थितियों में जीत तक पहुंचेंगे। इसी से नतीजा निकालते हैं कि कप्तानी की अदला-बदली करेंगे, तो जीतने की संभावना ज्यादा होगी। लेकिन, इसी सोच के बीच बुकानन क्रिकेट टीम के कोच से पहले किसी कारपोरेट कंपनी के मैनेजर की दृष्टि को समेटे ज्यादा दिखते हैं। अगर कंपनी है, तो उसे लाभ दिखाना है। लाभ चाहिए तो, उसे बेहतरीन लोग रखने हैं। इन बेहतरीन लोगों के प्रदर्शन को नापना है, तो इन आंकड़ों के बीच जीत तक ले जाने की उनकी कोशिशों को परखना होगा।
ये आज के जमाने के ज्योतिषी हैं। खेल को सीधे-सीधे आंकड़ों में, अंकों में तब्दील करते हुए। लेकिन, खेल महज अंक नहीं है। ये एक सजीव अनुभव है। ये सिर्फ आंकड़े में बदल गया, तो आप इस सजीव अनुभव से हाथ मलते रह जाएंगे। आंकड़ों के दो छोर पर हार और जीत दिखाई देती है। बल्लेबाज का शतक, गेंदबाज के विकेट दिखते हैं। लेकिन, आप उसमें खिलाड़ी सौरव या सचिन, स्टीव वॉ या ब्रायन लारा की शख्सियत को नहीं पढ़ सकते। इनकी शख्सियत को पढ़ने के लिए आपको आंकड़ों के इस मकड़जाल से ऊपर उठकर इसे महसूस करना होता है।
फिर बुकानन जिस कारपोरेट सोच के साथ क्रिकेट में दाखिल होते हैं, वहां कंपनी में सर्वश्रेष्ठ कर्मचारी को शामिल करने की तरह सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी को टीम में जगह दी जाती है। इसके सहारे वे टीम को शिखर तक ले जाते हैं। लेकिन, लगातार शिखर पर रहना किसी के लिए मुमकिन नहीं है। प्रकृति का नियम भी यही कहता है। ऑस्ट्रेलियाई कोच के नाते बुकानन ने भी इस कड़वे सच को महसूस किया है। बुकानन ने ऑस्ट्रेलियाई टीम को कामयाबी की बुलंदियों पर पहुंचाया। इस दौरान उनके पास एक से एक बेहतरीन खिलाड़ी मौजूद था। स्टीव वॉ जैसा जुझारू कप्तान था, तो शेन वार्न जैसा स्पिन का जादूगर। बेमिसाल ग्लेन मैक्ग्रॉ थे, तो शास्त्रीय संगीत की तरह बल्ले से रन बटोरने वाले मार्क वॉ। ये इन बेहतरीन खिलाडि़यों का सर्वश्रेष्ठ दौर था। यही बुकानन की ऑस्ट्रेलियाई टीम को टेस्ट और वनडे के शिखर पर ले जाता दौर था।
लेकिन, ये संयोग ही है कि बुकानन के शिखर की ओर बढ़ते इस कारवां को थामा, तो इन्हीं सौरव गागुली ने। सौरव ने ऑस्ट्रेलिया के लगातार 16 टेस्ट जीतने के सिलसिले को इसी कोलकाता के इडन गार्डन पर रोक दिया था। इस सौरव के पास ऑस्ट्रेलिया की तरह दुनिया के सबसे बेहतरीन खिलाड़ी नहीं थे। लेकिन, उन्होंने अपने खिलाडियों में जीत का जुनून भर दिया। बुकानन की विश्वविजयी टीम को चित कर दिया।
बुकानन के जहन में हो सकता है कि कोलकाता का ये लम्हा एक टीस पैदा करता हो। बुकानन इस टीस की चुभन को स्वीकार नहीं करेंगे। सौरव भी एक खिलाड़ी और पूर्व कपतान के नाते इससे बच कर निकल सकते हैं। लेकिन, कोलकाता का दर्शक या क्रिकेट को बेहद करीब से टटोलने वाला शख्स इस आधे-अधूरे सच को छूने की कोशिश जरूर करता है।
दरअसल, जिंदगी हो या फिर क्रिकेट, आप सर्वश्रेष्ठ को गणित के आइने में नहीं पढ़ सकते। आप इसे गणित के दायरे में समेट भी नहीं सकते। क्रिकेट में अगर जिंदगी के अक्स झलकते हैं, तो इसीलिए कि यहां आप अचानक चमत्कार से रूबरू होते हैं। आप लगातार आंकड़ों के आधार पर भविष्यवाणी करेंगे, तो चमत्कार गायब हो जाएगा। बुकानन की यही दिक्कत है। वो आंकड़ों, उसके आधार पर आकलन और संभावनाओं के सहारे क्रिकेट में चमत्कार को कम से कम करना चाहते हैं। लेकिन, वो शायद भूल जाते हैं कि चमत्कार नहीं होगा, तो क्रिकेट अपनी पहचान ही गवां देगा। हम करिश्मों से महरूम हो जाएंगे। इसी इडेन गार्डन पर लक्ष्मण की पारी को बुकानन कभी भूला पाएंगे ? इस एक अकेली पारी ने हार की दहलीज पर खड़ी सौरव की टीम को क्रिकेट इतिहास की सबसे बड़ी जीत तक पहुंचाया था। ये वीवीएस लक्ष्मण का करिश्मा था। इस करिश्मे का कोई तोड़ बुकानन के पास नहीं था।
दरअसल, सांचे में ढली सोच के पास करिश्माओ का तोड़ नहीं होता। फिर बुकानन को मिली टीम ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट के मजबूत और बेहद व्यवस्थित सिस्टम की देन थी। यहां बुकानन ने अपनी गढ़ी सोच, अपनी रणनीति और समीकरणों के मुताबिक सर्वश्रेष्ठ खिलाडि़यों का समूह चुना। यहां जीत का जज्बा भरने से ज्यादा जोर इन बेहतरीन खिलाडि़यों के सर्वश्रेष्ठ खेल के आधार पर जीत तक पहुंचने का था। इसमें वो बेहद कामयाब रहे। आईपीएल में भी उन्हें बेहतरीन खिलाडि़यों का समूह जरूर मिला, लेकिन यहां इस समूह के इर्द-गिर्द जीत की रणनीति और समीकरण बनाने थे। यहां समूह पहले था और टीम रणनीति और समीकरण बाद में।
शायद यही वजह है कि बुकानन की ऑस्ट्रेलियाई टीम शिखर चुनती है, लेकिन उन्हीं की कोलकाता नाइट राइडर्स आईपीएल में नाकाम रहती है। ठीक यहीं, जीत के जज्बों से लबालब शेन वार्न की अनजान चेहरों से बनी राजस्थान रॉयल्स खिताब तक पहुंचती है। बुकानन की नाइट राइडर्स उनके समीकरणों में उलझ कर पीछे छूट जाती है। बुकानन अपना गणित तो ठीक बिठाते हैं, लेकिन प्रतिद्वंद्वी के गणित के सामने खारिज हो जाते हैं।
साफ है, बुकानन सिर्फ और सिर्फ सर्वश्रेष्ठ खेल खेलना चाहते हैं। अनिश्चितताओं और नियति के चोली-दामन से लिपटे इस खेल में सर्वश्रेष्ठ को आंकड़ों के गणित के सहारे पकड़ना चाहते हैं। लेकिन, फिर वही बड़ी बात, कि जिंदगी हो या क्रिकेट, यहां सर्वश्रेष्ठ को आप महज गणित से नहीं पकड़ सकते। अगर ऐसा होता तो कभी केन्या, वेस्टइंडीज को शिकस्त नहीं दे पाता। जिम्बाब्वे, ऑस्ट्रेलिया को उसी के खेल में मात नहीं देता। कभी पाकिस्मान या भारत को बांग्लादेश से हार का मुंह नहीं देखना पड़ता। इसीलिए, सौरव गांगुली के सामने ये बुकानन खारिज हो जाते हैं।
बेशक, नाइट राइडर्स के मालिक शाहरूख खान ने सौरव को मुख्य कप्तान कहते हुए उनके जख्मों पर मरहम लगाने की कोशिश की है। लेकिन, शाहरूख की ये कोशिशें भी बुकानन और सौरव के बीच फैलते फासले को थाम नहीं सकेंगी।
फिर, ये दोनों आज नाइट राइडर्स टीम में दो छोर पर नहीं खड़े हैं। मेरे लिए क्रिकेट के आइने में ये दो जीवन दृष्टियों को उभारते सौरव और बुकानन हैं। यहां एक ओर सौरव हैं। क्रिकेट की अनिश्चितता, जीवट, संघर्ष और टेलेंट के प्रतीकों को समेटे हुए। सौरव की क्रिकेट में आप शून्य पर आउट हो सकते हैं, लेकिन अगली बार आप दोहरा शतक भी जमा सकते हें। आप एक दिन एक गेंद पर छक्का जमा सकते हैं, तो अगली दस गेंद तक हर एक रन के लिए तरस सकते हें। ये है क्रिकेट की अनिश्चितता और उतार-चढ़ाव के बीच आगे बढ़ते सौरव गांगुली। दूसरी ओर जॉन बुकानन हैं। खेल को आंकड़ों में पढ़ते बुकानन। ये आंकड़े जो अलग-अलग स्थितियों में जीत की संभावना बताते हैं। बुकानन इन्हीं संभावनाओं को कप्तानी के मुद्दे तक ले जाते हैं। किन सर्वश्रेष्ठ स्थितियों में जीत तक पहुंचेंगे। इसी से नतीजा निकालते हैं कि कप्तानी की अदला-बदली करेंगे, तो जीतने की संभावना ज्यादा होगी। लेकिन, इसी सोच के बीच बुकानन क्रिकेट टीम के कोच से पहले किसी कारपोरेट कंपनी के मैनेजर की दृष्टि को समेटे ज्यादा दिखते हैं। अगर कंपनी है, तो उसे लाभ दिखाना है। लाभ चाहिए तो, उसे बेहतरीन लोग रखने हैं। इन बेहतरीन लोगों के प्रदर्शन को नापना है, तो इन आंकड़ों के बीच जीत तक ले जाने की उनकी कोशिशों को परखना होगा।
ये आज के जमाने के ज्योतिषी हैं। खेल को सीधे-सीधे आंकड़ों में, अंकों में तब्दील करते हुए। लेकिन, खेल महज अंक नहीं है। ये एक सजीव अनुभव है। ये सिर्फ आंकड़े में बदल गया, तो आप इस सजीव अनुभव से हाथ मलते रह जाएंगे। आंकड़ों के दो छोर पर हार और जीत दिखाई देती है। बल्लेबाज का शतक, गेंदबाज के विकेट दिखते हैं। लेकिन, आप उसमें खिलाड़ी सौरव या सचिन, स्टीव वॉ या ब्रायन लारा की शख्सियत को नहीं पढ़ सकते। इनकी शख्सियत को पढ़ने के लिए आपको आंकड़ों के इस मकड़जाल से ऊपर उठकर इसे महसूस करना होता है।
फिर बुकानन जिस कारपोरेट सोच के साथ क्रिकेट में दाखिल होते हैं, वहां कंपनी में सर्वश्रेष्ठ कर्मचारी को शामिल करने की तरह सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी को टीम में जगह दी जाती है। इसके सहारे वे टीम को शिखर तक ले जाते हैं। लेकिन, लगातार शिखर पर रहना किसी के लिए मुमकिन नहीं है। प्रकृति का नियम भी यही कहता है। ऑस्ट्रेलियाई कोच के नाते बुकानन ने भी इस कड़वे सच को महसूस किया है। बुकानन ने ऑस्ट्रेलियाई टीम को कामयाबी की बुलंदियों पर पहुंचाया। इस दौरान उनके पास एक से एक बेहतरीन खिलाड़ी मौजूद था। स्टीव वॉ जैसा जुझारू कप्तान था, तो शेन वार्न जैसा स्पिन का जादूगर। बेमिसाल ग्लेन मैक्ग्रॉ थे, तो शास्त्रीय संगीत की तरह बल्ले से रन बटोरने वाले मार्क वॉ। ये इन बेहतरीन खिलाडि़यों का सर्वश्रेष्ठ दौर था। यही बुकानन की ऑस्ट्रेलियाई टीम को टेस्ट और वनडे के शिखर पर ले जाता दौर था।
लेकिन, ये संयोग ही है कि बुकानन के शिखर की ओर बढ़ते इस कारवां को थामा, तो इन्हीं सौरव गागुली ने। सौरव ने ऑस्ट्रेलिया के लगातार 16 टेस्ट जीतने के सिलसिले को इसी कोलकाता के इडन गार्डन पर रोक दिया था। इस सौरव के पास ऑस्ट्रेलिया की तरह दुनिया के सबसे बेहतरीन खिलाड़ी नहीं थे। लेकिन, उन्होंने अपने खिलाडियों में जीत का जुनून भर दिया। बुकानन की विश्वविजयी टीम को चित कर दिया।
बुकानन के जहन में हो सकता है कि कोलकाता का ये लम्हा एक टीस पैदा करता हो। बुकानन इस टीस की चुभन को स्वीकार नहीं करेंगे। सौरव भी एक खिलाड़ी और पूर्व कपतान के नाते इससे बच कर निकल सकते हैं। लेकिन, कोलकाता का दर्शक या क्रिकेट को बेहद करीब से टटोलने वाला शख्स इस आधे-अधूरे सच को छूने की कोशिश जरूर करता है।
दरअसल, जिंदगी हो या फिर क्रिकेट, आप सर्वश्रेष्ठ को गणित के आइने में नहीं पढ़ सकते। आप इसे गणित के दायरे में समेट भी नहीं सकते। क्रिकेट में अगर जिंदगी के अक्स झलकते हैं, तो इसीलिए कि यहां आप अचानक चमत्कार से रूबरू होते हैं। आप लगातार आंकड़ों के आधार पर भविष्यवाणी करेंगे, तो चमत्कार गायब हो जाएगा। बुकानन की यही दिक्कत है। वो आंकड़ों, उसके आधार पर आकलन और संभावनाओं के सहारे क्रिकेट में चमत्कार को कम से कम करना चाहते हैं। लेकिन, वो शायद भूल जाते हैं कि चमत्कार नहीं होगा, तो क्रिकेट अपनी पहचान ही गवां देगा। हम करिश्मों से महरूम हो जाएंगे। इसी इडेन गार्डन पर लक्ष्मण की पारी को बुकानन कभी भूला पाएंगे ? इस एक अकेली पारी ने हार की दहलीज पर खड़ी सौरव की टीम को क्रिकेट इतिहास की सबसे बड़ी जीत तक पहुंचाया था। ये वीवीएस लक्ष्मण का करिश्मा था। इस करिश्मे का कोई तोड़ बुकानन के पास नहीं था।
दरअसल, सांचे में ढली सोच के पास करिश्माओ का तोड़ नहीं होता। फिर बुकानन को मिली टीम ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट के मजबूत और बेहद व्यवस्थित सिस्टम की देन थी। यहां बुकानन ने अपनी गढ़ी सोच, अपनी रणनीति और समीकरणों के मुताबिक सर्वश्रेष्ठ खिलाडि़यों का समूह चुना। यहां जीत का जज्बा भरने से ज्यादा जोर इन बेहतरीन खिलाडि़यों के सर्वश्रेष्ठ खेल के आधार पर जीत तक पहुंचने का था। इसमें वो बेहद कामयाब रहे। आईपीएल में भी उन्हें बेहतरीन खिलाडि़यों का समूह जरूर मिला, लेकिन यहां इस समूह के इर्द-गिर्द जीत की रणनीति और समीकरण बनाने थे। यहां समूह पहले था और टीम रणनीति और समीकरण बाद में।
शायद यही वजह है कि बुकानन की ऑस्ट्रेलियाई टीम शिखर चुनती है, लेकिन उन्हीं की कोलकाता नाइट राइडर्स आईपीएल में नाकाम रहती है। ठीक यहीं, जीत के जज्बों से लबालब शेन वार्न की अनजान चेहरों से बनी राजस्थान रॉयल्स खिताब तक पहुंचती है। बुकानन की नाइट राइडर्स उनके समीकरणों में उलझ कर पीछे छूट जाती है। बुकानन अपना गणित तो ठीक बिठाते हैं, लेकिन प्रतिद्वंद्वी के गणित के सामने खारिज हो जाते हैं।
साफ है, बुकानन सिर्फ और सिर्फ सर्वश्रेष्ठ खेल खेलना चाहते हैं। अनिश्चितताओं और नियति के चोली-दामन से लिपटे इस खेल में सर्वश्रेष्ठ को आंकड़ों के गणित के सहारे पकड़ना चाहते हैं। लेकिन, फिर वही बड़ी बात, कि जिंदगी हो या क्रिकेट, यहां सर्वश्रेष्ठ को आप महज गणित से नहीं पकड़ सकते। अगर ऐसा होता तो कभी केन्या, वेस्टइंडीज को शिकस्त नहीं दे पाता। जिम्बाब्वे, ऑस्ट्रेलिया को उसी के खेल में मात नहीं देता। कभी पाकिस्मान या भारत को बांग्लादेश से हार का मुंह नहीं देखना पड़ता। इसीलिए, सौरव गांगुली के सामने ये बुकानन खारिज हो जाते हैं।
Monday, March 30, 2009
नया इतिहास लिखने के लिए ही बने हैं धोनी
कभी गेंद पर पूरी ताकत से प्रहार कर उसे सीमा रेखा से बाहर भेजते हुए। कभी गेंद को क्षेत्ररक्षण के बीच मौजूद दरार में धकेल तेजी से बाइस गज का फासला तय करते हुए। कभी विकेटकीपर की सामान्य कद काठी से जुदा अपने गठीले बदन से गेंद की दिशा में छलांग लगाते हुए।कभी विकेटकीपिंग के लिए पंजों के बल स्टास लेने से ठीक पहले मैदान पर सजायी फिल्डिंग का मुआयना करते हुए। कभी अखबार के पन्नों पर छपे विज्ञापनों के जरिये ख़बरों से पहले निगाहों में धंसते हुए। कभी टेलीविजन स्क्रीन पर शाहरुख खान के कदमों से कदम मिलाते हुए। तो कभी तमिल सुपरस्टार रजनीकांत के अवतार में खुद को ढालते हुए। क्रिकेट की सीमारेखा के आर-पार महेंद्र सिंह धोनी की ये छवियां एक आम भारतीय की जेहन में कभी ना कभी दस्तक जरूर दे जाती हैं। उत्तर में उत्तराखंड की पृष्ठभूमि से लेकर पूर्व में झारखंड का परिवेश और दक्षिण में चेन्नई सुपरकिंग की कप्तानी की राह में धोनी, राज्य, भाषा और समुदाय की लकीरों को मिटाते हुए, एक अरब उम्मीदों को परवान चढ़ाते हमसे रू-ब-रू होते हैं।
लेकिन धोनी को लेकर मेरी सोच इन स्थापित छवियों से आगे जाकर २०-२० वर्ल्ड कप को जीतते और आईपीएल में हाथ से छिटके टाइटल के बाद उभार लेते एक अलहदा धोनी के इर्द-गिर्द सिमट जाती है। २०-२० वर्ल्ड कप में मिली खिताबी जीत के साथ ही भारतीय टीम जश्न में सराबोर है, लेकिन निगाहें भावनाओं के सैलाब से परे विकेट की ओर बढ़ते धोनी पर ठहर जाती हैं। आईपीएल के खिताबी मुकाबले की आखिरी गेंद पर राजस्थान रॉयल्स को एक रन बनाने से रोकने की चुनौती है। उस निर्णायक लम्हे में विकेटकीपर पार्थिव पटेल के दस्तानों से गेंद छिटकी और साथ ही चेन्नई सुपरकिंग्स के हाथ से खिताब। नवी मुंबई का डी वाई पाटिल स्टेडियम शेन वॉर्न की टीम के साथ जश्न में डूब गया। लेकिन अगले ही पल हार को पीछे छोड़ धोनी साथियों के कंधों को थपथपाते हैं। चेन्नई सुपरकिंग्स के सभी खिलाड़ी एक दूसरे के कंधों पर हाथ डाले घेरे की शक्ल ले लेते हैं। जीत के जश्न के बीच शिकस्त खाई धोनी की इस टीम से आप निगाहें हटा नहीं सकते।
दरअसल ये दो तस्वीरें टीम इंडिया के कप्तान धोनी की सोच का आइना हैं। ये हार और जीत के पार खड़े धोनी के करीब ले जाती छवियां हैं। इन छवियों के बीच क्रिकेट जिंदगी और मौत नहीं हैं। ये जश्न और मातम नहीं है। ये सिर्फ एक खेल है और यहां एक की जीत और दूसरे की हार तय है। आपको पूरी तरह अपने खेल में डूब कर जीत तक पहुंचने की हर मुमकिन कोशिश करनी है।
धोनी सोच के इस धरातल पर पूर्व क्रिकेटर और कोच ग्रेग चैपल की थ्योरी को मैदान पर साकार करते दिखाई देते हैं। चैपल का मानना है कि आपको नतीजों से बेपरवाह होकर सिर्फ और सिर्फ अपने खेल को डूब कर जीना चाहिये। इसकी प्रक्रिया का आनंद लेना चाहिये। धोनी पूरी शिद्दत से इसी कोशिश में जुटे रहते हैं।
इसलिए जब हार और जीत एक साथ दस्तक देने लगें तो धोनी का खेल परवान चढ़ता है। बल्लेबाजी के मोर्चे पर वो टीम को मंजिल तक पहुंचाए बिना नहीं लौटते। मैच के मोड़ के मुताबिक वो अपनी बल्लेबाजी को ढालते हैं। अगर टीम को बड़े स्ट्रोक्स की दरकार है तो वो इसमें कतई वक़्त नहीं गंवाते। वनडे ही नहीं टेस्ट में इस धोनी से रू-ब-रू हो सकते हैं। मिसाल के लिए धोनी ऑस्ट्रेलिया के ख़िलाफ मोहाली टेस्ट में ८वें नंबर पर बल्लेबाजी करते हुए ९२ रन की ताबड़तोड़ पारी खेलते हैं। ८ चौकों और ४ छक्कों से सजी इस पारी के सहारे सौरव गांगुली के साथ सातवें विकेट की शतकीय साझेदारी पूरी करते हैं। अपनी टीम को एक शुरुआती एडवांटेज दिलाते हैं । यही धोनी अगली पारी में तीसरे नंबर पर मोर्चा संभालते हैं। ८४ गेंदों पर ५५ रन की ठोस पारी से पॉन्टिंग की विश्व विजयी टीम को बैकफुट पर ला खड़ा करते हैं।
धोनी की इन्हीं कोशिशों का नतीजा है कि टेस्ट में उनकी ३३ रन की कुल औसत कप्तान धोनी के बल्ले से ५५ में तब्दील हो जाती है। वनडे में ४४ की औसत को वो कप्तानी में 57 तक खींच ले जाते हैं। इस मोड़ पर धोनी सचिन तेंदुलकर और राहुल द्रविड़ से आगे जा निकलते हैं। भारत में इन दोनों महानायकों ने अपनी बल्लेबाजी की लय को वापस पाने के लिए कप्तानी से किनारा कर लिया। लेकिन धोनी ने कप्तानी की चुनौती को स्वीकारते हुए अपनी बल्लेबाजी में नए आयाम जोड़ लिये हैं।
शायद धोनी ने टीम को कामयाबी की दहलीज तक लाने के सूत्र रांची में स्थानीय टीमों के लिए खेलते हुए पकड़े होंगे। टीम की जीत सीधे-सीधे धोनी के प्रदर्शन से जुड़ी रही होगी। धोनी इसी सोच को आज अंतर्राष्ट्रीय मंच पर विस्तार देते दिखाई देते हैं। लेकिन अपनी कामयाबी को वो अपने हर एक साथी के साथ साझा करना चाहते उनका मानना है कि “मेरी कामयाबी के मायने तभी हैं जब साथी खिलाड़ी इसमें अपनी खुशी तलाशें। हम सब एक दूसरे की कामयाबी में खुशी तलाशें”। ये बड़ी सोच धोनी की बहुत बड़ी ताकत है। गेंदबाजी के रनअप पर ईशांत शर्मा के कदम जरा से लड़खड़ाए नहीं कि जहीर खान उनके पास पहुंच जाते हैं। युवराज को उनकी लय में लौटाने के लिए सचिन आगे बढ़ कर मदद करते हैं। आपसी तालमेल का ही ये आइना है कि तेंदुलकर ने हैमिल्टन की ऐतिहासिक जीत के बाद दोहराया - इस भारतीय टीम के ड्रेसिंग रूम का माहौल बेहतरीन है। हम खेल का आनंद ले रहे हैं और परिवार की तरह एक दूसरे के साथ जुड़े हैं।
ये उस देश की क्रिकेट टीम का ड्रेसिंग रूम है जिसमें अहम के टकराव की ढेरों कहानियां हैं। इतिहास के पन्ने विजय मर्चेंट-विजय हजारे, विजय हजारे-लाला अमरनाथ, मंसूर अली खान पटौदी-चंदू बोर्डे, सुनील गावस्कर-कपिल देव, अजहरूद्दीन-नवजोत सिंह सिद्धू और सौरव गांगुली-ग्रेग चैपल के टकराव के किस्सों से भरे हैं। मगर मौजूदा टीम अलग है। दिलचस्प है कि हैमिल्टन टेस्ट जीतने वाली टीम में मुनाफ पटेल और ईशांत शर्मा को छोड़ दें तो बाकी आठ खिलाड़ियों का करियर धोनी से पहले शुरू हुआ।
धोनी की इस बेमिसाल कामयाबी के सूत्र टटोलते पूर्व भारतीय कप्तान और कोच अजीत वाडेकर का मानना है कि धोनी अपने सीनियर्स के अहम पर कभी चोट नहीं करते। खुद धोनी अपने बयान से इसे एक नया विस्तार देते हैं। हैमिल्टन की जीत के बाद धोनी ने कहा कि “उम्मीद करनी चाहिये की हम ये सीरीज जीत जाएं, ये हमारी ओर से सचिन और राहुल को एक सौगात होगी”। इस सम्मान और श्रद्धा के बाद कौन ऐसे कप्तान को अपना सर्वश्रेष्ठ नहीं देना चाहेगा। यही वजह है कि बीस साल बाद भी सचिन तेंदुलकर अपनी जीनियस की छाप छोड़ रहे हैं। वीरेंद्र सहवाग बेहतरीन फॉर्म में दिख रहे हैं। जहीर खान में वसीम अकरम की आक्रामकता और पैनेपन की झलक नज़र आ रही है। ईशांत शर्मा और गौतम गंभीर जैसे युवा खिलाड़ी अपने कप्तान की उम्मीदों पर खरा उतरने में कोई कसर नहीं रहे ।
इन कामयाबियों और सोच के बीच आगे बढ़ते धोनी को क्रिकेट आलोचक टाइगर पटौदी के बराबर खड़ा कर रहे हैं। साठ के दशक की शुरुआत में कप्तानी संभालने वाले पटौदी ने भारतीय क्रिकेट को ड्रॉ की मानसिकता से उबारते हुए जीत की नई सोच से भर डाला था। क्रिकेट इतिहासकार मिहिर बोस के मुताबिक पटौदी से पहले भारतीय क्रिकेट में ड्रॉ को एक संभावित नतीजे की तरह देखा जाता था। टाइगर पटौदी ने जीतना सिखाया ना सिर्फ घर में बल्कि घर के बाहर भी।
पटौदी ने टीम में जीतने का भरोसा जगाया तो सौरव गांगुली ने जीत की भूख पैदा की। धोनी गांगुली की इसी विरासत को और आगे बढ़ाते दिखते हैं। गांगुली ने इस दशक की शुरुआत में ऑस्ट्रेलिया को हराते हुए विदेश में जीत की नई इबारतें लिखनी शुरू कीं। न्यूजीलैंड एक अपवाद की तरह छूट गया। धोनी ने ३३ साल बाद यहां टेस्ट जीत कर इस खालीपन को भी भर दिया है।
कामयाबियों के शिखर से गुजरते धोनी की बस एक ही छवि हमारे जेहन में हावी होती जा रही है। वो छवि है कप्तान महेंद्र सिंह धोनी की। कप्तानी, जो उन्हें टीम इंडिया के एक नाजुक दौर में सौंपी गई। लेकिन धोनी ने खुद को उस भूमिका में ऐसे ढाल लिया जैसे वो नेतृत्व करने और एक नया इतिहास लिखने के लिए ही बने हों।
लेकिन धोनी को लेकर मेरी सोच इन स्थापित छवियों से आगे जाकर २०-२० वर्ल्ड कप को जीतते और आईपीएल में हाथ से छिटके टाइटल के बाद उभार लेते एक अलहदा धोनी के इर्द-गिर्द सिमट जाती है। २०-२० वर्ल्ड कप में मिली खिताबी जीत के साथ ही भारतीय टीम जश्न में सराबोर है, लेकिन निगाहें भावनाओं के सैलाब से परे विकेट की ओर बढ़ते धोनी पर ठहर जाती हैं। आईपीएल के खिताबी मुकाबले की आखिरी गेंद पर राजस्थान रॉयल्स को एक रन बनाने से रोकने की चुनौती है। उस निर्णायक लम्हे में विकेटकीपर पार्थिव पटेल के दस्तानों से गेंद छिटकी और साथ ही चेन्नई सुपरकिंग्स के हाथ से खिताब। नवी मुंबई का डी वाई पाटिल स्टेडियम शेन वॉर्न की टीम के साथ जश्न में डूब गया। लेकिन अगले ही पल हार को पीछे छोड़ धोनी साथियों के कंधों को थपथपाते हैं। चेन्नई सुपरकिंग्स के सभी खिलाड़ी एक दूसरे के कंधों पर हाथ डाले घेरे की शक्ल ले लेते हैं। जीत के जश्न के बीच शिकस्त खाई धोनी की इस टीम से आप निगाहें हटा नहीं सकते।
दरअसल ये दो तस्वीरें टीम इंडिया के कप्तान धोनी की सोच का आइना हैं। ये हार और जीत के पार खड़े धोनी के करीब ले जाती छवियां हैं। इन छवियों के बीच क्रिकेट जिंदगी और मौत नहीं हैं। ये जश्न और मातम नहीं है। ये सिर्फ एक खेल है और यहां एक की जीत और दूसरे की हार तय है। आपको पूरी तरह अपने खेल में डूब कर जीत तक पहुंचने की हर मुमकिन कोशिश करनी है।
धोनी सोच के इस धरातल पर पूर्व क्रिकेटर और कोच ग्रेग चैपल की थ्योरी को मैदान पर साकार करते दिखाई देते हैं। चैपल का मानना है कि आपको नतीजों से बेपरवाह होकर सिर्फ और सिर्फ अपने खेल को डूब कर जीना चाहिये। इसकी प्रक्रिया का आनंद लेना चाहिये। धोनी पूरी शिद्दत से इसी कोशिश में जुटे रहते हैं।
इसलिए जब हार और जीत एक साथ दस्तक देने लगें तो धोनी का खेल परवान चढ़ता है। बल्लेबाजी के मोर्चे पर वो टीम को मंजिल तक पहुंचाए बिना नहीं लौटते। मैच के मोड़ के मुताबिक वो अपनी बल्लेबाजी को ढालते हैं। अगर टीम को बड़े स्ट्रोक्स की दरकार है तो वो इसमें कतई वक़्त नहीं गंवाते। वनडे ही नहीं टेस्ट में इस धोनी से रू-ब-रू हो सकते हैं। मिसाल के लिए धोनी ऑस्ट्रेलिया के ख़िलाफ मोहाली टेस्ट में ८वें नंबर पर बल्लेबाजी करते हुए ९२ रन की ताबड़तोड़ पारी खेलते हैं। ८ चौकों और ४ छक्कों से सजी इस पारी के सहारे सौरव गांगुली के साथ सातवें विकेट की शतकीय साझेदारी पूरी करते हैं। अपनी टीम को एक शुरुआती एडवांटेज दिलाते हैं । यही धोनी अगली पारी में तीसरे नंबर पर मोर्चा संभालते हैं। ८४ गेंदों पर ५५ रन की ठोस पारी से पॉन्टिंग की विश्व विजयी टीम को बैकफुट पर ला खड़ा करते हैं।
धोनी की इन्हीं कोशिशों का नतीजा है कि टेस्ट में उनकी ३३ रन की कुल औसत कप्तान धोनी के बल्ले से ५५ में तब्दील हो जाती है। वनडे में ४४ की औसत को वो कप्तानी में 57 तक खींच ले जाते हैं। इस मोड़ पर धोनी सचिन तेंदुलकर और राहुल द्रविड़ से आगे जा निकलते हैं। भारत में इन दोनों महानायकों ने अपनी बल्लेबाजी की लय को वापस पाने के लिए कप्तानी से किनारा कर लिया। लेकिन धोनी ने कप्तानी की चुनौती को स्वीकारते हुए अपनी बल्लेबाजी में नए आयाम जोड़ लिये हैं।
शायद धोनी ने टीम को कामयाबी की दहलीज तक लाने के सूत्र रांची में स्थानीय टीमों के लिए खेलते हुए पकड़े होंगे। टीम की जीत सीधे-सीधे धोनी के प्रदर्शन से जुड़ी रही होगी। धोनी इसी सोच को आज अंतर्राष्ट्रीय मंच पर विस्तार देते दिखाई देते हैं। लेकिन अपनी कामयाबी को वो अपने हर एक साथी के साथ साझा करना चाहते उनका मानना है कि “मेरी कामयाबी के मायने तभी हैं जब साथी खिलाड़ी इसमें अपनी खुशी तलाशें। हम सब एक दूसरे की कामयाबी में खुशी तलाशें”। ये बड़ी सोच धोनी की बहुत बड़ी ताकत है। गेंदबाजी के रनअप पर ईशांत शर्मा के कदम जरा से लड़खड़ाए नहीं कि जहीर खान उनके पास पहुंच जाते हैं। युवराज को उनकी लय में लौटाने के लिए सचिन आगे बढ़ कर मदद करते हैं। आपसी तालमेल का ही ये आइना है कि तेंदुलकर ने हैमिल्टन की ऐतिहासिक जीत के बाद दोहराया - इस भारतीय टीम के ड्रेसिंग रूम का माहौल बेहतरीन है। हम खेल का आनंद ले रहे हैं और परिवार की तरह एक दूसरे के साथ जुड़े हैं।
ये उस देश की क्रिकेट टीम का ड्रेसिंग रूम है जिसमें अहम के टकराव की ढेरों कहानियां हैं। इतिहास के पन्ने विजय मर्चेंट-विजय हजारे, विजय हजारे-लाला अमरनाथ, मंसूर अली खान पटौदी-चंदू बोर्डे, सुनील गावस्कर-कपिल देव, अजहरूद्दीन-नवजोत सिंह सिद्धू और सौरव गांगुली-ग्रेग चैपल के टकराव के किस्सों से भरे हैं। मगर मौजूदा टीम अलग है। दिलचस्प है कि हैमिल्टन टेस्ट जीतने वाली टीम में मुनाफ पटेल और ईशांत शर्मा को छोड़ दें तो बाकी आठ खिलाड़ियों का करियर धोनी से पहले शुरू हुआ।
धोनी की इस बेमिसाल कामयाबी के सूत्र टटोलते पूर्व भारतीय कप्तान और कोच अजीत वाडेकर का मानना है कि धोनी अपने सीनियर्स के अहम पर कभी चोट नहीं करते। खुद धोनी अपने बयान से इसे एक नया विस्तार देते हैं। हैमिल्टन की जीत के बाद धोनी ने कहा कि “उम्मीद करनी चाहिये की हम ये सीरीज जीत जाएं, ये हमारी ओर से सचिन और राहुल को एक सौगात होगी”। इस सम्मान और श्रद्धा के बाद कौन ऐसे कप्तान को अपना सर्वश्रेष्ठ नहीं देना चाहेगा। यही वजह है कि बीस साल बाद भी सचिन तेंदुलकर अपनी जीनियस की छाप छोड़ रहे हैं। वीरेंद्र सहवाग बेहतरीन फॉर्म में दिख रहे हैं। जहीर खान में वसीम अकरम की आक्रामकता और पैनेपन की झलक नज़र आ रही है। ईशांत शर्मा और गौतम गंभीर जैसे युवा खिलाड़ी अपने कप्तान की उम्मीदों पर खरा उतरने में कोई कसर नहीं रहे ।
इन कामयाबियों और सोच के बीच आगे बढ़ते धोनी को क्रिकेट आलोचक टाइगर पटौदी के बराबर खड़ा कर रहे हैं। साठ के दशक की शुरुआत में कप्तानी संभालने वाले पटौदी ने भारतीय क्रिकेट को ड्रॉ की मानसिकता से उबारते हुए जीत की नई सोच से भर डाला था। क्रिकेट इतिहासकार मिहिर बोस के मुताबिक पटौदी से पहले भारतीय क्रिकेट में ड्रॉ को एक संभावित नतीजे की तरह देखा जाता था। टाइगर पटौदी ने जीतना सिखाया ना सिर्फ घर में बल्कि घर के बाहर भी।
पटौदी ने टीम में जीतने का भरोसा जगाया तो सौरव गांगुली ने जीत की भूख पैदा की। धोनी गांगुली की इसी विरासत को और आगे बढ़ाते दिखते हैं। गांगुली ने इस दशक की शुरुआत में ऑस्ट्रेलिया को हराते हुए विदेश में जीत की नई इबारतें लिखनी शुरू कीं। न्यूजीलैंड एक अपवाद की तरह छूट गया। धोनी ने ३३ साल बाद यहां टेस्ट जीत कर इस खालीपन को भी भर दिया है।
कामयाबियों के शिखर से गुजरते धोनी की बस एक ही छवि हमारे जेहन में हावी होती जा रही है। वो छवि है कप्तान महेंद्र सिंह धोनी की। कप्तानी, जो उन्हें टीम इंडिया के एक नाजुक दौर में सौंपी गई। लेकिन धोनी ने खुद को उस भूमिका में ऐसे ढाल लिया जैसे वो नेतृत्व करने और एक नया इतिहास लिखने के लिए ही बने हों।
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Wednesday, March 11, 2009
मुकम्मल तस्वीर की तलाश में तेंदुलकर
सचिन तेंदुलकर क्राइस्टचर्च के एएमआई स्टेडियम के बीचों बीच सजी २२ गज की स्टेज पर अपने रंग बिखेर कब के लौट चुके हैं। धोनी की टीम इंडिया का कारवां क्राइस्टचर्च से उड़ान भरता हुआ अब हेमिल्टन पहुंच गया है। लेकिन,क्रिकेट चाहने वालों के जेहन में सचिन रमेश तेंदुलकर के बल्ले से निकली शतकीय पारी अभी भी जारी है। दर्द से कराहते तेंदुलकर क्रीज पर एक नयी गेंद का सामना करने के लिए फिर स्टांस ले रहे हैं। उनके बल्ले से बहते स्ट्रोक एक स्लाइड शो की तरह निगाहों के सामने से गुजर रहे हैं। एक बार नहीं बार बार।
इसकी वजह ये नहीं है कि न्यूजीलैंड में पहला वनडे शतक बनाते तेंदुलकर की इस १६३ रनों की नाबाद पारी ने भारत को एक और आसान जीत दिलायी। इसलिए भी नहीं कि ये तेंदुलकर को वनडे में अपने ही १८६ रनों के शिखर से आगे ले जाने की दहलीज पर ले आयी। इसलिए भी नहीं कि इस पारी ने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में तेंदुलकर के बल्ले से शतकों के शतक के ख्वाब को हकीकत में बदलने की उम्मीद जगा दी है।
दरअसल,ये पारी आंकडों और रनों के मायावी खेल से कहीं बहुत आगे जाकर क्रिकेट की स्टेज पर तेंदुलकर होने के अक्स तलाशती एक और बेजोड़ पारी है। इस पारी में क्रीज पर मौजूद एक बल्लेबाज नहीं है। ये अपनी साधना में लीन एक कलाकार है। सिर्फ इस फर्क के साथ कि उसके हाथ में ब्रश की जगह बल्ला थमा दिया गया है। कैनवास की जगह क्रिकेट के मैदान ने ली है। अपने खेल में डूबकर उसका भरपूर आनंद लेते हुए तेंदुलकर नाम का ये जीनियस इस कैनवास पर एक और तस्वीर बनाने में जुटा है। ये रनों,रिकॉर्ड और लक्ष्य से पार ले जाती तस्वीर है।
क्रिकेट की पूरी दुनिया वैसे उसकी रची हर पेंटिग को सराहती है। लेकिन, हर दूसरे कलाकार की तरह सचिन को भी शायद अपनी एक मुकम्मल तस्वीर की तलाश है। बीस साल से लगातार अंतरराष्ट्रीय मंच पर वो अपने स्ट्रोक्स को रन में, रनों को शतक में और शतकों को नए शिखर में तब्दील कर रहे हैं। लेकिन, उनकी इस मुकम्मल तस्वीर की खोज खत्म नहीं हुई है। वो लगातार जारी है।
इसलिए,बीस साल लगातार क्रिकेट खेलने के बावजूद वो आज भी गेंद की रफ्तार, उसकी दिशा और लंबाई को गेंदबाज के हाथ से छूटने के साथ ही पढ़ लेते हैं। कदमों के मूवमेंट की हर बारीकी को तय करते हैं। क्रीज को बॉक्सिंग रिंग में तब्दील कर एक चैंपियन मुक्केबाज की तरह सधे हुए फुटवर्क के साथ स्ट्रोक्स के लिए सही पोजिशन ले लेते हैं। अपने बेहद सीधे बल्ले के मुंह को आखिरी क्षण में खोलते हैं। गेंद कभी लाजवाब कारपेट ड्राइव की शक्ल में तो कभी हवा में सीधे सीमा रेखा की ओर रुख करती है। क्राइस्टचर्च में इसी तरह उनके बल्ले से निकले १६ चौकों और पांच आसमानी छक्कों के बीच यह अहसास बराबर मजबूत होता रहा कि इस कलाकार के अवचेतन में गहरे कहीं कोई मुकम्मल तस्वीर दर्ज है। वो अपने स्टोक्स के सहारे इसे उकेरने में जुटा है। लेकिन,तस्वीर अभी भी पूरी नहीं हो पायी है। ये उसकी अपनी खड़ी की गई चुनौती है। उसे इससे पार जाना है। लेकिन,इतिहास का सच तो यही है कि कलाकार कभी अपनी मुकम्मल तस्वीर तक पहुंच ही नहीं पाता। वो केवल उसे रचने में जुटा रहता है। बस,इसे रचने के लिए वो सही मौके और सही क्षण का इंतजार करता है। ये मौका और ये लम्हा आते ही उसकी साधना शुरु हो जाती है। क्राइस्टचर्च में भी तेंदुलकर उसी मौके और लम्हे में पहुंच गए थे,जहां से उनकी अधूरी तलाश आगे बढ़ रही थी। इसीलिए ये पारी हमारे ही जेहन में जारी नहीं है। वो भी उस पारी को अभी जी रहे हैं। मुकाबले के बाद अपनी पारी का जिक्र करते तेंदुलकर के बयान पर गौर कीजिए। यहां वो क्रिकेट की बात करते हैं। विकेट की भी और माहौल की भी। लेकिन,यही जोर देकर कहते हैं कि यहां आपको इस मैदान के आकार के मुताबिक अपनी बल्लेबाजी और स्ट्रोक्स को ढालना था। तेंदुलकर ने खुद को बखूबी ढाला भी। अपनी पहचान बन चुके स्ट्रेट ड्राइव को कुछ देर के लिए भुलाते हुए उन्होंने बैटिंग क्रीज के समानांतर दोनों ओर रन बरसाए। एक नहीं,दो नहीं १२९ रन। अपनी क्रिकेट को लेकर तेंदुलकर की यही सोच उन्हें क्रिकेट के रोजमर्रा के गणित से बाहर ले जाता है। ये तेंदुलकर को क्रिकेट के दायरे से पार ला खड़ा करती है।
शायद सोच का यही धरातल है कि इसी मैच में युवराज की क्लीन स्ट्राइकिंग पावर, धोनी के ताकत भरे स्ट्रोक्स और रैना की बेहतरीन टाइमिंग से भी रनों की बरसात होती है। लेकिन,सचिन के जीनियस के सामने ये कोशिशें हाशिए पर छूट जाती हैं। इतना ही नहीं,इस नयी टीम इंडिया के ये नाम, उम्र और अनुभव में ही पीछे नहीं छूटते। अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद तेंदुलकर की इस ऊंचाई के सामने बौने दिखने लगते हैं।
तेंदुलकर आज भी टीम की रणनीति में अपनी भूमिका तय कर उसे मंजिल तक पहुंचाते हैं। कभी दूसरे छोर पर सहवाग के साथी के तौर पर तो कभी सहवाग के जल्द आउट होने पर आक्रमण की बागडोर हाथ में लेते हुए। कभी एक छोर को संभाल अपने नौजवान साथियों को क्रिकेट के गुर के साथ साथ जरुरी हौसला थमाते हुए। वो धोनी की इस टीम इंडिया के एक सदस्य हैं। उनकी विनिंग कॉम्बिनेशन की एक मजबूत कड़ी। लेकिन,इसके बावजूद वो टीम में सबसे अलग पायदान पर हैं। सचिन इस टीम के एक सदस्य,एक खिलाड़ी भर नहीं है। सचिन एक युग में तब्दील हो चुके हैं। धोनी की इस विश्व विजयी टीम में वो एक एवरेस्ट की मानिंद खड़े हैं,जिसके इर्द गिर्द बाकी खिलाड़ी पठार की तरह दिखायी देते हैं।
फिर,युग में तब्दील हो चुके तेंदुलकर आज की घटना नहीं हैं। सर डोनाल्ड ब्रैडमैन ने ९० के दशक में अपनी ड्रीम टीम में सचिन को जगह देते हुए उन्हें एक जीनियस से एक युग में बदल डाला था। तेंदुलकर एक ऐसी टीम में शुमार किए गए,जो समय,काल और देश की हदों से बाहर खड़ी थी। शायद,एक ड्रीम टीम में ही कई युगों को एक साथ समेटा जा सकता है। दिलचस्प है कि ८० के दशक में डेनिस लिली के बाद बीते २५ सालों में तेंदुलकर की अकेले खिलाड़ी हैं,जिन्हें इस टीम में जगह मिल पायी। जॉर्ज हैडली से लेकर एवरटन वीक्स तक विव रिचर्डस लेकर ब्रायन लारा तक विक्टर ट्रपर से लेकर वॉली हेमंड तक, नील हार्वे से लेकर ग्रैग चैपल तक, डेनिस कॉम्टन से लेकर ग्रीम पॉलक तक-तेंदुलकर सब को पीछे छोड़ते हुए टीम में दाखिल हुए। लेकिन,ये फैसला करते वक्त ब्रैडमैन किसी दुविधा में नही थे। उनका कहना था-ये सभी बल्लेबाज अपने प्रदर्शन में किसी बल्लेबाज से कम नहीं हैं। न आंकडों में कहीं उन्नीस ठहरते हैं। सभी खेल के महान नायक हैं। लेकिन,तेंदुलकर अलग हैं। उनके पास किले की तरह मजबूत डिफेंस हैं। साथ ही जरुरत के मुताबिक रक्षण को आक्रमण में बदलने की महारथ। और इससे भी आगे उनकी कंसिस्टेंसी। तेंदुलकर में अपनी झलक देखते ब्रैडमेन का कहना था कि उनकी बल्लेबाजी परिपूर्ण है।
बेशक,ब्रैडमैन की निगाहों में तेंदुलकर एक दशक पहले ही एक परिपूर्ण बल्लेबाज बन गए थे। लेकिन शायद तेंदुलकर को अभी भी परिपूर्णता की तलाश है। अपनी मुकम्मल तस्वीर की तलाश है। अपनी इस कोशिश के बीच वो सिर्फ एक बल्लेबाज और क्रिकेटर नहीं रह जाते। तेंदुलकर एक सोच की शक्ल ले लेते हैं। एक नजरिए में तब्दील हो जाते हैं। ये संदेश देते हुए कि क्रिकेट की किताब अब तेंदुलकर की नजर से भी लिखी जाएगी। ठीक उसी तरह जैसे सर डॉन ब्रैडमैन ने क्रिकेट को परिभाषित किया। शायद यही सचिन रमेश तेंदुलकर होने के मतलब है।
इसकी वजह ये नहीं है कि न्यूजीलैंड में पहला वनडे शतक बनाते तेंदुलकर की इस १६३ रनों की नाबाद पारी ने भारत को एक और आसान जीत दिलायी। इसलिए भी नहीं कि ये तेंदुलकर को वनडे में अपने ही १८६ रनों के शिखर से आगे ले जाने की दहलीज पर ले आयी। इसलिए भी नहीं कि इस पारी ने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में तेंदुलकर के बल्ले से शतकों के शतक के ख्वाब को हकीकत में बदलने की उम्मीद जगा दी है।
दरअसल,ये पारी आंकडों और रनों के मायावी खेल से कहीं बहुत आगे जाकर क्रिकेट की स्टेज पर तेंदुलकर होने के अक्स तलाशती एक और बेजोड़ पारी है। इस पारी में क्रीज पर मौजूद एक बल्लेबाज नहीं है। ये अपनी साधना में लीन एक कलाकार है। सिर्फ इस फर्क के साथ कि उसके हाथ में ब्रश की जगह बल्ला थमा दिया गया है। कैनवास की जगह क्रिकेट के मैदान ने ली है। अपने खेल में डूबकर उसका भरपूर आनंद लेते हुए तेंदुलकर नाम का ये जीनियस इस कैनवास पर एक और तस्वीर बनाने में जुटा है। ये रनों,रिकॉर्ड और लक्ष्य से पार ले जाती तस्वीर है।
क्रिकेट की पूरी दुनिया वैसे उसकी रची हर पेंटिग को सराहती है। लेकिन, हर दूसरे कलाकार की तरह सचिन को भी शायद अपनी एक मुकम्मल तस्वीर की तलाश है। बीस साल से लगातार अंतरराष्ट्रीय मंच पर वो अपने स्ट्रोक्स को रन में, रनों को शतक में और शतकों को नए शिखर में तब्दील कर रहे हैं। लेकिन, उनकी इस मुकम्मल तस्वीर की खोज खत्म नहीं हुई है। वो लगातार जारी है।
इसलिए,बीस साल लगातार क्रिकेट खेलने के बावजूद वो आज भी गेंद की रफ्तार, उसकी दिशा और लंबाई को गेंदबाज के हाथ से छूटने के साथ ही पढ़ लेते हैं। कदमों के मूवमेंट की हर बारीकी को तय करते हैं। क्रीज को बॉक्सिंग रिंग में तब्दील कर एक चैंपियन मुक्केबाज की तरह सधे हुए फुटवर्क के साथ स्ट्रोक्स के लिए सही पोजिशन ले लेते हैं। अपने बेहद सीधे बल्ले के मुंह को आखिरी क्षण में खोलते हैं। गेंद कभी लाजवाब कारपेट ड्राइव की शक्ल में तो कभी हवा में सीधे सीमा रेखा की ओर रुख करती है। क्राइस्टचर्च में इसी तरह उनके बल्ले से निकले १६ चौकों और पांच आसमानी छक्कों के बीच यह अहसास बराबर मजबूत होता रहा कि इस कलाकार के अवचेतन में गहरे कहीं कोई मुकम्मल तस्वीर दर्ज है। वो अपने स्टोक्स के सहारे इसे उकेरने में जुटा है। लेकिन,तस्वीर अभी भी पूरी नहीं हो पायी है। ये उसकी अपनी खड़ी की गई चुनौती है। उसे इससे पार जाना है। लेकिन,इतिहास का सच तो यही है कि कलाकार कभी अपनी मुकम्मल तस्वीर तक पहुंच ही नहीं पाता। वो केवल उसे रचने में जुटा रहता है। बस,इसे रचने के लिए वो सही मौके और सही क्षण का इंतजार करता है। ये मौका और ये लम्हा आते ही उसकी साधना शुरु हो जाती है। क्राइस्टचर्च में भी तेंदुलकर उसी मौके और लम्हे में पहुंच गए थे,जहां से उनकी अधूरी तलाश आगे बढ़ रही थी। इसीलिए ये पारी हमारे ही जेहन में जारी नहीं है। वो भी उस पारी को अभी जी रहे हैं। मुकाबले के बाद अपनी पारी का जिक्र करते तेंदुलकर के बयान पर गौर कीजिए। यहां वो क्रिकेट की बात करते हैं। विकेट की भी और माहौल की भी। लेकिन,यही जोर देकर कहते हैं कि यहां आपको इस मैदान के आकार के मुताबिक अपनी बल्लेबाजी और स्ट्रोक्स को ढालना था। तेंदुलकर ने खुद को बखूबी ढाला भी। अपनी पहचान बन चुके स्ट्रेट ड्राइव को कुछ देर के लिए भुलाते हुए उन्होंने बैटिंग क्रीज के समानांतर दोनों ओर रन बरसाए। एक नहीं,दो नहीं १२९ रन। अपनी क्रिकेट को लेकर तेंदुलकर की यही सोच उन्हें क्रिकेट के रोजमर्रा के गणित से बाहर ले जाता है। ये तेंदुलकर को क्रिकेट के दायरे से पार ला खड़ा करती है।
शायद सोच का यही धरातल है कि इसी मैच में युवराज की क्लीन स्ट्राइकिंग पावर, धोनी के ताकत भरे स्ट्रोक्स और रैना की बेहतरीन टाइमिंग से भी रनों की बरसात होती है। लेकिन,सचिन के जीनियस के सामने ये कोशिशें हाशिए पर छूट जाती हैं। इतना ही नहीं,इस नयी टीम इंडिया के ये नाम, उम्र और अनुभव में ही पीछे नहीं छूटते। अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद तेंदुलकर की इस ऊंचाई के सामने बौने दिखने लगते हैं।
तेंदुलकर आज भी टीम की रणनीति में अपनी भूमिका तय कर उसे मंजिल तक पहुंचाते हैं। कभी दूसरे छोर पर सहवाग के साथी के तौर पर तो कभी सहवाग के जल्द आउट होने पर आक्रमण की बागडोर हाथ में लेते हुए। कभी एक छोर को संभाल अपने नौजवान साथियों को क्रिकेट के गुर के साथ साथ जरुरी हौसला थमाते हुए। वो धोनी की इस टीम इंडिया के एक सदस्य हैं। उनकी विनिंग कॉम्बिनेशन की एक मजबूत कड़ी। लेकिन,इसके बावजूद वो टीम में सबसे अलग पायदान पर हैं। सचिन इस टीम के एक सदस्य,एक खिलाड़ी भर नहीं है। सचिन एक युग में तब्दील हो चुके हैं। धोनी की इस विश्व विजयी टीम में वो एक एवरेस्ट की मानिंद खड़े हैं,जिसके इर्द गिर्द बाकी खिलाड़ी पठार की तरह दिखायी देते हैं।
फिर,युग में तब्दील हो चुके तेंदुलकर आज की घटना नहीं हैं। सर डोनाल्ड ब्रैडमैन ने ९० के दशक में अपनी ड्रीम टीम में सचिन को जगह देते हुए उन्हें एक जीनियस से एक युग में बदल डाला था। तेंदुलकर एक ऐसी टीम में शुमार किए गए,जो समय,काल और देश की हदों से बाहर खड़ी थी। शायद,एक ड्रीम टीम में ही कई युगों को एक साथ समेटा जा सकता है। दिलचस्प है कि ८० के दशक में डेनिस लिली के बाद बीते २५ सालों में तेंदुलकर की अकेले खिलाड़ी हैं,जिन्हें इस टीम में जगह मिल पायी। जॉर्ज हैडली से लेकर एवरटन वीक्स तक विव रिचर्डस लेकर ब्रायन लारा तक विक्टर ट्रपर से लेकर वॉली हेमंड तक, नील हार्वे से लेकर ग्रैग चैपल तक, डेनिस कॉम्टन से लेकर ग्रीम पॉलक तक-तेंदुलकर सब को पीछे छोड़ते हुए टीम में दाखिल हुए। लेकिन,ये फैसला करते वक्त ब्रैडमैन किसी दुविधा में नही थे। उनका कहना था-ये सभी बल्लेबाज अपने प्रदर्शन में किसी बल्लेबाज से कम नहीं हैं। न आंकडों में कहीं उन्नीस ठहरते हैं। सभी खेल के महान नायक हैं। लेकिन,तेंदुलकर अलग हैं। उनके पास किले की तरह मजबूत डिफेंस हैं। साथ ही जरुरत के मुताबिक रक्षण को आक्रमण में बदलने की महारथ। और इससे भी आगे उनकी कंसिस्टेंसी। तेंदुलकर में अपनी झलक देखते ब्रैडमेन का कहना था कि उनकी बल्लेबाजी परिपूर्ण है।
बेशक,ब्रैडमैन की निगाहों में तेंदुलकर एक दशक पहले ही एक परिपूर्ण बल्लेबाज बन गए थे। लेकिन शायद तेंदुलकर को अभी भी परिपूर्णता की तलाश है। अपनी मुकम्मल तस्वीर की तलाश है। अपनी इस कोशिश के बीच वो सिर्फ एक बल्लेबाज और क्रिकेटर नहीं रह जाते। तेंदुलकर एक सोच की शक्ल ले लेते हैं। एक नजरिए में तब्दील हो जाते हैं। ये संदेश देते हुए कि क्रिकेट की किताब अब तेंदुलकर की नजर से भी लिखी जाएगी। ठीक उसी तरह जैसे सर डॉन ब्रैडमैन ने क्रिकेट को परिभाषित किया। शायद यही सचिन रमेश तेंदुलकर होने के मतलब है।
Sunday, February 8, 2009
खेल के हर लम्हे को भरपूर जीती धोनी की टीम इंडिया
ये सचिन तेंदुलकर का लम्हा था। वो इस डूबकर जी रहे थे। अजंथा मेंडिस ने युवराज सिंह की गेंद को कवर में पुश किया। तेंदुलकर ने पूरी फुर्ती से इस पर कब्जा जमाया। एक ही एक्शन में नॉन स्ट्राइकर एंड पर मौजूद युवराज की ओर सटीक थ्रो किया। जब तक दिलहारा फर्नान्डो बीच विकेट से वापस अपनी क्रीज में पहुंचने की कोशिश करते, युवराज उनकी गिल्लियां बिखेर चुके थे। हालांकि, अंपायर ने हवा में बॉक्स बनाते हुए तीसरे अंपायर की तरफ अंतिम फैसला उछाल दिया था। लेकिन खुशी में डुबे तेंदुलकर को देख कोई भी महसूस कर सकता था कि भारत श्रीलंका का ये आखिरी विकेट,तीसरा वनडे और ये सीरिज जीत चुका है। तेंदुलकर इसी लम्हे को जी रहे थे। आखिर,इस सीरिज में तेंदुलकर के हाथ यही एक लम्हा लगा था। अपने बल्ले से वो लगातार गेंदबाज के बजाय अंपायर का शिकार बनते हुए टीम की जीत में कोई योगदान नहीं कर सके थे। यहां सिर्फ ४२ वें ओवर में खत्म होते मैच में तेंदुलकर को ये मौका मिला और उन्होंने उसमें कोई चूक नहीं की।
लेकिन,बात सिर्फ सचिन तेंदुलकर की नहीं है। बात इस आखिरी थ्रो की भी नहीं है,जिसने सीरिज में जीत की मुहर लगाई। दरअसल,बात उन मौकों की है,जहां महेन्द्र सिंह धोनी की इस टीम इंडिया का कोई भी खिलाड़ी चूकना नहीं चाहता। वो जानता है कि उसके हासिल किए लम्हे में वही अकेला जश्न में नहीं डूबेगा, पूरी टीम उसके साथ इस पल को जीएगी। इस हद तक कि सीमा रेखा के बाहर ड्रेसिंग रुम में भी उसकी गूंज सुनायी देगी।
दरअसल, महेन्द्र सिंह धोनी की ये टीम इंडिया मैदान पर बिताए हर लम्हे को भरपूर जी रही है। खेल के हर पहलू में। बिना इस बात की परवाह किए कि ये पल किसने रचा,और इस पल का नायक कौन है। यही वजह है कि तीसरे वनडे में बेहतरीन शतक बनाने के बाद अपने "मैन ऑफ द मैच' अवॉर्ड को युवराज अपने साथी वीरेन्द्र सहवाग के साथ साझा करना चाहते हैं। यही वजह है कि तेंदुलकर बल्ले से अपनी नाकामी को पीछे छोड़ सहवाग और युवराज के हर स्ट्रोक पर आनंद में डूब जाते हैं। यही वजह है कि युवराज के बल्ले से बहते हुए स्ट्रोक्स में आप तेंदुलकर को गलत आउट दिए जाने की नाराजगी को पढ़ सकते हैं। यही वजह है कि मैच के आखिरी तनाव भरे लम्हों में अपने रनअप की ओर लौटते ईशांत शर्मा को हौसला देते जहीर खान बार बार दिखायी देते हैं।
ये कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी का दिया मंत्र है। आस्ट्रेलियाई सीरिज में धोनी ने लाजवाब पारियां खेलने के दौरान टीम की कामयाबी के बारे में बेहद सहजता से कहा था-"मेरी हाफ सेंचुरी का मज़ा तभी है,जब मेरा कोई साथी मेरी इस कोशिश पर उतना ही आनंद महसूस करे। इस टीम का हर खिलाड़ी एक दूसरे की कोशिशों में, एक दूसरे की मुश्किलों में साथ खड़ा है।"
उधर, इस टीम का हर खिलाड़ी अपने कप्तान धोनी की कसौटी पर खरा उतरना चाहता है। घरेलू सीजन में नाकामी के बावजूद प्रवीण कुमार को इस टीम में जगह मिलती है। श्रीलंका के खिलाफ पिछली वनडे सीरिज में डे नाइट मुकाबलों में वो अपनी लय खो बैठते हैं। उन्हें टीम से बाहर कर दिया जाता है। लेकिन हाथ में आए इस मौके पर वो एक बार फिर अपनी पहचान के मुताबिक टीम को शुरुआती कामयाबी दिलाते हैं। पिछली ही सीरिज में मेंडिस के खिलाफ अपने स्ट्रोक्स भूल चुके युवराज सिंह इस बार उसकी भरपाई करने का फैसला कर विकेट पर पहुंचते हैं,और टीम को जीत की दहलीज तक खींच लाते हैं। फिर,दूसरे वनडे मुकाबले की तरह नाजुक मौकों पर अगर कोई गेंदबाज चूक करता है,तो धोनी अपने सहज अंदाज में उसे टोकने में कोई कोताही नहीं बरतते। धोनी की इस टीम में कोई सचिन तेंदुलकर,कोई जहीर खान और कोई वीरेन्द्र सहवाग नहीं है। इस टीम में शख्सियत से पहले हर एक सिर्फ खिलाड़ी है। खिलाड़ियों की ये यूनिट टीम को एक विनिंग कॉबिनेशन में तब्दील करती है।
साथ ही,कप्तान धोनी नाजुक मौकों पर आगे बढ़कर चुनौती को खुद हाथ में लेते हैं। विकेट के पीछे या विकेट के सामने। धोनी ने अपनी ताबड़तोड़ बल्लेबाजी के अंदाज से इतर एक ऐसे ठोस बल्लेबाज की शक्ल ले ली है,जो मैच की जरुरत के मुताबिक अपना गेयर बदल देता है। न सिर्फ वनडे मुकाबलों के दौरान बल्कि टेस्ट और ट्वेंटी-२० में भी धोनी मैच के मोड़ के मुताबिक अपने बल्ले के मुंह को खोलते या बंद कर देते हैं। यही वजह है कि आंकडों के आइने में कप्तान धोनी का औसत वनडे में ५५ को पार कर रहा है, जबकि उनका करियर औसत करीब ४७ है।
इन सबके बीच कप्तान धोनी की अगुआई में क्रिकेट चहेते खेल की उस खूबसूरती से रुबरु हो रहे हैं, जहां खिलाड़ी हार और जीत से बेपरवाह अपने खेल को नयी ऊंचाइयां देने में जुटा है। इसी सोच ने उसे जीत की ऐसी राह पर डाल दिया है,जहां हर पल वो एक नए शिखर की ओर मुखातिब है। यहां वो बीते कल से बेखबर आने वाले कल को भूलकर सिर्फ और सिर्फ आज में ही अपना सब कुछ झोंक देना चाहते हैं। ठीक इसी बिन्दु पर धोनी की ये टीम सुनील गावस्कर से लेकर कपिल देव और सौरव गांगुली से लेकर राहुल द्रविड़ की टीमों से अलग हो जाती है। बेशक,इस टीम ने लगातार नौ एकदिवसीय मैचों में जीत का रिकॉर्ड बनाया है,लेकिन ये टीम रिकॉर्ड के लिए नहीं खेल रही। ये अलग बात है कि उनकी इसी सोच से टीम कामयाबी के उस पायदान की ओर बढ़ रही है,जहां वनडे इतिहास में क्लाइव लॉयड, रिकी पोंटिंग, हैंसी क्रोनिए, विव रिचर्ड्स और स्टीव वॉ जैसे कप्तानों की टीमें खड़ी रही हैं। अपनी कप्तानी में धोनी ने ६० फीसदी से ज्यादा मुकाबले जीतते हुए भारतीय क्रिकेट में एक अलग मुकाम बनाया है। क्लाइव लॉयड ७६ फीसदी जीत के साथ सबसे ऊपर खड़े हैं।
फिलहाल,धोनी की टीम जीत का सिलसिला जारी रखे हैं। इस कदर कि अब टीम इंडिया विश्व में नंबर एक के पायदान के बिलकुल करीब है। ये एक ऐसा अहसास है,जिससे भारतीय टीम कभी रुबरु नहीं हुई। बेशक,भारत ने १९८३ में वर्ल्ड कप जीता,और १९८५ में वर्ल्ड चैंपियनशिप ऑफ क्रिकेट। लेकिन,धोनी की अगुआई में अब हम यह सपना देख रहे हैं। यहां अमेरिकी कवि और लेखक रॉबर्ट मोंटेगरी का कथन दिलचस्प है "अगर आप कामयाब हो रहे हैं तो आपकी तारीफों के पुल बंधते हैं। आप भी इसमें बह जाते हैं। मेरा मानना है कि आप इसका भरपूर आनंद लें,लेकिन इस पर कभी भरोसा न करें।" धोनी की टीम जीत के इन लम्हों का भरपूर आनंद ले रही हैं। इन्हें भरपूर जी रही है। लेकिन,मुझे यकीं है कि वो भी इस पर भरोसा नहीं कर रही। शायद,यही उसकी जीत में जुड़ती हर नयी कड़ी का पहला और आखिरी सूत्र है।
लेकिन,बात सिर्फ सचिन तेंदुलकर की नहीं है। बात इस आखिरी थ्रो की भी नहीं है,जिसने सीरिज में जीत की मुहर लगाई। दरअसल,बात उन मौकों की है,जहां महेन्द्र सिंह धोनी की इस टीम इंडिया का कोई भी खिलाड़ी चूकना नहीं चाहता। वो जानता है कि उसके हासिल किए लम्हे में वही अकेला जश्न में नहीं डूबेगा, पूरी टीम उसके साथ इस पल को जीएगी। इस हद तक कि सीमा रेखा के बाहर ड्रेसिंग रुम में भी उसकी गूंज सुनायी देगी।
दरअसल, महेन्द्र सिंह धोनी की ये टीम इंडिया मैदान पर बिताए हर लम्हे को भरपूर जी रही है। खेल के हर पहलू में। बिना इस बात की परवाह किए कि ये पल किसने रचा,और इस पल का नायक कौन है। यही वजह है कि तीसरे वनडे में बेहतरीन शतक बनाने के बाद अपने "मैन ऑफ द मैच' अवॉर्ड को युवराज अपने साथी वीरेन्द्र सहवाग के साथ साझा करना चाहते हैं। यही वजह है कि तेंदुलकर बल्ले से अपनी नाकामी को पीछे छोड़ सहवाग और युवराज के हर स्ट्रोक पर आनंद में डूब जाते हैं। यही वजह है कि युवराज के बल्ले से बहते हुए स्ट्रोक्स में आप तेंदुलकर को गलत आउट दिए जाने की नाराजगी को पढ़ सकते हैं। यही वजह है कि मैच के आखिरी तनाव भरे लम्हों में अपने रनअप की ओर लौटते ईशांत शर्मा को हौसला देते जहीर खान बार बार दिखायी देते हैं।
ये कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी का दिया मंत्र है। आस्ट्रेलियाई सीरिज में धोनी ने लाजवाब पारियां खेलने के दौरान टीम की कामयाबी के बारे में बेहद सहजता से कहा था-"मेरी हाफ सेंचुरी का मज़ा तभी है,जब मेरा कोई साथी मेरी इस कोशिश पर उतना ही आनंद महसूस करे। इस टीम का हर खिलाड़ी एक दूसरे की कोशिशों में, एक दूसरे की मुश्किलों में साथ खड़ा है।"
उधर, इस टीम का हर खिलाड़ी अपने कप्तान धोनी की कसौटी पर खरा उतरना चाहता है। घरेलू सीजन में नाकामी के बावजूद प्रवीण कुमार को इस टीम में जगह मिलती है। श्रीलंका के खिलाफ पिछली वनडे सीरिज में डे नाइट मुकाबलों में वो अपनी लय खो बैठते हैं। उन्हें टीम से बाहर कर दिया जाता है। लेकिन हाथ में आए इस मौके पर वो एक बार फिर अपनी पहचान के मुताबिक टीम को शुरुआती कामयाबी दिलाते हैं। पिछली ही सीरिज में मेंडिस के खिलाफ अपने स्ट्रोक्स भूल चुके युवराज सिंह इस बार उसकी भरपाई करने का फैसला कर विकेट पर पहुंचते हैं,और टीम को जीत की दहलीज तक खींच लाते हैं। फिर,दूसरे वनडे मुकाबले की तरह नाजुक मौकों पर अगर कोई गेंदबाज चूक करता है,तो धोनी अपने सहज अंदाज में उसे टोकने में कोई कोताही नहीं बरतते। धोनी की इस टीम में कोई सचिन तेंदुलकर,कोई जहीर खान और कोई वीरेन्द्र सहवाग नहीं है। इस टीम में शख्सियत से पहले हर एक सिर्फ खिलाड़ी है। खिलाड़ियों की ये यूनिट टीम को एक विनिंग कॉबिनेशन में तब्दील करती है।
साथ ही,कप्तान धोनी नाजुक मौकों पर आगे बढ़कर चुनौती को खुद हाथ में लेते हैं। विकेट के पीछे या विकेट के सामने। धोनी ने अपनी ताबड़तोड़ बल्लेबाजी के अंदाज से इतर एक ऐसे ठोस बल्लेबाज की शक्ल ले ली है,जो मैच की जरुरत के मुताबिक अपना गेयर बदल देता है। न सिर्फ वनडे मुकाबलों के दौरान बल्कि टेस्ट और ट्वेंटी-२० में भी धोनी मैच के मोड़ के मुताबिक अपने बल्ले के मुंह को खोलते या बंद कर देते हैं। यही वजह है कि आंकडों के आइने में कप्तान धोनी का औसत वनडे में ५५ को पार कर रहा है, जबकि उनका करियर औसत करीब ४७ है।
इन सबके बीच कप्तान धोनी की अगुआई में क्रिकेट चहेते खेल की उस खूबसूरती से रुबरु हो रहे हैं, जहां खिलाड़ी हार और जीत से बेपरवाह अपने खेल को नयी ऊंचाइयां देने में जुटा है। इसी सोच ने उसे जीत की ऐसी राह पर डाल दिया है,जहां हर पल वो एक नए शिखर की ओर मुखातिब है। यहां वो बीते कल से बेखबर आने वाले कल को भूलकर सिर्फ और सिर्फ आज में ही अपना सब कुछ झोंक देना चाहते हैं। ठीक इसी बिन्दु पर धोनी की ये टीम सुनील गावस्कर से लेकर कपिल देव और सौरव गांगुली से लेकर राहुल द्रविड़ की टीमों से अलग हो जाती है। बेशक,इस टीम ने लगातार नौ एकदिवसीय मैचों में जीत का रिकॉर्ड बनाया है,लेकिन ये टीम रिकॉर्ड के लिए नहीं खेल रही। ये अलग बात है कि उनकी इसी सोच से टीम कामयाबी के उस पायदान की ओर बढ़ रही है,जहां वनडे इतिहास में क्लाइव लॉयड, रिकी पोंटिंग, हैंसी क्रोनिए, विव रिचर्ड्स और स्टीव वॉ जैसे कप्तानों की टीमें खड़ी रही हैं। अपनी कप्तानी में धोनी ने ६० फीसदी से ज्यादा मुकाबले जीतते हुए भारतीय क्रिकेट में एक अलग मुकाम बनाया है। क्लाइव लॉयड ७६ फीसदी जीत के साथ सबसे ऊपर खड़े हैं।
फिलहाल,धोनी की टीम जीत का सिलसिला जारी रखे हैं। इस कदर कि अब टीम इंडिया विश्व में नंबर एक के पायदान के बिलकुल करीब है। ये एक ऐसा अहसास है,जिससे भारतीय टीम कभी रुबरु नहीं हुई। बेशक,भारत ने १९८३ में वर्ल्ड कप जीता,और १९८५ में वर्ल्ड चैंपियनशिप ऑफ क्रिकेट। लेकिन,धोनी की अगुआई में अब हम यह सपना देख रहे हैं। यहां अमेरिकी कवि और लेखक रॉबर्ट मोंटेगरी का कथन दिलचस्प है "अगर आप कामयाब हो रहे हैं तो आपकी तारीफों के पुल बंधते हैं। आप भी इसमें बह जाते हैं। मेरा मानना है कि आप इसका भरपूर आनंद लें,लेकिन इस पर कभी भरोसा न करें।" धोनी की टीम जीत के इन लम्हों का भरपूर आनंद ले रही हैं। इन्हें भरपूर जी रही है। लेकिन,मुझे यकीं है कि वो भी इस पर भरोसा नहीं कर रही। शायद,यही उसकी जीत में जुड़ती हर नयी कड़ी का पहला और आखिरी सूत्र है।
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