Sunday, November 2, 2008

अनिल कुंबले की विदाई के साथ 22 गज की स्टेज पर छूटा एक खालीपन

अनिल कुंबले ने अंपायर से गेंद अपने हाथ में ली। लेकिन, इस बार गेंदबाजी रनअप के लिए कदम बढ़ाने के लिए गेंद नहीं थामी। कुंबले ने ये गेंद ली हमेशा-हमेशा के लिए सहेज कर रखने के लिए। एक बेशकीमती धरोहर की तरह कुंबले उसे थाम ड्रेसिंग रुम लौट रहे थे। कुछ ही लम्हों पहले तक अपनी जिंदगी का हिस्सा बन चुकी 22 गज की स्टेज को पीछे छोड़ते हुए। दुनिया के हर हिस्से में ज़मीं के ऐसे टुकडों पर सिर्फ और सिर्फ बल्लेबाज के विकेट तक पहुंचने का एकमात्र लक्ष्य लेकर कुंबले ने अपने रनअप की ओर कदम बढ़ाए। एक बार नहीं, सौ बार नहीं बल्कि 40,852 बार। 18 साल तक लगातार एक सिलसिले की तरह। जीवट, धैर्य और खेल में डूबकर उसे जीने का तरीका बनाते हुए।

यही कुंबले रविवार की ढलती शाम में अपने सफर पर पूर्ण विराम लगा रहे थे। सचिन तेंदुलकर के साथ इस लम्हे को साझा करते हुए उनके चेहरे पर हमेशा की तरह एक मुस्कुराहट तैर रही थी। लेकिन, कुंबले की पहचान बनी इस मुस्कुराहट के पीछे अपनी ज़िंदगी के एक हिस्से को अलग करने के दर्द को आप महसूस कर सकते थे। टेलीविजन स्क्रीन पर उनके चेहरे पर टिके कैमरे मुझे भावुकता में बहाए लिए जा रहे थे। ऐसे में, इस लम्हे में ज़िंदगी में अचानक घर कर गए इस खालीपन के साथ आगे बढ़ते कुंबले की मन:स्थिति को सिर्फ और सिर्फ महसूस ही किया जा सकता है।

कुंबले अपनी जिंदगी में इस खालीपन के लिए बेशक मानसिक तौर पर खुद को तैयार कर रहे थे। आज जैसा उन्होंने कहा भी- "मैं इसे अपनी आखिरी सीरीज मानकर आगे बढ़ रहा था।" लेकिन, ये उनका आखिरी मैच होगा, ये कोई नहीं जानता था। शनिवार शाम तक कुंबले भी नहीं। महज एक शाम के डूबने और दूसरी सुबह के उगने के बीच उन्होंने ये फैसला लिया। "मैंने कल रात ही ये तय किया कि मुझे अब क्रिकेट से अलग हो जाना चाहिए।" बेहद साफगोई से, ईमानदारी से भारतीय क्रिकेट के इस बेमिसाल नायक ने अपने फैसले पर पहुंचने के मोड़ से सबको रुबरु करा दिया। "मेरी उंगली में लगे 11 टांके और चोट मुझे अपना सौ फीसदी खेल नहीं खेलने देगी। अपने प्रदर्शन से मैं अपनी टीम को नुकसान नहीं पहुंचा सकता।" ये बेशक अचानक उठी आलोचनाओं और सवालों का जवाब था। लेकिन, इतनी कड़वी सचाई को इतनी सहजता से सिर्फ कुंबले और कुबंले ही कह सकते हैं। सिर्फ कुंबले ही इसे स्वीकार करने की हिम्मत रखते हैं।

आखिर, कुंबले बेमिसाल हैं। इसलिए नहीं कि टेस्ट क्रिकेट में 619 विकेट के खड़े किए शिखर तक पहुंचना किसी भी भारतीय का पहुंचना फिलहाल मुश्किल लगता है। इसलिए भी नहीं कि कुंबले की रची जीत की कहानियों को दोहराना अब नामुमकिन हो जाएगा। कुंबले का पूरा सफर अकेले दम सवालों, आलोचनाओं के बीच एक संन्यासी की तरह तपस्या में जुटे रहने की कहानी है।

आप कुंबले को भारतीय क्रिकेट का सबसे बड़ा तपस्वी कह सकते हैं। आखिर एक गेंदबाज मैच दर मैच अपनी गेंदों से टीम के लिए जीत की राह तैयार करता है। लेकिन, आलोचक उसकी कामयाबियों को नवाजने के बजाय उन पर सवाल खड़ा करते हैं। बेदी, प्रसन्ना और चंद्रा के सुनहरे दौरे के बीच ये उन्हें एक मीडियम पेसर दिखायी देता है। इसकी गेंदें घूमती ही नहीं। अगर बल्लेबाज एक बार इन्हें समझ जाए तो वो बेफिक्र होकर खेल सकता है।

इन आलोचनाओं के बीच भी कोई बल्लेबाज कुंबले को बेफिक्र होकर खेल नहीं पाया। 1992 में पहले दक्षिण अफ्रीका और फिर अपने घर में इंग्लैंड के बल्लेबाजों के पांव कुंबले के सामने कांपने लगे। इन आलोचनाओं का ज्‍वार कुछ कम हुआ, लेकिन खत्म नहीं। अब कहा जाने लगा- "कुंबले की गेंदों में टर्न है। सिर्फ उतना ही, जितना विकेट के लिए जरुरी है।" लेकिन, साथ में सवाल भी जोड़ दिए गए। इस लेग स्पिनर की तरकश में गुगली नहीं है। लेग स्पिन नहीं है।

लेकिन, कुंबले इस बेपरवाह होकर लगातार अपनी गेंदों में नए आयाम जोड़ते चले गए। लेग स्पिन की हर विधा को उन्होंने अपनी गेंदबाजी में शामिल कर लिया। आखिर, आप इसे क्या कहेंगे कि भारतीय स्पिन के सुनहरे दौर के सबसे बड़े नायक बिशन सिंह बेदी के हासिल किए गए 266 विकेट के मुकाबले कुंबले ढाई गुना आगे जाकर 619 विकेट के नए शिखर के साथ करियर को अलविदा कह रहे हैं।

ये सिर्फ कुंबले के हाथों से छूटी गुजरते वक्त के साथ तेज होती धार ही नहीं है, ये अपनी सीमाओं में एक परिपूर्णता की तलाश करता एक गेंदबाज ही नहीं है, ये स्किल और टेलेंट से आगे जाकर जीवट की ढेरों कहानियों को समेटे एक बेजोड़ नायक है। टूटे जबड़े के बावजूद एंटिगा के सेंटजोंस मैदान पर उतरे कुंबले को कौन भूल सकता है। दर्द से बेपरवाह 14 ओवर के स्पैल में ब्रायन लारा के विकेट तक पहुंचे कुंबले की कहानी भारतीय क्रिकेट में किंवदंती की शक्ल ले चुकी है। ये अगर छह साल पहले की बात थी, तो एक दिन पहले ही उंगली में लगे 11 टांकों के बावजूद अपने से जुड़े सवालों का जवाब तलाशते कुंबले को आप सिर्फ सलाम ही कर सकते हैं।

फिर, जब इन सवालों का जवाब जब उनकी गेंदें नहीं दे पायी। तो इस बार बेहद ईमानदारी से उन्होंने खुद से जवाब मांगा। ये सवाल पिछले एक साल से लगातार उन पर हावी हो रहा था। ये कबूलने मे भी उन्होंने कोई हिचकिचाहट नही दिखायी। ढलती उम्र में शरीर लगातार जवाब दे रहा था। लेकिन,उनके भीतर का खिलाड़ी अभी हार मानने को तैयार नहीं था। कुंबले का कहना है "बेशक मैं दर्द निवारक दवाइयों के साथ खेल में खुद को झोंक रहा था। खेलना मुश्किल हो रहा था। लेकिन, मुझे लगता था कि मैं अभी कुछ और खेल सकता हूं। लेकिन, उंगली में लगी चोट के बाद मुझे लगा कि अब इस सफर को थामना होगा। ये चोट काफी गंभीर थी। अब शायद बस।"

कुंबले ने इस 'बस' के साथ क्रिकेट सफर को पूर्णविराम लगा दिया। अब एक खालीपन सिर्फ उनकी जिंदगी में ही नहीं है। हम सब भी उसी खालीपन के साथ जीने को मजबूर हैं। हम सब की जिंदगी में भी मैदान के 22 गज की इस जमी पर कुंबले की छवि फिर उभार नहीं लेगी। लेकिन, हौसलों से भरे उनके डग, हाथ से छूटती गेंद, बल्लेबाज के विकेट तक पहुंचने के बाद एक असीम खुशी में डूबते कुंबले हमारी यादों में कभी धुंधले नहीं पड़ेंगे। पाकिस्तान के खिलाफ एक पारी में हासिल दसों विकेट से लेकर वेस्टइंडीज के खिलाफ उसी की ज़मी पर इतिहास दोहराती जीत तक। आस्ट्रेलिया में साइमंड्स-भज्जी विवाद के मद्देनजर मैदान से बाहर भारतीय गौरव की अगुआई करते कुंबले से लेकर, पर्थ में यादगार जीत तक पहुंचाती इस नायक की उपलब्धियों में हम बार-बार डूबते उतरते रहेंगे।

रविवार को कोटला पर आखिरी बार अपनी स्टेज को पीछे छोड़ अपनी बेटी का हाथ थामे कुंबले वापस लौट रहे थे। उनकी बेटी बेहद मासूमियत से अपने पिता की ओर देख रही थी। छह फीट लंबे कुंबले को देखने के लिए वो बराबर अपना सिर उठा नज़रों को ऊंचा कर रही थी। इस बच्ची को आज अपने पिता के असली कद का अंदाज तो नहीं हुआ होगा। आने वाले कल में जब वो इस एक तारीख की ओर रुख करेगी तो जरुर एक रोमांच और गर्व से भर जाएगी कि कितने बड़े लम्हे के बीच से वो गुजरकर आयी थी। कितनी बड़ी शख्सियत की उंगली थाम उसने कदमों के साथ कदम मिलाए थे। ऐसे कदम, जिनके निशां भारतीय क्रिकेट में इतने गहरे छप गए हैं कि कभी मिटाए नहीं जा सकेंगे। ये भारतीय क्रिकेट के महानायक अनिल कुंबले के कदमों के निशां हैं। इस पर आने वाला हर एक गेंदबाज चलना चाहेगा। यही अनिल कुंबले होने का मतलब है।

6 comments:

G Vishwanath said...

इस बढ़िया लेख के लिए बधाई और धन्यवाद।
कुंबळे का जितना भी सम्मान किया जाए, कम है।
पक्का और सच्चा "gentleman cricketer" इन्हें कह सकते हैं।
आशा है कि Selector/ commentator/coach बनकर खेल से जुडे रहेंगे।

वर्षा said...

आपको ब्लॉग पर देखकर अच्छा लगा। मैं भी सहारा में ही हूं। लेख तो अच्छा था ही। गांगुली के बाद कुंबले के संन्यास की ख़बर चौंकानेवाली थी। पिच से तो कुंबले बाहर आ गए पर उम्मीद है खेल में तो बने रहेंगे।

Udan Tashtari said...

अच्छा निर्णय लिया अनिल जी ने..सम्मानजनक!! कुछ और लोगों को उनसे सीख लेना चाहिये.

PD said...

बहुत बढ़िया पोस्ट.. काफी मेहनत से लिखी लगती है..
बधाई..

SANJAY SRIVASTAVA said...

sanjay srivastava
वाकई कुंबले बेमिसाल हैं. १८ सालों की उनकी क्रिकेट यात्रा के सचमुच कुछ मायने हैं. जब कुंबले ने अपना कैरियर शुरू किया था तो लोगों के जेहन मे महान भारतीय स्पिन तिकडी मजबूती से जमी हुई थी, अनिल उनसे एकदम अलग किस्म के स्पिनर थे, जो स्पिन विधा का एक नया आयाम ही खोल रहे थे. जिसमे ढेरों नवीनताएँ और प्रयोग्वादिता थी. शुरू में एक स्पिनर के तौर पर उन्हें आसानी से स्वीकार भी कहाँ किया गया. तमाम पुराने क्रिकेट दिग्गज उन्हें स्पिनर की बजाय फ्लैट bowler कहते रहे. खैर इन सबसे कुंबले पर कोई असर पडा नहीं, वो अपनी सफलता की कहानी ख़ुद लिखते रहे. और उदाहरण बनने लगा उनका कमिटमेन्ट और tallent. टेस्ट क्रिकेट में 619 विकेट का शिखर. तमाम जीतों के नायक. इसमे कोई शक नहीं की कुंबले का पूरा सफर आलोचनाओं के बीच एक संन्यासी की तरह तपस्या में जुटे रहने की कहानी भी है। ऐसे नायक को सलाम. साथ ही एक और शानदार article के लिए बधाई भी.
sanjay srivastava

Yunus Khan said...

नरेंद्र भाई ।
कुंबले की विदाई एक जेन्‍टलमैन की विदाई है ।
कुंबले थोड़े दिन और खेलते । दो चार रिकॉर्ड बन जाते । ऐसा फैसला केवल कुंबले ही कर सकते थे ।
आपका ब्‍लॉग लगातार पढ़ता हूं । टिप्‍पणी नही आए तो ये ना समझिये कि हम पढ़ नहीं रहे हैं ।