Friday, August 29, 2008

काल से होड़ करती एक स्टिक

1992 का साल, ओलंपिक का साल। रसातल की ओर जाती भारतीय हॉकी एक पायदान और नीचे खिसक गई। बार्सिलोना में भी आठ बार की ओलंपिक चैंपियन भारतीय टीम एक और शिकस्‍त झेल कर घर लौटी। अपने पहले तीनों लीग मुकाबले हारने के साथ ही सेमीफाइनल से बहुत पहले उसकी चुनौती खत्‍म हो गई थी। रस्‍म अदायगी की तरह कप्‍तान परगट सिंह को अपनी जगह छोडनी पड़ी थी। अपने अखबार के लिए इंटरव्‍यू करने की गरज से मैं परगट से मिलने जलंधर पहुंचा तो मेरे जेहन में दुख कई सवालों की शक्‍ल में आकार ले रहा था। यूरोपीय टीमों की रफ्तार के सामने घुटने टेकती भारतीय हॉकी, गुटबाजी का शिकार भारतीय हॉकी, सिस्‍टम से हार मानती भारतीय हॉकी। तमाम सवालों के बीच मैं परगट से बातचीत को आगे बढा रहा था। इसी कड़ी में परगट की ओर एक और सवाल उछाला ''लगता है जिंदगी में जो जगह, जो कप्‍तानी गवांई है इन झटकों से उभर पाओगे ?'' परगट जलंधर के पंजाब पुलिस मैदान पर मुझसे बात करते करते ठहर गए। परगट का चेहरा अचानक बदला, आवाज की गहराई बढ़ी और उसके बाद परगट ने जो मुझसे कहा वह यादों के सफर में शिलालेख की तरह दर्ज है। 16 साल बाद भी वक्‍त की धूल उस पर नहीं चढ पाई है, '' जिंदगी में कभी कोई भी चीज या दौर ठीक वैसे ही दोहराया नही जाता। हॉकी के मैदान पर बनने वाले हर एक मूव की तरह। हजारों मूव इस मैंदान पर बनें होंगे बनते रहेंगे लेकिन कोई भी एक मूव ठीक पहले जैसा नहीं होगा। तो मेरे लिए भी जिंदगी इसी लाइन पर नहीं चलेगी।''

एक महानायक को दोहराते देखने का एक ख्‍वाब मैने बचपन से संजोया था। परगट के इन शब्‍दों के बावजूद यह ख्‍वाब कमजोर नहीं पड़ा। भारतीय हॉकी को करीब से देखते देखते उसकी हार और जीत के बीच हॉकी के जादूगर दद्दा ध्‍यानचंद को दोहराते देखने का ख्‍वाब... मैदान पर गढ़ी एक ऐसी तस्‍वीर जहां से हॉकी का खेल शुरू होता है, जहां पर हॉकी का खेल खत्‍म हो जाता है। हॉकी के जादूगर ध्‍यानचंद। रोहित ब्रजनाथ के लेख के आधार पर कहें तो किसी भी इंसान की शख्सियत उसके आसपास बने मिथ से तय होती है। ध्‍यानचंद एक बेमिसाल शख्सियत थे। कोई उन्‍हें स्टिक से निकले सैकड़ों गोल के जरिए याद नहीं करता। याद करता है तो उनसे जुडी किवदंतियों के सहारे।

किवदंतिया जो आदमी को साधारणता के धरातल से एक क्षण के एक छोटे से टुकडे में अचानक ही बहुत ऊपर उठा देती है। हाड़ मांस का आदमी अपनी नश्‍वरता से उभरकर अचानक पहले चमत्‍कार की दुनिया में पहुंचता है, फिर अमरत्व के लोक में। शायद इसीलिए सरडॉन ब्रेडमैन के जन्‍मस्‍थल को इस जन्‍मशताब्‍दी के साल में एक तीर्थ स्‍थल का दर्जा मिल जाता है।

ऐसी किवदंतियां ही कहती हैं कि ध्‍यानचंद की स्टिक में चुंबक था, ध्‍यानचंद की स्टिक पर गोंद लगा था, हिटलर उनसे उनकी स्टिक खरीदना चाहते थे। दद्दा ध्‍यानचंद की स्टिक में जादू नहीं था। जादू था तो उनके खेल में उनकी कलाईयों में। उनके पांव में। और उन सब से आगे उनकी सोच में जो खेल के मैंदान में हर किसी को हैरत में डाल देती थी। इसलिए दद्दा ध्‍यानचंद की शख्सियत को हम तीन ओलंपिक गोल्‍ड, एक साल में दागे 133 गोल जैसे आंकडों में नहीं पढ़ सकते। हम सिर्फ उनके जीनियस को महसूस कर सकतें हैं। इस पहलू में कि 42 साल की ढलती उम्र में कोई भी विदेशी दौरा उनकी मौजूदगी के बिना पूरा नहीं हो सकता था। उस दौर में भी उनकी स्टिक से गोलों की झडी निकलती थी। जादू स्टिक में नहीं दद्दा ध्‍यानचंद के खेल कौशल में था। हॉकी के असली जादूगर।

बेशक आज हॉकी के मैदान पर रचे उनके इतिहास को मौजूदा पीढ़ी आंक न पाए। बेशक ओलंपिक मेडल के जुनून में डूबा ये देश याद न कर पाए कि तीन ओलंपिक गोल्‍ड हांसिल करने वाले इस महानायक ने जिंदगी की आखिरी सांसे ली तो दिल्‍ली के एम्‍स के एक जरनल वार्ड में। जरनल वार्ड में जिंदगी की आखिरी सांसे गिनना जादूगर ध्‍यानचंद की कहानी में रसभंग नहीं करता। कहानी कहेगी जो वार्ड में था वह ध्‍यानचंद नहीं हाड़-मांस का एक नश्‍वर प्राणी था। ध्‍यानचंद तो हमेशा से हॉकी के मैदान पर गेंद को अपनी स्टिक से चिपकाए लगातार दौड़ रहे हैं।

इतिहास के पन्‍नों में दर्ज इस जादूगर के किस्‍से उन्‍हें हॉकी के दायरे से बाहर ले जाकर खेलों के उस पायदान पर खड़ा करते हैं जहां क्रिकेट के शिखर पर ब्रेडमैन खडे है, फुटबॉल में पेले और हॉकी में दद्दा ध्‍यानचंद। भारतीय हॉकी के सुनहरे अतीत के पन्‍ने पलटते पलटते दद्दा ध्‍यानचंद टीक उसी तरह हमारे सामने आकर खडे हो जातें हैं, जैसे क्रिकेट के मैदान में हम आज सचिन तेंदुलकर को देखते है,सर गा‍रफील्‍ड सोबर्स के किस्‍सों को सुनते हैं, लता मंगेशकर की आवाज में बह जाते हैं। यानि सिर्फ एक सचिन तेंदुलकर है, सिर्फ एक गारफील्‍ड सोबर्स हैं और सिर्फ एक लता मंगेशकर है। चमत्‍कार की कहानियां इनसे भी जुडी हैं। गुजरते वक्‍त के साथ ये कहानियां भी किवदंतियों की शक्‍ल ले लेंगी। इसलिए सिर्फ एक दद्दा ध्‍यानचंद हैं काल, समाज और इतिहास की सीमाओं से परे। हॉकी के जादूगर - दद्दा ध्‍यानचंद।

इसलिए मैं अब इस महानायक,इस जादूगर की छवि में किसी और को तलाशना नहीं चाहूंगा। न तो उनसे पहले स्टिक का कोई जादूगर आया न ही आ पाएगा। मैं परगट की इस बात पर अपनी मोहर लगाना चाहता हूं '' जिंदगी में कभी कोई भी चीज या दौर ठीक वैसे ही दोहराया नही जाता।'' इसलिए कोई दूसरा ध्‍यानचंद आ नहीं सकता और किसी दूसरे जादूगर से हम रू- ब-रू नहीं हो पाएंगे। हम रू- ब-रू होना भी नहीं चाहते। वे एक ही थे, एक ही रहेंगे। स्टिक के जादूगर - दद्दा ध्‍यानचंद।
(दद्दा ध्यानचंद की तस्वीर भारतीय हॉकी डॉट कॉम से साभार )

2 comments:

Udan Tashtari said...

अच्छा आलेख!!

pankaj srivastava said...

वाकई ध्यानचंद जैसा कोई नहीं...पर बड़ा सवाल ये है कि जिस देश की माटी, हवा, पानी ने दद्दा को गढ़ा था, वो अब ऐसे हीरे-मोती क्यों नहीं पैदा कर रही है। इस जमीन में घटिया यूरिया डालकर कौन बंजर बनाने पर तुला है। क्षमता तो है, पर शायद दृष्टि नहीं।..बहरहाल, सबसे अच्छा ये लग रहा है कि आप जैसा व्यक्ति जो खेल की बारीकियों पर बारीक नजर रखता है, फिर सामने है। कलम उठा ली है...तो बात दूर तलक जाएगी। आपको पढ़कर खेल पत्रकार अपनी समझ और संवेदना बेहतर करेंगे, ये उम्मीद है।

पंकज श्रीवास्तव