Saturday, August 30, 2008

खुद की चुनौतियां,खुद का रास्ता


ये 1995 की बात है। ये वो दौर था, जब मैं एक नियम की तरह दिल्ली के शिवाजी स्टेडियम पहुंचा करता था। चाहे मुझे अपनी रिपोर्ट फाइल करनी हो या नहीं, मैं बेनागा वहां होने वाला करीब- करीब हर दूसरा मुकाबला देख लिया करता था। इन्हीं मुकाबलों के बीच एक दिन एक आदिवासी नौजवान के स्टिक वर्क और तेज़ी ने मुझे उसका कायल कर दिया। मैं उससे रुबरु हुआ तो कुछ पल के लिए सन्न रह गया। क्या ये मुमकिन है......?????

हॉकी के मैदान पर एक खिलाड़ी अपने स्टिक और रफ्तार से आपको मुरीद बना दे लेकिन वह भी हाथ के अंगूठे के बिना। नामुमकिन। हॉकी के खेल में बिना अंगूठे के हॉकी को ग्रिप करने की सोचा भी नहीं जा सकता। रफ्तार और स्टिक वर्क तो बाद की बात है। लेकिन, ये खिलाड़ी बिना अंगूठे आपको हॉकी की खूबसूरती से रुबरु करा रहा था। ये खिलाड़ी था-सिल्वेस्टर मिंज। भारत की जूनियर टीम में जगह बनाने वाला सिल्वेस्टर मिंज।

सिल्वेस्टर मिंज इस वक्त कहां है, मुझे मालूम नहीं। इंटरनेट पर सर्च करो,तो एक सिल्वेस्टर मिंज जरुर दिखायी देता है चितरंजन लोकोमोटिव की तरफ से खेलता हुआ। लेकिन, मैं दावे के साथ नहीं कह सकता कि यह वही मिंज है,जिसे मैंने 14 साल पहले देखा था। लेकिन,सिल्वेस्टर मिंज की छवि मुझसे कभी अलग नहीं हो पाती। लेकिन, आज मैं इसकी बात क्यों कर रहा हूं...ये तो 14 साल पुरानी बात है।

दरअसल, क्रिकेट के कुछ पन्ने पलटता पलटता मैं आज पीटर रुबेक के एक लेख के साथ छपी ऐसी तस्वीरे से मुखातिब हुआ,जिसने सिल्वेस्टर मिंज की यादें जेहन में ताजा कर दीं। ये शख्स है मोहम्मद याकूब। वो किसी देश के लिए क्रिकेट नहीं खेलता। किसी राज्य के लिए क्रिकेट नहीं खेलता। वो सिर्फ अपने लिए क्रिकेट खेलता है। आप कह सकते हैं कि इसमें अलग क्या है? हम में से कितने लोग सिर्फ शौक के लिए ही तो क्रिकेट खेलते हैं।

याकूब भी शौक के लिए क्रिकेट खेलता है। लेकिन,शौक से आगे क्रिकेट खेलना उसके लिए उसकी पहचान से जुड़ा है। याकूब का बायां पैर नहीं है। लेकिन,इसके बावजूद वो उसी शिद्दत के साथ मैदान पर उतरता है,जैसे हर दूसरा खिलाड़ी। याकूब जब बल्लेबाजी करता है, तो दांहिने पैर में पैड बांधता है, बाएं पैर में आर्टिफिशियल लिंब होता है। जब वो फील्डिंग करता है,तो शुरुआत दो बैसाखियों के साथ करता है,और थोड़ी देर में एक बैसाखी वो किनारे रख देता है। गेंदबाजी करते हुए बाएं तरफ की बैसाखी उसके साथ होती है। उसके हाथ से गेंद छूटने से पहले क्रीज में उसकी यह बैसाखी गढ़ जाती है।

दिलचस्प ये है कि याकूब जिस देश से आता है,वहां क्रिकेट नहीं होता। वो देश याद किया जाता है-भूखमरी या गृहयुद्ध के लिए। इन्हीं के बीच, याकूब सोमालिया की राजधानी मोगाडिशू में अपने परिवार के साथ रहा करता था। एक दिन अचानक हुई बमबारी के दौरान खुद को बचाने के लिए वो कार के बैराज में छिप गया। गैराज के पास एक बम फटा,तो कुछ भारी सामान उसके पांव पर भी आ गिरा। उसे अस्पताल ले जाया गया,तो डॉक्टर ने मामूली बैंडेज कर वापस भेज दिया। लेकिन,एक हफ्ते बाद वो वापस अस्पताल पहुंचा तो पैर की नसों से खून रिसना बंद नहीं हो रहा था। नतीजतन उसका पैर कांटना पड़ा।

बाद में वो अपने परिवार के साथ केन्या पहुंचा,और कुछ दिनों बाद 1996 में आस्ट्रेलिया में शरणार्थी के तौर पर जगह पायी। यहीं अपनी बहन के साथ घर के पिछवाड़े में उसने बल्ले और गेंद को अपना साथी बना लिया। उसका जुनून खेलने का नहीं, खुद को भीड़ में साबित करने का था। “आखिर मेरे एक पैर का न होना मेरी कमज़ोरी नहीं है। मैं इसके बिना भी उतनी ही शिद्दत और जज्बे के साथ आपके साथ कदम मिला सकता हूं, जितना आप एक सामान्य शख्स होने के नाते।“ इसी हौसले के साथ उसने पहली बार स्थानीय स्तर पर अंडर 16 का मुकाबला खेला,और दो विकेट हासिल करते हुए एक सिलसिला शुरु किया तो वो जारी है। आज वो टीम में मौजूद रहता है,तो उसकी हिस्सेदारी किसी से कम नहीं होती।

सिल्वेस्टर मिंज की कहानी भी याकूब से मिलती जुलती है। कुछ अलग तरीके से। एक वक्त था, जब सिल्वेस्टर मिंज अपने अंगूठे से स्टिक पकड़ते हुए गेंद को इस खूबसूरती से नचाता था कि हर कोई उसमें कल के एक बेहतरीन खिलाड़ी को देख रहा था। इसी के चलते उसे एक नौकरी भी मिली। लेकिन, एक दिन अचानक लिफ्ट में हाथ आने के चलते उसे अपना अंगूठा गंवाना पड़ा। इस हादसे ने उसके हाथों से हॉकी छीन ली। लेकिन,खेल के सहारे एक नौकरी हासिल कर अपने परिवार की गाड़ी को किसी तरह खींचने वाला यह शख्स हार मानने को तैयार नहीं था। हॉकी न सही-कुछ और। उसने स्प्रिंट रनर के तौर पर अपनी किस्मत को गढ़ने की कोशिश की। यहां भी वो कामयाब हो रहा था, लेकिन जीत उसे उसकी मंजिल तक नहीं पहुंचा रही थी। अंगूठा न होने की वजह से किसी भी रेस के लिए स्टार्टिंग प्वाइंट पर पहला तेज़ कदम उठाने के लिए ज़रुरी ग्रिप नहीं बन पाती थी। उसने एक बार फिर हॉकी हाथ में ली। बिना अंगूठे, सिर्फ अपनी उंगलियों के बीच फंसाते हुए उसने धीरे धीरे एक बार फिर अपनी स्टिक और गेंद के जादू को एक साथ जोड़ दिया।

सिल्वेस्टर मिंज और याकूब की ये कहानियां हौसले और जज्बे से आगे की कहानी है। यहां आपको दक्षिण अफ्रीका के 400 मीटर के एथलीट ऑस्कर पिस्टोरियस भी याद आ सकते हैं,जो दो आर्टिफिशियल लिंब के सहारे दौड़ते दौड़ते बीजिंग ओलंपिक में हिस्सा लेना चाहते थे। लेकिन, आखिरी मौके पर कुछ सेंकेड के फासले से वो क्वालिफाई करने से चूक गए। दरअसल, ये कहानियां आपको इंसान की उस असीम कोशिशों की ओर ले जाती दिखती हैं,जहां वो इस भीड़ में अपनी पहचान तलाशने में जुटता है। यहां वो अपने लिए खुद चुनौतियों की दीवार खड़ी करता है,और फिर उससे पार पाने के जुनून में डूब जाता है। इनके इस जुनून को सलाम।
(पोस्ट में तस्वीर विज़डन एशिया से साभार ली गई है)

5 comments:

विजय गौड़ said...

बहुत ही खूबसूरत आलेख है मित्र। उम्मीदे जगाता और हौंसला बंधाता हुआ। खिलाडियों से संबधित आपके अनुभव और उसके अनुरूप ही आपकी भाषा मुझे बार बार इन आलेखों को पढने के लिए बाध्य करती रहेगी।

Unknown said...

मेरे शिक्षक अक्सर कहा करते थे--बिना धर्म के आदमी नहीं बना जा सकता और आदमी वही जो दिए दिलाए धर्म के आगे घुटने ना टेके..अपना निजी धर्म तलाशे..मेरे शिक्षक ये भी कहा करते थे कि धर्म बड़े गूढ़ प्रश्नों के उत्तर देता है..मसलन ये प्रश्न कि मेरे जैसा ही कोई और भी है इस धरती पर जिसे मैंने नहीं देखा..देख भी नहीं पाऊंगा..मगर जो ठीक मेरी ही तरह जीवन को जीता,सोचता और भोगता है।अपने शिक्षक की ये बातें तब ज्यादा गहराई से नहीं समझ पाया..मगर इस लेख को पढ़ने के बाद अपने शिक्षक का पढ़ाया बार -बार याद आया..आपने मिंज के जीवट को याकूब के जीवट से जोड़कर एक झटके से उस पद का अर्थ खोल दिया जिसे मेरे शिक्षक निजी धर्म कहकर समझाना चाहते थे--आखिर मिंज और याकूब एक दूसरे से अनजान हैं..लेकिन अस्तित्व के एक गहरे तल पर दोनों की जीवन कथा कितनी एक है..दोनों ने अपने खेल को अपना निजी धर्म बनाया..एक का देवता क्रिकेट बना तो दूसरे की देव हुई हॉकी..और अपनी अराधना में दोनों ने कहीं कोई कसर नहीं छोड़ी..
दाद देता हूं उस पारखी आंख की जो दो जिंदगियों के बीच मौजूद इस गूढ़ रिश्ते को देखती है..और समझकर खेल के सहारे जिंदगी को समझाती है..प्रेरणादायी आलेख..मुबारकबाद
चंदन श्रीवास्तव

Unknown said...

इस ब्‍लॉग को पढ़ने के बाद इंसानी हिम्‍मत और लगन का आभास होता है। जो किसी भी हालात में जिंदगी से समझौता करने को तैयार नहीं। वे अपनी आत्‍मशक्ति और दृढ़ निश्चय के दम पर जिंदगी को अपनी शर्तों पर चलाने का माद्दा रखते हैं।

aditya pujan said...
This comment has been removed by the author.
aditya pujan said...

मनुष्‍य का आत्‍मविश्‍वास ही उसका सबसे बड़ा संबल होता है। बाधाएं चाहे कितनी बड़ी हों, हमारी लगन और इच्‍छा शक्ति के आगे उनका कोई अस्तित्‍व नहीं। इस तरह के उदाहरण न केवल जीवन में कुछ कर गुजरने की प्रेरणा देते हैं, बल्कि मानव को मानवता के गर्व का भी अहसास दिलाते हैं।