Thursday, August 28, 2008

खेल के सहारे जीती ज़िंदगी की जंग

एक ठहरी हुई तस्वीर गाहे बगाहे दस्तक देती रहती है। डाइविंग प्लेटफॉर्म पर अपनी दोनों बांहे स्वीमिंग पूल के समानान्तर फैलाए एक शख्स पर जाकर ठहर जाती हैं। वो शख्स पूरी तल्लीनता से अपनी मंज़िल की ओर बढ़ने को तैयार है। वो हवा में कूदान भरेगा, समरसाल्ट करता हुआ पानी की ओर मुखातिब होगा। किसी नर्तक की खूबसूरती के साथ पानी की सतह से नब्बे डिग्री का कोण बनाकर उसमें दाखिल होगा। आप कह सकते हैं कि डाइविंग में तो ऐसा होता ही है। जरुर डाइविंग में ऐसा ही होता है।

लेकिन, मेरी ठहरी तस्वीर में एक कंपकंपाता सा सवाल जुड़ा है। क्या आज ये शख्स यानी ग्रेग लुगानिस पानी की गहराई से जब वापस सतह पर लौटेगा तो सोना फिर उसके हाथ में होगा? सिओल ओलंपिक में शुरुआती दौर बोर्ड से सिर टकराने के बाद लगे 5 टांकों से ये सवाल वाजिब है।

लुगानिस कूदान भरते हैं,हवा में समरसाल्ट करते हुए। उनका शरीर हर बार की तरह पूरी सटीकता के साथ पूल में दाखिल होता है।..और सोना एक बार फिर उनके हाथ में होता है। ये चुनौती भी लुगानिस को जीत की राह से डिगा नहीं पायी। उसका हौसला, उसका जीवट मेरी इस तस्वीर को एक मुकम्मल तस्वीर में तब्दील कर देता है। एक ठहरी हुई तस्वीर।

इस तस्वीर के बाद मैं चुनौतियों से रुबरु होते खिलाड़ियों को जब भी देखता हूं तो चेहरे दर चेहरे निगाहों से गुजर जाते हैं। इस कड़ी में कैंसर से जूझते टूर डे फ्रांस फतेह करने वाले लांस आर्मस्ट्रांग होते हैं,तो कभी बीजिंग ओलंपिक में कैंसर से ही पार पाकर दस किलोमीटर मैराथन तैराकी में गोल्ड मेडल तक पहुंचते होलैंड के मार्टिन वान डर वेडन। कभी टूटे जबड़े के साथ वेस्टइंडीज के खिलाफ गेंदबाजी करते अनिल कुंबले या बीजिंग ओलंपिक में दस टांकों के साथ अपने प्रतिद्वंदी को जवाब देते अखिल कुमार। ज़िंदगी से मिली चुनौती से पार पाते और खेल में ही मंज़िल तलाशते ये खिलाड़ी। लेकिन,इन सबके जीवट के लिए पैमाने के तौर पर ग्रेग लुगानिस ही सामने होते हैं।

बुधवार को एक बार फिर लुगानिस की यह तस्वीर याद आ गई। कोलंबो में एक खिलाड़ी के हर स्ट्रोक के बीच मैं लुगानिस के समानान्तर एक और पैमाना देख रहा था। एक बिलकुल अलग तरीके से। लुगानिस ने ज़िंदगी पर जीत दर्ज कर खेल में अपनी मंजिल हासिल की थी। यहां ये शख्स भावनाओं के उफान के खिलाफ अपनी मंजिल तलाश रहा था। अंतरराष्ट्रीय मंच पर एक पखवाड़े पहले ही कदम रखने वाले विराट कोहली के आगे बढ़ते सफर को देखकर ऐसा ही आभास होता है। महज चौथा वनडे खेल रहे विराट कोहली के हर स्ट्रोक,मैदान में उनके हाव भाव में लगातार खुद को साबित करने का जुनून तैरता है। उसका बीता कल उसके जुनून को हर पल परवान चढ़ाता दिखता है।

अंडर-19 वर्ल्ड कप चैंपियंन टीम के कप्तान विराट कोहली को पहले सचिन और फिर सहवाग चोट की वजह से टीम में जगह मिली। कोहली को ओपनिंग की जिम्मेदारी सौंपी गई। एक मिडिल ऑर्डर बल्लेबाज के लिए पारी की शरुआत करना-वो भी अंतरराष्ट्रीय मंच पर-कोई आसान काम नहीं है।

लेकिन,जीवट से भरपूर ये बल्लेबाज किसी चुनौती से खुद को अलग करने की सोच भी नहीं सकता। दो साल पहले कर्नाटक के खिलाफ रणजी मुकाबले में वो 40 रन पर नॉटआउट पैवेलियन लौटे थे। टीम के सामने फॉलोआन का खतरा मंडरा रहा था। अगली सुबह सारा दारोमदार विराट और दूसरे छोर पर खड़े पुनीत बिष्ट पर था। सुबह होती,इससे पहले ही रात तीन बजे विराट कोहली के पिता का निधन हो गया। ऐसे में, बल्लेबाजी तो दूर कोई कोहली के कोटला तक पहुंचने की उम्मीद नहीं कर रहा था। लेकिन, कोहली कोटला पहुंचे,अपने साथी पुनीत बिष्ट के साथ साझेदारी को आगे बढ़ाया। इस दौरान,वो अपने साथी को विकेट पर टिके रहने की सलाह देते रहे। नब्बे रन की पारी खेलकर वो जब पैवेलियन लौटे तो कोटला पर मौजूद हर शख्स इस नौजवान बल्लेबाज के जीवट का कद्रदान हो गया। पैवेलियन लौटने के बाद विराट ने सीधे रुख किया घर का-अपने पिता को अंतिम विदाई देने के लिए।

जीवटता की इस कसौटी पर कोहली के बराबर कोई शख्स खड़ा दिखता है तो वो है सचिन तेंदुलकर। 1999 के वर्ल्ड कप के ठीक बीच तेंदुलकर के पिता रमेश तेंदुलकर चल बसे। सचिन बीच वर्ल्ड कप से घर लौटे,पिता को आखिरी विदाई दी,और अगले ही दिन फिर वो मैदान में थे। अपने देश, अपनी टीम, अपने खेल की खातिर। सचिन ने ब्रिस्टल के मैदान पर कीनिया के खिलाफ शतक पूरा किया । आकाश की ओर निहारा-कुछ इस अहसास के साथ कि पिता कहीं दूर से उनकी इस पारी को देख रहे होंगे।

खेल के मैदान पर लुगानिस और लांस आर्मस्ट्रांग एक छोर पर खड़े दिखायी देते हैं, तो दूसरे छोर पर विराट कोहली और सचिन तेंदुलकर। लुगानिस और आर्मस्ट्रांग जहां ज़िंदगी से जंग लड़ते हुए खेलों में अपनी मंजिल को हासिल करते हैं, वहीं कोहली और तेंदुलकर खेल के सहारे अपनी ज़िंदगी में आए सूनेपन को भर रहे हैं। वो खेल के जरिए ज़िंदगी की जंग को जीतने के लिए आगे बढ़ते दिखते हैं।

4 comments:

Unknown said...
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Unknown said...

फिल्म उमराव जान के एक सीन में कोठे पर कबूतरों को दाना चुगते देखने के लिए बैठा बुजुर्ग उमराव जान को समझाता है--या तो किसी की हो जाओ या किसी को अपना बना लो--सदियों से प्रेम का यही फलसफा रहा है..जिन खिलाड़ियों का आपने जिक्र किया है--उनमें एक बात सामान्य है--सब अपने खेल के हो गए..उन्होंने अपनी खुदी खेल में तलाशी...इस बिन्दु पर आकर खेल सिर्फ हार जीत का आंकड़ा नहीं रहता..नहीं जीत के गर्व और हार के दुख का कोई बयान रहता है..इस बिन्दु पर आकर खेल संगीत की सरहदों को छू लेता है..उस सरहद को जिसे महसूस हर संगीतकार ने किया और राग में पूरा पूरा ढालने की कोशिश करते रहे..और इसी तरह उस विराट सत्ता की झलक पायी जिसके गीत संत और भक्त आज तक गाते हैं..
खेल को नए कोण से देखने दिखाने के लिए मेरी शुभकामनाएं..
चंदन श्रीवास्तव

Udan Tashtari said...

बढ़िया आलेख..आभार.

SANJAY SRIVASTAVA said...

sanjay srivastava
सही बात है खेल ही तो जिंदगी है...दरअसल विराट कोहली हों या सचिन.....इन सबमे ख़ास है इनका जीवटपन...ऐसा नही है की पिता को खो देने के बाद ख़ुद को संभालना इनके लिए भी आसान रहा होगा...लेकिन उस मौके पर भी उनके लिए अपने दुःख से कहीं ज़्यादा बडा था देशहित या टीमहित..... और जब ऐसे ही मौके पर आप वाकई बडे हो जाते हैं...तब आपका कमिटमेंट भी गज़ब का दिखता है...इसीलिए सचिन इतनी बडी लाइन खींच लेते हैं की उसके पास पहुँच पाना भी नामुमकिन हो जाता है...ऐसे मे ही विराट कोहली इंटरनेशनल लेबल पर पहली बार ओपनिंग मे उतरने के बावजूद धाक जमा देते हैं....शायद इसे ही कहते हैं king size life...king size khel...वैसे चाहे ज़िंदगी हो...चाहे खेल...ऐसे उदाहरण rarely देखने को मिलते हैं....जो इनसे गुज़र गया वो महान हो जाता है.
sanjay srivastava