मुन्नाभाई एमबीबीएस का वह बुजुर्ग बार बार उभार ले रहा था। जैसे जैसे मैं एक लेख को पढ़ता गया, मुन्नाभाई के साथ कैरम खेलता वह बुजुर्ग उतनी ही शिद्दत हावी होता गया। मुन्नाभाई का ये बुजुर्ग अपनी ज़िंदगी से आखिरी लड़ाई लड़ रहा है। उसका बेटा डॉक्टर है, लेकिन न दवा, न दुआ-कोई भी उसे ज़िंदगी की ओर लौटाता नहीं दिख रहा। तभी, मुन्नाभाई कैरम की बिसात सजाता है। गोटियों की खनखनाहट से बुजुर्ग में हरकत होती है। एक बार फिर वह स्ट्राइकर से निशाना साधता है-रानी (क्वीन) पर। देखते ही देखते उसने ज़िंदगी को गले लगा लेती है।
ये कहानी फिल्मी है लेकिन ऐसी ही एक कहानी से मैं रुबरु हुआ, कुछ पुराने पन्ने पलटते हुए। अब से दो दशक पहले भारतीय खेल पत्रकारिता में एक शख्स था, जिसे हम मिसाल की तरह सामने रखकर आगे बढ़ने की कोशिश करते थे-मदुर पथारिया। वो खासतौर से क्रिकेट पर ही लिखते थे,लेकिन उनकी कलम क्रिकेट के मुकाबलों और आंकड़ों से कहीं आगे ले जाती थी।
मदुर की कई रिपोर्ट आंखों के सामने से गुज़री लेकिन जिसका मैं ज़िक्र करने जा रहा हूं, वो मुझसे छूट गई। दो साल पहले विजडन एशिया ने क्रिकेट के बेहतरीन लेखों का एक विशेषांक निकाला।इसमें रोहित बृजनाथ मदुर के एक खास लेख को चुना। वो लेख भारतीय क्रिकेट पर नहीं था। दरअसल, स्पोर्ट्स वर्ल्ड में छपी यह कहानी मदुर ने अपने पिता को याद करते हुए लिखी थी।
ये कहानी है क्रिकेट के सहारे अपने पिता को फिर पाने की। मदुर की कहानी शुरु होती है-इस बात से कि कैसे स्पोर्ट्स वर्ल्ड में काम करने के दौरान भारतीय क्रिकेट टीम को कवर करते-करते वो इतना मशगूल हो गए कि पता ही नहीं चला कि बाप-बेटे के बीच एक अंजान सी दीवार खड़ी हो गई। मदुर अपने काम में मशगूल थे,तो पिता अपनी समाजसेवा और धार्मिक कामों में।
लेकिन,एक दिन अचानक बाथरुम में फिसल जाने की वजह से मदुर के पिता पैरालिसिस का शिकार हो गए। उनके दांहिने हिस्से ने काम करना बंद कर दिया। एक के बाद एक डॉक्टर बदलते गए। नए से नए प्रयोग उन पर होते गए लेकिन हालात में कोई बदलाव नहीं आया। उनकी ज़िंदगी एक बंधे बंधाए ढर्रे में सिमट गई। वक्त से जागना, वक्त से नाश्ता, वक्त से फिजियोथैरेपी, वक्त से टीवी, वक्त से डिनर और फिर वक्त से ही सोना.....।
लेकिन, अचानक एक दिन उनमें तेज़ी से हरकत हुई। नर्स और अपनी लाठी के सहारे वो जैसे तैसे अपने बेडरुम से बाहर आए,और नज़रें टेलीविजन पर गढ़ा दीं। भारत और इंग्लैंड के बीच हो रहे कलकत्ता टेस्ट को देखने के लिए। पहले दिन कोई खास प्रतिक्रिया नहीं। दूसरा दिन-भारत ने इंग्लैंड को आउट किया तो उनके दांहिने हिस्से में हल्की सी जान आती दिखायी दी। तीसरे दिन-उन्हें मैच में आनंद आने लगा। चौथे दिन इंग्लैंड मैच में संघर्ष कर रहा था तो वो मैच में डूबते दिखायी दिए। पांचवे दिन भारत ने मैच जीता तो उनके पास कहने के लिए एक कहानी थी। आठ महीने में पहली बार।
मदुर इस लेख में बताते हैं कि धीरे धीरे क्रिकेट उनकी दिनचर्या में शामिल हो गया। अब वो रोज़ाना अपनी लड़खड़ाती जुबां से पूछते कि अगला मुकाबला कब है। मदुर उन्हें तारीख बताते। मैच एक-दो दिन छोड़कर होता तो वो कहते “क्या रे...”। मतलब ये कि मैच की देरी उन्हें कचोटती है। वो इंतजार करने को तैयार नहीं थे।
लेकिन, कहानी यहां खत्म नहीं होती। यहीं से शुरु होती है। दरअसल, कभी सूरत छोड़कर कलक्तता में बसे मदुर के पिता के लिए क्रिकेट ज़िंदगी था। सूरत में बदहाली के बीच क्रिकेट के शुरुआती गुर सीखने वाले मदुर के पिता ने एक दशक तक कलकत्ता के मोहमडन स्पोर्टिंग कल्ब के लिए पारी की शुरुआत की थी। वो जब भी कलकत्ता के कालीघाट मैदान से गुजरते तो मदुर को बैठाकर बताते “देखों,यहां मैंने हाफ सेंचुरी बनायी थी। ” अगर वो हाईकोर्ट ग्रांउड से गुजरते तो उन्हें वहां 1957 में खेली अपनी 72 रन की पारी याद आ जाती। और मोहमडन स्पोर्टिंग ग्राउंड पहुंचते तो वहां तो उनके पास कहने को अपना पसंदीदा किस्सा होता- “वो टॉवर देख रहे हो मदुर। मैंने प्वाइंट के ऊपर से वहां तक छक्का जमाया था। एक बार तो गेंद ही खो गई थी। ” 55 साल की उम्र तक वो मैदान पर अपने इस जुनून से जुड़े रहे। जब इससे हटे तो मदुर में क्रिकेटर तलाशने लगे। मदुर की छोटी छोटी पारियों को भी वो मैदान मे देखने जाते,और उसके किस्से अपनी पत्नी को बताते। लेकिन, मदुर पहले क्रिकेटर से क्रिकेट पत्रकार बने, और फिर क्रिकेट पत्रकारिता भी छोड़ बिजनेस पत्रकार बन गए। धीरे धीरे क्रिकेट उनकी ज़िंदगी से दूर और दूर होता चला गया। उसके बाद,वो पैरालिसिस का स्ट्रोक............
खेल की यही ताकत है। शायद यहीं आकर खेल ज़िंदगी बन जाता है।
खेल के बारे में मशहूर अमेरिकी खेल पत्रकार हॉवर्ड कोसल ने कहा भी है-स्पोर्ट्स इज ह्यूमन लाइफ इन माइक्रोकॉजम। ज़िंदगी हर बिंब को आप खेल में तलाश सकते हैं। मदुर ने भी अपने पिता को भी क्रिकेट की छांव में वापस पा लिया।
Wednesday, August 27, 2008
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3 comments:
सच कहा आपने...खेल की यही ताकत है! सिर्फ खेल ही नहीं हमें जो पसंद हो उसमे डूबने पर इसी तरह इंसान जिंदगी को खुशनुमा बना लेता है...बहुत अच्छी पोस्ट!
sanjay srivastava said
गजब का लेख...जो पहली लाइन से ही बाँधता है ...और अंत तक पढ़ने के लिए मजबूर कर देता है..इसकी असली मजबूती ही यही है...छोटे-छोटे वाक्य...भावनाओं को छूने वाला...नरेन्द्र मैं पहली बार तुम्हे इस तरह लिखते देख रहा हूँ. यार तुमने जो बात कहनी चाही है वो वाकई बेहद असरदार प्रभाव डालती है...
sanjay srivastava
बहुत उम्दा आलेख-असरदार.
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