Tuesday, August 26, 2008

बाज़ार के दुर्योधनी दौर में क्रिकेट का बालकृष्ण

ये दिल मांगे मोर-बच्चों की धमाचौकड़ी के बीच ये गूंज आपके कानों तक पहुंची नहीं कि एक पूरी की पूरी तस्वीर जेहन में शक्ल ले लेती है। टेलीविजन के स्क्रीन पर नज़र डाले बिना कृष्ण के बालपन की छटाओं की अनुगूंज समेटे एक पूरा बिंब आंखों के सामने होता है। आप उसे टेलीविजन पर देखते भर हैं, और ये बिम्ब देखने से पहले आत्मसात हो चुका होता है। सचिन तेंदुलकर के इर्दगिर्द बुनी ये तस्वीर साल दर साल हमारे अवचेतन में बनी बालकृष्ण की छवि से एकाकर हो उठती है।

लेकिन, अब ये छवि नहीं दिखे रही। सचिन तेंदुलकर को लेकर गढ़े गये पेप्सी के तमाम विज्ञापन अब गायब हो गये हैं। अब "ये है यंगिस्तान की गूंज" के बीच उभार ले रहे हैं पेप्सी के नए विज्ञापन- हमारे नौजवान क्रिकेटर-इशांत शर्मा से लेकर रोहित शर्मा तक को लेकर। ये सब अभी तेंदुलकर को क्रीज से बेदखल करने में भले मीलों दूर हों लेकिन बाजार की नयी दुनिया में वो सचिन तेंदुलकर को खारिज कर रहे हैं। अपने खेल से नहीं, आक्रामकता की लहरों पर सब कुछ ध्वस्त करते बाजार के सहारे। इस सवाल की ज़मी तैयार करते हुए कि क्या सचिन तेंदुलकर महानायक के पायदान से बेदखल हो रहे हैं। क्या ये एक आईकान के इतिहास में तब्दील होने की शुरुआत है। इसका जवाब भी क्रिकेट के बदलते चेहरों के बीच से ही ढूंढना पड़ेगा। क्रिकेट कोई एक ठहरी हुई सोच नहीं है। एक ही साल में, एक ही दौर में हम टेस्ट, वनडे और टी-२० से रुबरु होते हैं। लेकिन,क्रिकेट के ये तीन चेहरे, तीन युग, तीन दौर और तीन अलग अलग संस्कारों को जाहिर करते हैं।

टेस्ट क्रिकेट जीवन मूल्यों में संयम का प्रतीक बनकर हमारे सामने आता है। ये उस दौर के क्रिकेट के चेहरों को बनाए रखने की कोशिश में जुटा दिखता है, जब खुले बाजार की अर्थव्यवस्था ने दस्तक नहीं दी थी। एक नियंत्रित अर्थव्यवस्था के बीच समाज और राजनीति अपना रास्ता तैयार कर रहे थे और क्रिकेट अपनी पांच दिनी टेस्ट की बुनावट में इन्हीं मूल्यों को प्रतिबिम्बित कर रहा था। राज और समाज में संयम पर जोर था तो इसी तर्ज पर टेस्ट क्रिकेट ने अपने आईकन, अपने महानायक गढ़े। सुनील गावस्कर से लेकर गुंडप्पा विश्वनाथ तक और बिशनसिंह बेदी से लेकर चंद्र्शेकर तक, और आगे बढ़े तो कपिल देव तक। शायद इसलिए आज जब हम टेस्ट से रुबरु होते हैं, तो लगता है कि उन्हीं संस्कारों, भावनाओं और मूल्यों को जिंदा रखने की कोशिश में है।

ठीक यहीं, वनडे क्रिकेट एक नए चेहरे को गढ़ता हुआ सामने आया। ये जीत का चेहरा था। इसकी शुरुआत अब से 25 साल पहले लॉर्ड्स के मैदान से हुई थी। कपिल की अगुआई में मिली वर्ल्ड कप जीत से शुरु हुआ ये सिलसिला आगे बढ़ा । क्रिकेट की क्रीज पर तेंदुलकर के कदम रखने के साथ ही देश मे खुले बाजार के पक्ष में सुगबुगाहट शुरु हो चुकी थी। लोग पुराने को खारिज करने के लिए कह रहे थे। इस दौर में संयम के पुराने मूल्य पर सवाल उठाए गए। ये एक चेहरे से दूसरे चेहरे में तब्दील होने का दौर था। पुराने मध्यवर्गीय डाक्टर, इंजीनियर या वकील जैसे पेशे अपनी चमक खो रहे थे और इनकी जगह ले रहे थे तरह तरह के मैनेजमेंट के कोर्स। ये ऐसा दौर था, जहां संयम धीरे धीरे टूट रहा था। मूल्यों को बनाए रखने की कोशिश भी थी, और कुछ नया करने की ललक भी। क्रिकेट में ये दौर नुमाया हुआ वन डे मैच के रुप में। इस दौर ने भी तेंदुलकर की अगुआई में सौरव और द्रविड़ की शक्ल में अपने नए आइकन ,नए महानायक गढ़े।

क्रिकेट का तीसरा और सबसे नया चेहरा टी-20 का है। ये वो दौर हैं,जहां खुले बाजार की अर्थव्यवस्था अपने चरम पर है। इसका सबसे आक्रामक चेहरा है एसईजेड। एसईजेड पर नज़र डालें तो प्रतीत होता है कि आम आदमी के हाथ में अब बचाने को शायद जो कुछ था वो सब छिटक रहा है- कई बार भय पैदा करता हुए कि शायद कुछ भी न बचे। अब बाजार को आक्रामकता चाहिए और ठीक इसी तरह टी-20 के हर चेहरे को भी। ट्वेंटी-२० वर्ल्ड कप में पाकिस्तान को शिकस्त देने के बाद मैदान में ट्रॉफी उठाए महेन्द्र सिंह धोनी और उनके साथियों के आसपास बिखरी कागज की चिंन्दियों को याद कीजिए । अहसास होगा कि कोई मुकाबला नहीं जीता गया, एक टीम ने पूरी आक्रामकता से अपने विरोधी को ध्वस्त कर दिया है। बिखरी चिन्दियां जैसे उसी के निशां हों । ये ऐसी तस्वीर है,जो कल तक पैसे की खनक पर रफ्तार पकड़ती फॉर्मूला वन या यूरोपीय फुटबॉल मैदानों की पहचान थी। ये सभी बिंब अब इस जेंटलमैन गेम कहे जाने वाले इस खेल में भी उतर आए हैं।

दरअसल, टी-20 की आक्रामकता ही उसकी ताकत है, उसकी पहचान है। यहां पहली गेंद से ही मरने- मारने का नियम लागू हो जाता है। लगता है आप तनी हुई बंदूक की नाल के सामने खड़े हैं। वनडे क्रिकेट में ऐसी आक्रामकता आखिरी दस ओवर में शक्ल लेती थी। टेस्ट में इसका आभास दोनों टीमों की एक एक पारी खत्म होने के बाद शुरु होता था। लेकिन टी -20 में आक्रामकता अपने चरम पर है। इशांत शर्मा, श्रीसंत या रोहित शर्मा क्रिकेट के इस नए चेहरे के प्रतीक हैं। यहां हार जीत से आगे जाकर बस लड़ जाना है, भिड़ जाना है। यह यंगिस्तान है,जिसे खेल ने नहीं बाजार ने गढ़ा है।

बाज़ार की नजर यंगिस्तान पर है। बाजार हम सब से पहले जानता है कि इस देश में नौजवान उम्र के लोगों की तादाद करीब 50 फीसदी से ज्यादा है। इस तादाद को बाजार न सिर्फ एक चेहरा देता है बल्कि चेहरे के साथ संस्कार भी सुझाता है। बाजार का सुझाव है कि यंगिस्तान में अपने पीछे सब कुछ ध्वस्त कर देने की आक्रामकता होनी चाहिए। पेप्सी आक्रमकता को आवाज देते लम्हों और उत्तेजना से भरपूर चेहरों की तलाश में है।

इन सबके बीच आकर तेंदुलकर को तो पीछे छूट ही जाना है। इस दौर का हर पल तेंदुलककर को बूढ़ा दिखाने की कोशिश तो करेगा ही। सचिन में पिता की पीढी का संयम है और इस संयम से बंधकर उनका जोश अपनी सीमा में रहकर जीत की सरहदों तक ले जाता है। सचिन का खेल कभी फैशन में तब्दील नहीं हुआ। वो मास्टर ब्लास्टर तो हैं लेकिन ब्लास्टर बनने से पहले मास्टर हैं। सचिन का खेल फैशन में तब्दील नहीं हो सकता और फैशन तो वही है जो रोज बदलता हो। जो लगातार ये सवाल करता हो कि नया क्या है। आज का उपभोक्ता भी पैसे की खनक लिए इसी सवाल के साथ बाजार में पहुंचता है कि उसके लिए नया क्या है। ये रफ्तार का दौर है। एटीएम मशीन से गिरते नोट, इंटरनेट पर बहती जानकारियां और शहर की भीड़भाड़ को चीरकर हवा से बातें करती मेट्रो। आम जिंदगी के बिंब से एकाकार होकर ही टी-20 ने शक्ल ली है। टी-20 के बिंब आप इनमें महसूस कीजिए तो आपको सचिन आला रे से लेकर यंगिस्तान की यात्रा पर हैरत नहीं होगी।

लेकिन,एक बात तो तय है कि तेंदुलकर को मापने का पैमाना यहां क्रिकेट नहीं है। तभी तो दो दशक तक लगातार क्रिकेट खेलने के बावजूद सचिन अपनी लय नहीं खोते बल्कि एशिय़ा के सबसे बडे वनडे क्रिकेटर का खिताब हासिल करते हैं। यही नहीं, आज भी गाहे बगाहे अगले वर्ल्ड कप में जीत की उम्मीद जगाते हैं। बाजार बेशक उसे अपने पैमाने पर बौना साबित करने पर तुला हो लेकिन एक बात तो तय है कि सोने को परखने की सिर्फ एक कसौटी होती है तो सचिन को परखने की भी सिर्फ एक ही कसौटी होगी। बेशक, उसमें मौजूदा दौर की आक्रामकता न हो लेकिन वो ऐसे मूल्य और उम्मीदें जगाते है, जो उन्हें क्रिकेट की सीमा रेखा से बाहर ले जाती हैं। तभी तो उसे भारतीय महानायकों में महात्मा गांधी से लेकर अमर्त्य सेन तक जाने वाली कतार में जगह देने पर किसी को हैरत नहीं होती। वो देश के एक चेहरे की तरह सबके सामने होते हैं। यंगिस्तान की आवाजों के बीच इस पहलू को आप दबाना भी चाहें तो कामयाब नहीं हो सकते। ये सचिन तेंदुलकर हैं। समय, समाज, काल और देश से आगे निकल चुके सचिन रमेश तेंदुलकर।

(दैनिक भास्कर में यह लेख जुलाई माह में प्रकाशित हो चुका है)

2 comments:

Udan Tashtari said...

बेहतरीन आलेख.

Amit Raikwar said...

सर 'ए' क्लास लेख है.....

अमित रायकवार