Friday, August 22, 2008
.....और शिखर दूर हो गया
अगर वो शिखर छू लेती तो वहां भी उसे अकेला ही होना था। शिखर पर अकेला होना कुदरत का कायदा भी है। मंगलवार को वो शिखर पर नहीं थी, लेकिन बिलकुल अकेली थी। बीजिंग ओलंपिक के प्रतीक चिन्ह बन चुके बर्ड्स नेस्ट में लाखों निगाहें उसकी ओर मुखातिब थीं। लेकिन,वो ट्रैक पर दोनों हाथों से अपने चेहरे को घुटने में छिपाए अकेली बैठी थी। अपने चहेते ट्रैक पर अमेरिका की सौ मीटर हर्डल की सबसे बड़ी उम्मीद लोलो जोन्स की ये तन्हा तस्वीर मेरे जेहन से अब कभी दूर नहीं हो सकती। अपने शिखर को छूने से महज बीस मीटर पहले वो बिलकुल अकेली छूट गई थी।
अगर वो बीस मीटर बाद अपना शिखर हासिल कर लेती तो भी उसे वहां अकेले ही खड़ा होना था, लेकिन यहां अकेला छूटने और वहां अकेले खड़ा होने में एक बड़ा फर्क था। शिखर पर काबिज होते ही वो इंतजार कर सकती थी कि कोई आकर उससे हाथ मिलाएगा। उसकी खीची लकीर को पार करेगा। लेकिन, ट्रैक पर अकेले बैठी लोलो जोंस किसी का इंतजार नहीं कर सकती थी। इस अकेलेपन में उसे अपने बिखरे ख्वाबों के साथ साथ अपने हौसलों को टटोलना है, जो उसके शिखर से बीस मीटर पहले आखिरी हर्डल से टकराकर टूट गए। उसे इस बात का जवाब तलाशना होगा कि अगर हर्डल से टकराहट पूरे साल में सिर्फ एक-दो बार होती है,तो वो यह पल आखिर उसकी जिंदगी के सबसे बड़े मुकाबले में ही क्यों आया अगर किस्मत ही आपके ख्वाबों को हकीकत की शक्ल देती है तो बीते चार साल के हर एक लम्हे में बहाया उसका पसीना क्या बेमानी था?
आखिर,ये वो ही लोलो जोंस थी,जिसका ख्वाब चार साल पहले भी दरक गया था। लेकिन,तब वो एथेंस पहुंचने से पहले बिखरा था। अमेरिकी टीम के ट्रायल में ही उसे बाहर कर दिया गया था। लोलो जोंस अपनी जिंदगी के ऐसे मोड़ पर खड़ी थी,जहां घर की बदहाली से पार पाने के लिए वो अपनी नौकरी तलाश कर सकती थी या फिर इन हर्डल्स को पार पाते पाते ज़िंदगी की चुनौती से भी पार पा लेती। जोंस ने ये दूसरी राह चुनी लेकिन किस्मत ने इस राह में उसे एक बार फिर अकेला छोड़ दिया।
शिखर छूने की कोशिश में अकेले तो टायसन ग्रे भी छूट गए। चार गुणा सौ मीटर की रिले में अपने साथी डार्बिन पटोन से आखिरी मोड़ पर बैटन नहीं थाम पाए। एक तय शिखर उनके हाथ से भी छूट गया। जिस तरह 100 मीटर की स्प्रिंट में कल तक के इस वर्ल्ड चैंपियन को फाइनल में उतरने का मौका नहीं मिला, उसी तरह रिले का एक तय शिखर भी रफ्तार पकड़ने से पहले ही थम गया। लॉरा विलियम्स भी टायसन ग्रे के साथ अकेली छूट गईं। अपने साथी टॉनी एडवर्स को इन सवालों का जवाब देने के लिए कि कैसे लगातार दो ओलंपिक में वो बैटन की अदला बदली में चूक गईं। चार साल पहले एथेंस में विलियम्स मरियम जोंस को बैटन नहीं थमा पाई थीं,तो शुक्रवार को वो टॉनी एडवर्स से बैटन नहीं ले पाई। 1980 के मास्को ओलंपिक को छोड़ यह पहला मौका था, जब अमेरिका रिले के विक्ट्री पोडियम से बाहर था। लेकिन, यहां सवाल इस बेजोड़ रिकॉर्ड से आगे का है। आखिर अपने करियर के सबसे नाजुक मोड़ पर दबाव आपके चार साल की जी तोड़ मेहनत और संजोए ख्वाब पर भारी पड़ गया या फिर यहां भी ज़िंदगी की दौड़ को किस्मत ने तय किया।
चीन के लियू जिआंग के लिए भी अगले चार साल सवालों से भरे हैं। 110 मीटर हर्डल में जीत के सबसे बड़े दावेदार विक्ट्री पोडियम के लिए अपना पहल कदम उठाते,इससे पहले ही उनके ख्वाब बिखर कर रह गए। एथेंस में पश्चिमी देशों की ताकत कहे जाने वाले इस इवेंट में जिआंग ने गोल्ड हासिल कर हर चीनी का दिल जीत लिया था। इस हद तक कि बीजिंग में हर दूसरे विज्ञापन बोर्ड में इनकी तस्वीर ही दिख रही थी। शायद चीन के लिए गोल्ड की सबसे बड़ी और पहली उम्मीद बन कर उबरे थे जिआंग। लेकिन,लोलो जोंस की तरह 20 मीटर पहले वो अपनी मंजिल से नहीं चूके, वो तो मंजिल की तरफ कदम बढ़ाते,उनके लिए सबकुछ ठहर गया था। मांसपेशियों में खिचाव के साथ बर्ड नेस्ट की सुरंग से ओझल होते होते उनसे संजोयी चीन की अरबों उम्मीदें भी अंधेरे में खो गईं।
लेकिन,लोलो जोंस से लेकर जिआंग तक या टायसन ग्रे से लेकर विलियम्स तक सभी को इस अंधेरे से गुजरकर अगले चार साल में शिखर की राह तलाशनी होगी। इस सोच के साथ कि आप ज़िंदगी में अगले दस साल का लक्ष्य तो बना सकते हैं,लेकिन दस सेंकेड बाद की भविष्यवाणी नहीं कर सकते। लेकिन,यही ज़िंदगी की सच्चाई है,तो यही खेल की भी।
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9 comments:
आपका ये लेख मुझे बेहद पसंद आया। आपके द्वारा लिखा यह लेख दिल को छु जाने वाला है। ऐसा लेख केवल वही लेखक लिख सकता है जिसने खेलों को बहुत नजदीक से जिया हो,। आपका ये लेख सच में काबिले तारिफ हैं।
शिखा शर्मा
जो भी आपने लिखा वकई दिल को छू लेने वाला है। किसी तरह से आपने खेल के एक छोटे से पल को देखा और जीवन के एक बडे सच को उजागर कर दिया। वाकई अकेले शुरू होने वाला यह जिंदगी का खेल न जाने कहां खत्म हो। जीत हार के बहाने आपने जो जीवन का सच उजागर किया है वाकई यह लेख बेमिसाल है। भावनाओं को जो उतार चढाव आपने दिया मन उसके साथ ही साथ हिलौरे लेता रहा। मैं जब तक इस लेख को पढ रही थी तब तक आंखों के सामने एक तस्वीर सी बनती जा रही थी जिसे इस लेख ने ही उकेरे था। वाकई भावनाओं की जो तस्वीर आपने अपनी कलम तुलिका से उकेरी है वह बेहद बेमिसाल है।
अनिता शर्मा
"अगर किस्मत ही आपके ख्वाबों को हकीकत की शक्ल देती है तो बीते चार साल के हर एक लम्हे में बहाया उसका पसीना क्या बेमानी था?...
आप ज़िंदगी में अगले दस साल का लक्ष्य तो बना सकते हैं,लेकिन दस सेंकेड बाद की भविष्यवाणी नहीं कर सकते।"
नरेंद्र अच्छा लिख रहे हैं। पहली बार आपको गंभीरता से पढ़ रहा हूं।
और हां, कमेंट से ये वर्ड वेरिफिकेशन हटा दें। गैर ज़रूरी है।
प्रोफाइल में एक दो शब्द अनावश्यक छूट गए हैं। देख लें।
बाकी सुखद है। वाकई दुनिया बहुत छोटी है। कहीं और से छूटे तो ब्लॉग की दुनिया ने मिला दिया। अच्छा है।
अनिल सिंह
sanjay said
ये लेख वाकई दिल को छू लेने वाला है, लेकिन ये ज़रूर लगता है कि टैलेंट लगन अौर मेहनत से भी कहीं आगे कुछ है जिसे किस्मत कहा जाता है इसी के चलते सालों की मेहनत और परफ़ेक्शन धरा रह जाता है और आप ठगे से रह जाते हैं
संजय
मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि खेल सिर्फ हार-जीत से जुड़े नहीं होते, बल्कि ये हार-जीत से बहुत आगे जिंदगी और मौत से जुड़े होते हैं। किसी भी स्पर्द्धा में किसी एक खिलाड़ी की जीत या हार सिर्फ उससे नहीं जुड़ी होती, बल्कि लाखों-करोड़ों लोगों की भावनाओं और आकांक्षाओं से जुड़ी होती है। खेल का जुनून ऐसा होता है कि लोगों की जिंदगियां लील जाता है। इतिहास में इसके कई उदाहरण मौजूद हैं। कोलंबिया के फुटबॉलर आद्रेई एस्कोबार की गोली मारकर हत्या कर दी गई क्योंकि उसके एक आत्मघाती गोल ने 1994 के वर्ल्ड कप में उसकी टीम के उम्मीदों धराशायी कर दिया और कोलंबिया का एक पागल प्रशंसक इसे बर्दाश्त नहीं कर सका। दरअसल, वह खेल को जिंदगी से भी बड़ा मान बैठा। इसलिए, जब कोई खिलाड़ी मैदान में उतरता है तो उसके कंधों पर पर लाखों उम्मीदों का बोझ भी होता है, जो जाने-अनजाने उनकी सफलता और असफलता के पीछे एक बड़ी वजह भी होता है। यानी जब कोई खिलाड़ी हारता है तो उसके दुख में कई लोगों का दुख भी शामिल होता है। आपने जिन लोगों के नाम लिए हैं, निश्चित रूप से उनकी पीड़ा को समझा जा सकता है।
लेकिन जो एक हार से ही हार नहीं मान लेते है, वही असली विजेता बन कर उभरते हैं। अमेरिका के महान अथलीट कार्ल लुइस इसके ज्वलंत उदाहरण है।
यही ज़िंदगी की सच्चाई है,तो यही खेल की भी।
-आप सही कह रहे हैं ...बेहतरीन आलेख.
आपने सही कहा है खेल ज़िंदगी है....
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