Thursday, December 18, 2008

टीम इंडिया के ड्रेसिंग रुम में छिपा है जीत का फलसफा


मैं कुछ देर के लिए अब से 13 साल पहले लौटना चाहता हूं- जमैका के सबीना पार्क की ओर। टेलीविजन के पर्दे से ज़ेहन में ठहर गई तस्वीरों की ओर। कुछ देर के लिए वक्त को अपनी मुठ्ठी में भींच कर खड़ी तस्वीरें। ऑस्ट्रेलिया की वेस्टइंडीज पर जीत के बाद ड्रेसिंग रुम में जश्न में डूबे मार्क टेलर और उनके साथियों के चेहरे पर तैरती एक असीम खुशी 13 साल बाद भी सिर्फ कल ही की बात लगती है। उस वक्त पहली बार मैंने देखा था टेलीविजन के पर्दे पर खिलाड़ियों के ड्रेसिंग रुम को पहुंचते हुए। 22 साल बाद वेस्टइंडीज को उसी के घर में शिकस्त देने के ऐतिहासिक लम्हों की जीवंतता से रुबरु कराते हुए।

13 साल बाद खुशी से सराबोर ऐसे ही लम्हों को चेन्नई के चेन्नास्वामी स्टेडियम पर धोनी और उसके साथी जी रहे थे। फर्क सिर्फ इतना था कि कैमरा इस तरह उन तक नहीं पहुंचा था। लेकिन, सचिन तेंदुलकर से लेकर वीरेन्द्र सहवाग तक, युवराज सिंह से लेकर अमित मिश्रा तक और हरभजन सिंह से लेकर प्रज्ञान ओझा और बद्रीनाथ तक, धोनी की टीम का हर एक सदस्य इंग्लैंड पर मिली ऐतिहासिक जीत के जश्न को विराम नहीं देना चाहता था।

लेकिन, आप सोच रहे होंगे कि मैं इन 13 साल को क्यों एक-दूसरे से जोड़ कर देखना चाह रहा हूं। मैं सबीना पार्क पर ड्रेसिंग रुम तक पहुंचे टेलीविजन कैमरे के जरिए मार्क टेलर और उनके साथियों के चेहरे से बहती खुशी के बीच ऑस्ट्रेलियाई टीम के जीत के सूत्र तलाशने की कोशिश कर रहा था। इधर चेन्नई में भी भारतीय ड्रेसिंग रुम में धोनी के इस विजयी टीम के समीकरण उभार ले रहे थे।

दरअसल, चेन्नई में इंग्लैंड के एक नामुमकिन से लक्ष्य तक पहुंचाने में वीरेन्द्र सहवाग से लेकर सचिन तेंदुलकर और युवराज सिंह तक की बेजोड़ पारियां अहम थीं। मैच के बाद हर कोई इन जैसे व्यक्तिगत प्रदर्शनों के आसपास भारतीय जीत के गुत्थी को सुलझाने की कोशिश में जुटा है। लेकिन, जीत के जश्न की गूंज में वीरेन्द्र सहवाग और सचिन तेंदुलकर का एक अहम बयान कहीं खो गया। इन दोनों का कहना था कि इस वक्त भारतीय ड्रेसिंग रुम का माहौल इस कदर बेहतरीन है, जैसा पहले कभी नहीं रहा।

दरअसल, इन्हीं बयानों में भारतीय टीम की सोच का फलसफा छिपा है। गौर कीजिए- ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ सीरिज जीत के बाद भारतीय कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी का कहना था कि टीम की असली ताकत इसी में है कि टीम का हर सदस्य एक दूसरे की कामयाबी में खुशी ढूंढ ले। ठीक इसी सूत्र को पकड़ धोनी की ये टीम भारतीय क्रिकेट में नयी इबारतें लिखने की ओर बढ़ रही है। राहुल द्रविड़ अपने करियर के सबसे खराब दौर से गुजर रहे हैं। उनके टीम में बने रहने पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। लेकिन, आप सचिन तेंदुलकर के बयान पर गौर कीजिए। वो कहते हैं "राहुल सिर्फ एक अच्‍छा बल्लेबाज नहीं, एक महान बल्लेबाज है।" साफ है कि अपनी निजी और टीम की कामयाबी के बीच हाशिए पर छूट रहे अपने कल के साथी को कोई इस कदर हौंसला दे रहा है। उसे एक बार उसके बेहतर दिनों की ओर लौटा ले जाने के लिए।

दूसरी ओर सिर्फ अपना चौथा टेस्ट खेल रहे अमित मिश्रा के लिए हरभजन सिंह की सोच को देखिए। उनका कहना था, कुंबले जैसे शख्सियत की जगह को भरना आसान नहीं है, लेकिन अमित मिश्रा भी बहुत अच्छा गेंदबाज है, और हम सब उसकी मदद करना चाहते हैं। उसके पास गेंदबाजी का हरसंभव वेरिएशन है। यानी तेंदुलकर से लेकर हरभजन तक, हर खिलाड़ी अपने से पहले अपने साथी के लिए, अपनी टीम के लिए खड़ा दिखाई दे रहा है। यही टीम इंडिया की असली ताकत है, जिसकी पहली झलक ड्रेसिंग रुम में ही दिखाई दे जाती है।

ये इस ड्रेसिंग रुम की ही ताकत है, जो अनिल कुंबले की अचानक विदाई को भारतीय क्रिकेट के एक बेमिसाल लम्हे में तब्दील कर देती है। ये इसी ड्रेसिंग रुम से उभार लेती सोच है, जो भारतीय क्रिकेट इतिहास के सबसे बड़े कप्तान सौरव गांगुली को एक यादगार विदाई देती है। ये भी ड्रेसिंग रुम में एक-दूसरे से जुड़े गहरे तार हैं, जो आरपी सिंह को टीम से बाहर करते ही कप्तान धोनी के कथित तौर पर इस्तीफे की पेशकश की शक्ल में सामने आते हैं।

इसी ड्रेसिंग रुम में कोच गैरी कर्स्टन खड़े हैं। वीरेन्द्र सहवाग की नजर में 'मैन टू मैन' मैनजमेंट में वो जॉन राइट को पीछे छोड़ते हैं। इशांत शर्मा के मुताबिक, जब भी आपका खेल उम्मीदों से नीचे गिरता है तो सबसे पहले आपके करीब खड़े होते हैं कोच कर्स्टन। टीम को एक यूनिट में तब्दील करते दक्षिण अफ्रीका के पूर्व सलामी बल्लेबाज। यहीं आप याद कीजिए ग्रेग चैपल को। भारतीय टीम को वर्ल्ड चैंपियन बनाने की हुंकार के बीच ज़िम्मेदारी संभालने वाले ग्रेग के दौर में भारतीय टीम जितना जीती, उससे ज्यादा दरारें भी सामने आती गईं।

धोनी की इस टीम इंडिया में बेशक सचिन तेंदुलकर, वीरेन्द्र सहवाग, राहुल द्रविड़, वीवीएस लक्ष्मण से लेकर हरभजन सिंह, जहीर खान और युवराज सिंह जैसे सीनियर खिलाड़ी मौजूद हैं, लेकिन धोनी की अगुआई में जब ये मैदान पर कदम रखते हैं तो सब सिर्फ एक खिलाड़ी में तब्दील हो जाते हैं। वो खिलाड़ी, जो जीत के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार हों। इसलिए, धोनी भारतीय क्रिकेट में बाकी कप्तानों से अलग पायदान पर खड़े दिखाई दे रहे हैं। न सिर्फ नतीजों में, बल्कि अपनी सोच के साथ भी। यही टीम इंडिया की जीत का सबसे बड़ा सूत्र भी है।

दिलचस्प है कि 13 साल पहले ही ऑस्ट्रेलिया के शिखर पर पहुंचने की शुरुआत सबीना पार्क पर मिली उस जीत से हुई थी। 13 साल बाद चेन्नई के चेपक पर मिली इस जीत में वैसे ही शिखर की ओर बढ़ते कदमों की आहट सुनाई दे रही है।

Tuesday, December 16, 2008

आखिर क्यों न जीना चाहें इस बेखौफ सहवाग को गावस्कर !

वो सचिन तेंदुलकर के टेस्ट क्रिकेट में बल्लेबाजी के शिखर पर काबिज होने का लम्हा था। इस मौके पर सचिन टेलीविजन चैनल पर सुनील गावस्कर के साथ बैठे थे। एंकर राजदीप सरदेसाई ने इन दोनों लेजेंड की उपलब्धियों से गुजरते हुए बातचीत को कुछ अधूरे छूट गए ख्वाब की ओर मोड़ दिया था। उन्होंने गावस्कर से जानना चाहा कि अगर आज भी आपको मौका मिले तो किसकी तरह बल्लेबाजी करना चाहेंगे। टेस्ट क्रिकेट में करीब करीब हर मुमकिन शिखर तक जा पहुंचे गावस्कर का जवाब था- वीरेन्द्र सहवाग। क्यों ? गावस्कर का जवाब था- ही इज फियरलैस। भय से कोसो दूर खड़े होकर वो बल्लेबाजी करते हैं। गावस्कर की नजर में उनकी ये एप्रोच बेमिसाल है।

वीरेन्द्र सहवाग ने बेखौफ अंदाज में बल्लेबाजी करते हुए ढेरो पारियां खेली हैं, और अपनी शख्सित को भी इस एक शब्द के साथ जोड़ दिया है। लेकिन, गावस्कर के मुंह से निकले इन शब्दों के बाद मैं बराबर इस बेखौफ सहवाग से फिर रुबरु होना चाहता था। चेन्नई के चेपक पर अपने स्ट्रोक्स की गूंज के बीच अपनी शख्सियत को परवान चढ़ाते हमारे सामने थे सहवाग। कुछ इस अंदाज में कि चेपक से मेरे जेहन में जुड़ी दिलीप मेंडिस और सचिन तेंदुलकर की बेजोड़ पारियां भी पृष्ठभूमि में छूट गईं।

रविवार की ढलती दोपहर में सहवाग जब विकेट पर पहुंचे तो इंग्लैंड का जीत के लिए दिया 387 रन का लक्ष्य सामने था। एक ऐसा स्कोर, जो इतिहास के पन्नों के बीच चौथी पारी में रनों का पीछा करने के हौसले को तार-तार कर देता है। भारत में अब तक वेस्टइंडीज ही सबसे ज्यादा 275 रनों तक पहुंच सका है। फिर, इस 387 रनों के पहाड़ के बीच चेपक की टूटती और घूमती विकेट भी मौजूद थी। गेंद के टप्पा खाने के बाद उछलती धूल में आप इसे महसूस कर सकते थे। फिर, ये वो भारतीय टीम थी, जहां सहवाग के पीछे तीसरे नंबर पर राहुल द्रविड़ मौजूद तो थे, लेकिन वो राहुल द्रविड, जो अपने सुनहरे करियर के सबसे बुरे दौर से गुजर रहे हैं। भारत के लिए कितनी ही जीत के धुरी रहे द्रविड़ रनों से ज्यादा अब अपने कहीं बहुत पीछे छूट चुके आत्मविश्वास को तलाशने में जुटे हैं। इन सब सवालों और आशंकाओं से पहले खुद सहवाग भी चौथी पारी में बहुत कामयाब नहीं रहे हैं। वो चौथी पारी में अपनी करियर औसत 52 रन से कहीं बहुत पीछे महज 30 का औसत ही बना पाए हैं। इस दौरान भी वो सिर्फ तीन बार ही पचास रन से आगे जा सके थे।

लेकिन, सहवाग ने पहली ही गेंद से इन सब आशंकाओं और खौफ को हाशिए पर ढकेल दिया। उनकी बेमिसाल टाइमिंग के सामने हार्मिंसन की तेजी से लेकर मोंटी पनेसर की स्पिन तक, कोई भी गेंद असर नहीं छोड़ रही थी। कप्तान पीटरसन की फील्ड प्लैसमेंट खारिज हो रहा थी। थर्ड मैन के ऊपर से वो हार्मिंसन को छक्का जमाने में भी कोई हिचकिचाहट नहीं दिखा रहे थे। सिर्फ पांचवे ओवर में ही गेंदबाजी का मोर्चा संभालने पहुंचे पनेसर की गेंद को फुलटॉस बनाकर सहवाग स्क्वेयर लेग के ऊपर से स्टैंड में भेज रहे थे। मजबूरन ओवर द विकेट गेंदबाजी करते हुए पैड पर लगी गेंद पर जोरदार अपील करते पनेसर में आप इंग्लैंड की हताशा को पढ़ सकते थे।

सीमा रेखा के अंदर इंग्लैंड की टीम हो या सीमा रेखा के बाहर क्रिकेट के जानकर या आम चाहने वाले सभी के लिए ये करिश्माई बल्लेबाजी थी,जिसे सिर्फ सहवाग ही साकार कर सकते हैं। लेकिन, खुद सहवाग का कहना था- मैं तो बिलकुल अपना सहज स्वाभाविक खेल रहा था। इंग्लैंड के गेंदबाज मुझे स्ट्रोक खेलने के लिए जगह दे रहे थे, और मैं अपने स्ट्रोक खेल रहा था।

इस बेखौफ सहवाग की बल्लेबाजी का आलम ये था कि महज पंद्रह गेंदों में ही वो छह चौके जमा चुके थे। क्रिकेट जानकार हैरत में कुछ देर पहले इंग्लैंड के लंच के बाद के 21 ओवरों का हिसाब-किताब जुटा रहे थे। मुकाबले में हावी होने के बावजूद इंग्लैंड के बल्लेबाज इस दौरान सिर्फ 57 रन ही जोड़ पाए थे, और दो बार ही गेंद को सीमा रेखा के बाहर भेज पाने में कामयाब हो पाए थे। दूसरी ओर सहवाग ने गंभीर के साथ इतने ही ओवर में 14 चौकों और चार आसामानी छक्कों के साथ भारतीय पारी को 100 रनों के पार ला खड़ा किया था।

हैरान-परेशान कप्तान पीटरसन ने ऑफ स्पिनर स्वान के लिए मिडविकेट और लांगऑन समेत सीमा रेखा पर तीन फील्डर खड़े किए थे। लेकिन, इस व्यूह रचना से बेपरवाह सहवाग ने ठीक लांग ऑन के ऊपर से छक्का जमाकर करारा जवाब दिया। हालांकि, अगली ही गेंद पर स्वान ने सहवाग को एलबीडल्लू कर अपना हिसाब चुकता कर लिया। ऑफ स्टंप के बाहर से पिच होकर अंदर आती गेंद पर स्कवेयर लेग के ऊपर से उड़ाने के फेर में सहवाग चूक गए। पैवेलियन लौटते सहवाग या तो अपने स्ट्रोक खेलने के फैसले से नाराज थे या अंपायर के फैसले से, कहना मुश्किल है। लेकिन, खुशी में सराबोर इंग्लैंड खेमे के लिए ये हाथ से छिटकते मैच को वापस पकड़ लेने की शुरुआत थी।


आखिर, सहवाग के वापस लौटते हुए विकेट पर गेंद एक बार फिर घूम रही थी। एक बार फिर बल्लेबाज उछाल से परेशान थे। बल्लेबाज के लिए हर रन एक बड़े 22 गज के फैसले में तब्दील हो रहा था। और यही पहलू बेखौफ सहवाग की शख्सियत को चेपक पर एक नया आयाम दे रहा था। मैच के चौथे दिन का खेल खत्म होने पर दोनों पारियों में शतक जमाने मे वाले स्ट्रॉस की उपलब्धियां भी कुछ देर के लिए पीछे छूट गई थीं। कॉलिंगवुड का संघर्षपूर्ण शतक भी फिलहाल याद नहीं आ रहा था। अब सबको इंतजार था चेपक पर पांचवे दिन के रोमांच का। क्या भारत के बल्लेबाज बाकी बचे 256 रन बनाने मे कामयाब हो पाएंगे? क्या पीटरसन सोमवार की सुबह भारत को शुरुआती झटके देते हुए इंग्लैंड को जीत की ओर ले जाएंगे? रविवार की दोपहर तक एकतरफा दिख रहा मुकाबला अब बराबरी के मुकाबले में तब्दील हो गया था। इस नामुमकिन को मुमकिन में बदलने की राह तैयार की वीरेन्द्र सहवाग ने। बेखौफ वीरेन्द्र सहवाग ने। यही वीरेन्द्र सहवाग की शख्सियत का सार है। बल्ले के स्ट्रोक की गूंज से बहकर आते वीरेन्द्र सहवाग। अब आप भी महसूस कर सकते हैं कि आखिर सुनील मनोहर गावस्कर के लिए ये बेखौफ सहवाग एक अधूरे ख्वाब की तरह क्यों है।

Monday, December 15, 2008

सचिन सही कहते हैं "प्लेयिंग फॉर इंडिया, नॉउ मोर दैन एवर"

ये सिर्फ सचिन तेंदुलकर का लम्हा था। तेंदुलकर जैसे इस एक लम्हे का दम साधे इंतजार कर रहे थे। शायद इसलिए,माइकल स्वॉन की गेंद को पैडल स्वीप के जरिए फाइन लैग की ओर मोड़ते ही उनकी मुठ्ठी भिंच चुकी थी। हवा में छलांग लगाते वो एक जोरदार हुंकार भर रहे थे। युवराज सिंह की बांहों में खुशी में डूबे तेंदुलकर मानो बीस साल से नहीं, पहली बार टेस्ट क्रिकेट की स्टेज पर किसी लम्हे से एकाकार हो रहे थे। तेंदुलकर इस लम्हे को पूरी तरह जी लेना चाहते थे। बीते दो दशक के दौरान हर घड़ी एक नए मुकाम की ओर बढ़ते तेंदुलकर के लिए इस एक स्ट्रोक ने मीलों का फासला तय कर डाला। इस एक स्ट्रोक से तेंदुलकर ने आंकडों में टेस्ट क्रिकेट में 41 बार तीन अंकों को छुआ। लेकिन,सचिन का ये शतक उनके बाकी 40 शतकों से अलहदा था। तेंदुलकर के इस एक स्ट्रोक और शतक के साथ भारत इंग्लैंड पर यादगार जीत दर्ज कर रहा था। वो भी मैच की चौथी पारी में 387 रन के पहाड़ जैसे लक्ष्य को हासिल करते हुए। इसलिए, इस मंज़िल तक पहुंचते ही तेंदुलकर को ये कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं थी-“ये मेरे शतकों की फेहरिस्त में सबसे ऊपर है।” तेंदुलकर के मुताबिक-“मैं हमेशा कहता रहा हूं मेरे शतक की अहमियत तभी है जब टीम जीते।” आज तेंदुलकर के शतक के साथ भारतीय टीम सिर्फ एक जीत नहीं,एक नए इतिहास को रच रही थी।

भारत ने चौथी पारी में 387 रन के लक्ष्य को हासिल करते हुए भारतीय उपमहाद्वीप में एक नया इतिहास रचा था। चेन्नई के असमान उछाल वाले इस विकेट पर इस यादगार जीत को जानकार 1971 में ओवल में दर्ज की गई ऐतिहासिक जीत से लेकर साल की शुरुआत में पर्थ में मिली फतेह के करीब खड़ा करने में जुटे थे। लेकिन, तेंदुलकर के लिए ये चेन्नई में आठ साल पहले हाथ से छिटके लम्हे को वापस अपनी मुठ्ठी में लाने का मौका था।

आखिर,चेन्नई में पाकिस्तान के खिलाफ तेंदुलकर अकेले दम अपनी टीम को जीत की दहलीज पर लाकर अचानक ठिठक गए थे। सिर्फ 271 रनों का पीछा करते तेंदुलकर सातवें बल्लेबाज के तौर पर पैवेलियन लौटे तो स्कोरबोर्ड पर भारत के 254 रन टंग चुके थे। लेकिन,जीत के लिए जरुरी 17 रन बनाने की कोशिश में बाकी तीन बल्लेबाज पांच रनों के भीतर ही पैवेलियन लौट गए। भारत सिर्फ 12 रन से ये मुकाबला हार गया था।

और इस शिकस्त से तेंदुलकर के साथ जुड़ गया कि वो बड़ी पारियां खेलने के बावजूद अपनी टीम को जीत तक पहुंचाने में अक्सर चूक जाते हैं। चौथी पारी में तेंदुलकर का बल्लेबाजी औसत इस आलोचना का एक आधार बनकर सामने आने लगा। चेन्नई से पहले 55 टेस्ट की 45 पारियों में चौथी बार खेलते हुए तेंदुलकर महज 33.61 के औसत से सिर्फ 1109 रन ही जोड़ पाए थे। ये उनके करियर औसत 54.30 से कहीं बहुत पीछे है। क्रिकेट की दुनिया में सबसे ज्यादा टेस्ट मैच खेलने वाले इस लेंजेंड के लिए अपनी उपलब्धियों के बीच यह पहलू भी बार बार एक कचोट की तरह उभार ले रहा होगा।

इसलिए,सोमवार की सुबह तीसरे ओवर में ही द्रविड़ के पैवेलियन लौटने के बाद तेंदुलकर ने एक छोर संभाला तो जीत के बाद ही वहां से ड्रेसिंग रुम की ओर कदम बढ़ाए। बेशक, वीरेन्द्र सहवाग की तूफानी पारी ने भारत के लिए इस नामुमकिन सी लगनी वाली जीत को हकीकत में तब्दील करने की राह खोली,लेकिन यह तेंदुलकर के दो दशक के अऩुभव को समेटे बेजोड़ पारी ही थी,जिसने भारत को जीत की मंजिल पर पहुंचा कर ही दम लिया।

आखिरी दिन,हर गुजरते ओवर के बीच मुकाबला पूरी तरह से तेंदुलकर के नियंत्रण में दिखा। उन्हें अपने स्ट्रोक खेलने में न कोई हड़बड़ाहट थी, न ही दूसरे छोर पर उनका साथ छोड़ते गंभीर और लक्ष्मण उनकी इरादों पर चोट पहुंचा रहे थे, और न ही युवराज की आक्रामक बल्लेबाजी उन पर किसी तरह का दबाव बना रही थी। युवराज के साथ उन्होंने पांचवे विकेट के लिए 163 रन की बेहतरीन नाबाद साझेदारी पूरी की। लेकिन, वो एक छोर पर अपनी टीम को लक्ष्य तक पहुंचाने में जुटे दिखे।

इससे भी आगे,तेंदुलकर की बल्लेबाजी के बीच चेन्नई के विकेट को लेकर छाया भय कहीं बहुत पीछे छूटता दिखायी दिया। ये साबित करते हुए कि विकेट के खौफ से ज्यादा किसी भी बल्लेबाज के लिए पॉजिटिव सोच जरुरी है। तेंदुलकर के इस बयान पर गौर कीजिए-विकेट में उछाल असमान था,लेकिन इन्हीं उछालों में रन बनाने के मौके थे। मैं सिर्फ इन मौकों को इंतजार कर रहा था। ये तेंदुलकर की पॉजिटिव एप्रोच की कहानी को खुद बयां करता है।

सवा पांच घंटे की अपनी बल्लेबाजी के दौरान 132 खाली गेंदों और 45 सिंगल्स में आप तेंदुलकर की विकेट पर टिके रहने की सोच को पढ़ सकते थे। एंडरसन से लेकर फ्लिंटॉफ की गेंद पर आखिरी क्षणों तक इंतजार के बाद उसे थर्डमैन से प्वाइंट की ओर दिशा देते तेंदुलकर में आप उनके पूरे अनुभव को महसूस कर सकते थे। इतना ही नहीं, जरुरत के मुताबिक रनों की रफ्तार को अपने मुताबिक ढालते तेंदुलकर में आप उनके जीनियस की झलक देख सकते थे। तेंदुलकर ने अपनी पारी में नौ बेहतरीन चौके भी जमाए। दूसरे छोर पर खड़े युवराज सिंह को सही वक्त पर सही स्ट्रोक्स खेलने की नसीहत के बीच आप भारतीय क्रिकेट के इस ‘स्टैट्समैन’ की भूमिका को आप परख सकते थे।

फिर,तेंदुलकर ने इस दौरान एक कैलेंडर ईयर में पांचवी बार 1000 रन छूने का कारनामा भी कर दिखाया। इस दौरान तेंदुलकर ने 52 रन की औसत से चार शतक के सहारे ये रन जोड़े हैं। 19 साल तक लगातार क्रिकेट खेलने के बाद रनों की ये बेताबी इस लेजेंड की शख्सियत को एक नया आयाम देती है। ये टेलीविजन के स्क्रीन पर मुंबई हादसों के बाद उभरते उनके विज्ञापन की पंच लाइन को ही पुख्ता करती दिखायी देती है। तेंदुलकर इस विज्ञापन में कहते हैं-आई एम प्लेयिंग फॉर इंडिया,नॉउ मोर दैन एवर(मैं भारत के लिए क्रिकेट खेल रहा है। अब,पहले से भी ज्यादा शिद्दत से)। सचमुच, तेंदुलकर 16 साल की उम्र में पाकिस्तान में अपने अंतरराष्ट्रीय करियर का आगाज करने वाले किशोर से भी ज्यादा शिद्दत से क्रिकेट की स्टेज पर नए रंग भरने में जुटे हैं। इसलिए, कल भी सिर्फ एक सचिन तेंदुलकर थे,और आज भी सिर्फ एक सचिन तेंदुलकर हैं।

Wednesday, December 10, 2008

क्रिकेट की खूबसूरती के बीच आतंक को मात देने की कोशिश

एक न्यूज़फोटोग्राफर की चुनौती बेहद दिलचस्प होती है। रिपोर्टर को अपनी बात कहने के लिए सैकड़ों शब्दों की छूट मिल सकती है, लेकिन फोटोग्राफर एक ठहरे हुए फ्रेम में पूरी कहानी को समेटे आपसे रुबरु होता है। कभी न थमने वाले वक्त को भी कुछ पलों के लिए वह अपने कैमरे में कैद करता है। कहानी के बीते कल, आज और आने वाले कल के तीनों छोर को पकड़ने की कोशिश करता है। चेन्नई में गुरुवार से शुरु हो रहे पहले टेस्ट मैच से जुड़े हर दूसरे फोटोग्राफ को देखिए। आप इस पहलू से बखूबी रुबरु होंगे।

मैदान में अभ्यास के दौरान कप्तान पीटरसन और गेंदबाजी कोच एशले जाइल्स से बतियाते फ्लिंटाफ की पृष्ठभूमि में आपको खाकी वर्दी में मुस्तैद पुलिसकर्मी मिलेंगे। अभ्यास से ड्रेसिंग रुम की तरफ लौटते कप्तान पीटरसन के फ्रेम में संगीनधारी पुलिसकर्मी और कमांडो दिखायी देंगे। चेपक की छत पर चहलकदमी करता कमांडो एक पूरी कहानी को समेटे खड़ा है।


इन तस्वीरों पर निगाह डालते ही मौजूदा घटनाक्रम से अंजान शख्स भी महसूस कर सकता है कि ये सिर्फ क्रिकेट नहीं है। यहां क्रिकेट से सुरक्षा के तार कहीं बहुत गहरे जुड़े हैं। यही भारत और इंग्लैंड के बीच खेली जा रही सीरिज का सबसे बड़ा सच भी है। यहां सिर्फ दो टीमों के बीच ही टेस्ट नहीं खेला जा रहा। यहां क्रिकेट जरिया बना है, आम आदमी और आतंक के बीच जारी जंग से पार पाने का। उसके व्यवस्था में खोए भरोसे को लौटा लाने का। यहां इन दोनों टीमों की हार और जीत से पहले ज़रुरी है, इस सीरिज का सलामती से अंजाम तक पहुंचना। यही इस सीरीज का अनकहा मकसद है। इसी मकसद में टीमों की हार-जीत से पहले क्रिकेट की जीत छिपी है।

मैं भी इसी भरोसे के साथ इस सीरिज की ओर निगाह डाल रहा हूं। मेरा ये भरोसा है, और इसकी ठोस वजह है। बीते कल से जुड़ी एक मिसाल है, जो बार-बार इस भरोसे को मजबूती देती है। ये सिर्फ संयोग ही है कि ये मिसाल भी इन दोनों टीमों से ही जुड़ी है।

अब से ठीक सात साल पहले अहमदाबाद में ये दोनों टीमें एक दूसरे के सामने मैदान पर थीं। ये भी एक संयोग है कि वो मुकाबला भी 11 दिसंबर को ही शुरु हुआ था। मोहाली में पहले टेस्ट में शिकस्त के बावजूद नासिर हुसैन की टीम ने पहले दो दिन बेहद मजबूती से भारतीय गेंदबाजी का जवाब देते हुए 400 रनों का स्कोर खड़ा किया था। भारत की शुरुआत लड़खड़ाहट भरी रही। भारत चार विकेट गंवा चुका था। तीसरे दिन लंच के आसपास सचिन तेंदुलकर और वीवीएस लक्ष्मण विकेट पर मौजूद थे। उसी वक्त भारतीय संसद पर आतंकवादियों ने हमला कर दिया। ये महज एक आतंकी कार्रवाई नहीं थी। ये भारतीय लोकतंत्र के सबसे बड़े प्रतीक पर सबसे बड़ा हमला था। अब एक तरफ टेस्ट मैच का सीधा प्रसारण था, दूसरी ओर न्यूज़ चैनलों पर इस आतंकी हमले की सीधी तस्वीरें हर भारतीय को अंदर तक झकझोर रही थी। एकबारगी लगा कि न सिर्फ ये टेस्ट मैच ही बीच में रोक दिया जाएगा,ये दौरा भी यहीं खत्म कर इंग्लैंड टीम वापस लौट जाएगी। इस हमले की गूंज इतनी दूर तक प‍हूंची कि इसे अंजाम देने वाले लश्‍करे-तयब्‍बा को बैन कर दिया गया। भारत और पाकिस्‍तान की सीमाओं पर फौजों की सरगर्मियां बढ़ गईं। दोनों देशों के बीच युद्ध के से हालात पैदा हो गए थे।

लेकिन, न तो टेस्ट रुका और न ही इंग्लैंड की टीम बीच दौरे से वापस लौटी। नासिर हुसैन की टीम ने इस हमले से बेपरवाह सीरिज को आगे बढ़ाया। ये सीरिज भारत और इंग्लैंड के बीच एक सबसे यादगार दौरे की तरह दर्ज हो गई। इस सीरिज में नासिर हुसैन की कप्तानी ने आलोचकों को अपना मुरीद बना दिया। शायद, इसी सीरिज की कप्तानी थी, जिसके चलते तेंदुलकर ने नासिर हुसैन को दुनिया के सर्वश्रेष्ठ कप्तानों में एक ठहराया है। इस सीरिज में हमने देखा सचिन तेंदुलकर और एशले जायल्स के बीच एक दिलचस्प संघर्ष। हमने देखा वानखेड़े वनडे में भारत को जीत की दहलीज से वापस लौटाते फ्लिंटाफ को। इस सीरिज के आखिरी दिन हमने देखा अपनी टीम 3-3 की बराबरी पर लाते जीत के जुनून में डूबे फ्लिंटाफ को। वानखेड़े में नंगे बदन अपनी शर्ट लहराते फ्लिंटाफ। एक ऐसी तस्वीर, जिसका जवाब नेटवेस्ट ट्रॉफी जीतते हुए लॉर्ड्स की बालकनी से सौरव गांगुली ने दिया।

इंग्लैंड ने तो 2005 में एशेज के दौरान ही लंदन के ट्यूब धमाकों को झेला है। उस वक्त वो ठीक भारत की स्थिति में खड़ा था। आज जिस जगह इंग्लैंड खड़ा है, उस वक्त वहां आस्ट्रेलिया खड़ा था। आस्ट्रेलिया ने भी सीरिज को जारी रखते हुए क्रिकेट के जरिए आतंकवादियों के नापाक इरादों का मुंहतोड़ जवाब दिया था। अब यही काम भारत और इंग्लैंड की टीमों को करना है। अहमदाबाद और लंदन के वाकयों की तरह ये सीरिज भी क्रिकेट के जरिए आतंक को हाशिए पर ढकेलने की बड़ी कोशिश की तरह सामने है।

अब, गुरुवार की सुबह ये दोनों टीमें जब मैदान में उतरेंगी, तो सुरक्षा बंदोबस्त में जुटे 3000 पुलिसकर्मियों की छवि पीछे छूट जाएगी। होटल से ड्रेसिंग रुम तक मौजूद कमांडो के साए से खिलाड़ी उबर जाएंगे। मैदान में होगा क्रिकेट का वो मूल नियम, जहां हर गेंद के साथ एक नयी जंग परवान चढ़ती है। यहां हार्मिंसन की उछाल लेती गेंदों से लेकर एंडरसन की आउटस्विंगर और फ्लिंटाफ की तेजी के साथ साथ पनेसर की घुमाव लेती गेंदें भारतीय बल्लेबाजों से पार पाने की कोशिश में जुट जाएंगी। वीरेन्द्र सहवाग से लेकर गौतम गंभीर और सचिन से लेकर लक्ष्मण तक टेस्ट क्रिकेट में अपने सुनहरे सफर को आगे ले जाएंगे। महेन्द्र सिंह धोनी पहली बार एक पूरी सीरिज में भारतीय टेस्ट टीम की कप्तानी संभालेंगे। भारतीय टीम अनिल कुंबले और सौरव गांगुली के बाद बदलाव के नए दौर से रुबरु होगी।

कुल मिलाकर, बात पूरी तरह से क्रिकेट के इर्द-गिर्द घूमेगी, तो एक बहस भी उभार लेगी। पीटरसन की ये टीम बिना किसी वार्मअप गेम के सीधे टेस्ट मैच में उतर रही है। चार महीने पहले उन्होंने अपना आखिरी टेस्ट खेला था। लेकिन, जैसा एलियस्टर कुक का कहना है कि क्रिकेट तकनीक से ज्यादा दिमागी खेल है, और आप कैसे खुद को इसके अनुरुप ढालते हैं, यही मायने रखता है। सिर्फ एक दिन में आप अपनी तकनीक अचानक गंवा नहीं देते। इसलिए, बेशक पीटरसन की टीम वनडे सीरिज में बुरी तरह परास्त हुई हो, लेकिन टेस्ट में आप उनकी वापसी की उम्मीद को नकार नहीं सकते। हो सकता है कि मैदान के बाहर के मौजूदा हालात के बीच एक-दूसरे को हौसला देते हुए वो एक बेहतरीन यूनिट की शक्ल ले रहे हों। उम्मीद की जानी चाहिए कि ऐसा ही इंग्लैंड खेमे में हो रहा होगा। अगर इंग्लैंड एक बेहतरीन यूनिट की तरह धोनी की शिखर की ओर बढ़ती टीम को जवाब देता है, तो ये एक यादगार सीरिज होगी। अब, हम सभी को इंतजार है एक ऐसी ठहरी तस्वीर का, जिसमें क्रिकेट अपनी खूबसूरती के बीच भय के इस माहौल को पीछे छोड़कर आगे जा निकले।

Monday, December 8, 2008

मौत के सन्नाटे के बीच ज़िंदगी की राह तलाशते जीव

लाल जैकेट में जेटी कप हाथ में उठाए जीव मिल्खा सिंह की ये तस्वीर अमूमन हर खिताबी जीत के बाद यूं ही दिखायी देती है। यहां भी उनके होंठों पर तैरती मुस्कान मंजिल तक पहुंचने की कहानी बयां करती है। लेकिन,टोक्यो में रविवार की शाम यह तस्वीर हार और जीत के दायरे से बहुत दूर ले जाती है। ये खेल में ज़िंदगी के मायनों को तलाशती तस्वीर है। कैमरे की चौंधियाती रोशनी के बीच होंठो पर मजबूरन तैरती मुस्कुराहट के पीछे एक अंतहीन दर्द को समेटे तस्वीर हमसे रुबरु होती है।

जीव मिल्खा सिंह की इस तस्वीर को मैं हमेशा सहेज कर रखना चाहता हूं। समझना चाहता हूं कि मृत्यु के आखिरी शोक से पार जाकर आप कैसे ज़िंदगी जीने के हौसले को ढूंढ निकालते हैं। जीव ने टोक्यो में निप्पॉन सीरिज जेटी कप तक पहुंचते हुए सिर्फ गोल्फ का एक और खिताब हासिल नहीं किया। जीव ने इस खिताब तक पहुंचते हुए खेल के मैदान पर रची इंसानी हदों को पार कर डाला।

इस टूर्नामेंट से ठीक पहले जीव और उनकी पत्नी कुदरत का ख्वाब तार तार हो गया था। अपने आंगन में एक किलकारी की आहट संजोए दोनों ने तिनका तिनका एक ख्वाब को पिरोया था। लेकिन, किलकारी की गूंज इन दोनों के कानों में पहुंचने से बहुत पहले ही शांत हो चुकी थी। कुदरत के आंचल में किलकारी लेता बच्चा नहीं, एक मृत बच्चा था। किस्मत के इस क्रूर मजाक के सामने ये दोनों बेबस थे।

लेकिन,इस बेबसी और तार तार हुए ख्वाबों के बीच भी कुदरत ने जीव को टूटने नहीं दिया। जीव इस टूर्नामेंट में उतरने को तैयार नहीं थे। टूर्नामेंट से ठीक एक दिन पहले खेले जाने वाले जरुरी प्रो एम में भी उन्होंने हिस्सा नहीं लिया। लेकिन,जीव से जुड़ने के बाद हर वक्त उनके साथ मौजूद रहने वाली कुदरत ने जीव को उनके चहेते गोल्फ कोर्स से अलग हटने नहीं दिया। टूर्नामेंट आयोजकों से विशेष अनुमति के साथ जीव कोर्स पर उतरे। चार दिन तक मौत के इस कड़वे सच के बीच गोल्फ कोर्स पर ज़िंदगी के मायने तलाशने में जुटे रहे जीव।

कहने में ये आसान लगता है। लेकिन, मैं बार बार ये समझने की कोशिश कर रहा हूं कि कैसे हर एक स्ट्रोक पर जीव के हाथों में कंपकंपी पैदा नहीं हुई होगी। क्या स्ट्रोक लेते जीव के सामने लक्ष्य की शक्ल में सिर्फ ‘होल’ ही सामने नहीं होगा। कभी कुदरत का मुरझाया चेहरा उभार लेता होगा तो कभी उस बच्चे का चेहरा,जिसकी किलकारी कभी न खत्म होने वाले इंतजार में तब्दील हो गई।

इस सबके बीच से गुजरते हुए जीव ने बाकी दुनिया के लिए खिताब की राह तलाशी। लेकिन, अपने लिए ज़िंदगी की नयी राह। इसलिए, जीत के बाद जीव का यह कहना था-इस जीत से लगता है कि ईश्वर हमारे प्रति दयालु है। मुझे भरोसा है कि भविष्य में कुछ बेहतर छिपा है। उन्होंने यह जीत अपनी पत्नी कुदरत को समर्पित करते हुए कहा-उसके कहने पर मैं गोल्फ कोर्स में उतरने का हौसला बटोर पाया,इसलिए ये जीत मैं उसी को समर्पित करता हूं।

इस साल जीव ने चार खिताबी जीत हासिल की हैं। जीव को अभी कई मंजिलें तय करनी हैं। वर्ल्ड रैंकिंग में 44वें पायदान पर जा पहुंचे जीव के लिए आने वाला साल कामयाबियों के नये रास्ते खोलेगा। इन सबके बीच अपने करियर में नए शिखर की ओर बढ़ते जीव जब भी गोल्फ कोर्स को विदा कहेंगे, उनकी ये जीत बाकी सभी उपबल्धियों पर हावी हो जाएगी। आखिर, भावनात्मक झंझावत शारीरिक चोटों से पेश आने वाली परेशानियों से कहीं ज्यादा दुखद और बड़ी चुनौती सामने रखता है। चोट से जूझते हुए पिछली जुलाई में यहीं जापान में जीव ने सेगा सेमीकप हासिल किया था। यहां लगातार वो अपनी दांहिनी एडी के दर्द से जूझते हुए फिजियोथेरेपिस्ट की मदद से खिताब तक पहुंचे थे। लेकिन,ये शारीरिक चुनौतियां खिलाड़ी की ज़िंदगी का एक आम हिस्सा हैं। टाइगर वुड्स खराब घुटने के बावजूद यूएसओपन जीतते हैं,हेरिंग्टन कलाई में चोट के बावजूद ब्रिटिश ओपन के खिताब तक पहुंचते हैं। गोल्फ के कोर्स के बाहर हमनें सियोल ओलंपिक में सिर में टांके लगे होने के बावजूद ग्रेग लुआनिस को गोल्ड मेडल तक पहुंचते देखा है। हम वेस्टइंडीज में टूटे जबड़े के साथ अपनी गेंदों से ब्रायन लारा के विकेट तक पहुंचते अनिल कुंबले की कामयाबी से रुबरु हुए हैं।

लेकिन,इन चुनौतियों से खिलाड़ी अपने जीवट और इरादों से पार पा लेता है। इस मोड़ पर मुझे ब्रिस्टल मे केन्या के खिलाफ सेंचुरी जमाकर आसमान की ओर निहारते सचिन तेंदुलकर का चेहरा बरबस याद आ जाता है। 1999 के वर्ल्ड कप के ठीक बीच सचिन ने अपने पिता को खो दिया था। वो अपने पिता को आखिरी विदाई देकर एक बार फिर मैदान में थे। सेंचुरी जमाकर सचिन ने बाकी दुनिया को जीत का तोहफा पेश किया था। यहीं विराट कोहली भी याद आते हैं। रणजी मुकाबले के बीच पिता के निधन के बावजूद वो मैदान पहुंचते हैं। अपनी टीम दिल्ली को मुश्किल से निकाल किनारे तक ले जाते हैं। अपनी पारी खत्म कर पिता के अंतिम संस्कार में शरीक होते हैं।

सचिन और विराट की तरह जीव के लिए भी ये जीत से आगे की दुनिया है। मौत के सन्नाटे के बीच से ज़िंदगी के मायने तलाशती हुई। खेल को ज़िंदगी के सबसे करीब जोड़ते हुए।