Sunday, August 31, 2008

सचिन कभी बूढ़ा नहीं होता...

इंग्लैंड के ब्रिस्टल शहर की एक ढलती शाम आज नौ साल बाद भी जेहन में जस की तस बसी है। उस शाम से जुड़ा एक लम्हा यादों में जैसे ठहर कर रह गया है। सचिन तेंदुलकर के बल्ले से एक और शतक निकला था। इस शतक ने एक बार फिर भारतीय टीम के लिए जीत की राह तैयार की थी। इस मैच से पहले भारत जिम्बाव्वे के हाथों शिकस्त झेल चुका था। बात क्रिकेट के गणित की करें तो भारत को अब जीत की सख्त जरुरत थी लेकिन, ये लम्हा इस हार जीत से कहीं आगे का लम्हा था। तेंदुलकर ने शतक पर पहुंचते ही आसमान की ओर सिर उठाया, लगा जैसे किसी से संवाद कर रहे हों। वो शायद अपने उस पिता से बात कर रहे थे,जिसने कभी उनके ख्वाबों की ज़मीन तैयार की थी लेकिन आज वही पिता अपने बेटे के इस यादगार लम्हे को देखने के लिए मौजूद नहीं था। दो दिन पहले सचिन के पिता दुनिया से रुख्सत हो गए थे। तेंदुलकर विश्व कप को बीच में छोड़ सात समुंदर का फासला तय कर मुंबई पहुंचे थे। अपने पिता को अंतिम विदाई देने के बाद वो वापस भारतीय चुनौती का आगाज कर रहे थे।

लेकिन,इस लम्हे से पहले और इस लम्हे के बाद तेंदुलकर के बल्ले से ढेरों शतक निकले। कितने ही स्ट्रोक्स हमें एक नए जुनून में डूबते उतराते रहे। सचिन के साथ साथ हर क्रिकेट चाहने वाले ने उनके बल्ले से निकले करिश्माई लम्हों को जीया। उन लम्हों को कुछ इस अंदाज में संजो कर रखा कि जब चाहें आप अपनी यादों के पन्ने पलटिए और डूब जाइए,जहां तेंदुलकर नाम का ये महानायक आपको सिर्फ और सिर्फ सुकून देता है।
लेकिन इसके बावजूद, ब्रिस्टल की ढलती शाम जेहन में ठहर गई है। जिन झकझोर देने वाले जेहनी हालात में तेंदुलकर ने अपनी पारी को परवान चढ़ाया,वो उनके जीवट की नयी बानगी बन गया। लेकिन,थोड़ा सा ठहर कर देखें तो ये पारी हमें तेंदुलकर होने के मतलब से रुबरु कराती है। दरअसल, इस लम्हे से भारतीय समाज में तेंदुलकर के रचे बसे होने का सूत्र धीरे धीरे खुलता जाता है। ब्रिस्टल के मैदान पर केन्या के सामने उस दिन सिर्फ एक क्रिकेटर तेंदुलकर मौजूद नहीं था, एक बल्लेबाज तेंदुलकर नहीं था, एक महानायक नहीं था, वहां एक बच्चा मौजूद था। वो बच्चा जो अपने पिता के आदर्शों की मिसाल की तरह सबके सामने खड़ा था। वो उस लम्हे में पूरे भारतीय समाज के सामने बेटे होने का बिंब था। एक ऐसा बच्चा,जिसमें हर कोई अपना ही अक्स तलाशना चाहता है।
दरअसल,तेंदुलकर की इमेज एक ऐसे बच्चे के रुप में रच बस गई है,जो जीवन को गति देते एक बच्चे के प्रतीक के रुप में दिन- ब-दिन ठोस होते जा रही है। प्रतीक के रुप में ये बच्चा जिंदगी के ठहराव को तोड़ता है। यह बच्चा हमारे मन में बसी हमारी ही मध्यवर्गीय आकांक्षाओं का बोझ अपने कंधे पर संभालने का करिश्मा करता बच्चा है, जो बार बार हमें आभास देता है कि बच्चे के सहारे हमारा जीवन आगे बढ़ रहा है। मानो बच्चे के इस प्रतीक में हमारे लिए दिलासा हो कि हमारा जीवन सिर्फ हम तक नहीं ठहरता हमारे बच्चे के माध्यम से और आगे जाता है। तेंदुलकर हम सबके जेहन में एक ठहराव को तोड़ते हुए, एक निरंतरता के साथ आ खड़े होते हैं,हमारी जड़ता को तोड़ते हुए हमारे ही मनोलोक में बसे हमारी सदाबहार किशोर छवि की तरह। तेंदुलकर की यह छवि हमें सीधे सीधे भारतीय जनमानस में गहरे ठहर चुकी कृष्ण की छवि के करीब ले जाती है। अपना पूरा देश कृष्ण जन्म का उत्सव बनाता है। वो कृष्ण के द्वारा कंस की वध की बात नहीं करता,वो कृष्ण की बाल-लीलाओं में जिंदगी के मायने तलाशता है। तेंदुलकर इसी बाल-कृष्ण का प्रतिरुप बनकर हमारे बीच आ खड़े होते हैं।
तेंदुलकर की शख्सियत को आप अलग अलग हिस्सों में कितना भी बांट लें, लेकिन उनकी इमेज एक बच्चे की तरह ही हमारे सामने आती है। विज्ञापनों ने भी उनकी इसी इमेज को कैद किया है। पेप्सी के विज्ञापन में बच्चों के साथ धमाचौकड़ी मचाते सचिन को देखिए,बोर्नविटा के एड में तेंदुलकर पर नज़र डालिए या फिर बीती सदी के सबसे बड़े महानायक अमिताभ के साथ छोटे मियां को देखिए। कभी आप तेंदुलकर को धोनी के रुप में मैचोमैन की तरह विज्ञापनों में नहीं देखेंगे। बेशक,सचिन की उम्र बढ़ती गई लेकिन उनकी छवि इसी तरह पेश की जाती है। यानी एक बच्चा जो चमत्कार कर सकता है,ऐसा चमत्कार जो उसके पिता की पीढी का सपना था। हर जगह सचिन चंचल कृष्ण सी छवि के साथ हमारे मानस पर अंकित हो जाते हैं,एक ऐसा बाल-कृष्ण जिसकी मुरली बल्ले में बदल गई हो । यही तेंदुलकर की सबसे बड़ी खासियत है।
इन्हीं सबके बीच तेंदुलकर मीडिल क्लास की उम्मीदों और ख्वाबों को भी परवान चढ़ाते हैं। मिडिल क्लास को उनमें अपना चेहरा नजर आता है। आखिर,सचिन के पिता रमेश तेंदुलकर मुंबई जैसी महानगरी में महज एक प्रोफेसर या कवि थे। बॉलीवुड,राजनेताओं और अंडरवर्ल्ड के इस शहर में उनकी पहचान एक आम शहरी की तरह थी। लेकिन,तेंदुलकर ने तमाम बाधाओं को तोड़ अपने लिए एक नया मुकाम बनाया । बीस साल तक कामयाबी की ऊंचाइयों पर विराजे इस शख्स ने कभी अपने पारिवारिक संस्कारों से नाता नहीं तोड़ा। ये आज भी दिखता है,और ब्रिस्टल में उस शाम भी साफ था कि क्रिकेट में इतनी बलुंदियों तक पहुंचने के बावजूद यह शख्स अपनी जड़ो से दूर नहीं गया। इसलिए वो सिर्फ सचिन नहीं सचिन रमेश तेंदुलकर है। हमेशा एक ऐसा किशोर जिसे लगातार जवान होना है, जिसे अपने कंधे पर थक चुकी पिता की पीढ़ी का हर जायज सपना ढोना है-चाहे वो सपना कितना भी असंभव क्यों ना हो। बाल-कृष्ण को संस्कारों में बसाए रखने वाला यह देश सचिन को एक मिथक में बदल चुका है।उसके जेहन में सचिन के बुढ़ापे के लिए कोई संभावना नहीं है।और क्रीज पर डटे खुद सचिन के लिए, रनों का कोई भी पहाड़ ऐसा एवरेस्ट नहीं जिसे यह सदाबहार किशोर लांघ ना सके ।सचिन का खेल और दर्शक की आकांक्षा का यही मेल सचिन को एक सदाबहार किशोर बनाता है।

Saturday, August 30, 2008

खुद की चुनौतियां,खुद का रास्ता


ये 1995 की बात है। ये वो दौर था, जब मैं एक नियम की तरह दिल्ली के शिवाजी स्टेडियम पहुंचा करता था। चाहे मुझे अपनी रिपोर्ट फाइल करनी हो या नहीं, मैं बेनागा वहां होने वाला करीब- करीब हर दूसरा मुकाबला देख लिया करता था। इन्हीं मुकाबलों के बीच एक दिन एक आदिवासी नौजवान के स्टिक वर्क और तेज़ी ने मुझे उसका कायल कर दिया। मैं उससे रुबरु हुआ तो कुछ पल के लिए सन्न रह गया। क्या ये मुमकिन है......?????

हॉकी के मैदान पर एक खिलाड़ी अपने स्टिक और रफ्तार से आपको मुरीद बना दे लेकिन वह भी हाथ के अंगूठे के बिना। नामुमकिन। हॉकी के खेल में बिना अंगूठे के हॉकी को ग्रिप करने की सोचा भी नहीं जा सकता। रफ्तार और स्टिक वर्क तो बाद की बात है। लेकिन, ये खिलाड़ी बिना अंगूठे आपको हॉकी की खूबसूरती से रुबरु करा रहा था। ये खिलाड़ी था-सिल्वेस्टर मिंज। भारत की जूनियर टीम में जगह बनाने वाला सिल्वेस्टर मिंज।

सिल्वेस्टर मिंज इस वक्त कहां है, मुझे मालूम नहीं। इंटरनेट पर सर्च करो,तो एक सिल्वेस्टर मिंज जरुर दिखायी देता है चितरंजन लोकोमोटिव की तरफ से खेलता हुआ। लेकिन, मैं दावे के साथ नहीं कह सकता कि यह वही मिंज है,जिसे मैंने 14 साल पहले देखा था। लेकिन,सिल्वेस्टर मिंज की छवि मुझसे कभी अलग नहीं हो पाती। लेकिन, आज मैं इसकी बात क्यों कर रहा हूं...ये तो 14 साल पुरानी बात है।

दरअसल, क्रिकेट के कुछ पन्ने पलटता पलटता मैं आज पीटर रुबेक के एक लेख के साथ छपी ऐसी तस्वीरे से मुखातिब हुआ,जिसने सिल्वेस्टर मिंज की यादें जेहन में ताजा कर दीं। ये शख्स है मोहम्मद याकूब। वो किसी देश के लिए क्रिकेट नहीं खेलता। किसी राज्य के लिए क्रिकेट नहीं खेलता। वो सिर्फ अपने लिए क्रिकेट खेलता है। आप कह सकते हैं कि इसमें अलग क्या है? हम में से कितने लोग सिर्फ शौक के लिए ही तो क्रिकेट खेलते हैं।

याकूब भी शौक के लिए क्रिकेट खेलता है। लेकिन,शौक से आगे क्रिकेट खेलना उसके लिए उसकी पहचान से जुड़ा है। याकूब का बायां पैर नहीं है। लेकिन,इसके बावजूद वो उसी शिद्दत के साथ मैदान पर उतरता है,जैसे हर दूसरा खिलाड़ी। याकूब जब बल्लेबाजी करता है, तो दांहिने पैर में पैड बांधता है, बाएं पैर में आर्टिफिशियल लिंब होता है। जब वो फील्डिंग करता है,तो शुरुआत दो बैसाखियों के साथ करता है,और थोड़ी देर में एक बैसाखी वो किनारे रख देता है। गेंदबाजी करते हुए बाएं तरफ की बैसाखी उसके साथ होती है। उसके हाथ से गेंद छूटने से पहले क्रीज में उसकी यह बैसाखी गढ़ जाती है।

दिलचस्प ये है कि याकूब जिस देश से आता है,वहां क्रिकेट नहीं होता। वो देश याद किया जाता है-भूखमरी या गृहयुद्ध के लिए। इन्हीं के बीच, याकूब सोमालिया की राजधानी मोगाडिशू में अपने परिवार के साथ रहा करता था। एक दिन अचानक हुई बमबारी के दौरान खुद को बचाने के लिए वो कार के बैराज में छिप गया। गैराज के पास एक बम फटा,तो कुछ भारी सामान उसके पांव पर भी आ गिरा। उसे अस्पताल ले जाया गया,तो डॉक्टर ने मामूली बैंडेज कर वापस भेज दिया। लेकिन,एक हफ्ते बाद वो वापस अस्पताल पहुंचा तो पैर की नसों से खून रिसना बंद नहीं हो रहा था। नतीजतन उसका पैर कांटना पड़ा।

बाद में वो अपने परिवार के साथ केन्या पहुंचा,और कुछ दिनों बाद 1996 में आस्ट्रेलिया में शरणार्थी के तौर पर जगह पायी। यहीं अपनी बहन के साथ घर के पिछवाड़े में उसने बल्ले और गेंद को अपना साथी बना लिया। उसका जुनून खेलने का नहीं, खुद को भीड़ में साबित करने का था। “आखिर मेरे एक पैर का न होना मेरी कमज़ोरी नहीं है। मैं इसके बिना भी उतनी ही शिद्दत और जज्बे के साथ आपके साथ कदम मिला सकता हूं, जितना आप एक सामान्य शख्स होने के नाते।“ इसी हौसले के साथ उसने पहली बार स्थानीय स्तर पर अंडर 16 का मुकाबला खेला,और दो विकेट हासिल करते हुए एक सिलसिला शुरु किया तो वो जारी है। आज वो टीम में मौजूद रहता है,तो उसकी हिस्सेदारी किसी से कम नहीं होती।

सिल्वेस्टर मिंज की कहानी भी याकूब से मिलती जुलती है। कुछ अलग तरीके से। एक वक्त था, जब सिल्वेस्टर मिंज अपने अंगूठे से स्टिक पकड़ते हुए गेंद को इस खूबसूरती से नचाता था कि हर कोई उसमें कल के एक बेहतरीन खिलाड़ी को देख रहा था। इसी के चलते उसे एक नौकरी भी मिली। लेकिन, एक दिन अचानक लिफ्ट में हाथ आने के चलते उसे अपना अंगूठा गंवाना पड़ा। इस हादसे ने उसके हाथों से हॉकी छीन ली। लेकिन,खेल के सहारे एक नौकरी हासिल कर अपने परिवार की गाड़ी को किसी तरह खींचने वाला यह शख्स हार मानने को तैयार नहीं था। हॉकी न सही-कुछ और। उसने स्प्रिंट रनर के तौर पर अपनी किस्मत को गढ़ने की कोशिश की। यहां भी वो कामयाब हो रहा था, लेकिन जीत उसे उसकी मंजिल तक नहीं पहुंचा रही थी। अंगूठा न होने की वजह से किसी भी रेस के लिए स्टार्टिंग प्वाइंट पर पहला तेज़ कदम उठाने के लिए ज़रुरी ग्रिप नहीं बन पाती थी। उसने एक बार फिर हॉकी हाथ में ली। बिना अंगूठे, सिर्फ अपनी उंगलियों के बीच फंसाते हुए उसने धीरे धीरे एक बार फिर अपनी स्टिक और गेंद के जादू को एक साथ जोड़ दिया।

सिल्वेस्टर मिंज और याकूब की ये कहानियां हौसले और जज्बे से आगे की कहानी है। यहां आपको दक्षिण अफ्रीका के 400 मीटर के एथलीट ऑस्कर पिस्टोरियस भी याद आ सकते हैं,जो दो आर्टिफिशियल लिंब के सहारे दौड़ते दौड़ते बीजिंग ओलंपिक में हिस्सा लेना चाहते थे। लेकिन, आखिरी मौके पर कुछ सेंकेड के फासले से वो क्वालिफाई करने से चूक गए। दरअसल, ये कहानियां आपको इंसान की उस असीम कोशिशों की ओर ले जाती दिखती हैं,जहां वो इस भीड़ में अपनी पहचान तलाशने में जुटता है। यहां वो अपने लिए खुद चुनौतियों की दीवार खड़ी करता है,और फिर उससे पार पाने के जुनून में डूब जाता है। इनके इस जुनून को सलाम।
(पोस्ट में तस्वीर विज़डन एशिया से साभार ली गई है)

Friday, August 29, 2008

काल से होड़ करती एक स्टिक

1992 का साल, ओलंपिक का साल। रसातल की ओर जाती भारतीय हॉकी एक पायदान और नीचे खिसक गई। बार्सिलोना में भी आठ बार की ओलंपिक चैंपियन भारतीय टीम एक और शिकस्‍त झेल कर घर लौटी। अपने पहले तीनों लीग मुकाबले हारने के साथ ही सेमीफाइनल से बहुत पहले उसकी चुनौती खत्‍म हो गई थी। रस्‍म अदायगी की तरह कप्‍तान परगट सिंह को अपनी जगह छोडनी पड़ी थी। अपने अखबार के लिए इंटरव्‍यू करने की गरज से मैं परगट से मिलने जलंधर पहुंचा तो मेरे जेहन में दुख कई सवालों की शक्‍ल में आकार ले रहा था। यूरोपीय टीमों की रफ्तार के सामने घुटने टेकती भारतीय हॉकी, गुटबाजी का शिकार भारतीय हॉकी, सिस्‍टम से हार मानती भारतीय हॉकी। तमाम सवालों के बीच मैं परगट से बातचीत को आगे बढा रहा था। इसी कड़ी में परगट की ओर एक और सवाल उछाला ''लगता है जिंदगी में जो जगह, जो कप्‍तानी गवांई है इन झटकों से उभर पाओगे ?'' परगट जलंधर के पंजाब पुलिस मैदान पर मुझसे बात करते करते ठहर गए। परगट का चेहरा अचानक बदला, आवाज की गहराई बढ़ी और उसके बाद परगट ने जो मुझसे कहा वह यादों के सफर में शिलालेख की तरह दर्ज है। 16 साल बाद भी वक्‍त की धूल उस पर नहीं चढ पाई है, '' जिंदगी में कभी कोई भी चीज या दौर ठीक वैसे ही दोहराया नही जाता। हॉकी के मैदान पर बनने वाले हर एक मूव की तरह। हजारों मूव इस मैंदान पर बनें होंगे बनते रहेंगे लेकिन कोई भी एक मूव ठीक पहले जैसा नहीं होगा। तो मेरे लिए भी जिंदगी इसी लाइन पर नहीं चलेगी।''

एक महानायक को दोहराते देखने का एक ख्‍वाब मैने बचपन से संजोया था। परगट के इन शब्‍दों के बावजूद यह ख्‍वाब कमजोर नहीं पड़ा। भारतीय हॉकी को करीब से देखते देखते उसकी हार और जीत के बीच हॉकी के जादूगर दद्दा ध्‍यानचंद को दोहराते देखने का ख्‍वाब... मैदान पर गढ़ी एक ऐसी तस्‍वीर जहां से हॉकी का खेल शुरू होता है, जहां पर हॉकी का खेल खत्‍म हो जाता है। हॉकी के जादूगर ध्‍यानचंद। रोहित ब्रजनाथ के लेख के आधार पर कहें तो किसी भी इंसान की शख्सियत उसके आसपास बने मिथ से तय होती है। ध्‍यानचंद एक बेमिसाल शख्सियत थे। कोई उन्‍हें स्टिक से निकले सैकड़ों गोल के जरिए याद नहीं करता। याद करता है तो उनसे जुडी किवदंतियों के सहारे।

किवदंतिया जो आदमी को साधारणता के धरातल से एक क्षण के एक छोटे से टुकडे में अचानक ही बहुत ऊपर उठा देती है। हाड़ मांस का आदमी अपनी नश्‍वरता से उभरकर अचानक पहले चमत्‍कार की दुनिया में पहुंचता है, फिर अमरत्व के लोक में। शायद इसीलिए सरडॉन ब्रेडमैन के जन्‍मस्‍थल को इस जन्‍मशताब्‍दी के साल में एक तीर्थ स्‍थल का दर्जा मिल जाता है।

ऐसी किवदंतियां ही कहती हैं कि ध्‍यानचंद की स्टिक में चुंबक था, ध्‍यानचंद की स्टिक पर गोंद लगा था, हिटलर उनसे उनकी स्टिक खरीदना चाहते थे। दद्दा ध्‍यानचंद की स्टिक में जादू नहीं था। जादू था तो उनके खेल में उनकी कलाईयों में। उनके पांव में। और उन सब से आगे उनकी सोच में जो खेल के मैंदान में हर किसी को हैरत में डाल देती थी। इसलिए दद्दा ध्‍यानचंद की शख्सियत को हम तीन ओलंपिक गोल्‍ड, एक साल में दागे 133 गोल जैसे आंकडों में नहीं पढ़ सकते। हम सिर्फ उनके जीनियस को महसूस कर सकतें हैं। इस पहलू में कि 42 साल की ढलती उम्र में कोई भी विदेशी दौरा उनकी मौजूदगी के बिना पूरा नहीं हो सकता था। उस दौर में भी उनकी स्टिक से गोलों की झडी निकलती थी। जादू स्टिक में नहीं दद्दा ध्‍यानचंद के खेल कौशल में था। हॉकी के असली जादूगर।

बेशक आज हॉकी के मैदान पर रचे उनके इतिहास को मौजूदा पीढ़ी आंक न पाए। बेशक ओलंपिक मेडल के जुनून में डूबा ये देश याद न कर पाए कि तीन ओलंपिक गोल्‍ड हांसिल करने वाले इस महानायक ने जिंदगी की आखिरी सांसे ली तो दिल्‍ली के एम्‍स के एक जरनल वार्ड में। जरनल वार्ड में जिंदगी की आखिरी सांसे गिनना जादूगर ध्‍यानचंद की कहानी में रसभंग नहीं करता। कहानी कहेगी जो वार्ड में था वह ध्‍यानचंद नहीं हाड़-मांस का एक नश्‍वर प्राणी था। ध्‍यानचंद तो हमेशा से हॉकी के मैदान पर गेंद को अपनी स्टिक से चिपकाए लगातार दौड़ रहे हैं।

इतिहास के पन्‍नों में दर्ज इस जादूगर के किस्‍से उन्‍हें हॉकी के दायरे से बाहर ले जाकर खेलों के उस पायदान पर खड़ा करते हैं जहां क्रिकेट के शिखर पर ब्रेडमैन खडे है, फुटबॉल में पेले और हॉकी में दद्दा ध्‍यानचंद। भारतीय हॉकी के सुनहरे अतीत के पन्‍ने पलटते पलटते दद्दा ध्‍यानचंद टीक उसी तरह हमारे सामने आकर खडे हो जातें हैं, जैसे क्रिकेट के मैदान में हम आज सचिन तेंदुलकर को देखते है,सर गा‍रफील्‍ड सोबर्स के किस्‍सों को सुनते हैं, लता मंगेशकर की आवाज में बह जाते हैं। यानि सिर्फ एक सचिन तेंदुलकर है, सिर्फ एक गारफील्‍ड सोबर्स हैं और सिर्फ एक लता मंगेशकर है। चमत्‍कार की कहानियां इनसे भी जुडी हैं। गुजरते वक्‍त के साथ ये कहानियां भी किवदंतियों की शक्‍ल ले लेंगी। इसलिए सिर्फ एक दद्दा ध्‍यानचंद हैं काल, समाज और इतिहास की सीमाओं से परे। हॉकी के जादूगर - दद्दा ध्‍यानचंद।

इसलिए मैं अब इस महानायक,इस जादूगर की छवि में किसी और को तलाशना नहीं चाहूंगा। न तो उनसे पहले स्टिक का कोई जादूगर आया न ही आ पाएगा। मैं परगट की इस बात पर अपनी मोहर लगाना चाहता हूं '' जिंदगी में कभी कोई भी चीज या दौर ठीक वैसे ही दोहराया नही जाता।'' इसलिए कोई दूसरा ध्‍यानचंद आ नहीं सकता और किसी दूसरे जादूगर से हम रू- ब-रू नहीं हो पाएंगे। हम रू- ब-रू होना भी नहीं चाहते। वे एक ही थे, एक ही रहेंगे। स्टिक के जादूगर - दद्दा ध्‍यानचंद।
(दद्दा ध्यानचंद की तस्वीर भारतीय हॉकी डॉट कॉम से साभार )

Thursday, August 28, 2008

खेल के सहारे जीती ज़िंदगी की जंग

एक ठहरी हुई तस्वीर गाहे बगाहे दस्तक देती रहती है। डाइविंग प्लेटफॉर्म पर अपनी दोनों बांहे स्वीमिंग पूल के समानान्तर फैलाए एक शख्स पर जाकर ठहर जाती हैं। वो शख्स पूरी तल्लीनता से अपनी मंज़िल की ओर बढ़ने को तैयार है। वो हवा में कूदान भरेगा, समरसाल्ट करता हुआ पानी की ओर मुखातिब होगा। किसी नर्तक की खूबसूरती के साथ पानी की सतह से नब्बे डिग्री का कोण बनाकर उसमें दाखिल होगा। आप कह सकते हैं कि डाइविंग में तो ऐसा होता ही है। जरुर डाइविंग में ऐसा ही होता है।

लेकिन, मेरी ठहरी तस्वीर में एक कंपकंपाता सा सवाल जुड़ा है। क्या आज ये शख्स यानी ग्रेग लुगानिस पानी की गहराई से जब वापस सतह पर लौटेगा तो सोना फिर उसके हाथ में होगा? सिओल ओलंपिक में शुरुआती दौर बोर्ड से सिर टकराने के बाद लगे 5 टांकों से ये सवाल वाजिब है।

लुगानिस कूदान भरते हैं,हवा में समरसाल्ट करते हुए। उनका शरीर हर बार की तरह पूरी सटीकता के साथ पूल में दाखिल होता है।..और सोना एक बार फिर उनके हाथ में होता है। ये चुनौती भी लुगानिस को जीत की राह से डिगा नहीं पायी। उसका हौसला, उसका जीवट मेरी इस तस्वीर को एक मुकम्मल तस्वीर में तब्दील कर देता है। एक ठहरी हुई तस्वीर।

इस तस्वीर के बाद मैं चुनौतियों से रुबरु होते खिलाड़ियों को जब भी देखता हूं तो चेहरे दर चेहरे निगाहों से गुजर जाते हैं। इस कड़ी में कैंसर से जूझते टूर डे फ्रांस फतेह करने वाले लांस आर्मस्ट्रांग होते हैं,तो कभी बीजिंग ओलंपिक में कैंसर से ही पार पाकर दस किलोमीटर मैराथन तैराकी में गोल्ड मेडल तक पहुंचते होलैंड के मार्टिन वान डर वेडन। कभी टूटे जबड़े के साथ वेस्टइंडीज के खिलाफ गेंदबाजी करते अनिल कुंबले या बीजिंग ओलंपिक में दस टांकों के साथ अपने प्रतिद्वंदी को जवाब देते अखिल कुमार। ज़िंदगी से मिली चुनौती से पार पाते और खेल में ही मंज़िल तलाशते ये खिलाड़ी। लेकिन,इन सबके जीवट के लिए पैमाने के तौर पर ग्रेग लुगानिस ही सामने होते हैं।

बुधवार को एक बार फिर लुगानिस की यह तस्वीर याद आ गई। कोलंबो में एक खिलाड़ी के हर स्ट्रोक के बीच मैं लुगानिस के समानान्तर एक और पैमाना देख रहा था। एक बिलकुल अलग तरीके से। लुगानिस ने ज़िंदगी पर जीत दर्ज कर खेल में अपनी मंजिल हासिल की थी। यहां ये शख्स भावनाओं के उफान के खिलाफ अपनी मंजिल तलाश रहा था। अंतरराष्ट्रीय मंच पर एक पखवाड़े पहले ही कदम रखने वाले विराट कोहली के आगे बढ़ते सफर को देखकर ऐसा ही आभास होता है। महज चौथा वनडे खेल रहे विराट कोहली के हर स्ट्रोक,मैदान में उनके हाव भाव में लगातार खुद को साबित करने का जुनून तैरता है। उसका बीता कल उसके जुनून को हर पल परवान चढ़ाता दिखता है।

अंडर-19 वर्ल्ड कप चैंपियंन टीम के कप्तान विराट कोहली को पहले सचिन और फिर सहवाग चोट की वजह से टीम में जगह मिली। कोहली को ओपनिंग की जिम्मेदारी सौंपी गई। एक मिडिल ऑर्डर बल्लेबाज के लिए पारी की शरुआत करना-वो भी अंतरराष्ट्रीय मंच पर-कोई आसान काम नहीं है।

लेकिन,जीवट से भरपूर ये बल्लेबाज किसी चुनौती से खुद को अलग करने की सोच भी नहीं सकता। दो साल पहले कर्नाटक के खिलाफ रणजी मुकाबले में वो 40 रन पर नॉटआउट पैवेलियन लौटे थे। टीम के सामने फॉलोआन का खतरा मंडरा रहा था। अगली सुबह सारा दारोमदार विराट और दूसरे छोर पर खड़े पुनीत बिष्ट पर था। सुबह होती,इससे पहले ही रात तीन बजे विराट कोहली के पिता का निधन हो गया। ऐसे में, बल्लेबाजी तो दूर कोई कोहली के कोटला तक पहुंचने की उम्मीद नहीं कर रहा था। लेकिन, कोहली कोटला पहुंचे,अपने साथी पुनीत बिष्ट के साथ साझेदारी को आगे बढ़ाया। इस दौरान,वो अपने साथी को विकेट पर टिके रहने की सलाह देते रहे। नब्बे रन की पारी खेलकर वो जब पैवेलियन लौटे तो कोटला पर मौजूद हर शख्स इस नौजवान बल्लेबाज के जीवट का कद्रदान हो गया। पैवेलियन लौटने के बाद विराट ने सीधे रुख किया घर का-अपने पिता को अंतिम विदाई देने के लिए।

जीवटता की इस कसौटी पर कोहली के बराबर कोई शख्स खड़ा दिखता है तो वो है सचिन तेंदुलकर। 1999 के वर्ल्ड कप के ठीक बीच तेंदुलकर के पिता रमेश तेंदुलकर चल बसे। सचिन बीच वर्ल्ड कप से घर लौटे,पिता को आखिरी विदाई दी,और अगले ही दिन फिर वो मैदान में थे। अपने देश, अपनी टीम, अपने खेल की खातिर। सचिन ने ब्रिस्टल के मैदान पर कीनिया के खिलाफ शतक पूरा किया । आकाश की ओर निहारा-कुछ इस अहसास के साथ कि पिता कहीं दूर से उनकी इस पारी को देख रहे होंगे।

खेल के मैदान पर लुगानिस और लांस आर्मस्ट्रांग एक छोर पर खड़े दिखायी देते हैं, तो दूसरे छोर पर विराट कोहली और सचिन तेंदुलकर। लुगानिस और आर्मस्ट्रांग जहां ज़िंदगी से जंग लड़ते हुए खेलों में अपनी मंजिल को हासिल करते हैं, वहीं कोहली और तेंदुलकर खेल के सहारे अपनी ज़िंदगी में आए सूनेपन को भर रहे हैं। वो खेल के जरिए ज़िंदगी की जंग को जीतने के लिए आगे बढ़ते दिखते हैं।

Wednesday, August 27, 2008

....और फिर उसने ज़िंदगी को गले लगा लिया

मुन्नाभाई एमबीबीएस का वह बुजुर्ग बार बार उभार ले रहा था। जैसे जैसे मैं एक लेख को पढ़ता गया, मुन्नाभाई के साथ कैरम खेलता वह बुजुर्ग उतनी ही शिद्दत हावी होता गया। मुन्नाभाई का ये बुजुर्ग अपनी ज़िंदगी से आखिरी लड़ाई लड़ रहा है। उसका बेटा डॉक्टर है, लेकिन न दवा, न दुआ-कोई भी उसे ज़िंदगी की ओर लौटाता नहीं दिख रहा। तभी, मुन्नाभाई कैरम की बिसात सजाता है। गोटियों की खनखनाहट से बुजुर्ग में हरकत होती है। एक बार फिर वह स्ट्राइकर से निशाना साधता है-रानी (क्वीन) पर। देखते ही देखते उसने ज़िंदगी को गले लगा लेती है।

ये कहानी फिल्मी है लेकिन ऐसी ही एक कहानी से मैं रुबरु हुआ, कुछ पुराने पन्ने पलटते हुए। अब से दो दशक पहले भारतीय खेल पत्रकारिता में एक शख्स था, जिसे हम मिसाल की तरह सामने रखकर आगे बढ़ने की कोशिश करते थे-मदुर पथारिया। वो खासतौर से क्रिकेट पर ही लिखते थे,लेकिन उनकी कलम क्रिकेट के मुकाबलों और आंकड़ों से कहीं आगे ले जाती थी।

मदुर की कई रिपोर्ट आंखों के सामने से गुज़री लेकिन जिसका मैं ज़िक्र करने जा रहा हूं, वो मुझसे छूट गई। दो साल पहले विजडन एशिया ने क्रिकेट के बेहतरीन लेखों का एक विशेषांक निकाला।इसमें रोहित बृजनाथ मदुर के एक खास लेख को चुना। वो लेख भारतीय क्रिकेट पर नहीं था। दरअसल, स्पोर्ट्स वर्ल्ड में छपी यह कहानी मदुर ने अपने पिता को याद करते हुए लिखी थी।

ये कहानी है क्रिकेट के सहारे अपने पिता को फिर पाने की। मदुर की कहानी शुरु होती है-इस बात से कि कैसे स्पोर्ट्स वर्ल्ड में काम करने के दौरान भारतीय क्रिकेट टीम को कवर करते-करते वो इतना मशगूल हो गए कि पता ही नहीं चला कि बाप-बेटे के बीच एक अंजान सी दीवार खड़ी हो गई। मदुर अपने काम में मशगूल थे,तो पिता अपनी समाजसेवा और धार्मिक कामों में।

लेकिन,एक दिन अचानक बाथरुम में फिसल जाने की वजह से मदुर के पिता पैरालिसिस का शिकार हो गए। उनके दांहिने हिस्से ने काम करना बंद कर दिया। एक के बाद एक डॉक्टर बदलते गए। नए से नए प्रयोग उन पर होते गए लेकिन हालात में कोई बदलाव नहीं आया। उनकी ज़िंदगी एक बंधे बंधाए ढर्रे में सिमट गई। वक्त से जागना, वक्त से नाश्ता, वक्त से फिजियोथैरेपी, वक्त से टीवी, वक्त से डिनर और फिर वक्त से ही सोना.....।

लेकिन, अचानक एक दिन उनमें तेज़ी से हरकत हुई। नर्स और अपनी लाठी के सहारे वो जैसे तैसे अपने बेडरुम से बाहर आए,और नज़रें टेलीविजन पर गढ़ा दीं। भारत और इंग्लैंड के बीच हो रहे कलकत्ता टेस्ट को देखने के लिए। पहले दिन कोई खास प्रतिक्रिया नहीं। दूसरा दिन-भारत ने इंग्लैंड को आउट किया तो उनके दांहिने हिस्से में हल्की सी जान आती दिखायी दी। तीसरे दिन-उन्हें मैच में आनंद आने लगा। चौथे दिन इंग्लैंड मैच में संघर्ष कर रहा था तो वो मैच में डूबते दिखायी दिए। पांचवे दिन भारत ने मैच जीता तो उनके पास कहने के लिए एक कहानी थी। आठ महीने में पहली बार।

मदुर इस लेख में बताते हैं कि धीरे धीरे क्रिकेट उनकी दिनचर्या में शामिल हो गया। अब वो रोज़ाना अपनी लड़खड़ाती जुबां से पूछते कि अगला मुकाबला कब है। मदुर उन्हें तारीख बताते। मैच एक-दो दिन छोड़कर होता तो वो कहते “क्या रे...”। मतलब ये कि मैच की देरी उन्हें कचोटती है। वो इंतजार करने को तैयार नहीं थे।

लेकिन, कहानी यहां खत्म नहीं होती। यहीं से शुरु होती है। दरअसल, कभी सूरत छोड़कर कलक्तता में बसे मदुर के पिता के लिए क्रिकेट ज़िंदगी था। सूरत में बदहाली के बीच क्रिकेट के शुरुआती गुर सीखने वाले मदुर के पिता ने एक दशक तक कलकत्ता के मोहमडन स्पोर्टिंग कल्ब के लिए पारी की शुरुआत की थी। वो जब भी कलकत्ता के कालीघाट मैदान से गुजरते तो मदुर को बैठाकर बताते “देखों,यहां मैंने हाफ सेंचुरी बनायी थी। ” अगर वो हाईकोर्ट ग्रांउड से गुजरते तो उन्हें वहां 1957 में खेली अपनी 72 रन की पारी याद आ जाती। और मोहमडन स्पोर्टिंग ग्राउंड पहुंचते तो वहां तो उनके पास कहने को अपना पसंदीदा किस्सा होता- “वो टॉवर देख रहे हो मदुर। मैंने प्वाइंट के ऊपर से वहां तक छक्का जमाया था। एक बार तो गेंद ही खो गई थी। ” 55 साल की उम्र तक वो मैदान पर अपने इस जुनून से जुड़े रहे। जब इससे हटे तो मदुर में क्रिकेटर तलाशने लगे। मदुर की छोटी छोटी पारियों को भी वो मैदान मे देखने जाते,और उसके किस्से अपनी पत्नी को बताते। लेकिन, मदुर पहले क्रिकेटर से क्रिकेट पत्रकार बने, और फिर क्रिकेट पत्रकारिता भी छोड़ बिजनेस पत्रकार बन गए। धीरे धीरे क्रिकेट उनकी ज़िंदगी से दूर और दूर होता चला गया। उसके बाद,वो पैरालिसिस का स्ट्रोक............

खेल की यही ताकत है। शायद यहीं आकर खेल ज़िंदगी बन जाता है।
खेल के बारे में मशहूर अमेरिकी खेल पत्रकार हॉवर्ड कोसल ने कहा भी है-स्पोर्ट्स इज ह्यूमन लाइफ इन माइक्रोकॉजम। ज़िंदगी हर बिंब को आप खेल में तलाश सकते हैं। मदुर ने भी अपने पिता को भी क्रिकेट की छांव में वापस पा लिया।

Tuesday, August 26, 2008

बाज़ार के दुर्योधनी दौर में क्रिकेट का बालकृष्ण

ये दिल मांगे मोर-बच्चों की धमाचौकड़ी के बीच ये गूंज आपके कानों तक पहुंची नहीं कि एक पूरी की पूरी तस्वीर जेहन में शक्ल ले लेती है। टेलीविजन के स्क्रीन पर नज़र डाले बिना कृष्ण के बालपन की छटाओं की अनुगूंज समेटे एक पूरा बिंब आंखों के सामने होता है। आप उसे टेलीविजन पर देखते भर हैं, और ये बिम्ब देखने से पहले आत्मसात हो चुका होता है। सचिन तेंदुलकर के इर्दगिर्द बुनी ये तस्वीर साल दर साल हमारे अवचेतन में बनी बालकृष्ण की छवि से एकाकर हो उठती है।

लेकिन, अब ये छवि नहीं दिखे रही। सचिन तेंदुलकर को लेकर गढ़े गये पेप्सी के तमाम विज्ञापन अब गायब हो गये हैं। अब "ये है यंगिस्तान की गूंज" के बीच उभार ले रहे हैं पेप्सी के नए विज्ञापन- हमारे नौजवान क्रिकेटर-इशांत शर्मा से लेकर रोहित शर्मा तक को लेकर। ये सब अभी तेंदुलकर को क्रीज से बेदखल करने में भले मीलों दूर हों लेकिन बाजार की नयी दुनिया में वो सचिन तेंदुलकर को खारिज कर रहे हैं। अपने खेल से नहीं, आक्रामकता की लहरों पर सब कुछ ध्वस्त करते बाजार के सहारे। इस सवाल की ज़मी तैयार करते हुए कि क्या सचिन तेंदुलकर महानायक के पायदान से बेदखल हो रहे हैं। क्या ये एक आईकान के इतिहास में तब्दील होने की शुरुआत है। इसका जवाब भी क्रिकेट के बदलते चेहरों के बीच से ही ढूंढना पड़ेगा। क्रिकेट कोई एक ठहरी हुई सोच नहीं है। एक ही साल में, एक ही दौर में हम टेस्ट, वनडे और टी-२० से रुबरु होते हैं। लेकिन,क्रिकेट के ये तीन चेहरे, तीन युग, तीन दौर और तीन अलग अलग संस्कारों को जाहिर करते हैं।

टेस्ट क्रिकेट जीवन मूल्यों में संयम का प्रतीक बनकर हमारे सामने आता है। ये उस दौर के क्रिकेट के चेहरों को बनाए रखने की कोशिश में जुटा दिखता है, जब खुले बाजार की अर्थव्यवस्था ने दस्तक नहीं दी थी। एक नियंत्रित अर्थव्यवस्था के बीच समाज और राजनीति अपना रास्ता तैयार कर रहे थे और क्रिकेट अपनी पांच दिनी टेस्ट की बुनावट में इन्हीं मूल्यों को प्रतिबिम्बित कर रहा था। राज और समाज में संयम पर जोर था तो इसी तर्ज पर टेस्ट क्रिकेट ने अपने आईकन, अपने महानायक गढ़े। सुनील गावस्कर से लेकर गुंडप्पा विश्वनाथ तक और बिशनसिंह बेदी से लेकर चंद्र्शेकर तक, और आगे बढ़े तो कपिल देव तक। शायद इसलिए आज जब हम टेस्ट से रुबरु होते हैं, तो लगता है कि उन्हीं संस्कारों, भावनाओं और मूल्यों को जिंदा रखने की कोशिश में है।

ठीक यहीं, वनडे क्रिकेट एक नए चेहरे को गढ़ता हुआ सामने आया। ये जीत का चेहरा था। इसकी शुरुआत अब से 25 साल पहले लॉर्ड्स के मैदान से हुई थी। कपिल की अगुआई में मिली वर्ल्ड कप जीत से शुरु हुआ ये सिलसिला आगे बढ़ा । क्रिकेट की क्रीज पर तेंदुलकर के कदम रखने के साथ ही देश मे खुले बाजार के पक्ष में सुगबुगाहट शुरु हो चुकी थी। लोग पुराने को खारिज करने के लिए कह रहे थे। इस दौर में संयम के पुराने मूल्य पर सवाल उठाए गए। ये एक चेहरे से दूसरे चेहरे में तब्दील होने का दौर था। पुराने मध्यवर्गीय डाक्टर, इंजीनियर या वकील जैसे पेशे अपनी चमक खो रहे थे और इनकी जगह ले रहे थे तरह तरह के मैनेजमेंट के कोर्स। ये ऐसा दौर था, जहां संयम धीरे धीरे टूट रहा था। मूल्यों को बनाए रखने की कोशिश भी थी, और कुछ नया करने की ललक भी। क्रिकेट में ये दौर नुमाया हुआ वन डे मैच के रुप में। इस दौर ने भी तेंदुलकर की अगुआई में सौरव और द्रविड़ की शक्ल में अपने नए आइकन ,नए महानायक गढ़े।

क्रिकेट का तीसरा और सबसे नया चेहरा टी-20 का है। ये वो दौर हैं,जहां खुले बाजार की अर्थव्यवस्था अपने चरम पर है। इसका सबसे आक्रामक चेहरा है एसईजेड। एसईजेड पर नज़र डालें तो प्रतीत होता है कि आम आदमी के हाथ में अब बचाने को शायद जो कुछ था वो सब छिटक रहा है- कई बार भय पैदा करता हुए कि शायद कुछ भी न बचे। अब बाजार को आक्रामकता चाहिए और ठीक इसी तरह टी-20 के हर चेहरे को भी। ट्वेंटी-२० वर्ल्ड कप में पाकिस्तान को शिकस्त देने के बाद मैदान में ट्रॉफी उठाए महेन्द्र सिंह धोनी और उनके साथियों के आसपास बिखरी कागज की चिंन्दियों को याद कीजिए । अहसास होगा कि कोई मुकाबला नहीं जीता गया, एक टीम ने पूरी आक्रामकता से अपने विरोधी को ध्वस्त कर दिया है। बिखरी चिन्दियां जैसे उसी के निशां हों । ये ऐसी तस्वीर है,जो कल तक पैसे की खनक पर रफ्तार पकड़ती फॉर्मूला वन या यूरोपीय फुटबॉल मैदानों की पहचान थी। ये सभी बिंब अब इस जेंटलमैन गेम कहे जाने वाले इस खेल में भी उतर आए हैं।

दरअसल, टी-20 की आक्रामकता ही उसकी ताकत है, उसकी पहचान है। यहां पहली गेंद से ही मरने- मारने का नियम लागू हो जाता है। लगता है आप तनी हुई बंदूक की नाल के सामने खड़े हैं। वनडे क्रिकेट में ऐसी आक्रामकता आखिरी दस ओवर में शक्ल लेती थी। टेस्ट में इसका आभास दोनों टीमों की एक एक पारी खत्म होने के बाद शुरु होता था। लेकिन टी -20 में आक्रामकता अपने चरम पर है। इशांत शर्मा, श्रीसंत या रोहित शर्मा क्रिकेट के इस नए चेहरे के प्रतीक हैं। यहां हार जीत से आगे जाकर बस लड़ जाना है, भिड़ जाना है। यह यंगिस्तान है,जिसे खेल ने नहीं बाजार ने गढ़ा है।

बाज़ार की नजर यंगिस्तान पर है। बाजार हम सब से पहले जानता है कि इस देश में नौजवान उम्र के लोगों की तादाद करीब 50 फीसदी से ज्यादा है। इस तादाद को बाजार न सिर्फ एक चेहरा देता है बल्कि चेहरे के साथ संस्कार भी सुझाता है। बाजार का सुझाव है कि यंगिस्तान में अपने पीछे सब कुछ ध्वस्त कर देने की आक्रामकता होनी चाहिए। पेप्सी आक्रमकता को आवाज देते लम्हों और उत्तेजना से भरपूर चेहरों की तलाश में है।

इन सबके बीच आकर तेंदुलकर को तो पीछे छूट ही जाना है। इस दौर का हर पल तेंदुलककर को बूढ़ा दिखाने की कोशिश तो करेगा ही। सचिन में पिता की पीढी का संयम है और इस संयम से बंधकर उनका जोश अपनी सीमा में रहकर जीत की सरहदों तक ले जाता है। सचिन का खेल कभी फैशन में तब्दील नहीं हुआ। वो मास्टर ब्लास्टर तो हैं लेकिन ब्लास्टर बनने से पहले मास्टर हैं। सचिन का खेल फैशन में तब्दील नहीं हो सकता और फैशन तो वही है जो रोज बदलता हो। जो लगातार ये सवाल करता हो कि नया क्या है। आज का उपभोक्ता भी पैसे की खनक लिए इसी सवाल के साथ बाजार में पहुंचता है कि उसके लिए नया क्या है। ये रफ्तार का दौर है। एटीएम मशीन से गिरते नोट, इंटरनेट पर बहती जानकारियां और शहर की भीड़भाड़ को चीरकर हवा से बातें करती मेट्रो। आम जिंदगी के बिंब से एकाकार होकर ही टी-20 ने शक्ल ली है। टी-20 के बिंब आप इनमें महसूस कीजिए तो आपको सचिन आला रे से लेकर यंगिस्तान की यात्रा पर हैरत नहीं होगी।

लेकिन,एक बात तो तय है कि तेंदुलकर को मापने का पैमाना यहां क्रिकेट नहीं है। तभी तो दो दशक तक लगातार क्रिकेट खेलने के बावजूद सचिन अपनी लय नहीं खोते बल्कि एशिय़ा के सबसे बडे वनडे क्रिकेटर का खिताब हासिल करते हैं। यही नहीं, आज भी गाहे बगाहे अगले वर्ल्ड कप में जीत की उम्मीद जगाते हैं। बाजार बेशक उसे अपने पैमाने पर बौना साबित करने पर तुला हो लेकिन एक बात तो तय है कि सोने को परखने की सिर्फ एक कसौटी होती है तो सचिन को परखने की भी सिर्फ एक ही कसौटी होगी। बेशक, उसमें मौजूदा दौर की आक्रामकता न हो लेकिन वो ऐसे मूल्य और उम्मीदें जगाते है, जो उन्हें क्रिकेट की सीमा रेखा से बाहर ले जाती हैं। तभी तो उसे भारतीय महानायकों में महात्मा गांधी से लेकर अमर्त्य सेन तक जाने वाली कतार में जगह देने पर किसी को हैरत नहीं होती। वो देश के एक चेहरे की तरह सबके सामने होते हैं। यंगिस्तान की आवाजों के बीच इस पहलू को आप दबाना भी चाहें तो कामयाब नहीं हो सकते। ये सचिन तेंदुलकर हैं। समय, समाज, काल और देश से आगे निकल चुके सचिन रमेश तेंदुलकर।

(दैनिक भास्कर में यह लेख जुलाई माह में प्रकाशित हो चुका है)

Monday, August 25, 2008

अब यादों में ठहर गया रैना का स्ट्रोक्स भी

ऐसा नहीं था कि उससे बेहतर स्ट्रोक पहले नहीं देखा था। ऐसा भी नहीं था कि इससे बड़ा स्ट्रोक फिर देखने को नहीं मिलेगा। लेकिन इसके बावजूद कोलंबो की ढलती दोपहर में प्रेमदासा स्टेडियम पर सुरेश रैना का जमाया आसमानी स्ट्रोक मेरे जहन में ठहर गया है। अजंता मेंडिस की गेंद पर डीप मिडविकेट को पार करती गेंद का दायरा सिर्फ छह रनों में ही नहीं सिमटा था। ये स्ट्रोक भारतीय बल्लेबाजी की सोच से भरपूर था। ऐसा स्ट्रोक,जो मेंडिस की पहेली से उलझे तारों को सुलझाने की आहट दे रहा था। दो महीने से भारतीय बल्लेबाजों को मोहपाश में बांध देने वाले मेंडिस से पार पाने की यह शुरुआत थी। इसलिए,ये स्ट्रोक एक तस्वीर की मानिद दर्ज हो गया है। फिर,ये सिर्फ एक तस्वीर ही नहीं रही। ये स्ट्रोक मुझे यादों के कारवां की ओर मोड़ ले गया। बीते तीन दशक के दौरान भारतीय क्रिकेट को लेकर मेरी यादों में रच बस गए कुछ चुनिंदा स्ट्रोक मेरे जेहन में उभार लेने लगे।

यादों की इस कड़ी में जेहन में सबसे पहले उभार लेती तस्वीर 25 साल पहले लॉर्ड्स की ओर ले गई। श्रीकांत के बल्ले से निकला स्क्वायर ड्राइव। वेस्टइंडीज के खिलाफ वर्ल्ड कप फाइनल मुकाबले में एंडी रॉबर्ट्स के खिलाफ एक पैर पर बैठकर इस स्ट्रोक में श्रीकांत की लाजवाब टाइमिंग थी। गेंद की लेंथ को कहीं बहुत पहले भांपती तेज निगाह थी। साथ ही था,नफासत का बेहतरीन समावेश। लेकिन,इन सबसे भी आगे थी, इस स्ट्रोक के साथ दिखायी देती कपिल की टीम की सोच। ये ऐलान करती हुई कि वो क्लाइव लॉयड की वर्ल्ड चैंपियन टीम के सामने हारी हुई बाजी खेलने नहीं उतरी है। गुड लेंथ स्पॉट से भी बाउंसर फेंकने में बेजोड़ एंडी रॉबर्ट्स को एक पांव पर बैठ जमाए इस स्ट्रोक में यही गूंज लॉर्ड्स के मैदान से पूरे देश में हर टेलीविजन सेट पर महसूस की गई।

यादों की इस गली में श्रीकांत के इस स्ट्रोक से पहले एक छोर पर संदीप पाटील खड़े हैं,तो दूसरे छोर पर सुनील मनोहर गावस्कर। 1981 की शुरुआत का महीना था। संदीप पाटील ने डेनिस लिली के तूफान पर उससे भी दोगुनी ताकत से प्रहार किया था। वो भी अपने करियर के महज चौथे टेस्ट में। इतना ही नहीं, इससे ठीक पहले सिडनी में लेन पॉस्को की गेंद पर लहूहुहान होकर पाटील 65 रन की पारी को अधूरा छोड़ पैवेलियन लौटे थे। लेकिन, एडिलेड ओवल में अगले ही टेस्ट में इस चोट से बेपहरवाह पाटील जवाबी हमले के लिए तैयार थे। लिली और लेन पॉस्को के तूफान के सामने 240 गेंदों पर 174 रन की पारी में आप उनके जवाबों को पड़ सकते हैं। लेकिन,इस बेमिसाल पारी में भी लिली के खिलाफ खेला गया एक स्ट्रेट ड्राइव पाटील की पारी की कहानी बयां कर देता है। इस पारी को मैंने सिर्फ रेडियो कमेंट्री के जरिए सिर्फ अपनी कल्पनाओं में गढ़ा था। उस वक्त मैं किसी एक स्ट्रोक पर अपनी मुहर नहीं लगा पाया था। लेकिन,अगले दिन अखबारों में पाटील के स्ट्रेट ड्राइव से फॉलोथ्रू में खुद को बचाते लिली की तस्वीर में पाटील की सोच को नए सिरे से गढ़ने का मौका मिला था।

दूसरी ओर,वर्ल्ड कप के ठीक बाद दिल्ली के फिरोजशाह कोटला पर सुनील गावस्कर का मार्शल की गेंद पर स्क्वायर लेग और फाइन लेग के बीच से जमाया हुक 25 साल बाद भी यादों में धुंधला नहीं पड़ा है। ये मार्शल की एक ऐसी गेंद थी,जिसे गावस्कर चाहते तो बेहद आसानी से नीचे झुककर विकेट कीपर डुजो के हाथों में जाने देते। गावस्कर इस दौर में अपनी बल्लेबाजी से हुक स्ट्रोक को कुछ कम कर चुके थे। फिर,हमने गावस्कर को थॉमसन और लिली के खिलाफ आखिरी क्षणों में भी बल्ले को गेंद की दिशा से अलग करते हुए बार बार देखने की आदत भी डाल ली थी। लेकिन,यहां कोटला पर गावस्कर को मार्शल को सीधे सीधे एक संदेश देना था। चार दिन पहले कानपुर टेस्ट की दूसरी पारी में मार्शल की गेंद पर उनके हाथ से छिटके बल्ले के बाद अचानक गावस्कर की तकनीक और भरोसा सवालों के घेरे में आ गया था। और कोटला पर जमाया ये हुक इन्हीं सवालों का जवाब दे रहा था। टेस्ट क्रिकेट में सिर्फ 128 गेंदों पर 121 रन की पारी अगर सुनील गावस्कर के बल्ले से निकले तो आप सोच सकते हैं कि गावस्कर किन इरादों के साथ मैदान में उतरे थे। और ये स्ट्रोक इन्हीं इरादों का आइना बनकर सबके सामने था। इस पारी में गावस्कर ने अपना विकेट मार्शल को नहीं थमाया था। गावस्कर का विकेट मिला था तो स्पिनर लेरी गोम्स को।

इसके बाद जावेद मियांदाद के बल्ले से एक ऐसा स्ट्रोक निकला,जिससे उबरने में भारत को डेढ दशक लग गया। 1986 में शारजाह में पाकिस्तान को भारत पर जीत के लिए आखिरी गेंद पर चार रन चाहिए थे। विकेट पर स्ट्राइक लेने के लिए जावेद मियांदाद थे। उनके सामने थे गेंदबाज चेतन शर्मा। कप्तान कपिल देव ने अपने फील्डर्स को इस कदर मैदान में तैनात कर दिया था कि मियांदाद के लिए ये चार रन मुश्किल ही नहीं नामुमकिन से दिखने लगे थे। पूरा भारत अपने टेलीविजन स्क्रीन पर दम साधे इस गेंद को देख रहा था। लेकिन,चेतन की एक फुलटॉस पर आसमानी स्ट्रोक खेलते हुए छक्के के सहारे मियांदाद ने अब तक की सबसे सनसनीखेज जीत दर्ज कर डाली थी।

मियांदाद के इस मनोवैज्ञानिक प्रहार से भारत को उबारा सचिन तेंदुलकर ने। 2003 के वर्ल्ड कप में पाकिस्तान के शोएब अख्तर की गेंद को ठीक प्वाइंट के ऊपर से सीधे छह रन के लिए भेजते हुए। भारतीय पारी की सिर्फ दसवीं और शोएब के पहले ओवर की चौथी गेंद थी। लेकिन,ऑफ स्टंप के बाहर पड़ी इस गेंद पर तेंदुलकर का प्रहार इतना ताकतवर था कि पाकिस्तान के लिए इस मुकाबले में जीत दूर और दूर होती चली गई।

इन सब लेजेंड्स के बीच हो सकता है कि सुरेश रैना के इस स्ट्रोक को जगह देना जल्दबाजी हो। लेकिन,जिस मेंडिस ने भारत के गोल्डन मिडिल ऑर्डर से लेकर भारत की यंगिस्तान ब्रिगेड को अपने चक्रव्यूह में उलझाए रखा।वहां से निकलने की अगर शुरुआत को तलाशा जाएगा तो शायद सुरेश रैना का यही स्ट्रोक बार बार जेहन में उभार लेगा।

Sunday, August 24, 2008

बशर्ते ये कामयाबियां सिलसिले में तब्दील हों

खेलों का महाकुंभ अपने अंजाम तक पहुंच चुका है। ओलंपिक के इतिहास में भारत के लिए बीजिंग ओलंपिक का अपना महत्व रहेगा। बीजिंग ओलंपिक शुरु हुआ था,तो तिरंगा राज्यवर्धन राठौर के हाथ में था। पिछले ओलंपिक में सिल्वर मेडल जीतने वाले राठौर पर इस बार अरबों उम्मीदों का भार था,लेकिन वो कामयाब नहीं हो पाए, और अब ओलंपिक खत्म हो रहा है,तो तिरंगा मुक्केबाजी में कांस्य जीतने वाले विजेन्द्र के हाथों में होगा। लंदन ओलंपिक में विजेन्द्र पर भारत के अरबों लोगों की उम्मीदों का भार होगा,क्योंकि इस ओलंपिक के खत्म होते होते भारतीयों ने खेलों के महाकुंभ से उम्मीद की आदत पाल ली हैं। विजेन्द्र की कामयाबी पर मेरा यह लेख तीन दिन पहले दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ था।

आई एम द ग्रेटेस्ट! रिंग में उतरने से पहले मोहम्मद अली ऐसी ही हुंकार भरा करते थे। "मैं इसे पांचवे राउंड में ही नॉक आउट कर दूंगा। मैं इसे टिकने नहीं दूंगा।" बीसवीं सदी के महानतम एथलीट अली की ये गर्जनाएं आज भी खेल प्रेमियों में एक सिरहन पैदा कर देती हैं। ये पेशेवर मुक्केबाजी का वो दौर था,जहां मुकाबला अली से शुरु होकर अली तक सिमट जाता था। बस,सामने मुक्केबाज बदल जाया करते थे। कभी सोनी लिस्टन तो कभी जो फ्रेजियर।

बुधवार को खेलों के महाकुंभ ओलंपिक की मेजबानी कर रहे बीजिंग में भी एक ऐसी ही गर्जना सुनायी दी। बॉक्सिंग रिंग में पहुंचने से ठीक पहले एक और मुक्केबाज ने हुंकार भरी-आई एम द बेस्ट। मोहम्मद अली और इस नौजवान मुक्केबाज के खेल कौशल और उपलब्धियों के बीच उतना ही फासला था,जितना दिल्ली और न्यूयॉर्क के बीच। अगर,कोई बात साझा थी तो वो था इनका हौसला।

भारत के विजेन्द्र कुमार ऐसे ही फौलादी हौसलों के साथ बीजिंग के बॉक्सिंग रिंग में उतरे। महज 120-120 सेकेंड के चार राउंड के बाद वो रिंग से बाहर आए,तो उनकी दुनिया बदल चुकी थी। सिर्फ 11 मिनट पहले तक बीजिंग में हर किसी के लिए वो भारत का एक नौजवान मुक्केबाज था। लेकिन,11 मिनट बाद वो एक अरब से ज्यादा की आबादी के मुल्क भारत के एक छोटे से गांव कालूवास का विजेन्द्र कुमार था। वो विजेन्द्र, जिसने अपने मुक्कों में नए हौसलों को भर ओलंपिक के विक्ट्री पोडियम पर अपनी जगह तय कर ली थी। महज दस मिनट में रिंग में अपने प्रतिद्वंदी कार्लोस गोनगोरा पर किए प्रहारों ने हरियाणा के छोटे से शहर भिवानी के करीब बसे कालूवास को सुर्खियों में ला खड़ा किया था। विजेन्द्र की कामयाबी की दास्तान को अब बीजिंग से भिवानी तक हर कोई एक नए सिरे से गढ़ रहा था।

ये वो विजेन्द्र था,जिसने अपने बड़े भाई के अधूरे सपनों को पूरा करने की हिम्मत दिखायी थी। ये वो विजेन्द्र था,जिसके पिता ने उसके ख्वाबों को हकीकत में तब्दील करने के लिए बस चलाते चलाते दिन और रात के फासलों को खत्म कर दिया था। सिर्फ एक ऐसी सुबह के इंतजार में,जो समाज मे हाशिए पर छूटे इस परिवार को एक नयी पहचान दिलाएगी। इनकी मौजूदगी को शिद्दत से महसूस कराएगी।

दरअसल,हरियाणा के भिवानी शहर और उसके आसपास के गांव में मुक्केबाजी के रिंग में उतरना कुछ वैसा ही है,जैसा छोटा नागपुर के इलाके में आदिवासियों के हाथ में हॉकी स्टिक का पहुंचना। या फिर, राजस्थान या झारखंड के आदिवासी अंचल में तीरंदाजी के सहारे समाज में एक मान्यता हासिल करने की कोशिश। छोटा नागपुर में हॉकी के उबड़ खाबड़ मैदानों पर ये अलख जगाने का काम कभी माइकल किंडो की कामयाबी के साथ शुरु हुआ। तो कभी, श्यामलाल मीणा और लिंबाराम के तीरों ने इसे परवान चढ़ाया। भिवानी के हलकों में भी हवा सिंह के एशियाई गोल्ड ने मुक्केबाजी की दस्तक दी। दिलचस्प है कि इन तीनों हिस्सों में ही बेहतर कल के ख्वाब संजोए खिलाड़ियों ने कभी सुविधाओं की बात नहीं की। झारखंड में अगर हॉकी की जगह पेड़ की टूटी डाली से स्टिक बनाकर अपना रास्ता तय करने की कोशिश शुरु हुई तो भिवानी में भी टूटे फूटे शेड के नीचे बॉक्सिंग क्लबों ने शक्ल लेनी शुरु की। नतीजा सामने है- हॉकी में अगर किंडो से शुरु हुआ कारवां डुंगडुंग,टोपनो से होता हुआ दिलीप टिर्की की कप्तानी पर भी थमा नहीं है,तो मुक्केबाजी के रिंग में हवा सिंह के बाद राजकुमार सांगवान की कड़ी से आगे निकलते हुए अखिल कुमार, जितेन्द्र कुमार के बाद अब ये विजेन्द्र की सुनहरी कामयाबी तक आ पहुंचा है। हर मोर्चे पर अपने टेलेंट और जीवट का लोहा मनवाने के बाद देश का खेल सिस्टम उनकी ओर मुखातिब हुआ है।

फिर,अब नए उभरते हुए खिलाड़ियों की तादाद ही नहीं बढ़ रही,उनके हौसलों के साथ खेल को लेकर उनकी सूझबूझ और उनकी स्किल भी नयी उम्मीदें जगा रही है। शायद,तभी तो अखिल,जितेन्द्र से लेकर विजेन्द्र तक सभी मुक्केबाजी के रिंग को शतंरज की बिसात में तब्दील कर डालते हैं। वर्ल्ड चैंपियन को शिकस्त देने वाले अखिल अपने दस्ताने नीचे लटकाकर प्रतिद्दंदी को आक्रमण के लिए ललकारते हैं। दस टांकों के बावजूद जितेन्द्र शुरुआत से ही आक्रमण को आधार बना अपने प्रतिद्दंदी को कोई मौका देना नहीं चाहते। इनसे कुछ हटकर विजेन्द्र अपने साथियों की चूक से सीख लेते हुए मुकाबले को तीसरे राउंड में पहुंचने से पहले ही नतीजे की ओर मोड़ना चाहते हैं। इनके मुक्कों में हवा सिंह और कौर सिंह की ताकत से ज्यादा निगाह होती है-ज्यादा से ज्यादा अंक बटोरने की रणनीति पर। इससे मिलती हर जीत उनके लिए कामयाबी के नए रास्ते खोल रही है।

दोहा एशियाई खेलों में कांस्य पदक और कॉमनवेल्थ में रजत पदक जीतने वाले विजेन्द्र के करियर में भी ओलंपिक चैंपियन बख्तियार,आर्तियेव पर मिली जीत इस सिलसिले की एक कड़ी है। ओलंपिक से पहले चीन ताइपे में आईबीए प्रेसीडेंट कप के दौरान विजेन्द्र ने आर्तियेव को सात के मुकाबले 12 अंकों से हराते हुए वो हौसला और खेल की बारीकियों पर पकड़ जमायी,जिसके बाद रिंग में उतरते हुए एक मनोवैज्ञानिक बढ़त उनके पास रहती है। ये भरोसा देते हुए कि वो दुनिया में किसी को भी फतेह कर सकते हैं।

यही वो पहलू है, जहां से भारतीय खेल एक नयी शुरुआत की ओर मुड़ सकते हैं। अभी तक क्रिकेट के अलावा ज्यादातर खेलों में शिरकत करना एक खिलाड़ी के लिए एक नौकरी और सुरक्षित भविष्य से जुड़ा है। लेकिन,जीत का ये जज्बा ठीक वैसे ही कहानी रच सकता है,जिस तरह इथोपिया के लॉंग डिस्टेंस रनर और जमैका के स्प्रिंटर्स रच रहे हैं। सारी कहानी अपनी ताकत और टेलेंट को पहचान उसे एक सही दिशा देने की है। वैसे,इस देश में अस्सी के दशक में स्पेशल एरिया गेम्स के जरिए ऐसी पहल हुई थी। लेकिन, आदिवासी इलाकों से तीरंदाज से लेकर अंडमान निकोबार से साइकलिंग की प्रतिभाओं को छांटकर उन्हें चैंपियन में तब्दील करने की कोशिशें परवान चढ़ने से पहले ही खत्म हो गई। श्यामलाल मीणा और लिंबाराम जैसे कुछ नाम अंतरराष्ट्रीय मंचों पर धूमकेतु की तरह चमके और फिर गुमनामी में खो गए।

दरअसल,विजेन्द्र से लेकर सुशील कुमार की कामयाबियों के बीच हमें उस बीते कल से भी सीख लेनी होगी,जिसने दस साल पहले बैंकॉक में डिंको सिंह की सुनहरी कामयाबी के साथ नए सपने जगाए थे। लेकिन, मणिपुर का ये टेलेंटेड मुक्केबाज अपने इस सिलसिले को बैंकॉक से आगे नहीं ले जा पाया। कोशिश ये होनी चाहिए कि ये कामयाबियां एक सिलसिले में तब्दील हो सकें। तभी हम 2020 में ओलंपिक की मेजबानी का दावा पेश करने का नैतिक साहस जुटा सकते हैं। तभी हम, क्रिकेट के जुनून में डूबे इस देश में बाकी खेलों का एक समानान्तर तंत्र खड़ा कर सकते हैं। इसके लिए जरुरी है ठीक वैसे ही शब्द,वैसा ही जज्बा और वैसी ही हुंकार-जैसे रिंग में उतरने से पहले विजेन्द्र ने लगायी-आई एम द बेस्ट।

Saturday, August 23, 2008

बोल्‍ट के जमैका जैसी आहट भारत में क्‍यों नहीं सुनाई पड़ती

यूसेन बोल्‍ट ने अपने लिए सुनहरी कामयाबियां रच रहे बर्ड्स नेस्‍ट के ट्रैक पर इस ओलंपिक का अपना आखिरी फर्राटा भरा। अपने 100 मीटर के फासले को नापने के बाद अपने साथी और एंकर असाफा पावेल को बैटन थमाया। इस बढ़त के साथ कि पावेल के हाथ में बैटन के पहुंचते ही जमैका का एक और गोल्‍ड तय हो गया। बस, अब इंतजार था तो इस बात का कि जमैंका इस गोल्‍ड तक पहुंचता है तो किस नए रिकॉर्ड के साथ।

लेकिन,इतना कामयाब फर्राटा भरने के बावजूद यूसेन बोल्‍ट के कदम थमे नहीं थे। वो लगातार दौड़ रहे थे। अपने साथी असाफा पॉवेल की हौंसला अफजाई करते हुए, गो असाफा, गो...। ये इस जमीं पर दुनिया के दो सबसे तेज़ धावकों की साझा मंजिल तक पहुंचने की एक बेमिसाल कोशिश थी। इसे पाने का जुनून कुछ इस कदर दोनों पर हावी था कि कोई भी एक गलत डग नहीं भरना चाहता था।

जैसे ही पावेल ने फिनिश लाइन को पार किया एक नया इतिहास बाहें फैलाए उसका इंतजार कर रहा था। 100 मीटर रिले में अमेरिका को शिखर से बेदखल करते हुए जमैका इस पर काबिज हो गया। अब से 16 साल पुराने अमेरिका के 37.40 के रिकॉर्ड को मिटा 37.10 सेकेंड के नए रिकॉर्ड को ट्रैक पर उकेर दिया था।

इतिहास के इस मोड़ पर पावेल अपने साथियों के साथ इस नए शिखर तक नहीं पहुंचे थे। इस मंजिल को छूने के साथ ही वो कल तक ट्रैक पर अपने प्रतिद्वंद्वी, लेकिन आज के साथी युसेन बोल्‍ट की बाहों में जा पहूंचे थे। उनके बाकी दोनों साथी नेस्‍टर कार्टर और माइकल फ्रांटर भी इस उल्‍लास का हिस्‍सा बन गए। देखते ही देखते बोल्‍ट अपनी पहचान से जुड़ चुके तीरंदाज के अंदाज में सबके सामने मौजूद थे। अपनी बायीं बांह को सीधे आसमान की ओर तान निशाना साधते बोल्‍ट को देखना एक ऐसा अनुभव था, जिसे हर कोई ताउम्र संजो कर रख सकता है।

जमैका से बीजिंग के लिए उड़ान भरते हुए बोल्‍ट के निशाने पर तीन गोल्‍ड या तीन वर्ल्‍ड रिकॉर्ड नहीं थे। अपनी रफ्तार के सहारे 37 लाख की आबादी के अपने छोटे से देश जमैका को दुनिया के नक्‍शे पर अपनी मौजूदगी का अहसास कराना भी था। इस सुनहरी कामयाबी के बाद उनके बयान पर गौर कीजिए - ये एक लाजवाब अनुभव है। हम सब इसी की कोशिशों में जुटे थे। जी हां, बोल्‍ट अपनी सुनहरी कामयाबियों को 'मैं' में समेटना नहीं चाहते। वो इसे हम यानी सबकी कोशिशों का नाम देते हैं। असाफा पावेल दौड़ पूरे होने के बाद इसे अपनी कामयाबी नहीं मानते। ''मै यहां यूसेन की मदद करने आया था। यूसेन यहां तीन गोल्‍ड और तीन वर्ल्‍ड रिकॉर्ड की कोशिश कर रहे थे, मैं इससे बड़ा काम नहीं कर सकता था।''

ये शब्‍द उस शख्‍स के थे, जो कल तक ट्रैक पर उनका सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी था। साफ है, बोल्‍ट से लेकर पावेल तक शैली से लेकर मेलिनी वॉकर तक सब गोल्‍ड की चाह में यहां पहुचे थे, लेकिन गोल्‍ड से पहले उनके जेहन में जमैका था। अपराध और बदहाली से जूझता जमैका। इसीलिए ओलंपिक खत्‍म होते होते जमैका ने 6 गोल्‍ड अपने नाम कर लिए। उनका देश इन कामयाबियों के उल्‍लास में डूबा तो जरूर लेकिन इन्‍हीं कामयाबियों से अपनी तस्‍वीर को बदलने की कोशिश में भी जुट गया। बाकी दुनिया जमैका की स्प्रिंट फैक्‍ट्री का कोड पढ़ने में जुटी है, लेकिन जमैका में अपने देश को पटरी पर लाने की कोशिश हो रही हैं। 400 मीटर हर्डल का गोल्‍ड जीतने वाली मेलिनी वॉकर के पिता अपील कर रहे हैं - आप इन कामयाबियों पर गर्व महसूस करें। अब आप बंदूक को नीचे रख दें। बोल्‍ट का शहर सिर्फ जश्‍न में ही नहीं डूबा है वो येम ( एक सब्‍जी) को बोल्‍ट की ताकत बता उसकी पैदावार बढाने की पहल कर रहा है। इन सुनहरे स्प्रिंटरों के जरिए जमैका के टापुओं तक टूरिस्‍टों को खींचने की कोशिशें तेज होंगी।

बोल्‍ट एंड कम्‍पनी पूरे जमैका के लिए एक बेहतर कल की उम्‍मीदें संजोने लगी है। इस बिंदु पर इनकी कामयाबियां क्रिकेट के मैदान पर जॉर्ज हैडली, माइकल होल्डिंग और जैफ्री डुजॉन के कारिश्‍में से बहुत आगे निकल गई हैं। इसने जमैका की स्पिंट क्‍वीन मार्लिन ओटी को इतिहास के पन्‍नों में छोड दिया है। ये 1998 में जमैका के वर्ल्‍ड कप फुटबॉल में शिरकत करने पर भी भारी पड़ गई है।

लेकिन, यहीं एक सवाल मेरे में कौंध रहा है। क्‍या बोल्‍ट की कामयाबियों से करवट लेते जमैका जैसी आहट अभिनव बिंद्रा, सुशील कुमार और विजेंद्र सिंह के मेडलों से भी आती है, शायद नहीं। दरअसल, भारत में खेल को हम सेलिब्रेट कर सकते हैं, हम उसे टेलीविजन चैनलों में घंटों-घंटों देख सकते हैं। लेकिन, खेलों में हिस्‍सेदारी से अभी भी परहेज करते हैं। खेलों को लेकर एक सोच हम अभी तक गढ़ नहीं पाए हैं।

इस मोड़ पर हम एक अजीब तरीके से भारत को अमेरिका के ज्‍यादा करीब पाते हैं। फेल्‍प्‍स की सुनहरी कामयाबी वहां इतिहास में एक बड़े अध्‍याय की तरह दर्ज जरूर हो जाती है, लेकिन वहां की तस्‍वीर नहीं बदलती। भारत को सचिन तेंदुलकर के बाद दूसरे आइकॉन का इंतजार है। अमेरिका में आइकॉन्‍स की कमी नहीं है। अमेरिका में खेल जिंदगी जीने का तरीका है। भारत को इस दिशा में अभी शुरुआत करनी है। लेकिन,इन दोनों देशों से अलग जमैका के लिए खेल, अपराध, ड्रग्‍स और बदहाली से पार पाने का जरिया है। शायद इसीलिए बोल्‍ट एंड कंपनी की कामयाबियां पूरे ओलंपिक पर हावी हैं। इस हद तक कि अब बीजिंग से लंदन के बीच हर गुजरते पल में हम इन्‍हें अपनी यादों में साकार करते रहेंगे, एक बार नहीं बार-बार।

Friday, August 22, 2008

.....और शिखर दूर हो गया


अगर वो शिखर छू लेती तो वहां भी उसे अकेला ही होना था। शिखर पर अकेला होना कुदरत का कायदा भी है। मंगलवार को वो शिखर पर नहीं थी, लेकिन बिलकुल अकेली थी। बीजिंग ओलंपिक के प्रतीक चिन्ह बन चुके बर्ड्स नेस्ट में लाखों निगाहें उसकी ओर मुखातिब थीं। लेकिन,वो ट्रैक पर दोनों हाथों से अपने चेहरे को घुटने में छिपाए अकेली बैठी थी। अपने चहेते ट्रैक पर अमेरिका की सौ मीटर हर्डल की सबसे बड़ी उम्मीद लोलो जोन्स की ये तन्हा तस्वीर मेरे जेहन से अब कभी दूर नहीं हो सकती। अपने शिखर को छूने से महज बीस मीटर पहले वो बिलकुल अकेली छूट गई थी।

अगर वो बीस मीटर बाद अपना शिखर हासिल कर लेती तो भी उसे वहां अकेले ही खड़ा होना था, लेकिन यहां अकेला छूटने और वहां अकेले खड़ा होने में एक बड़ा फर्क था। शिखर पर काबिज होते ही वो इंतजार कर सकती थी कि कोई आकर उससे हाथ मिलाएगा। उसकी खीची लकीर को पार करेगा। लेकिन, ट्रैक पर अकेले बैठी लोलो जोंस किसी का इंतजार नहीं कर सकती थी। इस अकेलेपन में उसे अपने बिखरे ख्वाबों के साथ साथ अपने हौसलों को टटोलना है, जो उसके शिखर से बीस मीटर पहले आखिरी हर्डल से टकराकर टूट गए। उसे इस बात का जवाब तलाशना होगा कि अगर हर्डल से टकराहट पूरे साल में सिर्फ एक-दो बार होती है,तो वो यह पल आखिर उसकी जिंदगी के सबसे बड़े मुकाबले में ही क्यों आया अगर किस्मत ही आपके ख्वाबों को हकीकत की शक्ल देती है तो बीते चार साल के हर एक लम्हे में बहाया उसका पसीना क्या बेमानी था?

आखिर,ये वो ही लोलो जोंस थी,जिसका ख्वाब चार साल पहले भी दरक गया था। लेकिन,तब वो एथेंस पहुंचने से पहले बिखरा था। अमेरिकी टीम के ट्रायल में ही उसे बाहर कर दिया गया था। लोलो जोंस अपनी जिंदगी के ऐसे मोड़ पर खड़ी थी,जहां घर की बदहाली से पार पाने के लिए वो अपनी नौकरी तलाश कर सकती थी या फिर इन हर्डल्स को पार पाते पाते ज़िंदगी की चुनौती से भी पार पा लेती। जोंस ने ये दूसरी राह चुनी लेकिन किस्मत ने इस राह में उसे एक बार फिर अकेला छोड़ दिया।

शिखर छूने की कोशिश में अकेले तो टायसन ग्रे भी छूट गए। चार गुणा सौ मीटर की रिले में अपने साथी डार्बिन पटोन से आखिरी मोड़ पर बैटन नहीं थाम पाए। एक तय शिखर उनके हाथ से भी छूट गया। जिस तरह 100 मीटर की स्प्रिंट में कल तक के इस वर्ल्ड चैंपियन को फाइनल में उतरने का मौका नहीं मिला, उसी तरह रिले का एक तय शिखर भी रफ्तार पकड़ने से पहले ही थम गया। लॉरा विलियम्स भी टायसन ग्रे के साथ अकेली छूट गईं। अपने साथी टॉनी एडवर्स को इन सवालों का जवाब देने के लिए कि कैसे लगातार दो ओलंपिक में वो बैटन की अदला बदली में चूक गईं। चार साल पहले एथेंस में विलियम्स मरियम जोंस को बैटन नहीं थमा पाई थीं,तो शुक्रवार को वो टॉनी एडवर्स से बैटन नहीं ले पाई। 1980 के मास्को ओलंपिक को छोड़ यह पहला मौका था, जब अमेरिका रिले के विक्ट्री पोडियम से बाहर था। लेकिन, यहां सवाल इस बेजोड़ रिकॉर्ड से आगे का है। आखिर अपने करियर के सबसे नाजुक मोड़ पर दबाव आपके चार साल की जी तोड़ मेहनत और संजोए ख्वाब पर भारी पड़ गया या फिर यहां भी ज़िंदगी की दौड़ को किस्मत ने तय किया।

चीन के लियू जिआंग के लिए भी अगले चार साल सवालों से भरे हैं। 110 मीटर हर्डल में जीत के सबसे बड़े दावेदार विक्ट्री पोडियम के लिए अपना पहल कदम उठाते,इससे पहले ही उनके ख्वाब बिखर कर रह गए। एथेंस में पश्चिमी देशों की ताकत कहे जाने वाले इस इवेंट में जिआंग ने गोल्ड हासिल कर हर चीनी का दिल जीत लिया था। इस हद तक कि बीजिंग में हर दूसरे विज्ञापन बोर्ड में इनकी तस्वीर ही दिख रही थी। शायद चीन के लिए गोल्ड की सबसे बड़ी और पहली उम्मीद बन कर उबरे थे जिआंग। लेकिन,लोलो जोंस की तरह 20 मीटर पहले वो अपनी मंजिल से नहीं चूके, वो तो मंजिल की तरफ कदम बढ़ाते,उनके लिए सबकुछ ठहर गया था। मांसपेशियों में खिचाव के साथ बर्ड नेस्ट की सुरंग से ओझल होते होते उनसे संजोयी चीन की अरबों उम्मीदें भी अंधेरे में खो गईं।

लेकिन,लोलो जोंस से लेकर जिआंग तक या टायसन ग्रे से लेकर विलियम्स तक सभी को इस अंधेरे से गुजरकर अगले चार साल में शिखर की राह तलाशनी होगी। इस सोच के साथ कि आप ज़िंदगी में अगले दस साल का लक्ष्य तो बना सकते हैं,लेकिन दस सेंकेड बाद की भविष्यवाणी नहीं कर सकते। लेकिन,यही ज़िंदगी की सच्चाई है,तो यही खेल की भी।

Wednesday, August 20, 2008

नयी चुनौती से वाबस्‍ता युवराज

बुधवार की दोपहर इसी श्रीलंका के दाबुंला में पैवेलियन लौटते युवराज एक बार फिर सवालों का बोझ साथ लिए लौट रहे थे। स्पिन को लेकर उनके बल्ले पर उठाए गए सवाल एक बार फिर उनके साथ जुड़ गए थे। इस बार इस कड़ी में एक नया नाम था अजंता मेंडिस।

युवराज सिंह के जेहन में श्रीलंका ढेरों यादगार लम्हों को समेटे मौजूद रहता होगा। अब से 9 साल पहले इसी श्रीलंका से युवराज ने एक परीकथा की तरह यादगार सफर का आगाज़ किया था। यहां अंडर 19 वर्ल्ड कप में उनके बल्ले से बहे स्ट्रोक की गूंज क्रिकेट की बाकी दुनिया में मसहूस की गई। इस हद तक कि इसके फौरन बाद केन्या में खेली गई आईसीसी चैंपियंस ट्राफी में अकेले दम युवराज ने जब ऑस्ट्रेलिया की वर्ल्ड चैंपियन टीम पर जीत दर्ज करायी तो किसी को हैरानी नहीं हुई। इसी श्रीलंका में युवराज ने मुरली की पहेली को भी उन्हीं के घर में सुलझाने में कामयाबी पाई। अपने करियर की शुरुआत में मुरली के खिलाफ लड़खड़ाए युवराज ने 2001 में कोलंबो में भारत की जीत में 98 रन की यादगार पारी खेल मुरली की गेंदों को बखूबी जवाब दिया।

लेकिन, बुधवार की दोपहर इसी श्रीलंका के दाबुंला में पैवेलियन लौटते युवराज एक बार फिर सवालों का बोझ साथ लिए लौट रहे थे। स्पिन को लेकर उनके बल्ले पर उठाए सवाल एक बार फिर उनके साथ जुड़ गए थे। इस बार इस कड़ी में एक नया नाम था अजंता मेंडिस। पिछले दो महीने के दौरान भारतीय बल्लेबाजी पर खौफ की तरह दर्ज हो चुके मेंडिस के नए निशाने में युवराज सबसे ऊपर हैं। पिछले तीन वनडे मुकाबलों में हर बार मेंडिस ही उनके विकेट तक पहुंचते रहे हैं। लेकिन, सिर्फ उनके विकेट तक पहुंचना ही एक पहलू नहीं है, जो युवराज को परेशान किए होगा। दरअसल, इन तीन मुकाबलों के दौरान युवराज ने मेंडिस की सिर्फ 15 गेंदों का सामना किया है और महज सात रन उनके बल्ले से निकले हैं। इन सात रन में भी सिर्फ दो स्कोरिंग स्ट्रोक युवराज के नाम से जुड़े हैं। वरना, बाकी 13 गेंदों पर उनका बल्ला पूरी तरह मेंडिस की पहेली को सुलझाने में जूझता रहा है।

दरअसल, ये भारत और श्रीलंका के बीच खेले जा रहे मुकाबले के दरम्यान इन दोनों के बीच एक नई जंग की तरह है। मेंडिस ने कराची में भारत के खिलाफ अपने पहले वनडे में युवराज को दूसरी ही गेंद पर बोल्ड कर इस मुकाबले की शुरुआत की थी। मिडिल स्टंप पर पड़ी उस गेंद पर जब तक युवराज अपना बल्ला लगा पाते, उनका विकेट जा चुका था। कराची से दांबुला के बीच युवराज और मेंडिस का सामना नहीं हुआ। लेकिन, इस दौरान मेंडिस ने भारत के गोल्डन मिडिल ऑर्डर पर इस कदर कहर बरपाया कि भारतीय क्रिकेट के सामने मेंडिस मेनिया से बाहर निकलना सबसे बड़ी चुनौती बन गई।

पूरी सीरिज में मेंडिस ने लक्ष्मण को पांच बार अपना शिकार बनाया, जबकि भारतीय बल्लेबाजी में रक्षण की सबसे बड़ी दीवार द्रविड़ भी छह पारियों में चार बार मेंडिस से पार नहीं पा सके। तेंदुलकर को भी इस पहेली को सुलझाने में कामयाबी नहीं मिली। सौरव गांगुली जरुर मेंडिस का शिकार नहीं बने, लेकिन इस सीरिज में उनका बल्ला भी खामोश ही रहा। यानी कुल मिलाकर टेस्ट सीरिज में गोल्डन मिडिल ऑर्डर और मेंडिस-मुरली की जंग में सीरिज तय हो गई। ले-देकर सिर्फ एक बल्लेबाज वीरेन्द्र सहवाग ही मेंडिस का जवाब देते नज़र आए। लेकिन, वनडे सीरिज शुरु होने से पहले ही चोट की वजह से उनके बाहर होते ही भारतीय बल्लेबाजी पूरी तरह से युवराज के इर्दगिर्द सिमट गई। श्रीलंकाई थिंकटैंक ने मेंडिस की अगुआई में इस जंग को इन दोनों के बीच समेट दिया। इसमें अब तक मेंडिस को लगातार जीत मिल रही है।

यानी अब गेंद युवराज के पाले में है। पिछले आठ साल से भारतीय क्रिकेट में एक अहम जगह बना चुके युवराज के सामने मेंडिस की पहेली से पार पाने की चुनौती है। युवराज ने अपने करियर में लगातार चुनौतियों से पार भी पाया है। शुरुआती दौर में उन्हें वनडे क्रिकेट का बल्लेबाज कहा जाता था, लेकिन उन्होंने धीरे-धीरे टेस्ट में भी बड़ी पारियां खेल जगह बनायी। पिछले साल ही 20-20 में स्टुअर्ट ब्रॉड के एक ओवर में छह छक्के जमाने के बाद पाकिस्तान के खिलाफ बैंगलोर में उनका धुआंधार शतक इस पहलू को पुख्ता भी करता है।

क्वालिटी स्पिन के खिलाफ उनके बल्ले पर खड़े किए गए सवालों का भी युवराज ने बखूबी जवाब दिया है। मुरली के सामने मजबूती से टिके युवराज इसे साबित भी करते हैं। अब, इस नयी चुनौती मेंडिस से युवराज कैसे पार पाते हैं, अपने बल्ले, अपनी सोच और अपनी क्रिकेट को कितना ढालते हैं- इस पर क्रिकेट की बाकी दुनिया की नजर रहेगी। यानी मेंडिस और युवराज के बीच इस दिलचस्प जंग को जितना करीब से हो सके, देखिए। क्रिकेट की खूबसूरती से बराबर रुबरु होते रहेंगे।

Tuesday, August 19, 2008

तुम्हें टूटना नहीं है अखिल

शिकस्त के बावजूद उसके होंठों पर मुस्कान तैर रही थी। ये अहसास कराते हुए कि बेशक बॉक्सिंग रिंग में वो एक मुकाबला हार गया है लेकिन उसके लिए खेल हार और जीत से आगे की बात है। खेल उसकी जिंदगी का वो हिस्सा है, जिसे वो हार और जीत की लकीरों को मिटाकर पूरी शिद्दत से जीता है। बीजिंग की ढलती शाम में बॉक्सिंग रिंग में भारत के अखिल कुमार क्वार्टर फाइनल में अपना अहम मुकाबला हारने के बाद बार बार कुछ ऐसा ही अहसास करा रहे थे। शिकस्त के बाद उनका ये कहना उनकी सोच को और मजबूती दे रहा था-“हार तो हार है,जीत जीत है। मैं हार गया हूं लेकिन मैं मुक्केबाज हूं। मैं इतना कमजोर नहीं कि हार को स्वीकार न कर सकूं। मेरी अपनी बेहतरीन कोशिश की लेकिन शायद ये मेरा दिन नहीं था।“ लेकिन जाते जाते अखिल के मुंह से एक कड़वा सच फूट ही पड़ा। “ प्लीज डोंट फॉरगेट मी। कृपया मुझे मत भूलना।“

सचमुच, इस शिकस्त से लिपटा ये कड़वा सच था,जिसने अखिल के अवचेतन में गहरे कहीं जगह बना ली। अखिल जानते थे कि बिना विक्ट्री पोडियम पर पांव रखे घर लौटने के बाद शायद सब कुछ भुला दिया जाएगा। 24 घंटे पहले तक सर आंखों पर बैठा रहे लोग भूल जाएंगे कि रेलवे में एक मामूली कर्मचारी के रुप में काम करने वाले इस शख्स ने रिंग में वर्ल्ड चैंपियन को शिकस्त दी थी।

अब,अखिल को रिंग के बाहर एक बड़ी जंग लड़नी होगी। एक बेहतर भविष्य के तलाश में दस्ताने पहनने के जुनून को नए सिरे से, नए हौसलों से भरना होगा। अपने परिजनों के बिखरे ख्वाबों को फिर समेटना होगा। उसकी ये जंग चार साल पहले एथेंस में मिली हार से शुरु हुई थी। अब,बीजिंग से वापस उड़ान भरने के साथ वो फिर नए सिरे से शुरु होगी।

शायद,भारतीय खेलों के बीते कल और आज के बीच अखिल के जेहन में ये सब कुछ जरुर चल रहा होगा। मुकाबले के शुरु में मिली हार आपको इतना नहीं झकझोरती,जितना एक बार उम्मीदों के परवान चढ़ने के बाद उनका बिखर जाना। अखिल को लेकर जेहन में चल रही इस उथल पुथल के बीच मेरे सामने अब से आठ साल पहले सिडनी ओलंपिक में ठीक इसी मोड़ से गुरुचरण को मिली शिकस्त आ खड़ी होती है। गुरुचरण अखिल की ही तरह ठीक क्वार्टर फाइनल मुकाबले में पहुंचे थे। इतना ही नहीं, गुरुचरण ने आखिरी चरण तक भारतीय उम्मीदों को बनाए रखा था। लेकिन,रेफरी के कुछ फैसलों ने गुरुचरण को अचानक विक्ट्री पोडियम से दूर ढकेल दिया था। इस शिकस्त ने गुरुचरण के हौसलों को इस कदर तार तार कर दिया कि वो कभी देश लौटे ही नहीं। पिछले आठ साल के दौरान उनके विदेश में बसने की खबर जरुर छन छन कर आती रहीं। लेकिन,हमारी उम्मीदों को परवान चढ़ाते गुरुचरण को वापस रिंग में देखने का ख्वाब पूरा नहीं हो सका।

ठीक इसी ओलंपिक में पौलेंड के खिलाफ आखिरी लीग मुकाबले में भारतीय हॉकी टीम बढ़त लिए हुए थी। इस बढ़त को बरकरार रख भारत 20 साल बाद सेमीफाइनल में जगह बनाने की कगार पर था। लेकिन,यहां पौलेंड के एक जवाबी हमले पर कप्तान रमनदीप जैसा भरोसेमंद सेंटरहाफ भी एक लम्हे के लिए लड़खड़ाया। ठीक उनके पैरों के बीच से गेंद निकली और भारत का ख्वाब तार तार हो गया। पोलेंड के इस बराबरी के गोल ने भारत की चुनौती को लीग मुकाबलों में ही रोक दिया। रमनदीप भी इस मुकाबले के बाद अपने चहेते खेल से अचानक दूर चले गए। कुछ साल पहले उन्होंने एक बार फिर इसमें वापसी की कोशिशें शुरु की हैं-बतौर कोच।

अखिल को गुरुचरण और रमनदीप से अलग रास्ता चुनना होगा। ऐसा रास्ता,जो सबके लिए मिसाल बने। हमें भी बीजिंग से वापस लौटते अखिल की जंग में साथ खड़ा होना होगा। उसे ये हौसला देना होगा कि वो एक नए सिरे से खड़े होकर लंदन में इस बिखरे ख्वाब को फिर साकार कर सकता है। वर्ल्ड चैंपियन को शिकस्त देकर हमें मेडल का ख्वाब दिखाने वाले अखिल को हम भुला नहीं सकते। फिर, जैसा अखिल का कहना है कि मेरे नाम का मतलब ही है-न टूटने वाला। तो अखिल, तम्हें टूटना नहीं है !

Wednesday, August 13, 2008

75 सेकेंड में इतिहास को लांघते अभिनव बिंद्रा को बार बार निहारिए

ये उनकी ज़िंदगी के सबसे बेशकीमती 75 सेकेंड थे। ऐसे 75 सेकेंड,जो सुनहरे इतिहास और उनके बीच एक लकीर की तरह आ खड़े हुए थे। इन 75 सेकेंड में उनके हाथ से छूटा आखिरी निशाना उन्हें ऐसे शिखर पर काबिज कर सकता था,जहां से भारतीय खेलों की बाकी दुनिया बहुत छोटी दिखने लगती। ये भी हो सकता था कि अपने लक्ष्य से हल्की सी चूक एक बार फिर चैंपियन की स्टेज पर उन्हें खारिज कर देती।

लेकिन,नहीं। भारतीय निशानेबाज अभिनव बिंद्रा ने खारिज होने से इंकार कर दिया। ओलंपिक की सबसे मुश्किल स्टेज पर, सबसे नाजुक लम्हे पर वो डिगे नहीं। बरसों की मेहनत, अभ्यास में झोंके एक एक पल का हिसाब किताब और विक्ट्री पोडियम के इतने नज़दीक पहुंच मरीचिका की तरह भटकाव का भय। अभिनव बिंद्रा ने इन सब पहलुओं से खुद को अलग कर आखिरी बार अपनी राइफल का ट्रिगर दबाया। बंदूक की नाल से निकली गोली दशमलव पांच मिलिमीटर के लक्ष्य को भेद गई। इतने करीब और सटीकता से कि कमेन्टेटर ने बाकी निशानेबाजों का निशाना पूरा करने से पहले ही उनकी जीत का ऐलान कर दिया। गोल्ड टू अभिनव बिंद्रा।

ये ऐसे शब्द थे,जिसका हर भारतीय खेल चहेता पिछले 28 साल से इंतजार कर रहा था। हॉकी को छोड़ दें तो ओलंपिक में शिरकत करने से लेकर आज तक इन सुनहरे शब्दों का इंतज़ार करते करते एक सदी बीत गई। लेकिन, बिंद्रा का यह एक निशाना सारे इंतज़ार पर भारी पड़ गया। वो भी उस वक्त,जब देश अपने सबसे बड़े महानायक सचिन तेंदुलकर के बल्ले की फीकी पड़ती चमक को लेकर पसोपेश में है। बिंद्रा के इस एक लम्हे ने अचानक सारे जुनून को कोलंबो से बीजिंग की ओर मोड़ दिया। वरना,चार दिन पहले तक तेंदुलकर के नए शिखर की उम्मीदों के बीच खेलों का महाकुंभ भी पृष्ठभूमि में पड़ता दिख रहा था।

लेकिन,ठीक इस मोड़ से भारतीय खेल प्रेमियों के लिए बीजिंग और ओलंपिक के मायने अब सीधे सीधे अभिनव बिंद्रा से जुड़ गए हैं। बिंद्रा के इस निशाने ने इस सोच और बनी बनायी धारणा पर गहरी चोट की है कि भारतीय खिलाड़ी चैंपियंस की स्टेज पर नाकाम हैं। नाजुक मौकों पर ये चूक जाते हैं। फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह का रोम ओलंपिक में चूकना या लॉस एजेंलिस में उड़नपरी पीटी ऊषा का आखिरी कदम पर लड़खड़ाना, उम्मीदों और कामयाबी के बीच सवालों की खाई बन हमारे सामने खड़ा होता है। खशाबा जाधव के बाद लिएंडर पेस,कर्णम मल्लेश्वरी और राज्यवर्धन राठौर ने हमें विक्ट्री पोडियम तक जरुर पहुंचाया लेकिन हॉकी को छोड़ दें तो इस पोडियम पर खड़ा होकर राष्ट्रगान सुनने के इंतजार को बिंद्रा ने ही पूरा किया।

शायद,ये उम्मीदों से आगे का लम्हा है। ऐसा लम्हा,जिसकी उम्मीद बीजिंग पहुंचे हमारे अधिकारियों को भी नहीं थी। वरना,कोई वजह नहीं थी कि अभिनव के इस निशाने का गवाह बनने के लिए कुछ गिने चुने लोग ही वहां मौजूद होते। शायद, उम्मीद ही वो वजह है,जो फेलेप्स के लिए दुनिया के सबसे ताकतवर शख्स जॉर्ज बुश को ओलंपिक के स्वीमिंग सेंटर तक खींच लाती है। फेलेप्स की सुनहरी उपलब्धि के बीच बुश जैसा शख्स भी कुछ देर के लिए हाशिए पर छूट जाता है। वहां मौजूद हर शख्स सिर्फ और सिर्फ फेलेप्स तक ही पहुंचना चहता था।

वैसे,इस लम्हे की विराट अहमियत को महसूस करने में अभी बिंद्रा को भी वक्त लगेगा। शायद,यही वजह थी कि जैसे ही उन्होंने अपना आखिरी निशाना साधा, सिर्फ एक बार के लिए उनकी मुठ्ठी भिंची,उनके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आई। लेकिन,जीत के बाद दुनिया फतेह करने का उन्माद अपने तीसरे ओलंपिक में शिरकत कर रहे इस नौजवान निशानेबाज पर हावी नहीं हुआ। उनके लिए ये जैसे महज एक और जीत भर दिखायी दे रही थी।

फिर, दो साल पहले जगरेब में वर्ल्ड चैंपियनशिप में भी आखिरी निशाने पर उन्हें 10.4 अंक हासिल करने थे। इसी सूरत में वो वर्ल्ड चैंपियन बन सकते थे। वो शिखर,जहां तक कोई भारतीय निशानेबाज नहीं पहुंचा था। लेकिन,यहां भी बिंद्रा ने एक चैंपियन का जीवट दिखाते हुए 10.7 अंक के साथ यह मुकाम भी हासिल कर लिया था। शायद इसलिए सोमवार की सुबह बीजिंग में बिंद्रा इस नाजुक मोड़ पर न लड़खड़ाए और न ही जीत के बाद किसी उम्माद में डूबे। 10.8 अंक के साथ आखिरी निशाने पर उन्होंने ओलंपिक गोल्ड अपने नाम कर लिया। एक साथ,वर्ल्ड चैंपियन और ओलंपिक चैंपियन-भारतीय खेल इतिहास में इतनी ऊंचाई पर आज तक कोई खिलाड़ी नहीं पहुंच पाया है। यादों का काफिला भी गिने चुने लम्हों के आसपास सिमट जाता है। हॉकी के सुनहरे दौर के अलावा 1980 में प्रकाश पादुकोण की ऑल इंग्लैड चैंपियनशिप की कामयाबी या फिर 1983 में कपिल देव की लॉर्ड्स पर लिखी गई विजयगाथा।

बिंद्रा का हासिल किया शिखर एक टेलेंट के चैंपियन में तब्दील होने की कहानी भी है। वर्ल्ड चैंपियनशिप के दौरान पीठ के दर्द के बावजूद खिताब तक पहुंचना उनके जीवट की मिसाल है। इसी पीठ के दर्द की वजह से बिंद्रा ने एक साल तक राइफल नहीं उठायी। डॉक्टर से सर्जरी के बजाय फिजोयोथेरेपिस्ट के साथ घंटों बिताकर उन्होंने ओलंपिक के इस कड़े मंच के लिए खुद को तैयार किया। इसी दौर मे मित्तल चैंपियंस ट्रस्ट से मिली मदद ने उन्हें अपने टेलेंट को तराशने में मदद की। ओलंपिक से ठीक पहले उनके साथ माइंड एनालिस्ट दक्षिण अफ्रीका के टिमोथी हारकेनिस को जोड़ा। नतीजा साफ है कि यहां एथेंस की तरह फाइनल में पहुंचकर बिंद्रा लड़खड़ाए नहीं। उनका ओलंपिक चैंपियन बनना इस पहलू को भी पुख्ता करता है कि सरकारी मदद से अपने लक्ष्य की बाट जोहने की अब जरुरत नहीं है। ये भारतीय खेलों में टेलेंट को चैंपियन में तब्दील करने की एक नयी शुरुआत है।

अब बिंद्रा की कामयाबी के साथ सबको इंतजार रहेगा-ओलंपिक और दूसरे अंतरराष्ट्रीय मंच पर ऐसी ही सुनहरी कामयाबियों का। लेकिन,इसके लिए देखना होगा कि बिंद्रा का ये निशाना नींद में सोए भारतीय खेलों को ठीक उसी तरह जगा पाता है,जैसा कभी कपिल के जांबाजों ने 25 साल पहले लॉर्ड्स के मैदान पर इतिहास रचने के साथ किया था। अगर बिंद्रा का ये लम्हा भारतीय खेलों में एक नयी हलचल पैदा करने में कामयाब हुआ तो यह एक ना थमने वाली शुरुआत होगी। लेकिन, तब तक बिंद्रा के इस आखिरी निशाने के साथ शुरु हुए जश्न में डूब जाइए। 75 सेकेंड में इतिहास को लांघते बिंद्रा को निहारिए। आप खुद को एक नए रोमांच में डूबा महसूस करेंगे। एक बार नहीं बार बार।
[This article was first published in Dainik Bhaskar on August 12, 2008]