Wednesday, March 11, 2009

मुकम्मल तस्वीर की तलाश में तेंदुलकर

सचिन तेंदुलकर क्राइस्टचर्च के एएमआई स्टेडियम के बीचों बीच सजी २२ गज की स्टेज पर अपने रंग बिखेर कब के लौट चुके हैं। धोनी की टीम इंडिया का कारवां क्राइस्टचर्च से उड़ान भरता हुआ अब हेमिल्टन पहुंच गया है। लेकिन,क्रिकेट चाहने वालों के जेहन में सचिन रमेश तेंदुलकर के बल्ले से निकली शतकीय पारी अभी भी जारी है। दर्द से कराहते तेंदुलकर क्रीज पर एक नयी गेंद का सामना करने के लिए फिर स्टांस ले रहे हैं। उनके बल्ले से बहते स्ट्रोक एक स्लाइड शो की तरह निगाहों के सामने से गुजर रहे हैं। एक बार नहीं बार बार।

इसकी वजह ये नहीं है कि न्यूजीलैंड में पहला वनडे शतक बनाते तेंदुलकर की इस १६३ रनों की नाबाद पारी ने भारत को एक और आसान जीत दिलायी। इसलिए भी नहीं कि ये तेंदुलकर को वनडे में अपने ही १८६ रनों के शिखर से आगे ले जाने की दहलीज पर ले आयी। इसलिए भी नहीं कि इस पारी ने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में तेंदुलकर के बल्ले से शतकों के शतक के ख्वाब को हकीकत में बदलने की उम्मीद जगा दी है।

दरअसल,ये पारी आंकडों और रनों के मायावी खेल से कहीं बहुत आगे जाकर क्रिकेट की स्टेज पर तेंदुलकर होने के अक्स तलाशती एक और बेजोड़ पारी है। इस पारी में क्रीज पर मौजूद एक बल्लेबाज नहीं है। ये अपनी साधना में लीन एक कलाकार है। सिर्फ इस फर्क के साथ कि उसके हाथ में ब्रश की जगह बल्ला थमा दिया गया है। कैनवास की जगह क्रिकेट के मैदान ने ली है। अपने खेल में डूबकर उसका भरपूर आनंद लेते हुए तेंदुलकर नाम का ये जीनियस इस कैनवास पर एक और तस्वीर बनाने में जुटा है। ये रनों,रिकॉर्ड और लक्ष्य से पार ले जाती तस्वीर है।

क्रिकेट की पूरी दुनिया वैसे उसकी रची हर पेंटिग को सराहती है। लेकिन, हर दूसरे कलाकार की तरह सचिन को भी शायद अपनी एक मुकम्मल तस्वीर की तलाश है। बीस साल से लगातार अंतरराष्ट्रीय मंच पर वो अपने स्ट्रोक्स को रन में, रनों को शतक में और शतकों को नए शिखर में तब्दील कर रहे हैं। लेकिन, उनकी इस मुकम्मल तस्वीर की खोज खत्म नहीं हुई है। वो लगातार जारी है।

इसलिए,बीस साल लगातार क्रिकेट खेलने के बावजूद वो आज भी गेंद की रफ्तार, उसकी दिशा और लंबाई को गेंदबाज के हाथ से छूटने के साथ ही पढ़ लेते हैं। कदमों के मूवमेंट की हर बारीकी को तय करते हैं। क्रीज को बॉक्सिंग रिंग में तब्दील कर एक चैंपियन मुक्केबाज की तरह सधे हुए फुटवर्क के साथ स्ट्रोक्स के लिए सही पोजिशन ले लेते हैं। अपने बेहद सीधे बल्ले के मुंह को आखिरी क्षण में खोलते हैं। गेंद कभी लाजवाब कारपेट ड्राइव की शक्ल में तो कभी हवा में सीधे सीमा रेखा की ओर रुख करती है। क्राइस्टचर्च में इसी तरह उनके बल्ले से निकले १६ चौकों और पांच आसमानी छक्कों के बीच यह अहसास बराबर मजबूत होता रहा कि इस कलाकार के अवचेतन में गहरे कहीं कोई मुकम्मल तस्वीर दर्ज है। वो अपने स्टोक्स के सहारे इसे उकेरने में जुटा है। लेकिन,तस्वीर अभी भी पूरी नहीं हो पायी है। ये उसकी अपनी खड़ी की गई चुनौती है। उसे इससे पार जाना है। लेकिन,इतिहास का सच तो यही है कि कलाकार कभी अपनी मुकम्मल तस्वीर तक पहुंच ही नहीं पाता। वो केवल उसे रचने में जुटा रहता है। बस,इसे रचने के लिए वो सही मौके और सही क्षण का इंतजार करता है। ये मौका और ये लम्हा आते ही उसकी साधना शुरु हो जाती है। क्राइस्टचर्च में भी तेंदुलकर उसी मौके और लम्हे में पहुंच गए थे,जहां से उनकी अधूरी तलाश आगे बढ़ रही थी। इसीलिए ये पारी हमारे ही जेहन में जारी नहीं है। वो भी उस पारी को अभी जी रहे हैं। मुकाबले के बाद अपनी पारी का जिक्र करते तेंदुलकर के बयान पर गौर कीजिए। यहां वो क्रिकेट की बात करते हैं। विकेट की भी और माहौल की भी। लेकिन,यही जोर देकर कहते हैं कि यहां आपको इस मैदान के आकार के मुताबिक अपनी बल्लेबाजी और स्ट्रोक्स को ढालना था। तेंदुलकर ने खुद को बखूबी ढाला भी। अपनी पहचान बन चुके स्ट्रेट ड्राइव को कुछ देर के लिए भुलाते हुए उन्होंने बैटिंग क्रीज के समानांतर दोनों ओर रन बरसाए। एक नहीं,दो नहीं १२९ रन। अपनी क्रिकेट को लेकर तेंदुलकर की यही सोच उन्हें क्रिकेट के रोजमर्रा के गणित से बाहर ले जाता है। ये तेंदुलकर को क्रिकेट के दायरे से पार ला खड़ा करती है।

शायद सोच का यही धरातल है कि इसी मैच में युवराज की क्लीन स्ट्राइकिंग पावर, धोनी के ताकत भरे स्ट्रोक्स और रैना की बेहतरीन टाइमिंग से भी रनों की बरसात होती है। लेकिन,सचिन के जीनियस के सामने ये कोशिशें हाशिए पर छूट जाती हैं। इतना ही नहीं,इस नयी टीम इंडिया के ये नाम, उम्र और अनुभव में ही पीछे नहीं छूटते। अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद तेंदुलकर की इस ऊंचाई के सामने बौने दिखने लगते हैं।

तेंदुलकर आज भी टीम की रणनीति में अपनी भूमिका तय कर उसे मंजिल तक पहुंचाते हैं। कभी दूसरे छोर पर सहवाग के साथी के तौर पर तो कभी सहवाग के जल्द आउट होने पर आक्रमण की बागडोर हाथ में लेते हुए। कभी एक छोर को संभाल अपने नौजवान साथियों को क्रिकेट के गुर के साथ साथ जरुरी हौसला थमाते हुए। वो धोनी की इस टीम इंडिया के एक सदस्य हैं। उनकी विनिंग कॉम्बिनेशन की एक मजबूत कड़ी। लेकिन,इसके बावजूद वो टीम में सबसे अलग पायदान पर हैं। सचिन इस टीम के एक सदस्य,एक खिलाड़ी भर नहीं है। सचिन एक युग में तब्दील हो चुके हैं। धोनी की इस विश्व विजयी टीम में वो एक एवरेस्ट की मानिंद खड़े हैं,जिसके इर्द गिर्द बाकी खिलाड़ी पठार की तरह दिखायी देते हैं।

फिर,युग में तब्दील हो चुके तेंदुलकर आज की घटना नहीं हैं। सर डोनाल्ड ब्रैडमैन ने ९० के दशक में अपनी ड्रीम टीम में सचिन को जगह देते हुए उन्हें एक जीनियस से एक युग में बदल डाला था। तेंदुलकर एक ऐसी टीम में शुमार किए गए,जो समय,काल और देश की हदों से बाहर खड़ी थी। शायद,एक ड्रीम टीम में ही कई युगों को एक साथ समेटा जा सकता है। दिलचस्प है कि ८० के दशक में डेनिस लिली के बाद बीते २५ सालों में तेंदुलकर की अकेले खिलाड़ी हैं,जिन्हें इस टीम में जगह मिल पायी। जॉर्ज हैडली से लेकर एवरटन वीक्स तक विव रिचर्डस लेकर ब्रायन लारा तक विक्टर ट्रपर से लेकर वॉली हेमंड तक, नील हार्वे से लेकर ग्रैग चैपल तक, डेनिस कॉम्टन से लेकर ग्रीम पॉलक तक-तेंदुलकर सब को पीछे छोड़ते हुए टीम में दाखिल हुए। लेकिन,ये फैसला करते वक्त ब्रैडमैन किसी दुविधा में नही थे। उनका कहना था-ये सभी बल्लेबाज अपने प्रदर्शन में किसी बल्लेबाज से कम नहीं हैं। न आंकडों में कहीं उन्नीस ठहरते हैं। सभी खेल के महान नायक हैं। लेकिन,तेंदुलकर अलग हैं। उनके पास किले की तरह मजबूत डिफेंस हैं। साथ ही जरुरत के मुताबिक रक्षण को आक्रमण में बदलने की महारथ। और इससे भी आगे उनकी कंसिस्टेंसी। तेंदुलकर में अपनी झलक देखते ब्रैडमेन का कहना था कि उनकी बल्लेबाजी परिपूर्ण है।

बेशक,ब्रैडमैन की निगाहों में तेंदुलकर एक दशक पहले ही एक परिपूर्ण बल्लेबाज बन गए थे। लेकिन शायद तेंदुलकर को अभी भी परिपूर्णता की तलाश है। अपनी मुकम्मल तस्वीर की तलाश है। अपनी इस कोशिश के बीच वो सिर्फ एक बल्लेबाज और क्रिकेटर नहीं रह जाते। तेंदुलकर एक सोच की शक्ल ले लेते हैं। एक नजरिए में तब्दील हो जाते हैं। ये संदेश देते हुए कि क्रिकेट की किताब अब तेंदुलकर की नजर से भी लिखी जाएगी। ठीक उसी तरह जैसे सर डॉन ब्रैडमैन ने क्रिकेट को परिभाषित किया। शायद यही सचिन रमेश तेंदुलकर होने के मतलब है।

2 comments:

अनुराग अन्वेषी said...

भाई एसपी,
आपके ब्लॉग पर हमेशा आता रहा हूं। समीक्षाएं पढ़ कर खुश भी होता रहा। क्रिकेट के दूसरे समीक्षक कमजोर भी दिखते रहे, पर कभी इस कदर बाध्य नहीं हुआ कि कोई कमेंट लिखूं। सचिन पर लिखी आपकी यह टिप्पणी बाध्य कर गई कि मैं अपने मन की बात लिखूं। वाकई यह टिप्पणी अद्भुत है। इसे बगैर आपकी इजाजत के (क्षमायाचना सहित) अपने ब्लॉग पर प्रकाशित करने जा रहा हूं। कोई आपत्ति हो तो कृपया बताएं, आपके एतराज का भी सम्मान करूंगा।
कमेंट के लिए दिए गए वर्ड वेरिफिकेशन के ऑप्शन को अपने ब्लॉग से हटा दें तो बेहतर होगा।

अनुराग अन्वेषी said...

भाई एनपी।
गलत की पर अंगुली दबी और नाम एनपी से एमपी हो गया। :-)