एकदिवसीय क्रिकेट से संन्यास लेते हुए सचिन रमेश तेंडुलकर ने 23 साल तक जारी रही अपनी एक बेमिसाल यात्रा पूरी कर ली. लेकिन शायद यहीं वे अपनी जिंदगी की सबसे मुश्किल और दुरूह यात्रा की ओर भी बढ़ निकले हैं. टेस्ट क्रिकेट के रास्ते एक ऐसे क्षण की तलाश में, जहां सचिन होने के मायने नये सिरे से गढ़े जा सकें. वह क्षण जो जेंटलमेन खेल की इस 22 गज की स्टेज के इस बेजोड़ कलाकार के बल्ले से निकले 100 शतकों और 35,000 रनों से आगे जाकर एक नये सचिन तेंडुलकर से रू-ब-रू करा सके. उस मिथक को बरकरार रख सके, जहां सचिन तेंडुलकर का जीनियस रनों, आंकड़ों और उम्र की सीमाओं के पार जाकर एक शाश्वत बहते समय में तब्दील हो गया.
बीते एक साल से सचिन को लेकर सोच में रच बस गया यह मिथक धीरे-धीरे दरकने लगा है. सचिन पर भी उम्र हावी हो सकती है, सचिन भी एक सामान्य बल्लेबाज की तरह अपने विकेट को बचाने के लिए संघर्ष करने को मजबूर हो सकते हैं. टीम में उनकी मौजूदगी एक बोझ की तरह दिख सकती है. एक साल पहले तक भारतीय क्रिकेट में सचिन को लेकर कभी ऐसे सवालों से जूझने की कल्पना भी नहीं की गयी थी. कल तक सचिन के बल्ले से बहते स्ट्रोक क्रिकेट के कैनवास पर उभार लेती तसवीरों में नया रंग भरते थे. लेकिन आज सचिन के विकेट तक आसानी से पहुंचती गेंद ऐसा आभास कराती हैं, जैसे इस कलाकार के हाथ से उसका ब्रश ही छीन लिया गया हो. सचिन ने जिस स्टेज पर दो दशक तक परिकथा की मानिंद कामयाबियों की नयी से नयी इबारतें लिखी, वहीं वे आज भारी कदमों से असहाय-सा खड़ा दिखते हैं. इस सचिन से रू-ब-रू होना बेहद तकलीफदेह है.
लेकिन सवाल है कि आखिर सचिन कहां चूक गये हैं? सचिन उस क्षण को पकड़ने में चूक गये हैं, जहां से अलविदा कहते हुए उनको लेकर रचा गया मिथक हमेशा एक मिथक बन कर रह जाता. वे आज उठ रहे सवालों से पहले अपने चहेते खेल को अलविदा कह पाते. दरअसल, महानायक को लेकर बुने मिथक को लेकर कड़वा सच यह है कि बेशक उसकी कामयाबियों का एक नया आभामंडल रचते हुए इस मिथक को उसके चाहने वाले बुनते हों, लेकिन मिथक को बरकरार रखने की जिम्मेदारी सिर्फ और सिर्फ महानायक पर होती है. उसे उस क्षण को पकड़ना होता है, जहां उसकी अलविदा के साथ यह सवाल उभार लेता है कि अभी क्यों? न कि यह सवाल कि अभी क्यों नहीं?
दरअसल, प्रकृति के नियम की तरह शिखर से नीचे उतरना तय है. लेकिन महानायक को अपने चाहने वालों को ढलान के ऐसे किसी भी आभास से दूर रखना होता है. अगर महानायक उस एक क्षण को पकड़ लेता है, तो उसको लेकर बना मिथक हमेशा के लिए एक मिथक में तब्दील हो जाता है. भारतीय क्रिकेट में सुनील गावस्कर, तो पाकिस्तानी क्रिकेट में इमरान और आॅस्ट्रेलिया में गिलक्रिस्ट की विदाई में आप इसे बखूबी पड़ सकते हैं. 1987 में बेंगलुरू में इमरान खान की पाकिस्तानी टीम के खिलाफ अपने आखिरी टेस्ट में गावस्कर 96 रन की बेमिसाल पारी खेलते हैं. इमरान वर्ल्ड कप जीत के साथ क्रिकेट को अलविदा कहते हैं. गिलक्रिस्ट 2008 के एडिलेड टेस्ट में विकेट के पीछे लक्ष्मण का एक कैच छूटने के साथ ही अपने संन्यास की घोषणा कर डालते हैं . तीनों क्रिकेट से अलग होते हैं, तो इस एक सवाल के साथ कि अभी क्यों ? अभी तो बहुत क्रिकेट बाकी है. इस बाकी में ही उनके महानायक्तव को लेकर बुने मिथक को मजबूती मिलती है.
भारत के पिछले वर्ल्डकप जीतने के साथ ही इमरान खान ने कहा था कि सचिन के लिए अपने खेल को अलविदा कहने का इससे बेहतर क्षण कोई और नहीं हो सकता. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उन्होंने 99 शतक बनाये या 100 शतक . सचिन को अब कुछ साबित नहीं करना है. लेकिन सचिन अपने 100 वें शतक की कोशिश में इतना उलझे कि इंग्लैंड से आॅस्ट्रेलिया को नापने के बाद किसी तरह बंग्लादेश के खिलाफ इस आंकड़े को छू पाये. इस आंकड़े ने उन्हें क्रिकेट इतिहास की नयी दहलीज पर जरूर ला खड़ा किया, लेकिन वर्ल्डकप से 100 वें शतक के बीच यह सचिन के शिखर की ढलान थी. यहां से वापस उस शिखर को लौटने की, वे जितनी कोशिश करते रहे, उतना ही वह और मुश्किल होती गयी है.
वनडे क्रिकेट से अलग होने का फैसला करते हुए भी शायद सचिन के जेहन में फिर उसी क्षण को पकड़ने की बेताबी है. वह किसी भी तरह से टेस्ट क्रिकेट के रास्ते उस एक पल को काबू में करना चाहते हैं, जहां सवाल नयी शक्ल ले, अभी क्यों? न कि, अभी तक क्यों नहीं? अगर अब टेस्ट क्रिकेट में सचिन उस क्षण को अपनी मुट्ठी में कर लेते हैं, तो महानायक सचिन का दरकता यह मिथक नयी शक्ल लेगा. पहले से कहीं ज्यादा मजबूती के साथ. अगर, ऐसा मुमकिन हुआ तो, सचिन अपने चाहने वालों की सोच में एक ऐसे प्रवाहमान समय में तब्दील हो जायेंगे, जिनका न कोई आदि है न अंत. एक असीम सुकून में डूबा अनुभव है, जिसे हम जब चाहें जी सकें.
(प्रभात खबर के 24 दिसम्बर,2012 के अंक में प्रकाशित )