कभी गेंद पर पूरी ताकत से प्रहार कर उसे सीमा रेखा से बाहर भेजते हुए। कभी गेंद को क्षेत्ररक्षण के बीच मौजूद दरार में धकेल तेजी से बाइस गज का फासला तय करते हुए। कभी विकेटकीपर की सामान्य कद काठी से जुदा अपने गठीले बदन से गेंद की दिशा में छलांग लगाते हुए।कभी विकेटकीपिंग के लिए पंजों के बल स्टास लेने से ठीक पहले मैदान पर सजायी फिल्डिंग का मुआयना करते हुए। कभी अखबार के पन्नों पर छपे विज्ञापनों के जरिये ख़बरों से पहले निगाहों में धंसते हुए। कभी टेलीविजन स्क्रीन पर शाहरुख खान के कदमों से कदम मिलाते हुए। तो कभी तमिल सुपरस्टार रजनीकांत के अवतार में खुद को ढालते हुए। क्रिकेट की सीमारेखा के आर-पार महेंद्र सिंह धोनी की ये छवियां एक आम भारतीय की जेहन में कभी ना कभी दस्तक जरूर दे जाती हैं। उत्तर में उत्तराखंड की पृष्ठभूमि से लेकर पूर्व में झारखंड का परिवेश और दक्षिण में चेन्नई सुपरकिंग की कप्तानी की राह में धोनी, राज्य, भाषा और समुदाय की लकीरों को मिटाते हुए, एक अरब उम्मीदों को परवान चढ़ाते हमसे रू-ब-रू होते हैं।
लेकिन धोनी को लेकर मेरी सोच इन स्थापित छवियों से आगे जाकर २०-२० वर्ल्ड कप को जीतते और आईपीएल में हाथ से छिटके टाइटल के बाद उभार लेते एक अलहदा धोनी के इर्द-गिर्द सिमट जाती है। २०-२० वर्ल्ड कप में मिली खिताबी जीत के साथ ही भारतीय टीम जश्न में सराबोर है, लेकिन निगाहें भावनाओं के सैलाब से परे विकेट की ओर बढ़ते धोनी पर ठहर जाती हैं। आईपीएल के खिताबी मुकाबले की आखिरी गेंद पर राजस्थान रॉयल्स को एक रन बनाने से रोकने की चुनौती है। उस निर्णायक लम्हे में विकेटकीपर पार्थिव पटेल के दस्तानों से गेंद छिटकी और साथ ही चेन्नई सुपरकिंग्स के हाथ से खिताब। नवी मुंबई का डी वाई पाटिल स्टेडियम शेन वॉर्न की टीम के साथ जश्न में डूब गया। लेकिन अगले ही पल हार को पीछे छोड़ धोनी साथियों के कंधों को थपथपाते हैं। चेन्नई सुपरकिंग्स के सभी खिलाड़ी एक दूसरे के कंधों पर हाथ डाले घेरे की शक्ल ले लेते हैं। जीत के जश्न के बीच शिकस्त खाई धोनी की इस टीम से आप निगाहें हटा नहीं सकते।
दरअसल ये दो तस्वीरें टीम इंडिया के कप्तान धोनी की सोच का आइना हैं। ये हार और जीत के पार खड़े धोनी के करीब ले जाती छवियां हैं। इन छवियों के बीच क्रिकेट जिंदगी और मौत नहीं हैं। ये जश्न और मातम नहीं है। ये सिर्फ एक खेल है और यहां एक की जीत और दूसरे की हार तय है। आपको पूरी तरह अपने खेल में डूब कर जीत तक पहुंचने की हर मुमकिन कोशिश करनी है।
धोनी सोच के इस धरातल पर पूर्व क्रिकेटर और कोच ग्रेग चैपल की थ्योरी को मैदान पर साकार करते दिखाई देते हैं। चैपल का मानना है कि आपको नतीजों से बेपरवाह होकर सिर्फ और सिर्फ अपने खेल को डूब कर जीना चाहिये। इसकी प्रक्रिया का आनंद लेना चाहिये। धोनी पूरी शिद्दत से इसी कोशिश में जुटे रहते हैं।
इसलिए जब हार और जीत एक साथ दस्तक देने लगें तो धोनी का खेल परवान चढ़ता है। बल्लेबाजी के मोर्चे पर वो टीम को मंजिल तक पहुंचाए बिना नहीं लौटते। मैच के मोड़ के मुताबिक वो अपनी बल्लेबाजी को ढालते हैं। अगर टीम को बड़े स्ट्रोक्स की दरकार है तो वो इसमें कतई वक़्त नहीं गंवाते। वनडे ही नहीं टेस्ट में इस धोनी से रू-ब-रू हो सकते हैं। मिसाल के लिए धोनी ऑस्ट्रेलिया के ख़िलाफ मोहाली टेस्ट में ८वें नंबर पर बल्लेबाजी करते हुए ९२ रन की ताबड़तोड़ पारी खेलते हैं। ८ चौकों और ४ छक्कों से सजी इस पारी के सहारे सौरव गांगुली के साथ सातवें विकेट की शतकीय साझेदारी पूरी करते हैं। अपनी टीम को एक शुरुआती एडवांटेज दिलाते हैं । यही धोनी अगली पारी में तीसरे नंबर पर मोर्चा संभालते हैं। ८४ गेंदों पर ५५ रन की ठोस पारी से पॉन्टिंग की विश्व विजयी टीम को बैकफुट पर ला खड़ा करते हैं।
धोनी की इन्हीं कोशिशों का नतीजा है कि टेस्ट में उनकी ३३ रन की कुल औसत कप्तान धोनी के बल्ले से ५५ में तब्दील हो जाती है। वनडे में ४४ की औसत को वो कप्तानी में 57 तक खींच ले जाते हैं। इस मोड़ पर धोनी सचिन तेंदुलकर और राहुल द्रविड़ से आगे जा निकलते हैं। भारत में इन दोनों महानायकों ने अपनी बल्लेबाजी की लय को वापस पाने के लिए कप्तानी से किनारा कर लिया। लेकिन धोनी ने कप्तानी की चुनौती को स्वीकारते हुए अपनी बल्लेबाजी में नए आयाम जोड़ लिये हैं।
शायद धोनी ने टीम को कामयाबी की दहलीज तक लाने के सूत्र रांची में स्थानीय टीमों के लिए खेलते हुए पकड़े होंगे। टीम की जीत सीधे-सीधे धोनी के प्रदर्शन से जुड़ी रही होगी। धोनी इसी सोच को आज अंतर्राष्ट्रीय मंच पर विस्तार देते दिखाई देते हैं। लेकिन अपनी कामयाबी को वो अपने हर एक साथी के साथ साझा करना चाहते उनका मानना है कि “मेरी कामयाबी के मायने तभी हैं जब साथी खिलाड़ी इसमें अपनी खुशी तलाशें। हम सब एक दूसरे की कामयाबी में खुशी तलाशें”। ये बड़ी सोच धोनी की बहुत बड़ी ताकत है। गेंदबाजी के रनअप पर ईशांत शर्मा के कदम जरा से लड़खड़ाए नहीं कि जहीर खान उनके पास पहुंच जाते हैं। युवराज को उनकी लय में लौटाने के लिए सचिन आगे बढ़ कर मदद करते हैं। आपसी तालमेल का ही ये आइना है कि तेंदुलकर ने हैमिल्टन की ऐतिहासिक जीत के बाद दोहराया - इस भारतीय टीम के ड्रेसिंग रूम का माहौल बेहतरीन है। हम खेल का आनंद ले रहे हैं और परिवार की तरह एक दूसरे के साथ जुड़े हैं।
ये उस देश की क्रिकेट टीम का ड्रेसिंग रूम है जिसमें अहम के टकराव की ढेरों कहानियां हैं। इतिहास के पन्ने विजय मर्चेंट-विजय हजारे, विजय हजारे-लाला अमरनाथ, मंसूर अली खान पटौदी-चंदू बोर्डे, सुनील गावस्कर-कपिल देव, अजहरूद्दीन-नवजोत सिंह सिद्धू और सौरव गांगुली-ग्रेग चैपल के टकराव के किस्सों से भरे हैं। मगर मौजूदा टीम अलग है। दिलचस्प है कि हैमिल्टन टेस्ट जीतने वाली टीम में मुनाफ पटेल और ईशांत शर्मा को छोड़ दें तो बाकी आठ खिलाड़ियों का करियर धोनी से पहले शुरू हुआ।
धोनी की इस बेमिसाल कामयाबी के सूत्र टटोलते पूर्व भारतीय कप्तान और कोच अजीत वाडेकर का मानना है कि धोनी अपने सीनियर्स के अहम पर कभी चोट नहीं करते। खुद धोनी अपने बयान से इसे एक नया विस्तार देते हैं। हैमिल्टन की जीत के बाद धोनी ने कहा कि “उम्मीद करनी चाहिये की हम ये सीरीज जीत जाएं, ये हमारी ओर से सचिन और राहुल को एक सौगात होगी”। इस सम्मान और श्रद्धा के बाद कौन ऐसे कप्तान को अपना सर्वश्रेष्ठ नहीं देना चाहेगा। यही वजह है कि बीस साल बाद भी सचिन तेंदुलकर अपनी जीनियस की छाप छोड़ रहे हैं। वीरेंद्र सहवाग बेहतरीन फॉर्म में दिख रहे हैं। जहीर खान में वसीम अकरम की आक्रामकता और पैनेपन की झलक नज़र आ रही है। ईशांत शर्मा और गौतम गंभीर जैसे युवा खिलाड़ी अपने कप्तान की उम्मीदों पर खरा उतरने में कोई कसर नहीं रहे ।
इन कामयाबियों और सोच के बीच आगे बढ़ते धोनी को क्रिकेट आलोचक टाइगर पटौदी के बराबर खड़ा कर रहे हैं। साठ के दशक की शुरुआत में कप्तानी संभालने वाले पटौदी ने भारतीय क्रिकेट को ड्रॉ की मानसिकता से उबारते हुए जीत की नई सोच से भर डाला था। क्रिकेट इतिहासकार मिहिर बोस के मुताबिक पटौदी से पहले भारतीय क्रिकेट में ड्रॉ को एक संभावित नतीजे की तरह देखा जाता था। टाइगर पटौदी ने जीतना सिखाया ना सिर्फ घर में बल्कि घर के बाहर भी।
पटौदी ने टीम में जीतने का भरोसा जगाया तो सौरव गांगुली ने जीत की भूख पैदा की। धोनी गांगुली की इसी विरासत को और आगे बढ़ाते दिखते हैं। गांगुली ने इस दशक की शुरुआत में ऑस्ट्रेलिया को हराते हुए विदेश में जीत की नई इबारतें लिखनी शुरू कीं। न्यूजीलैंड एक अपवाद की तरह छूट गया। धोनी ने ३३ साल बाद यहां टेस्ट जीत कर इस खालीपन को भी भर दिया है।
कामयाबियों के शिखर से गुजरते धोनी की बस एक ही छवि हमारे जेहन में हावी होती जा रही है। वो छवि है कप्तान महेंद्र सिंह धोनी की। कप्तानी, जो उन्हें टीम इंडिया के एक नाजुक दौर में सौंपी गई। लेकिन धोनी ने खुद को उस भूमिका में ऐसे ढाल लिया जैसे वो नेतृत्व करने और एक नया इतिहास लिखने के लिए ही बने हों।
Monday, March 30, 2009
Wednesday, March 11, 2009
मुकम्मल तस्वीर की तलाश में तेंदुलकर
सचिन तेंदुलकर क्राइस्टचर्च के एएमआई स्टेडियम के बीचों बीच सजी २२ गज की स्टेज पर अपने रंग बिखेर कब के लौट चुके हैं। धोनी की टीम इंडिया का कारवां क्राइस्टचर्च से उड़ान भरता हुआ अब हेमिल्टन पहुंच गया है। लेकिन,क्रिकेट चाहने वालों के जेहन में सचिन रमेश तेंदुलकर के बल्ले से निकली शतकीय पारी अभी भी जारी है। दर्द से कराहते तेंदुलकर क्रीज पर एक नयी गेंद का सामना करने के लिए फिर स्टांस ले रहे हैं। उनके बल्ले से बहते स्ट्रोक एक स्लाइड शो की तरह निगाहों के सामने से गुजर रहे हैं। एक बार नहीं बार बार।
इसकी वजह ये नहीं है कि न्यूजीलैंड में पहला वनडे शतक बनाते तेंदुलकर की इस १६३ रनों की नाबाद पारी ने भारत को एक और आसान जीत दिलायी। इसलिए भी नहीं कि ये तेंदुलकर को वनडे में अपने ही १८६ रनों के शिखर से आगे ले जाने की दहलीज पर ले आयी। इसलिए भी नहीं कि इस पारी ने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में तेंदुलकर के बल्ले से शतकों के शतक के ख्वाब को हकीकत में बदलने की उम्मीद जगा दी है।
दरअसल,ये पारी आंकडों और रनों के मायावी खेल से कहीं बहुत आगे जाकर क्रिकेट की स्टेज पर तेंदुलकर होने के अक्स तलाशती एक और बेजोड़ पारी है। इस पारी में क्रीज पर मौजूद एक बल्लेबाज नहीं है। ये अपनी साधना में लीन एक कलाकार है। सिर्फ इस फर्क के साथ कि उसके हाथ में ब्रश की जगह बल्ला थमा दिया गया है। कैनवास की जगह क्रिकेट के मैदान ने ली है। अपने खेल में डूबकर उसका भरपूर आनंद लेते हुए तेंदुलकर नाम का ये जीनियस इस कैनवास पर एक और तस्वीर बनाने में जुटा है। ये रनों,रिकॉर्ड और लक्ष्य से पार ले जाती तस्वीर है।
क्रिकेट की पूरी दुनिया वैसे उसकी रची हर पेंटिग को सराहती है। लेकिन, हर दूसरे कलाकार की तरह सचिन को भी शायद अपनी एक मुकम्मल तस्वीर की तलाश है। बीस साल से लगातार अंतरराष्ट्रीय मंच पर वो अपने स्ट्रोक्स को रन में, रनों को शतक में और शतकों को नए शिखर में तब्दील कर रहे हैं। लेकिन, उनकी इस मुकम्मल तस्वीर की खोज खत्म नहीं हुई है। वो लगातार जारी है।
इसलिए,बीस साल लगातार क्रिकेट खेलने के बावजूद वो आज भी गेंद की रफ्तार, उसकी दिशा और लंबाई को गेंदबाज के हाथ से छूटने के साथ ही पढ़ लेते हैं। कदमों के मूवमेंट की हर बारीकी को तय करते हैं। क्रीज को बॉक्सिंग रिंग में तब्दील कर एक चैंपियन मुक्केबाज की तरह सधे हुए फुटवर्क के साथ स्ट्रोक्स के लिए सही पोजिशन ले लेते हैं। अपने बेहद सीधे बल्ले के मुंह को आखिरी क्षण में खोलते हैं। गेंद कभी लाजवाब कारपेट ड्राइव की शक्ल में तो कभी हवा में सीधे सीमा रेखा की ओर रुख करती है। क्राइस्टचर्च में इसी तरह उनके बल्ले से निकले १६ चौकों और पांच आसमानी छक्कों के बीच यह अहसास बराबर मजबूत होता रहा कि इस कलाकार के अवचेतन में गहरे कहीं कोई मुकम्मल तस्वीर दर्ज है। वो अपने स्टोक्स के सहारे इसे उकेरने में जुटा है। लेकिन,तस्वीर अभी भी पूरी नहीं हो पायी है। ये उसकी अपनी खड़ी की गई चुनौती है। उसे इससे पार जाना है। लेकिन,इतिहास का सच तो यही है कि कलाकार कभी अपनी मुकम्मल तस्वीर तक पहुंच ही नहीं पाता। वो केवल उसे रचने में जुटा रहता है। बस,इसे रचने के लिए वो सही मौके और सही क्षण का इंतजार करता है। ये मौका और ये लम्हा आते ही उसकी साधना शुरु हो जाती है। क्राइस्टचर्च में भी तेंदुलकर उसी मौके और लम्हे में पहुंच गए थे,जहां से उनकी अधूरी तलाश आगे बढ़ रही थी। इसीलिए ये पारी हमारे ही जेहन में जारी नहीं है। वो भी उस पारी को अभी जी रहे हैं। मुकाबले के बाद अपनी पारी का जिक्र करते तेंदुलकर के बयान पर गौर कीजिए। यहां वो क्रिकेट की बात करते हैं। विकेट की भी और माहौल की भी। लेकिन,यही जोर देकर कहते हैं कि यहां आपको इस मैदान के आकार के मुताबिक अपनी बल्लेबाजी और स्ट्रोक्स को ढालना था। तेंदुलकर ने खुद को बखूबी ढाला भी। अपनी पहचान बन चुके स्ट्रेट ड्राइव को कुछ देर के लिए भुलाते हुए उन्होंने बैटिंग क्रीज के समानांतर दोनों ओर रन बरसाए। एक नहीं,दो नहीं १२९ रन। अपनी क्रिकेट को लेकर तेंदुलकर की यही सोच उन्हें क्रिकेट के रोजमर्रा के गणित से बाहर ले जाता है। ये तेंदुलकर को क्रिकेट के दायरे से पार ला खड़ा करती है।
शायद सोच का यही धरातल है कि इसी मैच में युवराज की क्लीन स्ट्राइकिंग पावर, धोनी के ताकत भरे स्ट्रोक्स और रैना की बेहतरीन टाइमिंग से भी रनों की बरसात होती है। लेकिन,सचिन के जीनियस के सामने ये कोशिशें हाशिए पर छूट जाती हैं। इतना ही नहीं,इस नयी टीम इंडिया के ये नाम, उम्र और अनुभव में ही पीछे नहीं छूटते। अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद तेंदुलकर की इस ऊंचाई के सामने बौने दिखने लगते हैं।
तेंदुलकर आज भी टीम की रणनीति में अपनी भूमिका तय कर उसे मंजिल तक पहुंचाते हैं। कभी दूसरे छोर पर सहवाग के साथी के तौर पर तो कभी सहवाग के जल्द आउट होने पर आक्रमण की बागडोर हाथ में लेते हुए। कभी एक छोर को संभाल अपने नौजवान साथियों को क्रिकेट के गुर के साथ साथ जरुरी हौसला थमाते हुए। वो धोनी की इस टीम इंडिया के एक सदस्य हैं। उनकी विनिंग कॉम्बिनेशन की एक मजबूत कड़ी। लेकिन,इसके बावजूद वो टीम में सबसे अलग पायदान पर हैं। सचिन इस टीम के एक सदस्य,एक खिलाड़ी भर नहीं है। सचिन एक युग में तब्दील हो चुके हैं। धोनी की इस विश्व विजयी टीम में वो एक एवरेस्ट की मानिंद खड़े हैं,जिसके इर्द गिर्द बाकी खिलाड़ी पठार की तरह दिखायी देते हैं।
फिर,युग में तब्दील हो चुके तेंदुलकर आज की घटना नहीं हैं। सर डोनाल्ड ब्रैडमैन ने ९० के दशक में अपनी ड्रीम टीम में सचिन को जगह देते हुए उन्हें एक जीनियस से एक युग में बदल डाला था। तेंदुलकर एक ऐसी टीम में शुमार किए गए,जो समय,काल और देश की हदों से बाहर खड़ी थी। शायद,एक ड्रीम टीम में ही कई युगों को एक साथ समेटा जा सकता है। दिलचस्प है कि ८० के दशक में डेनिस लिली के बाद बीते २५ सालों में तेंदुलकर की अकेले खिलाड़ी हैं,जिन्हें इस टीम में जगह मिल पायी। जॉर्ज हैडली से लेकर एवरटन वीक्स तक विव रिचर्डस लेकर ब्रायन लारा तक विक्टर ट्रपर से लेकर वॉली हेमंड तक, नील हार्वे से लेकर ग्रैग चैपल तक, डेनिस कॉम्टन से लेकर ग्रीम पॉलक तक-तेंदुलकर सब को पीछे छोड़ते हुए टीम में दाखिल हुए। लेकिन,ये फैसला करते वक्त ब्रैडमैन किसी दुविधा में नही थे। उनका कहना था-ये सभी बल्लेबाज अपने प्रदर्शन में किसी बल्लेबाज से कम नहीं हैं। न आंकडों में कहीं उन्नीस ठहरते हैं। सभी खेल के महान नायक हैं। लेकिन,तेंदुलकर अलग हैं। उनके पास किले की तरह मजबूत डिफेंस हैं। साथ ही जरुरत के मुताबिक रक्षण को आक्रमण में बदलने की महारथ। और इससे भी आगे उनकी कंसिस्टेंसी। तेंदुलकर में अपनी झलक देखते ब्रैडमेन का कहना था कि उनकी बल्लेबाजी परिपूर्ण है।
बेशक,ब्रैडमैन की निगाहों में तेंदुलकर एक दशक पहले ही एक परिपूर्ण बल्लेबाज बन गए थे। लेकिन शायद तेंदुलकर को अभी भी परिपूर्णता की तलाश है। अपनी मुकम्मल तस्वीर की तलाश है। अपनी इस कोशिश के बीच वो सिर्फ एक बल्लेबाज और क्रिकेटर नहीं रह जाते। तेंदुलकर एक सोच की शक्ल ले लेते हैं। एक नजरिए में तब्दील हो जाते हैं। ये संदेश देते हुए कि क्रिकेट की किताब अब तेंदुलकर की नजर से भी लिखी जाएगी। ठीक उसी तरह जैसे सर डॉन ब्रैडमैन ने क्रिकेट को परिभाषित किया। शायद यही सचिन रमेश तेंदुलकर होने के मतलब है।
इसकी वजह ये नहीं है कि न्यूजीलैंड में पहला वनडे शतक बनाते तेंदुलकर की इस १६३ रनों की नाबाद पारी ने भारत को एक और आसान जीत दिलायी। इसलिए भी नहीं कि ये तेंदुलकर को वनडे में अपने ही १८६ रनों के शिखर से आगे ले जाने की दहलीज पर ले आयी। इसलिए भी नहीं कि इस पारी ने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में तेंदुलकर के बल्ले से शतकों के शतक के ख्वाब को हकीकत में बदलने की उम्मीद जगा दी है।
दरअसल,ये पारी आंकडों और रनों के मायावी खेल से कहीं बहुत आगे जाकर क्रिकेट की स्टेज पर तेंदुलकर होने के अक्स तलाशती एक और बेजोड़ पारी है। इस पारी में क्रीज पर मौजूद एक बल्लेबाज नहीं है। ये अपनी साधना में लीन एक कलाकार है। सिर्फ इस फर्क के साथ कि उसके हाथ में ब्रश की जगह बल्ला थमा दिया गया है। कैनवास की जगह क्रिकेट के मैदान ने ली है। अपने खेल में डूबकर उसका भरपूर आनंद लेते हुए तेंदुलकर नाम का ये जीनियस इस कैनवास पर एक और तस्वीर बनाने में जुटा है। ये रनों,रिकॉर्ड और लक्ष्य से पार ले जाती तस्वीर है।
क्रिकेट की पूरी दुनिया वैसे उसकी रची हर पेंटिग को सराहती है। लेकिन, हर दूसरे कलाकार की तरह सचिन को भी शायद अपनी एक मुकम्मल तस्वीर की तलाश है। बीस साल से लगातार अंतरराष्ट्रीय मंच पर वो अपने स्ट्रोक्स को रन में, रनों को शतक में और शतकों को नए शिखर में तब्दील कर रहे हैं। लेकिन, उनकी इस मुकम्मल तस्वीर की खोज खत्म नहीं हुई है। वो लगातार जारी है।
इसलिए,बीस साल लगातार क्रिकेट खेलने के बावजूद वो आज भी गेंद की रफ्तार, उसकी दिशा और लंबाई को गेंदबाज के हाथ से छूटने के साथ ही पढ़ लेते हैं। कदमों के मूवमेंट की हर बारीकी को तय करते हैं। क्रीज को बॉक्सिंग रिंग में तब्दील कर एक चैंपियन मुक्केबाज की तरह सधे हुए फुटवर्क के साथ स्ट्रोक्स के लिए सही पोजिशन ले लेते हैं। अपने बेहद सीधे बल्ले के मुंह को आखिरी क्षण में खोलते हैं। गेंद कभी लाजवाब कारपेट ड्राइव की शक्ल में तो कभी हवा में सीधे सीमा रेखा की ओर रुख करती है। क्राइस्टचर्च में इसी तरह उनके बल्ले से निकले १६ चौकों और पांच आसमानी छक्कों के बीच यह अहसास बराबर मजबूत होता रहा कि इस कलाकार के अवचेतन में गहरे कहीं कोई मुकम्मल तस्वीर दर्ज है। वो अपने स्टोक्स के सहारे इसे उकेरने में जुटा है। लेकिन,तस्वीर अभी भी पूरी नहीं हो पायी है। ये उसकी अपनी खड़ी की गई चुनौती है। उसे इससे पार जाना है। लेकिन,इतिहास का सच तो यही है कि कलाकार कभी अपनी मुकम्मल तस्वीर तक पहुंच ही नहीं पाता। वो केवल उसे रचने में जुटा रहता है। बस,इसे रचने के लिए वो सही मौके और सही क्षण का इंतजार करता है। ये मौका और ये लम्हा आते ही उसकी साधना शुरु हो जाती है। क्राइस्टचर्च में भी तेंदुलकर उसी मौके और लम्हे में पहुंच गए थे,जहां से उनकी अधूरी तलाश आगे बढ़ रही थी। इसीलिए ये पारी हमारे ही जेहन में जारी नहीं है। वो भी उस पारी को अभी जी रहे हैं। मुकाबले के बाद अपनी पारी का जिक्र करते तेंदुलकर के बयान पर गौर कीजिए। यहां वो क्रिकेट की बात करते हैं। विकेट की भी और माहौल की भी। लेकिन,यही जोर देकर कहते हैं कि यहां आपको इस मैदान के आकार के मुताबिक अपनी बल्लेबाजी और स्ट्रोक्स को ढालना था। तेंदुलकर ने खुद को बखूबी ढाला भी। अपनी पहचान बन चुके स्ट्रेट ड्राइव को कुछ देर के लिए भुलाते हुए उन्होंने बैटिंग क्रीज के समानांतर दोनों ओर रन बरसाए। एक नहीं,दो नहीं १२९ रन। अपनी क्रिकेट को लेकर तेंदुलकर की यही सोच उन्हें क्रिकेट के रोजमर्रा के गणित से बाहर ले जाता है। ये तेंदुलकर को क्रिकेट के दायरे से पार ला खड़ा करती है।
शायद सोच का यही धरातल है कि इसी मैच में युवराज की क्लीन स्ट्राइकिंग पावर, धोनी के ताकत भरे स्ट्रोक्स और रैना की बेहतरीन टाइमिंग से भी रनों की बरसात होती है। लेकिन,सचिन के जीनियस के सामने ये कोशिशें हाशिए पर छूट जाती हैं। इतना ही नहीं,इस नयी टीम इंडिया के ये नाम, उम्र और अनुभव में ही पीछे नहीं छूटते। अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद तेंदुलकर की इस ऊंचाई के सामने बौने दिखने लगते हैं।
तेंदुलकर आज भी टीम की रणनीति में अपनी भूमिका तय कर उसे मंजिल तक पहुंचाते हैं। कभी दूसरे छोर पर सहवाग के साथी के तौर पर तो कभी सहवाग के जल्द आउट होने पर आक्रमण की बागडोर हाथ में लेते हुए। कभी एक छोर को संभाल अपने नौजवान साथियों को क्रिकेट के गुर के साथ साथ जरुरी हौसला थमाते हुए। वो धोनी की इस टीम इंडिया के एक सदस्य हैं। उनकी विनिंग कॉम्बिनेशन की एक मजबूत कड़ी। लेकिन,इसके बावजूद वो टीम में सबसे अलग पायदान पर हैं। सचिन इस टीम के एक सदस्य,एक खिलाड़ी भर नहीं है। सचिन एक युग में तब्दील हो चुके हैं। धोनी की इस विश्व विजयी टीम में वो एक एवरेस्ट की मानिंद खड़े हैं,जिसके इर्द गिर्द बाकी खिलाड़ी पठार की तरह दिखायी देते हैं।
फिर,युग में तब्दील हो चुके तेंदुलकर आज की घटना नहीं हैं। सर डोनाल्ड ब्रैडमैन ने ९० के दशक में अपनी ड्रीम टीम में सचिन को जगह देते हुए उन्हें एक जीनियस से एक युग में बदल डाला था। तेंदुलकर एक ऐसी टीम में शुमार किए गए,जो समय,काल और देश की हदों से बाहर खड़ी थी। शायद,एक ड्रीम टीम में ही कई युगों को एक साथ समेटा जा सकता है। दिलचस्प है कि ८० के दशक में डेनिस लिली के बाद बीते २५ सालों में तेंदुलकर की अकेले खिलाड़ी हैं,जिन्हें इस टीम में जगह मिल पायी। जॉर्ज हैडली से लेकर एवरटन वीक्स तक विव रिचर्डस लेकर ब्रायन लारा तक विक्टर ट्रपर से लेकर वॉली हेमंड तक, नील हार्वे से लेकर ग्रैग चैपल तक, डेनिस कॉम्टन से लेकर ग्रीम पॉलक तक-तेंदुलकर सब को पीछे छोड़ते हुए टीम में दाखिल हुए। लेकिन,ये फैसला करते वक्त ब्रैडमैन किसी दुविधा में नही थे। उनका कहना था-ये सभी बल्लेबाज अपने प्रदर्शन में किसी बल्लेबाज से कम नहीं हैं। न आंकडों में कहीं उन्नीस ठहरते हैं। सभी खेल के महान नायक हैं। लेकिन,तेंदुलकर अलग हैं। उनके पास किले की तरह मजबूत डिफेंस हैं। साथ ही जरुरत के मुताबिक रक्षण को आक्रमण में बदलने की महारथ। और इससे भी आगे उनकी कंसिस्टेंसी। तेंदुलकर में अपनी झलक देखते ब्रैडमेन का कहना था कि उनकी बल्लेबाजी परिपूर्ण है।
बेशक,ब्रैडमैन की निगाहों में तेंदुलकर एक दशक पहले ही एक परिपूर्ण बल्लेबाज बन गए थे। लेकिन शायद तेंदुलकर को अभी भी परिपूर्णता की तलाश है। अपनी मुकम्मल तस्वीर की तलाश है। अपनी इस कोशिश के बीच वो सिर्फ एक बल्लेबाज और क्रिकेटर नहीं रह जाते। तेंदुलकर एक सोच की शक्ल ले लेते हैं। एक नजरिए में तब्दील हो जाते हैं। ये संदेश देते हुए कि क्रिकेट की किताब अब तेंदुलकर की नजर से भी लिखी जाएगी। ठीक उसी तरह जैसे सर डॉन ब्रैडमैन ने क्रिकेट को परिभाषित किया। शायद यही सचिन रमेश तेंदुलकर होने के मतलब है।
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